श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? जीवनोत्सव  — कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम : जीवनोत्सव

विधा – कविता

कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? अस्तित्व का उत्सव : जीवनोत्सव  श्री संजय भारद्वाज ?

दर्शन कहता है कि दृष्टि में सृष्टि छिपी है। किसीकी दृष्टि में जीवन बोझिल है तो किसीके लिए मनुष्य जीवन का हर क्षण एक उत्सव है। बकौल ओशो, मनुष्य का पूरा अस्तित्व ही एक उत्सव है।

अस्तित्व के इस उत्सव में भी दृष्टि पुन: अपनी भूमिका निभाती है। किसी के लिए पात्र, जल से आधा भरा है, किसीके लिए पात्र आधा रिक्त है। रिक्त में रिक्थ देख सकने का भाव ही अस्तित्व की उत्सवधर्मिता का सम्मान करना है। यह भाव बिरलों को ही मिलता है। शिक्षिका-कवयित्री गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय इस भाव की धनी हैं। प्रस्तुत कवितासंग्रह का लगभग हर पृष्ठ  इसका साक्षी है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय का यह प्रथम कविता संग्रह है। वे जीवन के हर पक्ष में हरितिमा की अनुभूति करती हैं। अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली माँ शारदा की वंदना से संग्रह का आरम्भ होता है।

*मुक्तकों, छंदों में, गीतों में, मेरी कविताओं में,

भावों को उत्थान दे पाती कृपा तेरी है,

होकर ॠणी, बन कर कृतज्ञ, हर कण को, सृष्टि के

सदा, हृदय से सम्मान दे पाती कृपा तेरी है।*

सृष्टि के हर कण को सम्मान देने की बात महत्वपूर्ण है। वस्तुतः सृष्टि में हर चराचर अनुपम है। अतः हर इकाई, हर व्यक्ति आदर का पात्र है।

*बस तुम ही तुम हो तो फिर क्या तुम हो?

बस हम ही हम हैं तो फिर क्या हम हैं?

समग्रता से ही संपूर्णता है,

दोनों की सत्ता सिमटे तो हम हैं।*

अनुपमेयता का यह सूत्र कुछ यूँ सम्मान पाता है।

*सबका अपना विकास है ,

सबकी अपनी गति है।

खिलते अपने समय सभी,

सबकी अपनी उन्नति है।*

सबके खिलने में ही, उत्सव का आनंद है। ‘जीवनोत्सव’ इंद्रधनुषी है। इस इंद्रधनुष में सबसे गहरा रंग प्रकृति का है।

यत्र-तत्र सर्वत्र खिले हैं,

न-उपवन, हर डाली

वसुधा की शोभा तो देखो,

अद्भुत छटा निराली!

वयित्री गहन प्रकृति प्रेमी हैं। पर्यावरण का निरंतर हो रहा विनाश हर सजग नागरिक की चिंता और वेदना का कारण है। स्वाभाविक है कि यह वेदना कवयित्री की लेखनी से शब्द पाती-

जो मुफ़्त है और प्राप्त है,

अक्सर वही अज्ञात है।

अभिशप्त ना कर दो उसे,

जो मिल रही सौगात है।

सनातन दर्शन काया को पंचमहाभूतों से निर्मित बताता है। जीवन के लिए अनिवार्य इन महाभूतों को प्रकृति ने नि:शुल्क प्रदान किया है। मनुष्य द्वारा, प्राणतत्वों का आत्मघाती विनाश अनेक प्रश्न उत्पन्न करता है-

इतिहास ना बन जाएँ संसाधन,

प्राप्त का अब तो करें अभिवादन,

ऐसा ना हो मानव की अति से,

दूभर हो इस वसुधा पर जीवन।

वसुधा और वसुधा पर जीवन बचाने का आह्वान कभी प्रश्नवाचक  तो कभी विधानार्थक रूप में आकर झिंझोड़ता है-

इतनी सुंदर धरा को सोचो

यदि हम नहीं बचाएँगे-

तो क्या छोड़ कर जाएँगे,

क्या छोड़ कर जाएँगे?

……………………….

बंद करो दूषण का नर्तन,

बंद करो विकृति का वर्तन।

कसो कमर हे युग-निर्माता,

करने को अब युग परिवर्तन!

कवयित्री शिक्षिका हैं। उनके चिंतन के केंद्र में विद्यार्थी का होना स्वाभाविक है। संग्रह की अनेक कविताओं में विद्यार्थियों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश हैं। कुछ बानगियाँ देखिए-

स्मरण रहे तुम्हें,

तुम्हारा जीवन स्वयं एक उत्सव है!

इस उत्सव की अलख

सदा अपने भीतर जलाए रखना…!

अपने वर्तमान में उत्साह का एक बीज उगाए रखना!

इस ‘जीवनोत्सव’ को सदा अपने अंदर मनाए रखना…

……………………….

तुम्हारे कर्म से ही तेज

फैलेगा उजाले-सा,

स्वयं ही सिद्ध, होकर पूर्ण,

छलकोगे जो प्याले-सा!

विद्यार्थियों को संदेश देने वाली कवयित्री को अपने शिक्षकों, गुरुओं का स्मरण न हो, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुजनों के प्रति यह मान ‘कृतज्ञ’ कविता में प्रकट हुआ है।

मायका स्त्री-जीवन का नंदनवन है। मायके की स्मृतियाँ, स्त्री की सबसे बड़ी धरोहर हैं। पिता को संबोधित कविता, ‘पापा, अब मैं सब्ज़ी काट लेती हूँ’, स्मृतियों में बसी अल्हड़ युवती से परिपक्व माँ होने की यात्रा है। परिपक्वता माता-पिता के प्रति यूँ सम्मान प्रकट करती है-

माता-पिता बड़े स्वार्थी होते हैं,

एक नींद के लिए ही,

वे सारे ख़्वाब पिरोते हैं।

नींद उन्हें यह, तब ही आया करती है,

जब उनके बच्चे, संतुष्ट हो सोते हैं!

स्त्रीत्व, विधाता का सर्वोत्तम वरदान है। तथापि स्त्री होना, दूब-सा निर्मूल होकर पुन: जड़ें जमाना, पुन: पल्ववित होना है। स्त्रीत्व का यह सदाहरी रंग देखिए-

सूखकर फिर से

हरी हो जाती है यह दूब,

विछिन्न होकर फिर से

भरी हो जाती है यह दूब!

स्त्री के अपरिमेय अस्तित्व की यह सारगर्भित व्याख्या देखिए-

मैं, मेरे शब्दों से आगे,

और मेरे रूप से परे हूँ,

क्या मेरे मौन से आगे भी

पढ़ सकते हो मुझे?

स्त्री का मौन भी अथाह है। इस अथाह का श्रेय भी स्वयं न लेकर वह अपने जीवनसंगी को देती है। यही स्त्री के प्रेम की उत्कटता है। नेह की यह अभिव्यक्ति देखिए-

कहूंँ या ना कहूंँ तुमसे,

रखना स्मरण यह तुम।

मेरे मौन में तुम हो,

मेरी हर व्यंजना में हो।

हर पूजा में तुम हो..!

नेह किसीको अपना जैसा बनाने के लिए नहीं, अपितु जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करने के लिए होता है। विश्वास को साहचर्य का सूत्र बताती ये पंक्तियाँ अनुकरणीय हैं-

ख़ूबी का क्या, ख़ामी का क्या,

तुझ में भी है, मुझ में भी है,

बस प्रेम में ही विश्वास रहे,

हर बात टटोला नहीं करते!

संग्रह की दो कविताएँ आंचलिक बोली में हैं। इनमें भी पौधा लगाने की बात है। आज जब आभिजात्य पैसा बोने में लगा है, लोक ही है जो पौधा उगा रहा है, पेड़ बढ़ा रहा है, पर्यावरण बचा रहा है। लोकभाषा और पर्यावरण दोनों का संवर्धन करता आंचलिक बोली का यह पुट इस संग्रह की पठनीयता में गुड़ की मिठास घोलता है।

देहावस्था का प्राकृतिक चक्र अपरिहार्य है, हरेक पर लागू होता है। समय के प्रवाह में वृद्ध व्यक्ति शनैः-शनै: घर, परिवार, समाज द्वारा उपेक्षित होने लगता है। आनंद की बात है कि इस संग्रह में दादी, नानी के लिए कविता है, अनुभव की घनी छाँव में बैठने का संदेश है-

पास बैठा करो उनके भी तुम कभी

आते जाते मिलेंगी दुआएंँ कई।

देख कर ही तुम्हें जीते हैं वे, सुनो!

उनकी मौजूदगी में शिफ़ाएंँ कई!

कविता अवलोकन से उपजती है। अवलोकन, संवेदना को जगाता है। संवेदना, अनुभूति में बदलती है, अनुभूति अभिव्यक्ति बनकर बहती है। सहज शब्दों में वर्णित कथ्य में बसा कवित्व, मन के कैनवास पर अ-लिखे सुभाषित-सा अंकित हो जाता है-

अपने घोसले

खोने के डर से,

उसी में छुपती,

वह डरी चिड़िया!

बुज़ुर्गों के साथ नौनिहालों पर पर केंद्रित कुछ बाल कविताएँ भी इसी संग्रह में पढ़ने को मिल जाएँगी। इस तरह हर पीढ़ी को कुछ दे सकने का प्रयास संग्रह की कविताओं के माध्यम से किया गया है। 

प्रस्तुत कविताओ में आस्था के रंग हैं, रिश्तों की चर्चा है, शिक्षकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है। पर्यावरण, विद्यार्थी, स्त्री तो मुख्य स्वर हैं ही। जीवन के अनेक रंगों का यह समुच्चय इस संग्रह को जीवनोत्सव में परिवर्तित कर देता है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय लिखती रहें, पर्यावरण के संवर्धन के लिए कार्य करती रहें, यही कामना है। आशा है कि जीवनोत्सव के अन्य कई रंग भी भविष्य में उनकी आनेवाली पुस्तकों में देखने को मिलेंगे। अनेकानेक शुभाशंसाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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