आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय गीत – समा गया तुम में )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 212 ☆
☆ पुस्तक समीक्षा – अपराजिता (काव्य संग्रह) – सुश्री अमिता मिश्रा “मीतू” ☆ समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
☆ पुरोवाक् – मन से मन के तार जोड़ती कविताएँ ☆
कविता क्या है? एक यक्ष प्रश्न जिसके उत्तर उत्तरदाताओं की संख्या से भी अधिक होते हैं। कविता क्यों है?, कविता कैसे हो? आदि प्रश्नों के साथ भी यही स्थिति है। किसी प्रकाशक से काव्य संग्रह छापने बात कीजिए उत्तर मिलेगा ‘कविता बिकती नहीं’। पाठक कविता पढ़ते नहीं हैं, पढ़ लें तो समझते नहीं हैं, जो समझते हैं वे सराहते नहीं हैं। विचित्र किंतु सत्य यह कि इसके बाद भी कविता ही सर्वाधिक लिखी जाती है। देश और दुनिया की किसी भी भाषा में कविता लिखने और कविता की किताबें छपानेवाले सर्वाधिक हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि तथाकथित प्रकाशकों के घर का चूल्हा कविता ही जलाती है।
दुनिया में लोगों की केवल दो जातियाँ हैं। पहली वह जिसका समय नहीं कटता, दूसरी वह जिसको समय नहीं मिलता। मजेदार बात यह है की कविता का वायरस दोनों को कोरोना-वायरस की तरह पड़कता-जकड़ता है और फिर कभी नहीं छोड़ता।
दरवाजे पर खड़े होकर ‘जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला’ की टेर लगानेवाले की तरह कहें तो ‘जो कविता लिखे उसका भी भला, जो कविता न लिखे उसका भी भला’। कविता है ऐसी बला कि जो कविता पढ़े उसका भी भला, जो कविता न पढ़े उसका भी भला’, ‘जो कविता समझे उसका भी भला, जो कविता न समझे उसका भी भला’।
कविता अबला भी है, सबला भी है और तबला भी है। अबला होकर कविता आँसू बहाती है, सबला होकर सामाजिक क्रांति को जनम देती है और तबला होकर अपनी बात डंके पर चोट की तरह कहती है।
‘कहते हैं जो गरजते हैं वे बरसते नहीं’, कविता इस बात को झुठलाती और नकारती है, वह गरजती भी, बरसती भी है और तरसती-तरसाती भी है।
कविता के सभी लक्षण और गुण कामिनी में भी होते हैं। शायद इसीलिए कि दोनों समान लिंगी हैं। कविता और कामिनी के तेवर किसी के सम्हालते नहीं सम्हलते।
मीतू मिश्रा की कविता भी ऐसी ही है। सदियों से सड़ती-गलती सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं पर पूरी निर्ममता के साथ शब्दाघात करते हुए मीतू चलभाष और अंतर्जाल के इस समय में शब्दों का अपव्यय किए बिना ‘कम लिखे से अधिक समझना’ की भुलाई जा चुकी प्रथा को कविताई में जिंदा रखती है। मीतू की कविताओं के मूल में स्त्री विमर्श है किंतु यह स्त्री विमर्श तथा कथित प्रगति शीलों के अश्लील और दिग्भ्रमित स्त्री विमर्श की तरह न होकर शिक्षा, तर्क और स्वावलंबन पर आधारित सार्थक स्त्री विमर्श है। कुरुक्षेत्र में कृष्ण के शंखनाद की तरह मीतू इस संग्रह के शाब्दिक शिलालेख पर लिखती है-
‘निकल पड़ी है वो सतरंगी ख्वाबों में
भरती रंग…. स्वयं सिद्धा बनने की ओर।’
मीतू यहीं नहीं रुकती, वह समय और समाज को फिर चेताती है-
‘चल पड़ी है वो औरत अकेली
छीनने अपने हिस्से का आसमान।’
लोकोक्ति है ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’ लेकिन मीतू की यह ‘अकेली औरत’ हिचकती-झिझकती नहीं। यह तेवर इन कविताओं को जिजीविषाजयी बनाता है। अकेली औरत किसी से कुछ अपेक्षा न करे इसलिए कवयित्री उसे झकझोरकर कहती है-
‘हे स्त्री! मौन हो जाओ
नही है कोई जो महसूस कर सके
तुम्हारी अव्यक्त पीड़ा..
लगा सके मरहम, पोंछे आँसू
कभी विद्रोही, कभी चरित्रहीन
कहकर चल देंगे समाज के जागरूक लोग
धीरे धीरे तुम्हें सुलगता छोड़कर।’
समाज के जिन जागरूक लोगों (लुगाइयों समेत) की मनोवृत्ति का संकेत यहाँ है, वे हर देश-काल में रहे हैं। सीता हों या द्रौपदी, राधा हों या मीरां इन जागरूक लोगों ने पूरी एकाग्रता और पुरुषार्थ के साथ उन्हें कठघरे में खड़ा किया, बावजूद इस सच के कि वे कन्या पूजन भी करते रहे और त्रिदेवियों की उपासना भी। दोहरे चेहरे, दोहरे आचरण और दोहरे मूल्यों के पक्षधरों को मीतू बताती है-
‘कण कण में ही नारी है
नारी है तो नर जीवन है
बिन नारी क्या सृष्टि है?’
यह भी कहती है-
‘नारी
ढूँढ ही लेती है
निराशाओं के बीच
एक आशा की डोर
थामे टिमटिमाती लौ आस की
बीता देती है जीवन के अनमोल पल
एक धुँधले सुकून की तलाश में
एक पल जीती ..फिर टूटती अगले ही पल’
इन कविताओं की ‘नारी’ अंत में इन तथाकथित ‘लोगों’ की अक्षमता और असमर्थता को आईना दिखाते हुए ‘साम्राज्य के आधे भाग की जगह केवल पाँच गाँव’ की चाह करती है-
‘मध्यमवर्ग की कोमल स्त्री
जिंदगी की जमापूंजी से
खर्च करना चाहती है
कुछ वक्त अपने लिए अपने ही संग’
इतिहास पाने को दुहराता है, पाँच गाँव चाहने पर ‘सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा’ की गर्वोक्ति करने वाले सत्ताधीशों और उन्हें पोषित करनेवाले नेत्रहीनों को समय ने कुरुक्षेत्र में सबक सिखाया। वर्तमान समाज के ये ‘लोग’ भी यही आचरण कर रहे हैं। ये आँखवाले आँखें होते हुए भी नहीं देख पाते कि-
‘एक चेहरा
ढोता बोझ
कई किरदारों का’
वे महसूस नहीं कर पाते कि-
‘नारी सबको उजियारा दे
खुद अँधियारे में रोती है।’
यह समाज जानकार भी नहीं जानना चाहता कि-
‘अपने ही हाथों
जला लेती हैं
अपना आशियाना
घर फूँक तमाशा देखती हैं
प्रपंच और दुनियादारी में
उलझी किस्सा फरेब
बेचारी औरतें’
इस समाज की आँखें खोलने का एक ही उपाय है कि औरत ‘बेचारी’ न होकर ‘दुधारी’ बने और बता दे-
‘कोमल देह इरादे दृढ़ हैं
हालातों से नही डरे
तोड़ पुराने बंधन देखो
नव समाज की नींव गढ़े।’
औरत के सामने एक ही राह है। उसे समझना और समझाना होगा कि वह खिलौना नहीं खिलाड़ी है, बेचारी नहीं चिंगारी है। मीतू की काव्य नायिका समय की आँखों में आँखें डालकर कहती है-
‘जीत पाओगे नहीं
पौरुष जताकर यूँ कभी
हार जाऊंगी स्वयं ही
प्रीत करके देखलो!
दंभ सारे तोड़कर
निश्छल प्रणय स्वीकार लो,
मैं तुम्हारी परिणीता
अनुगामिनी बन जाऊंगी!’
समाज इन कविताओं के मर्म को धर्म की तरह ग्रहण कर सके तो ही शर्म से बच सकेगा। ये कविताएँ वाग्विलास नहीं हैं। इनमें कसक है, दर्द है, पीड़ा है, आँसू हैं लेकिन बेचारगी नहीं है, असहायता नहीं है, निरीहता नहीं है, यदि है तो संकल्प है, समर्पण है, प्रतिबद्धता है। ये कविताएँ तथाकथित स्त्री विमर्श से भिन्न होकर सार्थक दिशा तलाशती हैं। स्त्री पुरुष को एक दूसरे के पूरक और सहयोगी की तरह बनाना चाहती हैं। तरुण कवयित्री मीतू का प्रौढ़ चिंतन उसे कवियों की भीड़ में ‘आम’ से ‘खास’ बनाता है। उसकी कविता निर्जीव के संजीव होने की परिणति हेतु किया गया सार्थक प्रयास है। इस संग्रह को बहुतों के द्वारा पढ़, समझा और सराहा जाना चाहिए।
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