डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा अंगना में फिर आ जा रे……   बेहद भावुक लघुकथा ।  स्त्री / बेटी पर अत्याचार पर घटना घटित होने के पश्चात सभी अपनी अपनी राय रखते हैं किन्तु कोई यह नहीं सोचता कि पीड़िता क्या सोच रही है ?  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को मानवीय रिश्तों और दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 46 ☆

☆  लघुकथा – अंगना में फिर आ जा रे —-  

सामूहिक बलात्कार की शिकार उस लड़की की साँसें अभी चल रही थीं। हर पल जीवन का मृत्यु से संघर्ष था। ऐसा लगता था कि बार-बार कोमा में जानेवाली वह लड़की शारीरिक तकलीफों से ही नहीं, अपने आहत मन से भी जूझ रही थी। उस पर हुए अत्याचार की कल्पना से मन काँप उठता था। कैसे झेला होगा उसने अपने शरीर पर अमानवीय अत्याचार? अत्याचारी एक नहीं, चार या पाँच? जितनी बार सुना मन पीड़ा से तड़प उठा। सब तरफ चर्चा थी कि वह लड़की बचेगी कि नहीं। शारीरिक हवस ही नहीं अपनी विकृत भावनाओं की पूर्ति कर उन्होंने उस लड़की का शरीर तार-तार कर दिया था। सबकी नजरें टी.वी. पर लगी थीं।  इसी बीच अचानक कोई कह देता– “मर ही जाना चाहिए इस लड़की को। बच भी गई तो कैसे जिएगी इस शरीर के साथ —–?

बहुत तरह के विचार मेरे मन में भी आते थे फिर भी ‘उसे मर जाना चाहिए’ यह वाक्य मुझे छलनी कर देता। लोगों की वाणी में सत्य बोल रहा था, यह मैं जानती थी फिर भी …… ? मेरी कल्पना में बार-बार वह सपना आता था जो उस लड़की ने लोकल ट्रेन में चढ़ने से पहले अपने मित्र के साथ देखा होगा। उत्साहित, प्रफुल्लित, हाथ में हाथ डाले वह घूमी होगी उसके साथ, आनेवाले खतरे से एकदम अनजान, बेखबर।

समाचार-पत्र, न्यूज चैनलों की खबरों से परेशान मैं सोचने लगी कि वह लड़की क्या चाहती है, यह तो कोई सोच ही नहीं रहा। किसी के जीवन-मृत्यु के बारे में निर्णय करनेवाले हम  होते कौन हैं? हमें क्या अधिकार है इस विषय में कुछ भी बोलने का? काश ! वह लड़की कोमा से बाहर आ जाए और माँ से कुछ बोले। अपनी लाड़ली का हाथ पकड़े बैठी माँ भी तो उससे कितना कुछ कहना चाहती होगी?  कितने सपने देखे होंगे उसने अपनी बेटी के लिए? ऐसा लग रहा था बेटी के साथ माँ भी तिल-तिल मर रही है।

तभी खबर आई -लड़की होश में आ गई। होश में आते ही उसने क्षीण आवाज में माँ से कहा— “माँ ! मैं जीना चाहती हूँ। मुझे ठीक होना है, उन लोगों को सजा दिलानी है।” आँसुओं को पोंछते हुए माँ ने बेटी के कमजोर हाथों को सहलाया और भर्राई आवाज में बोली—तू जिएगी बेटी, जरूर जिएगी! माँ की आस बँध रही थी, सिसकते हुए वह गुनगुना रही थी – ओ री चिरैया, नन्हीं-सी चिड़िया ! अंगना में फिर आ जा रे…..।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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भरत झंवर

पूरी घटना को पढकर में सुन्न रह गया। सच में समाज की विचारधारा बदलना आवश्यक है। तभी चलके परिवर्तन आयेगा। संस्काअच्छे देना समय की मांग हो चुकी है।

richa sharma

भरत धन्यवाद