श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य ‘मरघट यात्रा).   

☆ व्यंग्य # 105 ☆ मरघट यात्रा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मैं मर चुका था, काफी देर हो चुकी थी। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और सबको देखता रह गया …. तब भी लोगों ने सोचा कहीं डाक्टर तो नहीं मर गया। 

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं,इतने देर से मैं मरा पड़ा हूं और लोग-बाग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता, गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, बहाने बनाता रहा, शरीर फैलता रहा, वजन कम नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको उधार दिया था उनमें से तीन किसी प्रकार कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। बाकी तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी। किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी भाग खड़े हुए।

तब मैंने भी सोचा कि चार दोस्तों के कंधों पर जब पांचवा सवार होता है तो वे उसे मरघट पहुंचा के ही दम लेते हैं, इसलिए उठकर बैठ जाना ही अच्छा है, और मैं उठकर बैठ गया तो सब भूत भूत चिल्लाते हुए भाग गए…….

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर कोई मानने तैयार नहीं है क्योंकि इन दिनों लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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Shyam Khaparde

जय प्रकाश पांडे भाई क्या बेहतरीन व्यंग लिखा है, वाकई सच झूठ के नीचे दब गया है और छटपटा रहा है