श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी  “बाबा का घर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 191 ☆

कहानी — बाबा का घर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दीनानाथ अपने दोस्त केशवराम के घर आए हुए थे. उसी समय केशवराम अपने मकान के कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे. यह देख कर दीनानाथ कुर्सी से उठ बैठे. केशवराम के पास पहुंच गए. तुरंत हाथ पकड़ कर बोले, ” केशव ! भूल कर हस्ताक्षर मत करना.”

यह सुन कर केशवराम का पेन हाथ में रूक गया, ” अरे भाई ! क्या हुआ ? ” उन्हों ने दीनानाथ की आंखों में बरसती चिंगारी देख कर कहा,  ” ये सब संपत्ति इन्हीं की है. आज नहीं रो कल इन्ही के पास जाना है. फिर .. ”

” ना भाई ना ! जिदंगी में भूल कर ऐसा मत करना, ”  कहते हुए दीनानाथ ने हाथ से कागज और कलम छीन ली,  ” अन्यथा तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में दिन काटना पड़ेंगे,” यह कहते हए उन की आंखों से आंसू निकल पड़े.

पास ही योगेश खड़ा था. उस ने दीनानाथ को पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया. फिर उन से कहा, ” अरे बाबा ! सभी तो आप गिर जाते .” कहते हुए योगेश सीधा खड़ा हो गया.

” मुझे हाथ मत लगा योगेश, ” दीनानाथ ने कहा,  ” सभी बेटे एक जैसे होते हैं. शुरूशुरू में ऐसी ही बातें करते हैं.”

इस पर दूर खड़ी कोमलांगी से रहा नहीं गया. वह बोली, ”  बाबा ! आप गलत सोच रहे हैं. वह बात नहीं है….”  उस ने कुछ कहना चाहा कि दीनानाथ बीच में ही बोले, ”  मुझे पता है कि बात क्या है,”  कहने के साथ उन्हों ने केशवराम को देख कर कहा,  ” भाभीजी नहीं दिख रही है. यदि वे होती तो ….”

योगेश ने आगे बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा. उस ने अपनी पत्नी से कहा, ”  कोमल ! बाबा के लिए चाय बना ला.”  वह नहीं चाहता था कि बात का बतंगड बने. बिना बात के कोमलांगी दीनानाथ से उलझ पड़े. 

कोमलांगी उठी. चाय बनाने चली गई. योगेश ने वहां रूकना उचित नहीं समझा. वह पत्नी के पीछे चल दिया, ” मैं पानी ले कर आता हूं बाबा .”

उस के जाते ही दीनानाथ ने कहा, ” केशव ! तूझे मेरी कसम. कभी इन के चारे मत लगना. नहीं तो तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में शरण लेनी पडेगी,” कहते हुए व्यथित मन से दीनानाथ चले गए.

वे बहुत दुखी थे. उन के दिल में समाए घाव हरे हो गए थे. उन के मन में एक ही वाक्य निकला- सभी औलादें ऐसी ही होती है. जो जन्म देता है उसे ही दुत्कार कर भगा देती है.

तभी उन के मन ने कहा. वे गलत हो सकते हैं. जो सोच रहे हैं वह सही हो जरुरी नहीं है. . यह भी जरूरी नहीं कि सब औलादें ऐसी हो. मगर  नहीं,  उन का मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा था. योगेश भला लड़का होगा. वे भी उस की तरह अपने पिता को आश्रम में भेज देगा .

नहींनहीं. केशव ऐसी गलती नहीं करेगा. वह मेरी बात मानेगा. बिना सोचेसमझे कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा.

मगर,  वह अपनी औलाद के विरूद्ध कैसे जा सकता हैं. औलाद चाहेगी तो उसे दस्तखत करना पड़ेंगे. तब उस की कसम भी कोई मायने नहीं रखेगी . फिर जरूरी नहीं है कि सब ओलादें एक जैसी ही हो. यह सोचते हुए वे अनाथालय के दरवाजे तक आ गए.

” क्या हुआ काका ! आज चुपचाप चले जा रहे हो ? कोई रामराम और श्यामश्याम नहीं की. ” गेट के दरवाजे पर बैठे रामूकाका ने जोर से आवाज दी.

दीनानाथ स्वभाव के विरुद्ध चुपचाप अन्दर जा रहे थे.

” कुछ नहीं भाई,”  दीनानाथ ने बिना रूके ही कहा, ” आज मुड़ ठीक नहीं है.” कह कर वे सीधे अपने कमरे में चले गए. बिस्तर के पास एक आराम कुर्सी पड़ी थी. उस पर बैठ गए. मन में विचारों का तूफान उमड़ने लगा.

यह उन का दोष नहीं है. कहीं दूर बैठा हुआ दिमाग बोला. जिस की आवाज सुन कर वे चौंक उठे.

” क्या कहा ?” वे स्वयं से बोल उठे.

यही कि यह करीयुग है. करों ओर भरो. भूल गए. एक अनजान आवाज ने उन्हें टोका. वह शायद उन के अंदर से आ रही थी. जो जैसा करता है वैसा भरता है. यदि तुम अपने पिता की सेवा नहीं करोगे तो पुत्र आप की सेवा नहीं करेगा.

नहींनहीं ! वह मेरा दोष नहीं था. वे विचारमग्न हो गए. मेरी पत्नी से मेरी मां की लड़ाई होती रहती थी. उन के बीच बनी नहीं. बस उसी से बचने के लिए मैं ने अलग घर ले लिया था. उन की सेवा तो करना चाहता था. मगर, सेवा कर नहीं पाया.

पत्नी नहीं जाने देना चाहती थी. इस वजह से. अन्यथा मैं तो मातापिता को चाहता था. उस के अंतर्मन ने उसे कचोटा. वह उस का विरोध करने लगा.

इस तरह बहुत देर तक विचारों के प्रवाह में वह गोते लगाते रहे . उन्हें कब नींद आ गई. पता ही नहीं चला.

यह बात बीते एक वर्ष हो गया था. वे भूल चुके थे. उन का कोई दोस्त था केशवराम . वे  दोबार उस के घर गए. किसी से पता चला कि वे घर बेच कर जा चुके थे. दीनानाथ ने अनुमान लगा लिया. केशवराम ने उस की बात नहीं मानी. उस ने संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर लिए.

योगेश ने संपत्ति बेच दी होगी. इसलिए वे दूसरे जगह चले गए. केशवराम उसे मिलना नहीं चाहता था. वह किस मुंह से उस के पास आता,  इसलिए वह दूसरी जगह चला गया होगा. यह सोच कर उन्हों ने धीरेधीरे केशवराम को भूला दिया.

अचानक दो साल बाद,  एक दिन दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रूकी. उस में से एक बूढ़ा व्यक्ति उतरा . वह सीधा उन्हीं की ओर चला आ रहा था. सफेद धोतीकुर्ता और हाथ में छड़ी लिए उसी चाल से चल रहा था. उस ने बड़ी ध्यान से देखा. चेहरा पहचाना हुआ लगा रहा था.

पास आने पर मालुम हुआ, ” अरे केशव ! तू,” वह चौंक कर खड़ा हो गया.

” हां दीनानाथ मैं ! ” केशवराम ने उन के कधे पर हाथ रख कर कहा,” तू ने ठीक कहा था. आजकल की औलादें ठीक नहीं होती है.”

” क्या ! ” दीनानाथ ने कहा, ” आखिर तूझे मेरी बात समझ में आ गई.”

” हां यार,” केशवराम ने कहा, ” इसीलिए तूझे लेने आया हूं. तेरी भाभी तूझे बहुत याद कर रही है. कहती है कि दीनानाथ को बुला लाओ.”

” क्या !” दीनानाथ ने चकित होते हुए कहा, ” मैं तो समझा ​था कि भाभी…”

” वह अभी जिंदा है,”  केशवराम ने कहा ओर दीनानाथ का हाथ पकड़ कर वह कार की ओर खींच लाया. दोनों गाड़ी में बैठे. गाड़ी चल दी.

”यार ! ये गाड़ी !”

” इस के मालिक की है,”  केशवराम ने कहा, ” तू सही कहता था औलादें अच्छी ….”

”… नहीं होती है,” दीनानाथ ने केशवराम की बात पूरी की.’ ‘ तूने मेरी बात नहीं मानी. संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे.”

” हां यार ! उस संपत्ति के अच्छी पैसे आ रहे थे. बेटे को व्यापार के लिए पैसे की जरूरत थी. इसलिए मजबूरन मुझे वह संपत्ति बेचना पड़ी.”

” ओह !  फिर तू कहा चला गया था ?  ” दीनानाथ बोले, ” तूझे मेरे पास इस अनाथालय में आ जाना चाहिए था. ”

” नहीं यार ! वक्त खराब चल रहा था. मुझे बच्चे के साथ जाना पड़ा. वहां बहुत काम था- वही करना पड़ा. तेरी भाभी को भी काम करना पड़ा. हम ने बहुत मुसीबत देखी हैं .”

” वह तो देखना ही थी.”  दीनानाथ ने कहा, ” तू ने मेरी बात नहीं मानी थी. औलादों को कभी संपत्ति नहीं देना चाहिए. जब तक संपत्ति रहती है तब तक वे सेवा करते हैं. अन्यथा बाद में भगा देते हैं.”

” तू ठीक कहता है. ” केशवराम ने जवाब दिया, ” यह तेरा अनुभव है. यह गलत कैसे हो सकता है. मगर, परिस्थिति और स्वभाव एक जैसा नहीं होता है. ”

दीनानाथ ने कहा, ” मैं समझा नहीं,”

“ घर के अंदर चलते हैं. फिर समझाता हूँ,” केशवराम ने कहा.

तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगाया. गाड़ी एक मोड़ पर मुड़ रही थी. सामने एक गेट था. जिस पर बड़े अक्षर में लिखा हुआ था— बाबा का घर— केशवनाथ.

उस पर निगाहें जाते ही दीनानाथ चौंक उठे, ” अरे केशव ! यह क्या लिखा है ?”

” बाबा का घर— केशवनाथ !”

” मगर,  तेरा नाम तो केशवराम है. फिर यह क्या है ?” दीनानाथ को कुछ समझ में नहीं आ रहा था , ”  क्या यह घर तेरा घर है ?”

” नहीं !”

” फिर किस का है ?”

” हमारा. यानी केशवराम का केशव और दीनानाथ का नाथ यानी केशवनाथ का घर .”

” क्या !” दीनानाथ आवाक रह गए.

” यह मेरे पुत्र का तौहफा है हम दोनों के लिए,” केशवराम के यह कहते ही दरवाजे पर कोमलांगी और उस की सास यानी दीनानाथ की भाभी स्वागत की थाली लिए खड़े थे.

” भाई साहब ! आप का इस नए घर में स्वागत है !” भाभी मुस्करा कर स्वागत कर रही थी.

यह सुन कर दीनानथ के आंखों में से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े. उन्हों ने अपने दोनों हाथ कोमलांगी की ओर आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिए.

कोमलांगी आरती करने के बाद उन के चरण स्पर्श करने के लिए झुक गई थी. दीनानाथ के आंसूओं ने उस के हृदय का सारा मैल धो दिया था. उन का हाथ कोमलांगी के सिर पर चल गया, ” ऐसे मातापिता ओर बेटाबहू सभी को मिले.” वे केवल इतना ही बोल पाए. उन का गला रुंध गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14/04/2019

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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