हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ कुआं और बावड़ी ००० Well & Step Well… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

?अभी अभी  – कुआं और बावड़ी ००० Well & Step Well… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जिन्होंने दिल्ली देखी है,उन्होंने धौला कुआं और खारी बावली का नाम भी सुना होगा । मेरे शहर में भी एक ढक्कन वाला कुआं है,जहां आज न तो कोई ढक्कन है और न ही कोई कुआं,बस एक प्राइवेट बस अड्डा है,जहां से बसें आती जाती रहती हैं ।

कभी कुएं बावड़ी बनवाना और तालाब खुदवाना परमार्थ का कार्य माना जाता था। सेठ साहूकार अपने नाम से राहगीरों के लिए धर्मशालाएं,औषधालय और प्याऊ का निर्माण करते थे । आदमी पहले कुआं खुदवाता था और उसके बाद ही घर बनवाता था । गांव के किसान के खेत में भी कुआं उसकी पहली जरूरत थी । जहां नदी तालाब नहीं होते थे,वहां बावड़ियां  बनवाई जाती थी ।।

हमारी देवी अहिल्या की नगरी तो पुण्य और परमार्थ की नगरी है । एक समय यहां कितने धर्मार्थ औषधालय,धर्मशालाएं, चिकित्सालय, स्कूल कॉलेज,शीतल जल की प्याऊ और सार्वजनिक वाचनालय थे ।

आज जिसे सराफा चौराहा कहते हैं,वहां कोने पर कभी वैद्य ख्यालीराम जी द्विवेदी का पारमार्थिक औषधालय तो था ही,उसी से लगी हुई एक शीतल जल की प्याऊ भी थी ।

हर चार कदम पर जहां प्यासे को पानी मिल जाए उस नगर में कभी पिपल्या पाला,सिरपुर,बिलावली और यशवंत सागर जैसे तालाब थे । आज तो बस नर्मदे हर ।।

कुएं और बावड़ी में अंतर है । कुएं में से पानी रस्सी  बाल्टी से निकाला जाता था ,जब कि बावड़ी में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां होती थीं । शायद इसीलिए कुएं को अंग्रेजी में well और बावड़ी को step well कहते थे ।  जब इंसान ने सीढ़ियां चढ़ना उतरना ही बंद कर दिया तो बेचारी बावड़ी भी क्या करे ।

आम आदमी के लिए अगर कुआं था,तो महलों में बावड़ियां होती थीं । एक मंजिल नहीं,कई मंजिल गहरी ,सीढ़ियों वाली बावड़ियां । इंसान का बस चलता तो वह पाताल तक सीढियां बनाकर पानी ले आता ।।

जब उसका बस नहीं चला तो उसने कुएं और बावड़ियों में मोटर लगवा ली । बढ़ती जनसंख्या और घटते जल स्तर के कारण जब कुएं सूखने लगे,तब इंसान आसमान में सूराख करने से तो रहा,उसने धरती में ही सूराख करना शुरू कर दिया । पहली स्टेप,well और step well की जगह पहले हैंड पंप और बाद में ,

घर घर धड़ल्ले से ट्यूबवेल खुदने लगे ।

जो इंसान पहले सीढ़ियों से

चढ़ता उतरता था,उसने अपने चढ़ने के लिए तो लिफ्ट लगा ली और जमीन के अंदर से पानी ऊपर लाने के लिए सबमर्सिबल पंप । हमारी धरती माता के प्रति सब mercy एक तरफ,पहले bore well तत्पश्चात् सबमर्सिबल ।।

होगा कभी किसी कुएं का पानी मीठा,आज का ट्यूबवेल का पानी तो बर्तन भी खराब करता है और पीने लायक नहीं रहता ।

कहीं pure it तो कहीं प्यूरीफायर,कहीं एक्वागार्ड तो कहीं हेमा मालिनी का

KENT. शुद्ध पानी,सेंट परसेंट ।

आज शहरों के अधिकांश पुराने कुएं और बावड़ियां जमींदोज़ हो चुकी हैं । हमारे रामबाग के एक घर के कुएं को मिट्टी में मिलाने का पाप हमारे भी सर है ।

कितनी बावड़ियों पर हमने बाद में मकान और भवन बनते देखे हैं । गोराकुंड पहले क्या था,सब जानते हैं ।।

हमारे शहर में, ऐन रामनवमी के पर्व पर जो हृदय विदारक हादसा हुआ है,वहां भी दुर्भाग्य से एक जीती जागती,पानी से भरी बावड़ी ही थी ।

इंसान अपने सोर्स ऑफ़ इनकम को बढ़ाने के लिए लालच के अंधे कुएं में भी जाने को तैयार है । वह परमार्थ की सीढ़ियां तो नहीं चढ़ना चाहता लेकिन पाप की सीढ़ियां अगर पाताल तक जा रही हों,तो वहां तक भी उतरने को आमादा है ।।

कुएं,बावड़ी,तालाब हमारी प्राकृतिक धरोहर हैं,नगर महानगर बनते की होड़ में आसपास के गांवों में भी अतिक्रमण करने लगे हैं ।

हमारे भू माफिया गांव के नियम कायदों का गलत फायदा उठाकर प्रशासन की आंखों में धूल झोंककर वहां भी आधुनिक आलीशान महल तैयार करते चले जा रहे हैं । लोकतंत्र में राजसी जीवन तो संभव है,लेकिन कहीं परमार्थ का अता पता नहीं । इसे ही शायद हमारी मालवी भाषा में कुएं में भांग और हरियाणवी में बावली बूच कहते हों ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी – किताब और कैलेण्डर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

अल्प परिचय 

जन्म – १ अप्रैल १९४९,

सम्प्रति – बैंकिंग सेवा से सेवानिवृत्त, पेंशन भोगी ! संगीत (फिल्मी और इल्मी), अध्यात्म और साहित्य में अभिरुचि। फेसबुक में स्वान्तः सुखाय लेखन, नियमित स्तंभ “अभी अभी “

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार। अब आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी  – किताब और कैलेंडर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किताबें रोज छपती हैं, कैलेंडर हर वर्ष छपते हैं। किताब में क्या छपेगा, इसका निर्णय लेखक करता है, कैलेंडर में क्या छपेगा, इसका निर्णय समय करता है, इसीलिए किताब को कृति और कैलेंडर को काल निर्णय भी कहा जाता है। एक लेखक को लोग कम जानते हैं, लाला रामस्वरूप को कौन नहीं जानता।

मैं समय हूं। मेरे समय में किताब को पुस्तक कहा जाता था और टीचर को शिक्षक। टेक्स्ट बुक, पाठ्य पुस्तक कहलाती थी और lesson पाठ कहलाता था। सर और टीचर को अध्यापक और गुरु जी कहा जाता था और अटेंडेंस को हाजरी। जब क्लास में नहीं, कक्षा में हाजरी भरी जाती थी, तब छात्र यस सर अथवा प्रेजेंट सर नहीं, उपस्थित महोदय कहा करते थे।।

कैलेंडर की तरह हर वर्ष पाठ्य पुस्तकें भी बदली जाती थी। उधर कैलेंडर का साल बदलता, इधर हमारी कक्षा भी बदलती और पाठ्य पुस्तक भी।

किताबें पढ़कर और पढ़ लिखकर ही व्यक्ति पहले ज्ञान अर्जित करता है और फिर बाद में किसी किताब की रचना करता है। एक किताब की तुलना में एक कैलेंडर छापना अधिक आसान है। इसीलिए जो अधिक पढ़ लिख जाते हैं वे किताबें ही छापना पसंद करते हैं, कैलेंडर नहीं।।

हम भारतकुमार मनोजकुमार का उपकार नहीं भूलेंगे, जिसने कैलेंडर को एक नया अर्थ दिया और वह भी एक, इकतारे के साथ। हर साल कैलेंडर छाप दिया, और उसके बाद ? इकतारा बोले, सुन सुन, क्या कहे ये तुझसे, सुन सुन, सुन सुन सुन।

सृजन, सृजन होता है, चाहे फिर वह किसी कैलेंडर का हो, अथवा किसी पुस्तक का। उत्सव तो बनता है, कहीं सृजन की मेहनत कुछ महीनों की है, तो कहीं कई वर्षों की। प्यार के खत की तरह, किसी पुस्तक के सृजन में, किसी बालक के जन्म में, वक्त तो लगता है।।

जिन्हें गुरु नहीं मिलता, वे निगुरे कहलाते हैं, जिनकी संतान नहीं होती, वे निःसंतान कहलाते हैं लेकिन जो लेखक किसी पुस्तक का सृजन नहीं कर पाए, उसे आप क्या कहेंगे।

आप कैलेंडर छापें, ना छापें, एक पुस्तक अवश्य छापें, आप पर मां सरस्वती की कृपा हो।

जो खुशी एक मां को अपने बालक के जन्म पर होती है, वही खुशी किसी लेखक को अपनी पहली रचना प्रकाशित होने पर होती है। खुशी तो बनती है, एक विमोचन तो बनता है।।

हर साल कैलेंडर छपते हैं, लाखों करोड़ों किताबें छपती हैं, लेकिन समय का विधान देखिए, जब देश दुनिया की जनसंख्या बढ़ती है, तो हमें जनसंख्या नियंत्रण का खयाल आता है। लेकिन इसमें गलत कुछ भी नहीं।

जो गलत है, वह गलत है।

खूब किताबें छापो, खूब कैलेंडर छापो, खूब पैसा कमाओ, लेकिन जब कमाने वाले हाथों से खाने वाले हाथ बढ़ जाते हैं, तो गरीबी में आटा गीला हो ही जाता है। बच्चे दो ही अच्छे, लेकिन हां, मगर हों भी अच्छे।।

एक लेखक को भी अपनी रचना से उतना ही प्रेम होता है जितना मां बाप को अपनी औलाद से। पुत्र मोह तो महाराज दशरथ को भी था और महाराज धृतराष्ट्र को भी। कहां एक के चार और कहां एक के सौ। आजकल हमारे लेखक भी तेंदुलकर और विराट कोहली की तरह अपनी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या, रनों की तरह बढ़ा रहे हैं। कोई रन मशीन है तो कोई बुक मशीन। हाल ही में कुछ लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों का अर्द्ध शतक तो मार ही चुके हैं। कुछ नर्वस नाइंटीज़ में अटके हैं, उनकी मां शारदे सेंचुरी पूरी करे।

आप कैलेंडर चाहे मोहन मीकिंस का लें, अथवा किंगफिशर का, एक लाइफ टाइम पंचांग से ही काम चला लें, हर साल नया कैलेंडर भी खरीदें, लेकिन कृपया खुद कैलेंडर ना छापें। अगर छापने का इतना ही शौक है, तो अपनी किताबें छापें, कोई बैन नहीं, कोई नियंत्रण नहीं।

और हां जो छाप रहे हैं, उनसे जलें नहीं। विमोचन तो पुस्तक के जन्म का अवसर होता है, उस पर बच्चा और जच्चा को आशीर्वाद दें, अनावश्यक कुढ़कर अपशुकन तो ना करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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आलेख
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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय ऑनलाइन का है, घर बैठे खाद्य सामग्री, कपड़े, विद्युत उपकरण, दैनिक उपयोग का प्रायः सभी समान कुछ मिनट में आपके द्वार पहुंच जाता हैं।

अभी भी कुछ वस्तुएं जैसे पेट्रोल, बैंक से नक़द राशि आदि आपको स्वयं प्राप्त करने के लिए जाना पड़ता है। यहां विदेश में कुछ वस्तुएं “Drive thru” (चलते फिरते) के नाम से उपलब्ध करवाई जाती हैं। इसकी शुरुआत “मैकडोनाल्ड” नामक खाद्य प्रतिष्ठान ने किया था।

बैंक के एटीएम से भी आप अपनी कार में बैठे हुए ही राशि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक स्थान पर एक साथ पांच कार चालक राशि निकाल सकते हैं।

यहां पर सुबह के नाश्ते के लिए प्रातः छः बजे से “Dunken Donald” नाम के प्रतिष्ठान से कॉफी, नाश्ता और पानी इत्यादि कार में बैठ कर मशीन में आदेश देकर आगे खाद्य खिड़की से प्राप्त कर बिना कार से बाहर निकले प्राप्त कर अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं। यहां के लोग कॉफी के बड़े बड़े ग्लास जिसका मुंह बंद रहता है, से पीते रहते हैं। एक दो मील की दूरी पर ये दुकान मिल जाती हैं। हमारे यहां भी किसी ना किसी कोने या गली के नुक्कड़ पर चाय की गुमटी/टपरी दिख जाती हैं। जहां पर टपरी में कार्यरत छोटू आपकी चाय बाइक या कार में पेश कर देता हैं। हमारे यहां तो कट या एक के दो कप चाय का प्रावधान हैं।

यहां पर कुछ दवा दुकानें भी ऑनलाइन ऑर्डर की डिलीवरी कार में बैठे बैठे ही निर्धारित खिड़की से कर देती हैं।

पेट्रोल पंप पर आपको कार से बाहर निकलना ही पड़ता है,और पेट्रोल पाइप को स्वयं कार में लगाना पड़ता है। पेट्रोल पम्प प्रांगण पर कोई भी कर्मचारी नहीं होता है। अंदर केबिन में कुछ व्यक्ति अवश्य बैठे हुए दिख जाते हैं। वाहन में हवा सुविधा के लिए डेढ़ डॉलर भुगतान कर स्वयं ही हवा भरनी पड़ती हैं।

सत्तर के आरंभिक दशक में हमारे यहां साइकिल के एक चक्के में हवा भरने के लिए पांच पैसे शुल्क था, बाद में इसे दस पैसे कर दिया गया था, तो हमारे जैसे साइकिल प्रेमियों ने इस बात को लेकर विरोध किया था कि सौ प्रतिशत की वृद्धि बहुत अधिक है। कुछ दुकानें मुफ्त में हवा भरने के पंप उपलब्द करवाती थी, वहां उस समय भीड़ बढ़ गई थी।

कार में बैठे बैठे सिनेमा का आनंद तो हमारे देश में भी विगत कुछ वर्ष से लिया जा सकता हैं। यहां तो विवाह भी अब Drive thru सुविधा के तहत होने लगे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

अर्थ:- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

भावार्थ:- यहां पर रसायन शब्द का अर्थ दवा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के पास में राम नाम का रसायन है। इसका अर्थ हुआ हनुमान जी के पास राम नाम रूपी दवा है। आप श्री रामचंद्र जी के सेवक हैं इसलिए आपके पास नामरूपी दवा है। इस दवा का उपयोग हर प्रकार के रोग में किया जा सकता है। सभी रोग इस दवा से ठीक हो जाते हैं।

संदेश:- ताकतवर होने के बावजूद आपको सहनशील होना चाहिए।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ:-

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

 इस चौपाई का बार बार पाठ करने से रहस्यों की प्राप्ति होती है।

विवेचना:- मेरा यह परम विश्वास है कि अगर आप बजरंगबली के सानिध्य में हैं,बजरंगबली के ध्यान में है तो किसी भी तरह की व्याधि और, विपत्ति आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं। क्योंकि बजरंगबली के पास राम नाम का रसायन है। अज्ञेय कवि ने कहा है:-

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?

क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ— वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

मैं हनुमान जी के ध्यान में हूं तो मैं मृत्यु से भी क्यों डरूं। मैं अपने आप को छोटा क्यों समझूं। हमारे हनुमान जी के पास तो राम नाम का रसायन है।

यह राम नाम का रसायन क्या है। पहले इस चौपाई के एक एक शब्द की चर्चा करते हैं।

राम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है रम् + घम। रम् का अर्थ है रमना या निहित होना। घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान। इस प्रकार राम शब्द का अर्थ हुआ जो पूरे ब्रह्मांड में रम रहा है वह राम है। अर्थात जो पूरे ब्रह्मांड में जो हर जगह है वह राम है।

 राम हमारे आराध्य के आराध्य का नाम भी है। पहले हम यह विचार लेते हैं कि हम श्री राम को अपने आराध्य का आराध्य क्यों कहते हैं। हमारे आराध्य हनुमान जी हैं और हनुमान जी के आराध्य श्री राम जी हैं। इसलिए श्री राम जी हमारे आराध्य के आराध्य हैं। हनुमान जी स्वयं को, अपने आप को श्री राम का दास कहते हैं। यह भी सत्य है कि सीता जी ने भी हनुमान जी को श्री राम जी के दास के रूप में स्वीकार किया है।:-

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥

(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा क्र 13)

अर्थ:- हनुमान जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥

हनुमान जी के सभी भक्तों को यह ज्ञात है श्री राम जी हनुमान जी की आराध्य हैं। फिर भी हनुमानजी के भक्त सीधे श्री राम जी के भक्त बनना क्यों नहीं पसंद करते हैं।

बुद्धिमान लोग इसके बहुत सारे कारण बताएंगे परंतु हम ज्ञानहीन लोगों के पास ज्ञान की कमी है।इसके कारण हम बुद्धिमान लोगों की बातों को कम समझ पाते हैं। मैं तो सीधी साधी बात जानता हूं। हम सभी हनुमान जी के पुत्र समान है और हनुमान जी अपने आप को रामचंद्र जी के पुत्र के बराबर मानते हैं। इस प्रकार हम सभी श्री राम जी के पौत्र हुए। यह बात जगत विख्यात है कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है या यह कहें पुत्र से ज्यादा पौत्र प्यारा होता है। इस प्रकार हनुमान जी के भक्तों को श्री रामचंद्र जी अपने भक्तों से ज्यादा चाहते हैं। इसलिए ज्यादातर लोग पहले हनुमान जी से लगन लगाना ज्यादा पसंद करते हैं।

हम पुर्व में बता चुके हैं श्रीराम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं परमब्रह्म।

शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।

भारतीय समाज में राम शब्द का एक और उपयोग है। जब हम किसी से मिलते हैं तो आपस में अभिवादन करते हैं। कुछ लोग नमस्कार करतें हैं। कुछ लोग प्रणाम करतें हैं और कुछ लोग राम-राम कहते हैं। यहां पर दो बार राम नाम का उच्चारण होता है जबकि नमस्कार या प्रणाम का उच्चारण एक ही बार किया जाता है। हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों ने जो भी क्रियाकलाप तय किया उसमें एक विशेष साइंस छुपा हुआ है। राम राम शब्द में भी एक विज्ञान है। आइए राम शब्द को दो बार बोलने पर चर्चा करते हैं।

एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 15 बार सांस लेता छोड़ता है। इस प्रकार 24 घंटे में वह 21600 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। इसमें से अगर हम ज्योतिष के अनुसार रात्रि मान के औसत 12 घंटे का तो दिनमान के 12 घंटों में वाह 10800 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। क्योंकि किसी देवता का नाम पूरे दिन में 10800 बार लेना संभव नहीं है।इसलिए अंत के दो शुन्य हम काट देते हैं। इस तरह से यह संख्या 108 आती है। इसीलिए सभी तरह के जाप के लिए माला में मनको की संख्या 108 रखी जाती है। यही 108 वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक भी है। हिंदी वर्णमाला में क से गिनने पर र अक्षर 27 वें नंबर पर आता है। आ की मात्रा दूसरा अक्षर है और  “म” अक्षर 25 वें नंबर पर आएगा। इस प्रकार राम शब्द का महत्व 27+2+25=54 होता है अगर हम राम राम दो बार कहेंगे तो यह 108 का अंक हो जाता है जो कि परम ब्रह्म परमात्मा का अंक है। इस प्रकार दो बार राम राम कहने से हम ईश्वर को 108 बार याद कर लेते हैं,।

 मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति राम नाम की महिमा का गुणगान कहां कर पाएगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-

करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई।

राम न सकहि नाम गुण गाई।।

स्वयं राम भी ‘राम’ शब्द की विवेचना नहीं कर सकते। ‘राम’ विश्व संस्कृति के नायक है। वे सभी सद्गुणों से युक्त है। अगर सामाजिक जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र न्यायादर्श ‘राम’ है।

क्योंकि राम शब्द की पूर्ण विवेचना करना मेरे जैसे  तुच्छ व्यक्ति के सामर्थ्य के बाहर है अतः इस कार्य को यहीं विराम दिया जाता है।

इस चौपाई का अगला शब्द रसायन जिसका शाब्दिक अर्थ कई हैं। जैसे :-

  1. पदार्थ का तत्व-गत ज्ञान
  2. लोहा से सोना बनाने का एक योग
  3. जरा व्याधिनाशक औषधि। वैद्यक के अनुसार वह औषध जो मनुष्य को सदा स्वस्थ और पुष्ट बनाये रखती है।

अगर हम रसायन शब्द का इस्तेमाल पदार्थ के तत्व ज्ञान के बारे में करते हैं यह कह सकते हैं के हनुमान जी के पास राम नाम का पूरा ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान होने के कारण हनुमान जी रामचंद्र जी के पास पहुंचने के एक सुगम सोपान है। अगर आपने हनुमान जी को पकड़ लिया तो रामजी तक पहुंचना आपके लिए काफी आसान हो जाएगा।अगर आप सीधे रामजी के पास पहुंचना चाहोगे यह काफी मुश्किल कार्य होगा। अगर हम लोकाचार की बात करें तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रधानमंत्री से मिलने के लिए हमें किसी सांसद का सहारा लेना चाहिए। मां पार्वती से मिलने के लिए गणेश जी का सहारा, गणेश जी की अनुमति लेना चाहिए। इस चौपाई से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं रामजी तक आसानी से पहुंचने के लिए हमें पहले हनुमान जी के पास तक पहुंचना पड़ेगा।

अर्थ क्रमांक 2 में बताया गया है लोहा से सोना बनाने का जो योग होता है उसको भी रसायन कहा जाता है। अब यहां लोहा कौन है ? हम साधारण प्राणी लोहा हैं और अगर हमारे ऊपर पवन पुत्र हनुमान जी की कृपा हो जाए तो हम सोने में बदल जाएंगे। हनुमान जी के पास रामचंद जी का दिया हुआ लोहे को सोना बनाने वाला रसायन है।

अब हम तीसरे बिंदू पर आते हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग, ताप, व्याधि को नष्ट करने के लिए विभिन्न रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों का पूरा स्टॉक हमारे महाबली हनुमान जी के पास राम जी की कृपा से है। अगर हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर रही तो हमें कभी भी रोग या व्याधि से परेशान नहीं होना पड़ेगा। हमारा शरीर और मन सदैव स्वस्थ रहेगा। मन के स्वस्थ रहने के कारण हमारे ऊपर पवन पुत्र की और श्री रामचंद्र जी की कृपा बढ़ती ही जाएगी।

यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि ब्याधि का अर्थ केवल शारीरिक बीमारी नहीं है। बरन मानसिक परेशानियां भी व्याधि के अंतर्गत आती है। यह संस्कृत का शब्द है और यह साहित्य में एक भाव भी है। किसी भी प्रकार के  कष्ट पहुंचाने वाली वस्तु को भी व्याधि कहते हैं।

आयुर्वेद में इन सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए रसायनों का प्रयोग होता है। इसके अलावा आयुर्वेद के अनुसार वह औषध जो जरा और व्याधि का नाश करनेवाली हो। वह दवा जिसके खाने से आदमी बुड़ढ़ा या बीमार न हो उसको भी हम रसायन कहेंगे। ऐसी औषधों से शरीर का बल, आँखों की ज्योति और वीर्य आदि बढ़ता है। इनके खाने का विधान युवावस्था के आरंभ और अंत में है। कुछ प्रसिद्ध रसायनों के नाम इस प्रकार है। – विड़ग रसायन, ब्राह्मी रसायन, हरीतकी रसायन, नागवला रसायन, आमलक रसायन आदि। प्रत्येक रसायन में कोई एक मुख्य ओषधि होता है ; और उसके साथ दूसरी अनेक ओषधियाँ मिली हुई होती हैं।

परंतु राम रसायन एक ऐसी औषधि है जिनमें हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की क्षमता है। यह राम रसायन हमारे पवन पुत्र के पास है।

इस चौपाई का अगला वाक्यांश है “सदा रहो रघुपति के दासा”। जिसका सीधा साधा अर्थ भी है की हनुमान जी सदैव रामचंद्र जी के सेवा मैं प्रस्तुत रहे। रघुनाथ जी के शरण में रहे। हनुमान जी ने सदैव मनसा वाचा कर्मणा श्री रामचंद्र की सेवा की और और इसी बात का श्री रामचंद्र जी से आशीर्वाद भी मांगा।

बचपन में एक बार परमवीर हनुमान जी ने भगवान शिव के साथ अयोध्या के राजमहल में भगवान श्री राम को देखा था। बाद में सीता हरण के उपरांत जब श्री रामचंद्र जी ऋषिमुक पर्वत के पास पहुंचे तब वहां पर हनुमान जी सुग्रीव जी के आदेश से ब्राम्हण रुप में श्रीरामचंद्र जी के पास गये। हनुमान जी श्री रामचंद्र जी को पहचान नहीं पाए। बाद में श्री राम जी द्वारा बताने पर वे श्री रामचंद्र जी को पहचान गये। उन्होंने श्री रामचंद्र जी को अपना प्रभु बताते हुए कहा मैं मूर्ख वानर हूं। अज्ञानता बस आपको पहचान नहीं पाया परंतु आप तो तीन लोक के स्वामी हैं आप तो मुझे पहचान सकते थे।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/1/4)

अर्थ:- फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से उनके हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में। मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका। अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥

 (रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड/ 2/1)

अर्थ:- हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥

ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥

सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/2/2)

अर्थ:- उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥

श्री रामचंद्र जी का अयोध्या में राजतिलक हो चुका था। रामराज्य अयोध्या में आ गया था। रामचंद्र जी ने तय किया पुराने साथियों को उनके घर जाने दिया जाए। पहली मुलाकात के बाद से ही सुग्रीव, जामवंत, हनुमान जी, अंगद जी, विभीषण जी, सभी उनके साथ अब तक लगातार थे। अब आवश्यक हो गया था कि इन लोगों को घर जाने की अनुमति दी जाए। जिससे यह सभी लोग अपने परिवार जनों के साथ मिल सकें। विभीषण और सुग्रीव जी अपने-अपने राज्य में जाकर रामराज लाने का प्रयास करें। वहां की शासन व्यवस्था को ठीक करें। जाते समय श्री रामचंद्र जी सभी लोगों को कुछ ना कुछ उपहार दे रहे थे। जब सभी लोगों को श्री रामचंद्र जी ने विदा कर दिया उसके बाद हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या उपहार दिया जाए। हनुमान जी ने कहा कि आपने सभी को कुछ ना कुछ पद दिया है। मुझे भी एक पद दे दीजिए। उसके उपरांत उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पैर पकड़ लिए।

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड /दोहा क्रमांक 16)

अर्थ:- हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥

हनुमान जी द्वारा वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।

तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

(वाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड 40 / 17)

अर्थ : – ‘हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।’

जिसके बाद श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं-

‘एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।

चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका

तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।

लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।’

(बाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड/40/21-22)

अर्थात् :- ‘हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण रहेंगे। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।

एक दिन, विभीषण जी ने समुद्र की दी हुई एक उत्तम कोटि का अति सुंदर माला सीता मां को भेंट की। सीता मां ने माला ग्रहण करने के उपरांत श्री राम जी की तरफ देखा। रामजी ने कहा कि तुम यह माला उसको दो जिस पर तुम्हारी सबसे ज्यादा अनुकंपा है। सीता मैया ने हनुमान जी को मोतीयों की यह माला भेट दी। हनुमान जी ने माला को बड़े प्रेम से ग्रहण किया। उसके उपरांत हनुमान जी एक एक मोती को दांतोसे तोड़ कर कान के पास ले जाते और फिर फेंक देते। अपने भेंट की इस प्रकार बेइज्जती होते देख विभीषण जी काफी कुपित हो गए। उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि आपने यह माला तोड़ कर क्यों फेंक दी। इस पर हनुमान जी ने कहा कि हे विभीषण जी मैं तो इस माला की मणियों में सीताराम नाम ढूंढ रहा हूं। परंतु वह नाम इनमें नहीं है। अतः मेरे लिए यह माला पत्थर का एक टुकड़ा है। इस पर किसी राजा ने कहा कि आप हर समय आप हर जगह सीताराम को ढूंढते हो। आप ने जो यह शरीर धारण किए हैं क्या उसमें भी सीता राम हैं और उनकी आवाज आती है। इतना सुनते ही हनुमान जी ने पहले अपना एक बाल तोड़ा और उसे उन्हीं राजा के कान में लगाया। बाल से सीताराम की आवाज आ रही थी। उसके बाद उन्होंने अपनी छाती चीर डाली। उनके ह्रदय में श्रीराम और सीता की छवि दिखाई पडी साथ ही वहां से भी सीताराम की आवाज आ रही थी।

अपनी अनन्य भक्ति के कारण हनुमान जी के हृदय में श्रीराम और सीता के अलावा संसार की किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है की हनुमान जी सदैव ही श्री राम जी के दास रहे और श्री रामचंद्र जी सदैव ही हनुमान जी के प्रभु रहे।

जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 184 ☆ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 184 सुगंध ?

सिग्नल खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। एक व्यक्ति गुलाब के पुष्पगुच्छ और पंखुड़ियों की माला बेच रहा है। सौदा लेकर मेरे पास भी आता है। खरीदने का कोई कारण नहीं है तथापि चिंता और चिंतन का कारण अवश्य है। माला हो या पुष्पगुच्छ, दोनों में से किसी तरह की कोई सुगंध नहीं आ रही। एकाएक नथुने लगभग चार दशक पीछे लौटते हैं और तन-मन सुगंधित हो उठते हैं।

स्मरण आता है कि उन दिनों महाविद्यालय में कोई युवक किसी युवती को देने के लिए अपने बैग में छिपाकर गुलाब का एक पुष्प ले आता तो सारी कक्षा महक उठती। पुष्प किसके लिए लाया गया, यह तो पता नहीं चलता पर कक्षा में किसीके पास गुलाब है, इसकी जानकारी हर एक को हो जाती। गुलाब की गंध ही उसका सबसे बड़ा परिचय थी।

तब और अब का मंथन हुआ, विचार जन्मा। पिछले कुछ दशकों से पुष्पों की भाँति ही जीवन से भी सुगंध कहीं दूर हो चली है। सारे हाइब्रीड पुष्प अब एक जैसे, बड़े आकार के और अधिक सुंदर दिखने लगे हैं। विचार की परिधि में मनुष्य भी आया। पैसे और पद के अहंकार से हाइब्रीड-सा एलिट मनुष्य पर भीतर से सद्गुणों को डिलीट कर चुका मनुष्य। प्रदर्शन के भाव का मारा मनुष्य, भीतरी सुगंध के अभाव से हारा मनुष्य।

प्रदर्शन के समय में दर्शन की बात करना बहुधा हास्यास्पद हो सकता है किंतु विचारणीय है कि प्रदर्शन में मूल शब्द दर्शन ही है। दर्शन बचा रहेगा तो अन्य संभावनाएँ भी बची रहेंगी। मूल नष्ट हुआ तो अन्य सभी के नष्ट होने की आशंका भी बनी रहेगी।

संत कबीर लिखते हैं,

शीलवंत सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान।

तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।

शील अर्थात सद्गुण ही सबसे बड़ी सम्पदा और रत्नों की खान है। शील में ही तीनों लोकों की संपत्ति अंतर्निहित है।

भौतिक संपदा के साथ-साथ यह आंतरिक त्रिलोकी भी व्यक्ति पा ले तो व्यक्तित्व को सुगंधित होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

आइए अब हम नव निधियों के बारे में बात करते हैं।

1-पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि। माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।

पद्म निधि:-

पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है। उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है।सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ये लोग उदारता से दान भी करते हैं।

महापद्म निधि:-

महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है।वह और उसकी 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगा जाता है।

नील निधि:-

नील निधि उनके पास होती है जो कि धन सत्व और रज गुण दोनों ही से अर्जित करते हैं।सामान्यतया ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है।इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।

मुकुंद निधि:-

मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है।इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं निधि अर्जित करते हैं और स्वयं उसको खा पीकर समाप्त कर देते हैं।इसका एक उदाहरण नोएडा के पास रहने वाले मेरे मित्र के भाई साहब।भाई साहब किसान हैं और उनके पास बहुत ज्यादा जमीन है।इस जमीन को शासन ने एक्वायर की थी। उसके उपरांत मुआवजा दिया था।उस समय के हिसाब से मुआवजा की रकम काफी बड़ी थी।भाई साहब ने जमीन का मुआवजा पाने के उपरांत 10 साल तक लगातार ु के साथ पार्टी करने में व्यस्त रहे।उनका लिवर खराब हो गया जो कुछ बचा था वह दवा में खर्च हो गया और अंत में पूरी निधि समाप्त हो गई।मुकुंद निधि पहली पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।

नंद निधि:-

नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है।अगर आप उसको उसकी अवगुणों के बारे में बताएं तो वह अत्यंत नाराज हो जाएगा।ऐसे व्यक्ति आपके आसपास काफी मात्रा में मिलेंगे जैसे कि आपके अपने अधिकारी।उनको अपने पिछले जन्म में किए गए कार्यों के कारण अधिकार मिले। इस जन्म में वे इस अधिकार में इतने गरूर में आ गए कि अगर उनको कोई उनकी बुराई बताएं तो वे अत्यंत नाराज हो जाएंगे।

मकर निधि:-

मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। तमस हम अंधकार को कहते हैं।राक्षस और निशाचर तामसिक वृत्ति के होते हैं।इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। आज के बाहुबली राजनीतिज्ञ इसी निधि के उदाहरण है।ऐसे व्यक्ति का राज्य और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और मारपीट के लिए तैयार रहता है।।इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है। आतंकी घुसपैठिए मकर निधि के स्वामी होते हैं।डाकू भी इसी निधि के वाहक होते हैं।

शंख निधि:-

शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार और यहां तक की अपने पत्नी और बच्चों को भी नहीं देता है। शंख निधि के परिवार वाले भी गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है,। उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।

कच्छप निधि:-

कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। जिस प्रकार एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपने अंदर समेट लेता है,और उसके ऊपर एक काफी मजबूत कवच रहता है,ऐसे ही कच्छप निधि वाले व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर करते हैं और ना किसी को करने देते हैं।आप बहुत सारे ऐसे भिखारी देखोगे जिनके पास पैसा तो बहुत रहा है परंतु उन्होंने कुछ भी सुख नहीं होगा और उनके मरने के बाद उनके सामान में से लाखों रुपए बरामद हुए।

खर्व निधि:-

खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति में अन्य आठों निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति घमंडी भी होता हैं,। यह मौके मिलने पर दूसरों का पैसा छीन सकता है। इसके पास तामसिक वृत्ति ज्यादा होती है।

अब इनमें से आप जो भी सिद्धि और निधि चाहते हो उसको देने के लिए हमारे आराध्य श्री हनुमान जी समर्थ है।आपको मन क्रम वचन को एकाग्र करके शुद्ध सात्विक मन से केवल स्मरण करना है। आपके लिए जो भी उपयुक्त होगा वह वे स्वयं प्रदान कर देंगे।

जय श्री राम। जय हनुमान। 

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #176 ☆ ज़िन्दगी का सफ़र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िन्दगी का सफ़र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 176 ☆

☆ ज़िन्दगी का सफ़र 

‘पा लेने की बेचैनी/ और खो देने का डर / बस इतना ही है/ ज़िन्दगी का सफ़र’ यह वह भंवर है, जिसमें फंसा मानव लाख चाहने पर भी सुक़ून नहीं प्राप्त कर सकता। इंसान की फ़ितरत है कि वह किसी भी स्थिति में शांत नहीं रह सकता। यदि किसी कारण-वश उसे मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो वह आकुल-व्याकुल व क्लान्त हो जाता है। उसके हृदय की भाव-लहरियां उसे पल भर के लिए भी चैन से नहीं बैठने देतीं। वह हताश-निराश स्थिति में रहने लगता है और लंबे समय तक असामान्य वातावरण में रहने के कारण अवसाद-ग्रस्त हो जाता है, जिसकी परिणति अक्सर आत्महत्या के रूप में परिलक्षित होती है।

इतना ही नहीं, मनचाहा प्राप्त होने के पश्चात् उसे खो देने के प्रति मानव-मन आशंकित रहता है। इस स्थिति में बावरा मन भूल जाता है कि जो आज है, कल नहीं रहेगा, क्योंकि समय व प्रकृति परिवर्तनशील है और प्रकृति पल-पल रंग बदलती है, जिसका उदाहरण हैं…दिन-रात, अमावस-पूनम, ऋतु-परिवर्तन, फूलों का सूर्योदय होते खिलना व सूर्यास्त के समय मुरझा जाना… यह सिलसिला आजीवन अनवरत चलता रहता है और प्राकृतिक आपदाओं का समय-असमय दस्तक देना मानव-मन को आशंकित कर देता है। फलतः वह इसी ऊहापोह में फंसकर रह जाता है कि ‘कल क्या होगा? यदि स्थिति में परिवर्तन हुआ तो वह कैसे जी पाएगा और उन विषम परिस्थितियों से समझौता कैसे कर सकेगा? परंतु वह इस तथ्य को भुला देता है कि अगली सांस लेने के पहले मानव के लिए पहली सांस को बाहर निकाल फेंकना अनिवार्य होता है…और जब इस प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है, तो वह हृदय-रोग अथवा मस्तिष्काघात का रूप धारण कर लेता है।

सो! मानव को सदैव हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। व्यर्थ की चिंता, व्यग्रता, आवेश व आक्रोश उसके जीवन के संतुलन को बिगाड़ देते हैं; जीवन-धारा को बदल देते हैं और उस स्थिति में वह स्व-पर, राग-द्वेष अर्थात् तेरा-मेरा के विषाक्त चक्र में फंसकर रह जाता है। संशय, अनिश्चय व अनिर्णय की स्थिति बहुत घातक होती है, जिसमें उसकी जीवन-नौका डूबती- उतराती रहती है। वैसे ज़िंदगी सुखों व दु:खों का झरोखा है, आईना है। उसमें कभी दु:ख दस्तक देते हैं, तो कभी सुखों का सहसा पदार्पण होता है; कभी मन प्रसन्न होता है, तो कभी ग़मों के सागर में अवग़ाहन करता है। इस मन:स्थिति में वह भूल जाता है कि सुख-दु:ख दोनों अतिथि हैं… एक मंच पर इकट्ठे नहीं दिखाई पड़ सकते। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। अमावस के पश्चात् पूनम, गर्मी के पश्चात् सर्दी आदि विभिन्न ऋतुओं का आगमन क्रमशः निश्चित है, अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिये।

दुनिया एक मुसाफ़िरखाना है, जहां अतिथि आते हैं और कुछ समय ठहरने के पश्चात् लौट जाते हैं। इसलिए मानव को कभी भी, किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपेक्षा व इच्छाएं दु:खों का मूल कारण हैं। दूसरे शब्दों में सुख का लालच व उनके खो जाने की आशंका में डूबा मानव सदैव संशय की स्थिति में रहता है, जिससे उबर पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! ज़िंदगी एक सफ़र है, जहां हर दिन नए क़िरदारों से मुलाकात होती है, नए साथी मिलते हैं; जो कुछ समय साथ रहते हैं और उसके पश्चात् बीच राह छोड़ कर चल देते हैं। कई बार मोह-वश हम उनकी जुदाई की आशंका को महसूस कर हैरान- परेशान व उद्वेलित हो उठते हैं और निराशा के भंवर में डूबते-उतराते, हिचकोले खाते रह जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।

इंसान मिट्टी का खिलौना है..पानी के बुलबुले के  समान उसका अस्तित्व क्षणिक है, जो पल-भर में नष्ट हो जाने वाला है। बुलबुला जल से उपजता है और पुन: जल में समा जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी पंच-तत्वों से निर्मित है, जो अंत में उनमें ही विलीन हो जाता है। अक्सर परिवार-जन व संबंधी हमारे जीवन में हलचल उत्पन्न करते हैं, उद्वेलित करते हैं और वास्तव में वे समय-समय पर आने वाले भूकंप की भांति हैं, जो ज्वालामुखी के लावे की भांति समय-समय पर फूटते रहते हैं और कुछ समय पश्चात् शांत हो जाते हैं। परंतु कई बार मानव इन विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाता है और स्वयं को कोसने लगता है, जो अनुचित है, क्योंकि समय सदैव एक-सा नहीं रहता। समय के साथ-साथ प्रकृति में परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए हमें हर परिस्थिति को जीवन में सहर्ष स्वीकारना चाहिए।

आइए! इन असामान्य परिस्थितियों की विवेचना करें… यह तीन प्रकार की होती हैं। प्राकृतिक आपदाएं व जन्म-जात संबंध..जिन पर मानव का वश नहीं होता। उन्हें स्वीकारने में ही मानव का हित होता है, क्योंकि उन्हें बदलना संभव नहीं होता। दूसरी हैं– मानवीय आपदाएं, जो हमारे परिवार-जन व संबंधियों के रूप में हमारे जीवन में पदार्पण करती हैं, भले ही वे स्वयं को हमारा हितैषी कहते हैं। उन्हें हम सुधार सकते हैं, उनमें परिवर्तन ला सकते हैं… जैसे क्रोधित व्यक्ति से कन्नी काट लेना; प्रतिक्रिया देने की अपेक्षा उस स्थान को छोड़ देना; आक्षेप सत्य होने पर भी स्पष्टीकरण न देना आदि…क्योंकि क्षणिक आवेग, संचारी भावों की भांति पलक झपकते विलीन हो जाते हैं और निराशा रूपी बादल छँट जाते हैं। तीसरी आपदाओं के अंतर्गत सचेत रह कर उन परिस्थितियों व आपदाओं का सामना करना अर्थात् कोई अन्य समाधान निकाल कर दूसरों के अनुभव से सीख लेकर, उनका सहर्ष सामना करना। इस प्रकार हम अप्रत्याशित हादसों को रोक सकते हैं।

आइए! ज़िंदगी के सफ़र को सुहाना बनाने का प्रयास करें। ज़िंदगी की ऊहापोह से ऊपर उठ कर सुक़ून पाएं और हर परिस्थिति में सम रहें। सामंजस्यता ही जीवन है। परेशानियां आती हैं; जीवन में उथल-पुथल मचाती हैं और कुछ समय पश्चात् स्वयंमेव शांत हो जाती हैं; समाप्त हो जाती हैं। इसलिए इनसे भयभीत व त्रस्त होकर निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए। यदि हम में सामर्थ्य है, तो हमें उनका डट कर सामना करना चाहिए। यदि हम स्वयं को विषम परिस्थितियों का सामना करने में अक्षम पाते हैं, तो हमें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए और उनसे अकारण सींग नहीं लड़ाने चाहियें।

आप सोते हुए मनुष्य को तो जगा सकते हैं, परंतु जागते हुए को जगाना सम्भव नहीं है। उसे सत्य से अवगत कराने का प्रयास, तो भैंस के सम्मुख बीन बजाने जैसा होगा। इस परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना ही कारग़र उपाय है। सो! जो भी आपके पास है, उसे संजोकर रखिए। जो अपना नहीं है, कभी मिलेगा नहीं …यदि मिल भी गया, तो टिकेगा नहीं और जो भाग्य में है, वह अवश्य मिल कर रहेगा। इसलिए मानव को किसी वस्तु या प्रिय-जन के खो जाने की आशंका से स्वयं को विमुक्त कर अपना जीवन बसर करना चाहिए…’न किसी के मिलने की खुशी, न उससे बिछुड़ने अथवा खो जाने के भय व ग़म, अर्थात् हमें अपने मन को ग़ुलाम बना कर नहीं रखना चाहिए और न ही उसके अभाव में विचलित होना चाहिए।’ यह अलौकिक आनंद की स्थिति मानव को समरसता प्रदान करती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “रामनवमी – एक आत्मीय पत्र…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ “रामनवमी – एक आत्मीय पत्र…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

प्रिय पाठकगण,

आप सबको मेरा सादर प्रणिपात!

रामनवमी के इस मंगलमय पर्व के अवसर पर आप सबको अनेकानेक शुभकामनाएं!

‘चैत्र मास त्यात शुद्ध नवमी तिथी, गंधयुक्त तरीही वात उष्ण हे किती,

दोन प्रहरी कां ग शिरी सूर्य थांबला, राम जन्मला ग सखी राम जन्मला’

(अर्थात, चैत्र महीने की नवमी तिथी है, सुगन्धित परन्तु गर्म हवा बह रही है, ऐसे में दूसरे प्रहर को सूर्य माथेपर आकर क्यों रुका है? क्योंकि राम का जन्म हुआ है!)

प्रतिभासम्पन्न कवि ग दि माडगूळकर द्वारा रचे हुए और महान संगीतकार और गायक सुधीर फडके द्वारा गाये हुए ‘गीतरामायण’ के इस इस चिरंतन रामजन्म के गीत का एक एक शब्द चैत्र महीने के नवोल्लास को लेकर प्रकट हुआ है ऐसा लगता है| गुड़ीपाडवा को नववर्ष का जन्म हुआ, तथा पृथ्वी को प्रतीक्षा थी रामजन्म की| नूतन वासंतिक पल्लवी का गुलाबी महीन वस्त्र पहनकर तथा अभी अभी अंकुरित पीतवर्ण सुगन्धित आम्रमंजरी के गजरोंसे सजकर वह तैयार हुई| धुप में खेलकर बालकों के अंग जिस तरह लाल होते हैं वैसे ही उष्ण समीर के झोंके आज जाकर सूर्य का प्रदीप्त साथ पाकर तप्त हुए हैं| उनके कानों तक एक सुन्दर वार्ता पहुंची और वे तत्काल निकल पडे मनू द्वारा निर्मित अयोध्या नगरी को|

मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में प्रथम पुरी (नगरी) यानि अयोध्या! सरयू नदी के किनारे पर बसी यह स्वर्ग से सुन्दर नगरी| अब यहाँ आनन्द की कोई सीमा नहीं है| सारे सुखों के आगार रही इस नगर में बस एक अभाव था, महाराज दशरथ पुत्रसुख से वंचित थे| परन्तु अब यह दुःख समाप्ति के मार्ग पर है| दशरथ की तीनों रानियां गर्भवती हैं और अब समय आ गया है उनकी अपत्य प्राप्ति का. यह उत्सुकता अब चरम सीमा पर पहुँच गयी है| प्रकृति भी इस उत्सुकता में शामिल हो गई है| पेडों पर कोमल कोंपल खिले हैं| बसंत ऋतु की बहार कोने कोने में दृष्टिगत हो रही है, तथा नदियोंका हृदय आनंद से अभिभूत हो रहा था| उनके पात्र प्रसन्नता से पूर्ण हो कर बह रहे थे| मर्यादापुरुषोत्तम का जन्म होगा, केवल इसी विचार से उन्होंने अपनी मर्यादा पार नहीं की थी| अयोध्या वासियोंके मानों पिछले सात जन्मों के पुण्य एकत्रित होने से उज्वल हो उठे थे| श्रीराम के मधुरतम बाल्यकाल का वे अनुभव करने वाले थे| राजमहल में भागदौड़ और गडबड देखते ही बनती थी| राजस्त्रियाँ, दास दासियाँ, दाइयां तो बस तीनों महलोंमें से यहाँ वहां दौड़ रही हैं| महाराज दशरथ, उनके परम मित्र महामंत्री सुमंत, मंत्रीगण, इनको तो चिंता ने व्याकुल कर दिया है| सूर्य माथेपर आने लगा है, तीनों रानियों की प्रसव वेदनाएं चरम सीमा पर पहुंची हैं|

अब यहाँ सबके साथ सूर्यदेव भी तनिक ठहर गए हैं, अयोध्या के माथेपर| ‘सूर्यवंश की नयी पीढी का जन्म होने में बस थोडा सा अवधि बाकी है, अब रुक ही जाऊँ क्षणके लिए|’ ऐसा सोचकर सूर्य आसमान के मध्य में थम गया है| ‘अब उसे कितनी देर तक प्रतीक्षा करवाऊं? ले ही लूँ जन्म इस ठीक मध्यान्ह समयपर, यहीं वह समय और यहीं वह घडी’ यह विचार करते हुए कौसल्या के बालक ने जन्म लिया। फिर कैकेयी के भरत को कैसे धीरज होगा? उसे भी पुत्र हुआ| सुमित्रा के गोद में तो जुड़वाँ बालक थे, एक को राम के सेवा में तो दूसरे को भरत की सेवा में उपस्थित होना था| दो बडे भैया तो पहले ही जगत में आ चुके थे| सो अब समय गँवाना ठीक नहीं था| सुमित्रा के दोनों बालकों ने भी जन्म लिया| इन बालकों के जन्म के अवसर पर ग्रह और नक्षत्र मानों आप ही अत्युच्च स्थान पर विराजमान हो गए थे| इक्ष्वाकुकुलभूषण श्रीराम का वर्ण नीलकमल के समान था, उसके नेत्रकमल किंचित आरक्तवर्णी थे, हाथ थे ‘आजानुबाहू’ और स्वर दुन्दुभिसमान था|

दिन ब दिन बालक बडे हो रहे थे| राजा दशरथ, उसकी तीनों रानियाँ, दास दासियाँ और अयोध्या के जन, ये समस्त लोग रामलला के लाड प्यार करने में मगन हैं| इस सांवले सलोने बालक ने पहला कदम रखा, तो उसे देखने का दैवी परमानंद जिसने अनुभव किया, उसे स्वर्गसुख की प्राप्ति हुई, यहीं समझ लें| इस दृश्य का वर्णन करते हुए चारों वेद मूक हो गए, सरस्वती को तनिक भी शब्द सूझ नहीं रहे थे, शेषनाग अपने सहस्त्र मुखों से यह वर्णन नहीं कर पाया, परन्तु, तुलसीदास तो हैं श्रीराम के परम भक्त, उन्होंने रामप्रभु के मनोरम शैशव का ऐसा रसमय वर्णन किया है कि, मानों हम दशरथ महाराज के राजमहल का दृश्य देख रहे हैं इतना पारदर्शी है मित्रों! यह वर्णन यानि शब्द तथा अर्थ का मधुशर्करा ऐसा मधुर योग! श्रीरामचंद्र के गिरते उठते शिशु चरण, उनके शरीर पर लगी धूल पोंछती रानियां, उनके पैंजनियों की झंकार और नासिका में हिलती डुलती लटकन! रामजी के इस शैशव रूप पर सब बलिहारी हैं|

“ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां,

किलकि-किलकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय,

धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां |

अंचल रज अंग झारि, विविध भांति सो दुलारि,

तन मन धन वारि-वारि, कहत मृदु बचनियां |

विद्रुम से अरुण अधर, बोलत मुख मधुर-मधुर,

सुभग नासिका में चारु, लटकत लटकनियां |

तुलसीदास अति आनंद, देख के मुखारविंद,

रघुवर छबि के समान, रघुवर छबि बनियां |”

मित्रों, आइए, आज के परमपवित्र दिन रामजन्म का आनंद पूरी तरह मनाऐं! 

‘मंगल भवन अमंगल हारी, द्रबहु सु दसरथ अचर बिहारी

राम सिया राम सिया राम जय जय राम!’

पाठकों, अगली बार हमारी भेंट होगी परम पवित्र अयोध्या पुरी में!

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

दिनांक – ३० मार्च २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 203 ☆ रामनवमी विशेष – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग… — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 203 ☆  

? आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग…  – ?

हम, आस्था और आत्मा से राम से जुडे हुये हैं। ऐसे राम का चरित प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये केवल मनोरम ही तो हो सकता है। मधुर ही तो हो सकता है। अधरं मधुरमं वदनम् मधुरमं,मधुराधि पते रखिलमं मधुरमं -कृष्ण स्तुति में रचित ये पंक्तियां इष्ट के प्रति भक्त के भावों की सही अनुभूति है, सच्ची अभिव्यक्ति है। जब श्रद्वा और विश्वास प्राथमिक हों तो शेष सब कुछ गौंण हो जाता है। मात्र मनोहारी अनुभूति ही रह जाती है। मां प्रसव की असीम पीडा सहकर बच्चे को जन्म देती है, पर वह उसे उतना ही प्यार करती है,मां बच्चे को उसके प्रत्येक रूप में पसंद ही करती है। सच्चे भक्तों के लिये मानस का प्रत्येक प्रसंग ऐसे ही आत्मीय भाव का मनोरम प्रसंग है। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा,वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता,की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ,सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है।श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है।

राम चरित मानस के ऐसे मनोरम प्रसंगों को समाहित करने का बिंदु रूप प्रयास करें तो वंदना, शिव विवाह, राम प्रागट्य, अहिल्या उद्वार, पुष्प वाटिकाप्रसंग, धनुष भंग, राम राज्याभिषेक की तैयारी, वनवास के कठिन समय में भी केवट प्रसंग, चित्रकूट में भरत मिलाप, शबरी पर राम कृपा, वर्षा व शरद ऋतु वर्णन,रामराज्य के प्रसंग विलक्षण हैं जो पाठक, श्रोता, भक्त के मन में विविध भावों का संचार करते हैं। स्फुरण के स्तर तक हृदय के अलग अलग हिस्से को अलग आनंदानुभुति प्रदान करते हैं। रोमांचित करते हैं। ये सारे ही प्रसंग मर्म स्पर्शी हैं, मनोरम हैं।

मनोरम वंदना

जो सुमिरत सिधि होई गण नायक करि बर बदन

करउ अनुगृह सोई, बुद्वि रासि सुभ गुन सदन

मूक होहि बाचाल, पंगु चढिई गिरि बर गहन

जासु कृपासु दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन

प्रभु की ऐसी अद्भुत कृपा की आकांक्षा किसे नहीं होती . ऐसी मनोरम वंदना अंयत्र दुर्लभ है। संपूर्ण वंदना प्रसंग भक्त को श्रद्वा भाव से रूला देती है।

शिव विवाह

शिव विवाह के प्रसंग में गोस्वामी जी ने पारलौकिक विचित्र बारात के लौककीकरण का ऐसा दृश्य रचा है कि हम हास परिहास, श्रद्वा भक्ति के संमिश्रित मनो भावों के अतिरेक का सुख अनुभव करते हैं।

गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं

भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहिं

जेवंत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूं न परै कह्यो

अचवांई दीन्हें पान गवनें बास जहं जाको रह्यो।

राम जन्म नहीं हुआ, उनका प्रागट्य हुआ है ……

भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी

लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आमुद भुजचारी

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा

कीजै सिसु लीला अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा

सचमुच यह सुख अनूपा ही है। फिर तो ठुमक चलत राम चंद्र,बाजत पैजनियां…., और गुरू गृह पढन गये रघुराई…., प्रभु राम के बाल रूप का वर्णन हर दोहे,हर चैपाई, हर अर्धाली, हर शब्द में मनोहारी है।

अहिल्या उद्वार के प्रसंग में वर्णन है …

परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तप पुंज सही

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नही आवई बचन कही

अतिसय बड भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जल धार बही

मन मस्तिष्क के हर अवयव पर प्रभु कृपा का प्रसाद पाने की आकांक्षा हो तो इस प्रसंग से जुडकर इसमें डूबकर इसका आस्वादन करें, जब शिला पर प्रभु कृपा कर सकते हैं तो हम तो इंसान हैं। बस प्रभु कृपा की सच्ची प्रार्थना के साथ इंसान बनने के यत्न करें, और इस प्रसंग के मनोहारी प्रभाव देखें ।

पुष्प वाटिका प्रसंग….

श्री राम शलाका प्रश्नावली के उत्तर देने के लिये स्वयं गोस्वामी जी ने इसी प्रसंग से दो सकारात्मक भावार्थों वाली चौपाईयों का चयन कर इस प्रसंग का महत्व प्रतिपादित कर दिया है।

सुनु प्रिय सत्य असीस हमारी पूजहिं मन कामना तुम्हारी

एवं

सुफल मनोरथ होंहि तुम्हारे राम लखन सुनि भए सुखारे

जिस प्रसंग में स्वयं भगवती सीता आम लडकी की तरह अपने मन वांछित वर प्राप्ति की कामना के साथ गिरिजा मां से प्रार्थना करें उस प्रसंग की आध्यत्मिकता पर तो ज्ञानी जन बडे बडे प्रवचन करते हैं। इसी क्रम में धनुष भंग प्रकरण भी अति मनोहारी प्रसंग है।

राम राज्याभिषेक की तैयारी

लौकिक जगत में हम सबकी कामना सुखी परिवार की ही तो होती है समूची मानस में मात्र तीन छोटे छोटे काल खण्ड ही ऐसे हैं जब राम परिवार बिना किसी कठिनाई के सुखी रह सका है।

पहला समय श्री राम के बालपन का है। दूसरा प्रसंग यही समय है जब चारों पुत्र,पुत्रवधुयें, तीनों माताओं और राजा जनक के साथ संपूर्ण भरा पूरा परिवार अयोध्या में है, राम राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है। तीसरा कालखण्ड राम राज्य का वह स्वल्प समय है जब भगवती सीता के साथ राजा राम राज काज चला रहे हैं।

राम राज्याभिषेक की तैयारी का प्रसंग अयोध्या काण्ड का प्रवेश है। इसी प्रसंग से राम जन्म के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु भूमिका बनती है।

लौकिक दृष्टि से हमें राम वन गमन से ज्यादा पीडादायक और क्या लग सकता है पर जीवन, संघर्ष का ही दूसरा नाम है। पल भर में, होने वाला राजा वनवासी बन सकता है, वह भी कोई और नहीं स्वयं परमात्मा ! इससे अधिक शिक्षा और किस प्रसंग से मिल सकती है ? यह गहन मनन चिंतन व अवगाहन का मनोहारी प्रसंग है।

केवट प्रसंग…

मांगी नाव न केवट आना कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

जिस अनादि अनंत परमात्मा का मरमु न कोई जान सका है न जान सकता है, जो सबका दाता है, जो सबको पार लगाता है, वही सरयू पार करने के लिये एक केवट के सम्मुख याचक की मुद्रा में है! और बाल सुलभ भाव से केवट पूरे विश्वास से कह रहा है – प्रभु तुम्हार मरमु मैं जाना। और तो और वह प्रभु राम की कृपा का पात्र भी बन जाता है। सचमुच प्रभु बाल सुलभ प्रेम के ही तो भूखे हैं। रोना आ जाता है ना .. कैसा मनोरम प्रसंग है।

इसी प्रसंग में नदी के पार आ जाने पर भगवान राम केवट को उतराई स्वरूप कुछ देना चाहते हैं किन्तु वनवास ग्रहण कर चुके श्रीराम के पास क्या होता यहीं भाव, भाषा की दृष्टि से तुलसी मनोरम दृश्य रचना करते हैं। मां सीता राम के मनोभावों को देखकर ही पढ लेती हैं,और –

‘‘ पिय हिय की सिय जान निहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी ’’।

भारतीय संस्कृति में पति पत्नी के एकात्म का यह श्रेष्ठ उदाहरण है।

 चित्रकूट में भरत मिलाप….

आपके मन के सारे कलुष भाव स्वतः ही अश्रु जल बनकर बह जायेंगे, आप अंतरंग भाव से भरत के त्याग की चित्रमय कल्पना कीजीये, राम को मनाने चित्रकूट की भरत की यात्रा, आज भी चित्रकूट की धरती व कामद गिरि पर्वत भरत मिलाप के साक्षी हैं। इसी चित्रकूट में –

चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर,

तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर

यह तीर्थ म.प्र. में ही है, एक बार अवश्य जाइये और इस प्रसंग को साकार भाव में जी लेने का यत्न कीजीये। राम मय हो जाइये,श्रद्वा की मंदाकिनी में डुबकी लगाइये।

बरबस लिये उठाई उर, लाए कृपानिधान

भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।

भरत से मनोभाव उत्पन्न कीजीये,राम आपको भी गले लगा लेंगें।

शबरी पर कृपा…

नवधा भक्ति की शिक्षा स्वयं श्री राम ने शबरी को दी है। संत समागम, राम कथा में प्रेम, अभिमान रहित रहकर गुरू सेवा, कपट छोडकर परमात्मा का गुणगान, राम नाम का जाप, ईश्वर में ढृड आस्था, सत्चरित्रता, सारी सृष्टि को राम मय देखना, संतोषं परमं सुखं, और नवमीं भक्ति है सरलता। स्वयं श्री राम ने कहा है कि इनमें से काई एक भी गुण भक्ति यदि किसी भक्त में है तो – ‘‘सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।’’ जरूरत है तो बस शबरी जैसी अगाध श्रद्वा और निश्छल प्रेम की। राम के आगमन पर शबरी की दशा यूं थी –

प्रेम मगन मुख बचन न आवा पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा

ऋतु वर्णन के प्रसंग …

गोस्वामी तुलसी दास का साहित्यिक पक्ष वर्षा,शरद ऋतुओं के वर्णन और इस माध्यम से प्रकृति से पाठक का साक्षात्कार करवाने में, मनोहारी प्रसंग किष्किन्धा काण्ड में मिलता है।

छुद्र नदी भर चलि तोराई जस थोरेहु धनु खल इतिराई

प्रकृति वर्णन करते हुये गोस्वामी जी भक्ति की चर्चा नहीं भूलते -….

बिनु घन निर्मल सोह अकासा हरिजन इव परिहरि सब आसा

रामराज्य

सुन्दर काण्ड तो संपूर्णता में सुन्दर है ही। रावण वध, विभीषण का अभिषेक, पुष्पक पर अयोध्या प्रस्थान आदि विविध मनोरम प्रसंगों से होते हुये हम उत्तर काण्ड के दोहे क्रमांक 10 के बाद से दोहे क्रमांक 15 तक के मनोरम प्रसंग की कुछ चर्चा करते है। जो प्रभु राम के जीवन का सुखकर अंश है। जहां भगवती सीता,भक्त हनुमान, समस्त भाइयों, माताओं, अपने वन के साथियों, एवं समस्त गुरू जनों अयोध्या के मंत्री गणों के साथ हमारे आराध्य राजा राम के रूप में आसीन हैं। राम पंचायतन यहीं मिलता है। ओरछा के सुप्रसिद्व मंदिर में आज भी प्रभु राजा राम अपने दरबार सहित इसी रूप में विराजमान है।

राज्य संभालने के उपरांत ‘ जाचक सकल अजाचक कीन्हें ’ राजा राम हर याचना करने वाले को इतना देते हैं कि उसे अयाचक बनाकर ही छोडते हैं, अब यह हम पर है कि हम राजा राम से क्या कितना और कैसे, किसके लिये मांगते हैं ।ओरछा के मंदिर में श्री राम, आज भी राजा के स्वरूप में विराजे हुये हैं , जहां उन्हें बाकायदा आज भी सलामी दी जाती है ।  

पर सच्चे अर्थो में तो वे हम सब के हृदय में विराजमान हैं पर हमें अपने सत्कर्मों से अपने ही हृदय में बिराजे राजा राम के दरबार में पहुंचने की पात्रता तो हासिल करनी ही होगी, तभी तो हम याचक बन सकते हैं।

जय राम रमारमनं समनं भवताप भयाकुल पाहि जनं

अवधेश सुरेश रमेस विभो सरनागत मागत पाहि प्रभो

बस इसी विनती से इस मनोरम प्रसंग का आनंद लें कि

गुन सील कृपा परमायतनं प्रनमामि निरंतर श्री रमनं

रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं महिपाल बिलोकय दीनजनं।।

जय जय राजा राम की। जय श्रीराम।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 183 ☆ रामनवमी विशेष – राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 183 राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर, अथवा उन पर भी लागू थे। फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए।

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे। सिंहासन के लिए अपने भाइयों, पिता और निकट-सम्बंधियों की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’ लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर, मुझे तो केवल घाव हुआ, वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? “

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी, सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…! कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

श्रीरामनवमी की बधाई। त्योहार पारंपरिक पद्धति से मनाएँ, सपरिवार मनाएँ ताकि आनेवाली पीढ़ी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मूल्यों के रिक्थ से समृद्ध रहे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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