श्री विजय कुमार
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी की लघुकथा “धन बनाम ज्ञान ”।)
☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆
दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।
आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।
“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।
“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।
“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”
“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”
“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”
“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, रितेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”
“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, रितेश ने कहा।
“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।
“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर रितेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।
© श्री विजय कुमार
सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)
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