श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 74 – चेत जाओ ! 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। देखता हूँ कि साठ से ऊपर की एक स्त्री है संभवतः जिसके स्वरयंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर बस इतना कि बच्चे के स्वर को बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है जबकि यह स्वर बिना थके इतना लगातार है कि खीज़ पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख की ज़द से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा से वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती, बेंच पर बैठे एक यात्री से अकस्मात उसका बैग छीनने लगी। उस स्टेशन से रोज़ यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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माया कटारा

चेत जाओ – शिक्षाप्रद अभिवादन