श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “आग बबूला होना”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 112 ☆

☆ आग बबूला होना ☆ 

आग और बबूल दोनों ही उपयोगी होने के साथ- साथ यदि असावधानी बरती तो घातक सिद्ध होते हैं। व्हाट्सएप समूहों में जोड़ने की परम्परा तो बढ़ती जा रही है। पहले स्वतः जोड़ना, फिर हट जाने पर  जोड़ने वाले द्वारा इनबॉक्स में ज्ञान मिलना ये सब आम बात होती है। बिना अनुमति के समूह से जोड़ने पर एक मैडम ने कहा मैं लिखती नहीं लिखवाती हूँ। तो एडमिन को भी गुस्सा आ गया। क्या लिखतीं हैं? मैंने तो कभी कुछ पढ़ा ही नहीं।

यही तो मैं भी कह रही हूँ कि मैं एक प्रतिष्ठित पत्रिका की सम्पादक हूँ मुझे तो केवल अच्छा पढ़ने की जरूरत है जिससे लोगों का आँकलन कर उनसे टीम वर्क करवाया जा सके। लिखने का कार्य तो सहयोगी करते हैं।

अब बातकर्म पर आ टिकी थी। इसके महत्व तो ज्ञानी विज्ञानी सभी बताते हैं  कोई ध्यान योग, कोई कर्म योग तो कोई भोग विलास के साधक बन जीवन जिये जा रहे हैं।

जो कर्मवान है उसकी उपयोगिता तभी तक है  जब उसका कार्य पसंद आ रहा है जैसे ही वो अनुपयोगी हुआ उसमें तरह-तरह के दोष नज़र आने लगते हैं।

बातों ही बातों में एक कर्मवान व्यक्ति की कहानी याद आ गयी जो सबसे कार्य लेने में बहुत चतुर था परन्तु किसी का भी  कार्य करना हो तो  बिना लिहाज   मना कर  देता  अब धीरे – धीरे सभी लोग दबी  जबान से उसका विरोध करने लगे, जो स्वामिभक्त लोग थे वे भी उसके अवसरवादी प्रवृत्ति से नाख़ुश रहते ।

एक दिन बड़े जोरों की बरसात हुई  कर्मयोगी का सब कुछ बाढ़ की चपेट में बर्बाद हो गया। अब वो जहाँ भी जाता उसे ज्ञानी ही मिल रहे थे, लोग सच ही कहते हैं जब वक्त बदलता है तो सबसे पहले वही बदलते हैं जिन पर सबसे ज्यादा विश्वास हो। किसी ने उसकी मदद नहीं कि वो वहीं उदास होकर अपने द्वारा किये आज तक के कार्यों को याद करने लगा कि किस तरह वो भी ऐसा ही करता था, इतनी चालाकी और सफाई से कि किसी को कानों कान खबर भी न होती।

पर कहते हैं न कि जब ऊपर वाले कि लाठी पड़ती है तो आवाज़ नहीं होती।  दूध का दूध पानी का पानी अलग हो जाता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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