श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “श्री गणेश उन्नयन…”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 136 ☆
☆ लघुकथा श्री गणेश उन्नयन…
नदी किनारे रबर की ट्यूब लिए बैठी माधवी अपने 4 साल के बेटे को समझा रही थी… बेटा अभी जितने भी गणपति आएंगे उन सभी को विसर्जित करना है। तुम यहीं तट पर बैठना कुछ प्रसाद और रुपये मिल जायेगा।
बेटा शिबू मन ही मन सोच रहा था क्या इनमें से एक गणपति को हम अपने घर नहीं ले जा सकते क्या?
झोपड़ी में रहने वाले क्या गणेश जी नहीं बिठा सकते? आखिर ये विसर्जन के लिए ही तो आए हैं, क्या हमारे यहां बप्पा बाकी दिनों में नहीं रह सकते?
मन में उठे सवालों को लेकर दौड़ कर अपने आई (माँ) के पास गया और बहुत ही भोलेपन से कहा… “आई, इसमें से जो सबसे सुंदर गणपति बप्पा होंगे उसे आप नदी में नहीं भेजना। हम अपने साथ घर ले जाएंगे और पूजा करेंगे। जैसे बप्पा सब को बहुत सारा पैसा देते हैं, हमें कुछ दिनों बाद देंगे परंतु, तुम मुझे एक बप्पा इनमें से लेने देना।“
अचानक तेज बारिश होने लगी गणपति विसर्जन के लिए जितने भी भक्त आए थे। सब किनारे में रखकर घर भागने लगे। किसी ने कहा… “ए बाई! यह पैसे रखो और गहरे में जाकर विसर्जित कर देना।“
हाँ साहब हम ट्यूब में बिठा कर ले जाएंगी और आपके बप्पा को नदी में विसर्जित कर देंगे। उसके मन में उठे सवाल और बेटे की बात! क्या गणपति को हम नहीं ले सकते?
भीड़ कम होने पर रखे गणपति मूर्तियों को देख मां ने कहा… “बेटा, तुम्हें जो गणपति बप्पा चाहिए बताओ।”
बेटे की खुशी का ठिकाना ना रहा बारिश बंद होने पर आगे-आगे शिबू फूटे पीपे को जोर – जोर से बजाते हुए चिल्लाते जा रहा था… “गणपति बप्पा मोरिया, गणपति बप्पा मोरिया”
और माधवी सर पर गणपति जी को उठाए अपने घर की ओर सरपट चल रही थीं। वह नहीं जानती थी कि यह सही है या नहीं किन्तु, शायद बप्पा को भी उनके साथ जाना अच्छा लग रहा था।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈