डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “बेटी“.)

☆ लघुकथा – बेटी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

‘तू मेरी पालिता बेटी है पुत्तर’। मां ने कहा तो बेटी अंदर तक सिहर गई।

‘क्या कह रही हो माँ, कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है’।

‘ना बेटी ना, अब समय आ गया है तुझे सच्चाई बताने का, फिर कहीं मौका मिला नहीं मिला तो’।

शालिनी को बहू बेटे ने घर से निकाल दिया था। जिंदगी के अंतिम समय में वह बेटी के घर निर्वासित जिंदगी जी रही थी।

बहू अपने पति से एक की दो लगाती। दिन भर उसे भूखा रखती, तिल तिल जलाती। एक-एक दिन उसे एक वर्ष जैसा बीत रहा था। माँ की यह हालत देखकर बेटी उसे अपने घर ले आई। बेटी ने माँ को हाथों हाथ रखा। अपने हाथों से नहलाती धुलाती। समय से भोजन कराती। उसके अपरस हुए हाथों की गदेलियों में अपने हाथ से दवा लगाती।

एक दिन मां बोली – ‘तूने मेरी नरक होती जिंदगी को संभाल दिया है बेटी। अपने बेटे के घर होती तो अब तक मेरे चित्र पर माला टांग दी गई होती’।

बेटी ने माँ के बहते हुए आंसुओं को पोंछ डाला। बेटी के गले लग कर रोती हुई माँ आंसुओं के सैलाब में डूब गई। रोते-रोते मां के अस्फुट स्वरों में अनजाने ही निकल गया – ‘तू तो मेरी पालिता बेटी है – – इतनी सेवा तो मेरी सगी बेटी भी नहीं करती। तेरी असली माँ तो तुझे अंधेरे में मेरे दरवाजे पर छोड़कर चली गई थी’।

बेटी अवाक थी। एकदम हतप्रभ हो गई थी। जिंदगी का सच माँ से ज्यादा कौन जान सकता था भला। पर माँ ने इस सच को अब तक क्यों छुपाए रखा था। एकदम सगी बेटी का प्यार दिया था। वह रोने लगी थी। रोते-रोते माँ के पैर पकड़ कर बोली – ‘इस सत्य को झुठलादे माँ। अब तू ही मेरी माँ है। मैंने तुझमें माँ के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए हैं। मैं तेरी पालिता बेटी बनकर नहीं रह सकूंगी’।

अब माँ बेटी दोनों रो रही थी। लगातार हिचकियों पर हिचकियां ले रही थी। माँ को अंतिम हिचकी आई और उसका निर्जीव शरीर बेटी के हाथों में झूल गया।

आज बेटी माँ की भी माँ बन गई थी।

* * * *

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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