श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “माता की चुनरी ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 155 ☆
🌹 लघुकथा 🌹 🚩 माता की चुनरी 🚩❤️
सुशील अपनी धर्मपत्नी सुरेखा के साथ बहुत ही सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था। सदा अच्छा बोलना सब के हित की बातें सोचना, उसके व्यक्तित्व की पहचान थी।
दोनों पति-पत्नी अपने घर परिवार की सारी जरूरतें भी पूरी करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ सहयोग की भावना से भरपूर जीवन बहुत ही आनंदित था। परंतु कहीं ना कहीं कहते हैं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर होता है। विवाह के कई वर्षों के उपरांत भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सका था।.
सुशील का प्रतिदिन का नियम था ऑफिस से छुट्टी होते ही गाड़ी पार्किंग के पास पहुंचने से पहले बैठी फल वाली एक सयानी बूढ़ी अम्मा से चाहे थोड़ा सा फल लेता, परंतु लेता जरूर था। बदले में उसे दुआएँ मिलती थी और वह उसे पैसे देकर चला जाता।
आज महागौरी का पूजन था। जल्दी-जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। अम्मा ने देखा कि आज वह बिना फल लिए जा रहा है उसने झट आवाज लगाई… “बेटा ओ बेटा आज बूढ़ी माँ से कुछ फल लिए बिना ही जा रहा है।” विचारों का ताना-बाना चल रहा था सुशील ने कहा…. “आज कन्या भोज है मुझे जल्दी जाना है कल ले लूंगा।”
अम्मा ने कहा… “फल तो लेता जा कन्या भोज में बांट देना।” पन्नी में दो तीन दर्जन केले वह देने लगी सुशील झुक कर लेने लगा और मजाक से बोला…. “इतने सालों से आप आशीर्वाद दे रही हो पर मुझे आज तक नहीं लगा।” कह कर वह हँसने लगा।
उसने देखा अम्मा की साड़ी का आँचल जगह-जगह से फटा हुआ है। और वह कह रही थी… “तेरी मनोकामना पूरी होते ही माता को चुनरी जरूर चढ़ा देना।”
जल्दी-जल्दी वह फल लेकर घर की ओर बढ़ चला। घर पहुँचने पर घर में कन्याएँ दिखाई दे रही थी और साथ में कुछ उनके रिश्तेदार भी दिखाई दे रहे थे।
माँ और पिताजी सामने बैठे बातें कर रहे थे और सभी को हँसते हुए मिठाई खिला रहे थे।” क्या बात है? आज इतनी खुशी हमेशा तो कन्या भोजन होता है परंतु आज इतनी सजावट और खुशहाली क्यों?” अंदर गया बधाइयों का तांता लग गया।
“बधाई हो तुम पापा बनने वाले हो!” सुशील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा सुरेखा ने हाँ में सिर हिलाया। शाम ढलने वाली थी सुशील की भावना को समझ सुरेखा ने मन ही मन हाँ कह कर तैयारी में जुट गई।
सुशील बाहर निकल कर गया। साड़ी की दुकान से साड़ी चुनरी और जरूरत का सामान ले वह फल वाली अम्मा के पास पहुँचा और कहा… “अभी घर पर आपको फलों की टोकरी सहित बुलाया है। चलो।” अम्मा ने कहा… “थोड़े से फल बच्चे हैं बेटा बेंच लूं।” सुशील ने कहा….. “नहीं इसी को टोकरी में डाल लो और अभी मेरे साथ गाड़ी में चलो।” उसने सोचा नेक दिल इंसान है और प्रतिदिन मेरे से सौदा लेता है। हमेशा आने को कहता है आज चली जाती हूं उनके घर।
दरवाजे पर पहुँचते ही उसकी टोकरी को रख सुशील उसे दरवाजे पर ले आया। सामने चौकी बिछी थी उसमें बिठाने लगा। वह आश्चर्यचकित थी परंतु हाथ पकड़कर उसने उसे बिठा दिया। फूलों का हार और सुंदर सी साड़ी चुनर लिए सुरेखा आई।
साड़ी भेंट कर वह हार पहना चुनर ओढा रही थी। अब तो अम्मा को सब समझ में आ गया। खुशी से वह नाचने लगी। सभी की आँखें खुशी से नम थी। सुशील की आँखों से बहते आँसू देख, अपने हथेलियों पर वह रखते हुए बोली… “मोती है इसे बचा कर रखना बिदाई पर देने पड़ेंगे।” आशय समझकर सुशील हंसने लगा। माता रानी के जयकारे लगने लगे।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈