वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य ““मूड” की बीमारी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 13 ☆
☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “मूड” की बीमारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
☆
दुनिया के सभी डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों, मनोवैज्ञानिकों और जादू – टोना जानने वालों से “मूड नामक बीमारी” से पीड़ित मुझ जैसे लाखों करोड़ों भाई – बहिनों का हाथ जोड़ कर निवेदन है कि वे जल्दी से जल्दी इस बीमारी का सस्ता और टिकाऊ इलाज ढूंढें। आज के युग में हृदय रोग और कैंसर की भांति “मूड” नामक बीमारी भी बड़ी तेज गति से फैलती हुई लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ रही है। इसके लिए लिंग और उम्र का बंधन नहीं है। बच्चे, जवान, बूढ़े सभी महिलाएं और पुरुष इसका शिकार हो रहे हैं। प्रेमी अथवा प्रेमिका के खराब मूड के कारण न जाने कितने प्रेमी जोड़े बिछुड़ के विरह गीत गाने लगते हैं तो अच्छा मूड लोगों को मिला भी देता है।
ख़िलाफ़-ए-मा’मूल मूड अच्छा है आज मेरा मैं कह रही हूं
फिर कभी मुझसे करते रहना ये भाव – ताव मुझे मनाओ
मजे की बात तो यह है कि मूड से जो पीड़ित हैं उन्हें तो नुकसान होता ही है, जो उनके संपर्क में आते हैं उन्हें भी नुकसान उठाना पड़ता है। घर के मुखिया का मूड खराब तो सारा घर परेशान, ऑफीसर का मूड खराब तो सारे कर्मचारी और यदि नेता का मूड खराब तो जनता परेशान। सब जानते हैं कि जनता का अच्छा/बुरा मूड यदि किसी को नेता बना देता है तो उसे गद्दी से उतार भी देता है। न जाने क्या बला है यह, कहां से आती है यह मूड की बीमारी और काम बनाकर अथवा बिगाड़ कर कहां चली जाती है।
कितनी भी कोशिश कर लो
खुश रहने की…..
मगर कोई न कोई कुछ कह कर…..
मूड ऑफ कर ही देता है…..
मूड नहीं है तो आफत, मूड है तो आफत, दोनों तरफ से आफत। यदि मूड है तो पता नहीं आदमी क्या कर डाले, यदि मूड नहीं है तो भी पता नहीं आदमी क्या कर डाले। आजकल बिना मूड के कोई कुछ करना ही नहीं चाहता। काम तभी होगा जब मूड होगा।
प्रश्न उठता है कि मूड कब होगा, कैसे होगा ? कुछ लोग भाग्यवादी होते हैं। ऐसे लोग उस समय तक के लिए काम बंद कर देते हैं जब तक “मूड” नहीं आता, जब भूले भटके कहीं से मूड आता है और ऐसे लोगों के दिमाग की सांकल खटखटाता है तब ये लोग काम करते हैं। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो भाग्यवादी नहीं कर्मवादी हैं। ऐसे लोग मूड के आने का रास्ता नहीं देखते बल्कि तरह – तरह के उपायों से मूड बनाने का प्रयत्न करते हैं। कोई गीत – संगीत सुनकर, कोई चाय – कॉफी, सिगरेट पीकर, तमाखू खाकर, कोई एकांत में, कोई भीड़ में, तो कोई किसी बार में 2/4 पैग पीकर अपना मूड बनाते हैं। किसी का मूड किसी व्यक्ति विशेष, अपने परिजनों अथवा अपने पड़ोसियों या अधीनस्थों को डांटने – फटकारने, चीखने – चिल्लाने से ठीक हो जाता है तो कुछ लोगों का उछल – कूद करता मूड किसी से अपमानित होकर, जूते खाकर ठीक हो जाता है। कुछ बेचारे ऐसे भी हैं जिन्हें हर मानसिक परिस्थिति में काम करना पड़ता है –
जिंदगी ऐसी गुजर रही है कि
मूड ऑफ़ होने पर भी…..
हंसना पड़ता है ताकि किसी….
को पता न चले…..!!
जी हां भाईयो, इस कठिन जीवन में तमाम अवरोधों और तनावों के बाद भी यदि आपका मूड अच्छा है तो आप भाग्यशाली हैं और यदि किसी कारण से आपका मूड खराब हो जाए तो अपनी मुख मुद्रा और वाणी से किसी को अपने खराब मूड का पता न लगने दें। सामने वाले को खुश और सामान्य दिखते हुए सहज व्यवहार करें। कहते हैं कि फायदा उठाने का मौका आने पर लोग गधे को भी बाप बना लेते हैं। चापलूस और चमचों से सीखना चाहिए वे कितना अपमान सहकर लातें खाकर भी अपना मूड ठीक रखते हैं और काम के व्यक्ति की चरण वंदना जारी रख कर अपनी सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। हम और आप न जाने कितने ऐसे अयोग्य व्यक्तियों को जानते हैं जो अपने मूड को वश में करके शीर्ष पर पहुंच गए और इसके विपरीत न जाने कितने योग्य व्यक्ति मूड के वशीभूत होकर खाक में मिल गए। सावधान, यदि आप “मूड” के वश में आ गए तो नुकसान पक्का है और यदि “मूड” को वश में कर लिया तो सफलता की राह भी पक्की है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – “रावण के पुतले की शर्त” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # ३७६ ☆
व्यंग्य – रावण के पुतले की शर्त श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
विजयादशमी की शाम थी, बस्ती बस्ती दशहरा मैदान, रामलीला ग्राउंड, स्टेडियम जैसे मैदानों में रावण, कुंभकरण, मेघनाथ के ऊंचे से ऊंचे पुतले खड़े थे। हर ऐसे तमाशे में बिना बुलाए भीड़ जुट ही जाती है। बच्चे गुब्बारों के लिए पिता से जिद कर रहे थे, चाट के ठेले के गिर्द महिलाओं की भीड़ थी। चाट वाला चुनावी बजट में वित्त मंत्री के प्रलोभन भरी घोषणाओं जैसी फुलकियां बांट रहा था। आसमान में बादल छाए थे और रामलीला मैदान में रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के पुतले हेकड़ी और अकड़ के साथ खड़े थे। ज्यों ही मुख्य अतिथि ने रावण दहन की कोशिश की कहीं तेज बारिश ने उत्सव को भीगो दिया, तो कहीं हवा ने मंच उड़ा दिए लोग हैरान थे दियासलाई की तीलियां जल नहीं रही थी। किसी न किसी कारण से रावण जलने का नाम ही नहीं ले रहा था।
परेशान आयोजकों ने रावण को निहारा तो
रावण के पुतले से आवाज आई “मैं तो जलने को तैयार हूँ, हर साल जला तो लेते ही हो मुझे, पर इस बार मेरी एक छोटी सी शर्त है।
वह क्या? आयोजक पूछ बैठा।
रावण ने कहा मुझे तो स्वयं श्रीराम विद्वान मान चुके हैं, पता है न।
हां तो, आयोजक बोले।
मेरी शर्त यह है कि मुझमें आग वही लगाए जिसमें राम की सी मर्यादा का अंश तो हो!”
मेघनाथ का पुतला झनझनाया “हाँ, हमें जलाना है तो लक्ष्मण-सा कोई लक्षण तो दिखे जलाने वाले में!”
यह सुनकर मैदान में हलचल मच गई। एक नेता जी आगे बढ़े, जो हमेशा धर्म की बात करते थे। उन्होंने माचिस उठाई, रावण हँसा “अरे नेता जी, आपके भाषणों भर में राम हैं पर स्वयं तय कर लें यदि आपके काम में भी राम हो तो ही तीली जलाना।
वरना आग लगते ही मैं तुम पर गिर पड़ूंगा और मेरे पुतले की सारी आतिश बाजी तुम्हें समेट लेगी, नेताजी बगलें झांकते खिसक लिए। एक बड़ा कारोबारी सामने आया, उसने पुतले पर नोट उड़ाते हुए, आग लगाने की कोशिश की तो भी पुतला नहीं जला, नोटो के बंडल जरूर जल गए। रावण बोला अपने हर काम रुपए की ताकत से करवाने वाले अभिमानी सेठ, मैं तो कुबेर से उसका पुष्पक विमान छीन चुका हूं, तुम क्या मुझे काले रुपयों से आग लगाने की कोशिश कर रहे हो।
सारा दिन सोशल मीडिया पर धार्मिक पोस्ट करने वाला एक जेन जी पीढ़ी का नौजवान आगे बढ़कर रावण दहन को उद्यत हुआ पर उसकी माचिस भी काम नहीं आई, कुंभकरण उबासी लेते हुए बोला “तुम तो मुझसे भी बडे सोने वाले निकले, नौजवान तुम सोशल मीडिया के सपनों की गहरी नींद सो रहे हो।
तुम कुंभकरण सरकारों को आग लगाकर जगाना चाहते हो, असंभव है।
आयोजक गिड़गिड़ाए हे रावण आप तो असाधारण विद्वान हैं, स्वयं भगवान राम आपकी विद्वता का लोहा मानते हैं, हम निरीह आयोजक हैं जो साल दर साल राम लीला दोहराते हैं, हमारी लाज अब आपके हाथ है, आप साल दर साल जलते आए हैं, आप ही बताइए आप कैसे जलेंगे ?
रावण की आवाज गूँजी “आह, दिन पर दिन बुराइयों के लंबे, रंगीन रावण के पुतले तो बना लेते ही, पर अपने अंदर के अहंकार के रावण को पनपने देते हो। बिजली की चकाचौंध और आतिशबाजी में तो लाखों रुपए उड़ा देते हैं, पर पड़ोसी की मदद के लिए समय नहीं निकाल पाते। विजयादशमी का असली अर्थ है बुराइयों पर विजय! अपने भीतर के क्रोध, लोभ और अहंकार को नहीं जलाओ, पुतले वाले बाहरी रावण का दहन तो सहज रस्म मात्र है। वास्तविक विजय तो तब होगी जब राम हमारे व्यवहार में दिखेंगे, सिर्फ मुखौटों में नहीं। नीलकंठ के दर्शन की दार्शनिकता समझो। जब लक्ष्मण का संयम और समर्पण हमारे व्यवहार में झलकेगा, मर्यादा हमारे चरित्र का हिस्सा बनेगी, तभी रावण दहन सार्थक होगा। विजयादशमी का पर्व ऐसा तमाशा बनकर न रह जाए जहाँ रावण जलने से पहले हमारी नैतिकता जलती नजर आती है। आखिर आयोजकों ने प्रतिकूल मौसम के बावजूद किसी तरह कपूर आदि तेज ज्वलनशील पदार्थों से किसी तरह रावण दहन कर ही डाला, एक और साल सार्वजनिक रामलीला पूरी हुई।
(‘उरतृप्त’ उपनाम से व्यंग्य जगत में प्रसिद्ध डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा अपनी भावनाओं और विचारों को अत्यंत ईमानदारी और गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण उनके लेखन के विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान से मिलता है। वे न केवल एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं, बल्कि एक कवि और बाल साहित्य लेखक भी हैं। उनके व्यंग्य लेखन ने उन्हें एक विशेष पहचान दिलाई है। उनका व्यंग्य ‘शिक्षक की मौत’ साहित्य आजतक चैनल पर अत्यधिक वायरल हुआ, जिसे लगभग दस लाख से अधिक बार पढ़ा और देखा गया, जो हिंदी व्यंग्य के इतिहास में एक अभूतपूर्व कीर्तिमान है। उनका व्यंग्य-संग्रह ‘एक तिनका इक्यावन आँखें’ भी काफी प्रसिद्ध है, जिसमें उनकी कालजयी रचना ‘किताबों की अंतिम यात्रा’ शामिल है। इसके अतिरिक्त ‘म्यान एक, तलवार अनेक’, ‘गपोड़ी अड्डा’, ‘सब रंग में मेरे रंग’ भी उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं। ‘इधर-उधर के बीच में’ तीसरी दुनिया को लेकर लिखा गया अपनी तरह का पहला और अनोखा व्यंग्य उपन्यास है। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के हाथों) से सम्मानित किया गया है। राजस्थान बाल साहित्य अकादमी के द्वारा उनकी बाल साहित्य पुस्तक ‘नन्हों का सृजन आसमान’ के लिए उन्हें सम्मानित किया गया है। इनके अलावा, उन्हें व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों साहित्य सृजन सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। डॉ. उरतृप्त ने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने और समन्वय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना की विश्वविद्यालयी पाठ्य पुस्तकों में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है। कई पाठ्यक्रमों में उनकी व्यंग्य रचनाओं को स्थान दिया गया है। उनका यह सम्मान दर्शाता है कि युवा पाठक गुणवत्तापूर्ण और प्रभावी लेखन की पहचान कर सकते हैं।)
जीवन के कुछ अनमोल क्षण
तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित।
मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी से भेंट करते हुए।
बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए।
आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना वीज़ा का चक्कर।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # ६६ – वीज़ा का चक्कर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
वह सुबह कुछ अलग थी। सूरज ने जैसे तय कर लिया था कि आज वह अमेरिका के कॉर्पोरेट टावरों पर नहीं, भारत के वीज़ा एप्लिकेशन फॉर्म पर चमकेगा। श्रीमान चिराग वर्मा, जो पिछले तीन साल से न्यू जर्सी की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में “टेक्निकल एसेट” की तरह काम कर रहे थे, आज अपने बॉस के केबिन में बुलाए गए थे। बॉस का नाम था मिस्टर ग्रेग थॉर्न—चेहरा ऐसा जैसे नैतिकता को पेंशन पर भेज चुका हो।
“चिराग, हमें तुमसे एक बात करनी है,” ग्रेग ने कहा, जैसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन से पहले मरीज को बताता है कि एनेस्थीसिया महंगा है।
चिराग ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन मुस्कान वीज़ा की शर्तों में अटक गई।
“तुमने उस ट्वीट को देखा?” ग्रेग ने पूछा।
“जी सर, देखा,” चिराग ने कहा, जैसे कोई छात्र परीक्षा में वही सवाल देखता है जो उसने नहीं पढ़ा।
“तो तुम्हें क्या लगता है?” ग्रेग बोले।
“सर, मुझे लगता है कि पीड़िता की बात सुननी चाहिए,” चिराग ने कहा।
ग्रेग ने खिड़की की ओर देखा, जैसे नैतिकता बाहर खड़ी हो और अंदर आने की इजाज़त मांग रही हो।
“देखो चिराग, हम एक कंपनी हैं। हमें टैलेंट चाहिए, ट्रायल नहीं,” ग्रेग बोले।
“लेकिन सर, कोर्ट ने उसे दोषी माना है,” चिराग ने कहा।
“कोर्ट? कोर्ट तो कानून देखता है, हम तो प्रॉफिट,” ग्रेग ने कहा, और पानी का गिलास उठाया।
चिराग चुप रहा। उसकी चुप्पी में वीज़ा की वैधता, नैतिकता की असहमति और नौकरी की मजबूरी एक साथ बैठी थीं।
“तुम्हें समझना चाहिए, चिराग, कि हम सबको साथ लेकर चलते हैं। चाहे वह आरोपी हो या एच-1बी वीज़ा धारक,” ग्रेग ने कहा।
“सर, अगर पीड़िता मेरी बहन होती?” चिराग ने पूछा।
ग्रेग ने गिलास को होंठों से लगाया, जैसे कोई नेता सवाल सुनकर पानी पीने लगता है।
खांसी उठी। नाक से पानी निकला। मगर जवाब नहीं निकला।
“देखो चिराग, तुम इमोशनल हो रहे हो। ये कॉर्पोरेट है, यहाँ इमोशन नहीं, एक्सेल शीट चलती है,” ग्रेग बोले।
“सर, मुझे लगता है कि हम नैतिक रूप से गलत कर रहे हैं,” चिराग ने कहा।
“नैतिकता? वो तो छुट्टी पर है। और तुम भी चले जाओगे अगर ज्यादा बोले,” ग्रेग ने कहा, और मुस्कुराया।
चिराग ने सोचा, क्या यही वह देश है जहाँ सपनों को बुलाया जाता है, और फिर उन्हें कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों में बाँध दिया जाता है?
बाहर बारिश शुरू हो गई थी। जैसे नैतिकता रो रही हो।
चिराग ने अपना लैपटॉप बंद किया, जैसे कोई उम्मीद का दरवाज़ा बंद करता है।
“सर, मैं इस्तीफा देना चाहता हूँ,” चिराग ने कहा।
ग्रेग ने चौंक कर देखा, जैसे कोई बैंक मैनेजर देखे कि ग्राहक ने लोन चुकता कर दिया।
“तुम्हें पता है, तुम्हारा वीज़ा इसी कंपनी से जुड़ा है?” ग्रेग ने कहा।
“जी सर, पता है। लेकिन अब आत्मा को भी तो कहीं जुड़ना चाहिए,” चिराग ने कहा।
ग्रेग चुप रहा। पहली बार उसकी चुप्पी में हार थी।
चिराग बाहर निकला। बारिश तेज़ हो गई थी। मगर अब वह भीगने से नहीं डर रहा था।
उसने सोचा, शायद अब कोई नया सूरज उगेगा—जो वीज़ा नहीं, विवेक देगा।
(‘उरतृप्त’ उपनाम से व्यंग्य जगत में प्रसिद्ध डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा अपनी भावनाओं और विचारों को अत्यंत ईमानदारी और गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण उनके लेखन के विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान से मिलता है। वे न केवल एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं, बल्कि एक कवि और बाल साहित्य लेखक भी हैं। उनके व्यंग्य लेखन ने उन्हें एक विशेष पहचान दिलाई है। उनका व्यंग्य ‘शिक्षक की मौत’ साहित्य आजतक चैनल पर अत्यधिक वायरल हुआ, जिसे लगभग दस लाख से अधिक बार पढ़ा और देखा गया, जो हिंदी व्यंग्य के इतिहास में एक अभूतपूर्व कीर्तिमान है। उनका व्यंग्य-संग्रह ‘एक तिनका इक्यावन आँखें’ भी काफी प्रसिद्ध है, जिसमें उनकी कालजयी रचना ‘किताबों की अंतिम यात्रा’ शामिल है। इसके अतिरिक्त ‘म्यान एक, तलवार अनेक’, ‘गपोड़ी अड्डा’, ‘सब रंग में मेरे रंग’ भी उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं। ‘इधर-उधर के बीच में’ तीसरी दुनिया को लेकर लिखा गया अपनी तरह का पहला और अनोखा व्यंग्य उपन्यास है। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के हाथों) से सम्मानित किया गया है। राजस्थान बाल साहित्य अकादमी के द्वारा उनकी बाल साहित्य पुस्तक ‘नन्हों का सृजन आसमान’ के लिए उन्हें सम्मानित किया गया है। इनके अलावा, उन्हें व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों साहित्य सृजन सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। डॉ. उरतृप्त ने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने और समन्वय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना की विश्वविद्यालयी पाठ्य पुस्तकों में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है। कई पाठ्यक्रमों में उनकी व्यंग्य रचनाओं को स्थान दिया गया है। उनका यह सम्मान दर्शाता है कि युवा पाठक गुणवत्तापूर्ण और प्रभावी लेखन की पहचान कर सकते हैं।)
जीवन के कुछ अनमोल क्षण
तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित।
मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी से भेंट करते हुए।
बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए।
आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चोरों की महिमा अनंत।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # ६५ – चोरों की महिमा अनंत☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
एक शहर का किस्सा है। वहीं की एक स्कूल टीचर ने अपनी नवीं क्लास के बच्चों को होमवर्क दिया—”कल चोरी पर निबंध लिखकर लाना।” अब बच्चे सोच में पड़ गए। कोई सोच रहा था “चोरी पाप है”, कोई “चोरी से समाज मिटता है” लिखने वाला था। लेकिन क्लास का एक लड़का था—वो चालाक भी था और जरा-सा परसाई जी का ‘प्रश्नों का उत्तर अपने हिसाब से देना’ वाला वायरस भी उसमें घुसा था। उसने कलम उठायी और तय कर लिया—“सब तो चोरी को गाली देंगे, मैं चोरी की आरती गाऊँगा।”
दूसरे दिन जब बच्चे कॉपी लेकर पहुँचे तो वही लड़का सीना तानकर खड़ा हो गया—“मैडम, मैं अपना निबंध पढ़ना चाहता हूँ।” मैडम ने कहा, “हाँ बेटा, सुनाओ।” और फिर पूरे क्लासरूम में ऐसा निबंध गूँजने लगा कि खिड़की पर बैठे कौए भी ताली पीटने लगे।
उसने शुरू किया: “चोर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। चोर अगर न हों तो देश का आधा उद्योग बंद पड़ जाए।” मैडम का मुँह खुला का खुला रह गया। बच्चों ने सोचा ये तो फँस गया—मैडम ज़बरदस्त डाँट लगाएंगी। मगर लड़के ने आगे जो तर्क दिए, सुनकर सबकी हँसी छूट गई। “सोचिए मैडम, अगर चोर न होते, तो ताले कौन बनाता? तिजोरियाँ किसके लिए बनतीं? गरीब लोहार भूख से मर जाते। गोडरेज जैसा ब्रांड तो पैदा ही नहीं होता।” क्लास तालियाँ पीटने लगी।
वो रुका नहीं। बोला—“और मकान निर्माण उद्योग देखिए। चोरों ने ही मज़दूरों को रोजगार दिया है। वर्ना कौन इतनी ऊँची-ऊँची दीवारें बनवाता? कौन अपने घर की खिड़कियों पर लोहे की सलाखें लगवाता? काँटेदार तार की फैक्ट्री चल रही है तो चोरों का ही आशीर्वाद है। चोर ही असली ‘रोजगार मेला’ आयोजित करते रहते हैं।”
मैडम अब हँसते-हँसते सोच रही थीं—”ये बच्चा निबंध नहीं, अर्थशास्त्र का नया पाठ पढ़ा रहा है।” बच्चा और धारदार हुआ। बोला—“मैडम, चौकीदार और पुलिस वालों की नौकरी भी चोरों पर ही टिकी है। अगर चोरी बंद हो जाए तो चौकीदार कहेगा—भाड़ में जाओ, मैं क्यों रात भर ‘जागते रहो’ चिल्लाऊँ? पुलिसवाले पूरे दिन थाने में ऊंघते रहेंगे, और उनकी साइड इनकम भी छिन जाएगी। दरअसल, चोर ही हैं जिनके कारण पुलिस की डंडी अब तक सीधी खड़ी है।”
क्लास फिर हँस पड़ी। कुछ बच्चों ने तो नारा लगा दिया—”चोरों की जय!”
मैडम ने आँखें तरेरीं—“चुप रहो, पढ़ने दो।” लड़का बोला—“अब देखिए तकनीक। चोर अगर न हों तो सीसीटीवी कैमरे कौन लगाए? मेटल डिटेक्टर कौन खरीदे? बर्गलर अलार्म कौन बजाए? सारा सिक्योरिटी इंडस्ट्री चोरों की कृपा पर पल रहा है। पिछले साल हमारे मोहल्ले में चोरी हुई थी, नतीजा ये निकला कि पच्चीस घरों ने सीसीटीवी लगवा लिया। इसने करोड़ों का बिज़नेस खड़ा कर दिया। मतलब साफ है—भारत में टेक्नोलॉजी मिशन असल में चोरों के बिना चल ही नहीं सकता।”
मैडम अपना माथा पीटने लगीं, पर हँसी रोक भी नहीं पा रही थीं। अब बारी थी हथियार उद्योग की। लड़का बोला—“मैडम, पहले आदमी हल पकड़े खेत जोतता था। अब उसी हल चलाने वाले किसान के पास लाइसेंस वाली बंदूक है। क्यों? क्योंकि पास वाले गाँव में चोरी हुई थी। गन-बुलेट का बिज़नेस भी चोर ही चला रहे हैं। उनके बिना तो ये कंपनियाँ बंद हो जातीं। चोर दरअसल सुरक्षा-उद्योग के लिए वही हैं जो गाय दूध उद्योग के लिए है—लगातार सप्लाई…”
क्लास बेतहाशा हँसने लगी। मैडम ने चिलाते हुए कहा—“बैठो चुपचाप।” मगर उनके होंठ भी मुस्करा रहे थे। लड़का हठी था। बोला—“मैडम, न्यायालय तो चोरों की कृपा पर पल रहे हैं। अरे अगर चोर न हों तो जज लोग किसे सज़ा देंगे? वकील किसके लिए बहस करेंगे? कोर्ट-चपरासी किसकी फाइल उठाएगा? चोरी पर आधा-कानून विभाग टिका हुआ है। और चैनल वालों को देखिए—एक चोर पकड़ा जाओ तो ब्रेकिंग न्यूज़ दो दिन चलेगी। फिर वही चोर भाग जाए तो फिर दो दिन। यही टीवी की टीआरपी का असली मंत्र है। चोर असल में लोकतंत्र के भी न्यूज़-मेकर हैं।”
अब पूरी क्लास लोट-पोट हो रही थी। मैडम बोलीं—“तुम तो पूरे पत्रकार लगते हो।” आखिरी वार करते हुए उसने कहा—“मैडम, सेकंड-हैंड मार्केट भी चोरों की देन है। चोरी हुए मोबाइल, लैपटॉप, साइकिल—यही तो नया व्यापार चलाते हैं। इंश्योरेंस कंपनियों की तो दाल रोटी चोर ही पकाते हैं। यानी, अर्थव्यवस्था के हर पायदान पर चोर खड़े हैं। बिना चोरों के देश की जीडीपी गिरकर ज़मीन में धँस जाए। इस नजर से देखें तो चोर असल में राष्ट्र निर्माता हैं। हमें तो इन्हें ‘पद्म भूषण’ देना चाहिए।”
पूरा क्लास तालियाँ ठोक रहा था। मैडम दुविधा में थीं—”मार्क्स दूँ या इस बच्चे की कॉपी सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय भेज दूँ।” टीचर ने कॉपी बंद कर दी और बोलीं—“बेटा, तेरे निबंध में व्यंग्य का स्वाद है। तू सच्चाई को घुमा-फिराकर कहता है, लेकिन काटता गहरा है। तू झूठ सच में, और सच झूठ की शक्ल में दिखाता है। यही असली साहित्य है। जा, पूरे सौ में सौ नंबर।” और पूरी क्लास चिल्ला उठी—
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – “बुरा जो देखन मैं चला” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # ३७४ ☆
व्यंग्य – बुरा जो देखन मैं चला श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कबीर दास जी ने कहा था ‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’ सीधा सा अर्थ है कि दुनिया में बुराई ढूंढने निकलोगे तो शायद ही मिले, लेकिन अगर अपने अंदर झांकोगे तो पाओगे कि सबसे बड़ी बुराई तो हमारे भीतर ही विद्यमान है। पर आज का मनुष्य इस सच को स्वीकार करने को तैयार नहीं। वह दुनिया को कोसता है, व्यवस्था को गाली देता है, पर अपने अंदर झाँककर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ।
श्रीमान सच्चिदानंद जी की आईने की दुकान सूनी पड़ी थी, जबकि ठीक सामने, ‘मॉडर्न मुखौटा एम्पोरियम’ में भीड़ ही भीड़ है ।
एक दिन मैं सच्चिदानंद जी से मिलने पहुँचा। दुकान के अंदर अलग अलग आकार प्रकार के आईने लटके हुए थे, जिन पर धूल की हल्की परत जम गई थी। सच्चिदानंद जी चश्मे के पीछे से किसी किताब का अध्ययन कर रहे थे, दुनिया की इस भीड़-भाड़ से कोसों दूर वे खुद से साक्षात्कार कर रहे थे।
मेरे पूछने पर कि व्यवसाय कैसा चल रहा है, उन्होंने गहरी सांस ली और एक तीखी, परन्तु शांत मुस्कान के साथ बोले, “आजकल लोगों को अपना चेहरा देखने से डर लगता है। वे आईने में नहीं, सेल्फी तक ‘फिल्टर’ में देखने के आदी हो गए हैं।”
सामने वाली दुकान में तरह-तरह के मुखौटे सजे थे। ‘सेल्फी-रेडी स्माइल’ वाला मुखौटा सबसे ज्यादा बिक रहा था, जो हमेशा एक जैसी, बिना दिल की चमकती हुई हंसी दिखाता। फिर था ‘सोशल मीडिया संजीदगी’ का मुखौटा, जिसे पहनकर लोग दुनिया को ज्ञान बाँटते नज़र आते, भले ही अंदर से खोखले हों। ‘कार्यालयीन कर्मयोगी’ का मुखौटा, ‘शादी-पार्टी में रिश्तेदारी का भाव’ वाला मुखौटा, और तो और छोटे-बड़े का भेद भाव हटाता मुस्कुराता मुखौटा भी खूब चलन में था। लोग बड़े चाव से अपने लिए वक्त जरूरत के हिसाब से उपयोग के लिए कई कई मुखौटे चुन रहे थे, उसे पहनते, देखते और संतुष्ट होकर ले जाते।
सच्चिदानंद जी ने बताया, “पहले लोग आते थे। आईने के सामने खड़े होते, अपने चेहरे पर पड़ रही झुर्रियों, आँखों के नीचे के काले घेरों, या फिर मन के भावों को निहारते। कभी शर्मिंदा होते, कभी खुश। अपने आप से मिलते, अपनी कमियाँ सुधारने का संकल्प लेते। अब तो लोग अपनी सच्चाई से ही भाग रहे हैं। असली चेहरा तो शायद याद ही नहीं रहता।”
यह विसंगति सिर्फ दुकानों तक सीमित नहीं है। यह तो हमारे सामाजिक जीवन का अटूट हिस्सा बन गई है। हम सुबह उठते ही मुखौटे पहनना शुरू कर देते हैं। ऑफिस जाते वक्त ‘आदर्श कर्मचारी’ का मुखौटा, सोशल मीडिया पर ‘परफेक्ट लाइफ’ वाला मुखौटा, दोस्तों के बीच ‘हैप्पी-गो-लकी’ का मुखौटा। हमने इतने मुखौटे ओढ़ लिए हैं कि असली चेहरा कौन सा था, यह भूल रहे हैं। आईना दिखाने वाले को हम दुश्मन समझने लगते हैं, क्योंकि वह हमें हमारा वह रूप दिखा देता है, जिसे हमने कब का दफन कर दिया है।
खुद की सच्चाई से सामना सबसे डरावना काम है।
मुखौटों की इस दुकान ने एक नया धंधा खोल दिया है , ‘मुँह देखी बातों’ का। यहाँ हर मुखौटे के लिए एक प्री रिकॉर्डेड बातें भी हैं। ‘कैसे हो?’ के जवाब में ‘बढ़िया’ की रिकॉर्डिंग, ‘काम कैसा चल रहा है?’ के उत्तर में’ऑल इज वेल’ की आवाज। असलियत चाहे जो भी हो, मुखौटे और उसकी आवाज़ हमेशा लगभग एक जैसी रहती है। लोग इसी बनावटीपन में खुशी महसूस करते हैं। सच्चाई का सामना करने के लिए साहस चाहिए वह गुमशुदा है।
सच्चिदानंद जी की दुकान सूनी है, लेकिन वे निराश नहीं हैं। उनका कहना है, “जिस दिन किसी का मुखौटा टूटेगा, जब उसे अपनी असलियत का अहसास होगा, तो वह जरूर यहाँ आएगा। शायद तब वह खुद से मिल पाएगा।”
आज भले समाज का यह सामान्य चरित्र बन गया है कि हम दिखावे की इमारत खड़ी करने में मशगूल हैं, जबकि भीतर से हम टूट रहे है। आईना हमें वास्तविकता से वाकिफ कर टूटने से बचा सकता है, लेकिन हमने तो मुखौटों के सहारे जीना सीख लिया है। सवाल यह है कि क्या हम कभी अपने वास्तविक चेहरे को देखने की हिम्मत जुटा पाएंगे? या फिर मुखौटों की यह भीड़ ही हमारी पहचान बनकर रह जाएगी? शायद, जब तक हम कबीर की उक्ति को अपने ऊपर लागू नहीं करेंगे, तब तक हम सच्चिदानंद जी की दुकान तक नहीं पहुँच पाएंगे। और तब तक, मुखौटे की दुकान की भीड़ बढ़ती ही जाएगी।
(सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री धर्मपाल जी का जन्म रानापुर, झाबुआ में हुआ। वे अब कैनेडियन नागरिक हैं। प्रकाशन : “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता। स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन। नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित। श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में “अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य खिसियानी बिल्ली जूता नोचे।)
☆ व्यंग्य – खिसियानी बिल्ली जूता नोचे ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆
भगवान किस रूप में कहाँ आते हैं, कब आते हैं और वहाँ क्या छोड़ जाते हैं, कौन जान सकता है! उनकी लीला आरपार है, वे ही जानें। दशरथ पुत्र भरत उनकी पादुकाएँ उठा लाए थे तो वे संसार सागर से तिर गए थे। बस इसी आशा में मैं नई चरण पादुकाएँ उठा लाता हूँ, और अपनी जीर्ण-शीर्ण पादुकाओं को वहाँ सेवानिवृत्त कर आता हूँ।
अब जो पादुकाएँ मिलती हैं वे काष्ठ की नहीं होतीं, चाम्र की होती हैं। वे भले अपवित्र हों पर चमकदार होती हैं। माल चमकदार हो तो उसकी पवित्रता कौन देखता है। भगवन् पादुकाओं को पॉलिश करवा-करवा कर इतना भव्य रखते हैं कि मेरी एक नज़र उन पर पड़ती है तो फिर नहीं उठती। मैं अपने पाँवों में चरण पादुकाएँ धारण करने के बाद ही नज़र उठा पाता हूँ, ताकि मैं यह सुनिश्चित कर सकूँ कि जो प्रसाद मैंने ग्रहण किया है, उस पर किसी और की नज़र तो नहीं है। यदाकदा ही ऐसा होता है कि उन मनभावन पादुकाओं को और कोई क्लेम करने आता हो। पर कोई आ भी जाए तो मैं जी भर कर हँसता हूँ। कहता हूँ ‘सॉरी सर’। धन्य हो अंग्रेज़, हमें सॉरी कहना सिखा गए। अन्यथा ऐसे मौकों पर खिसियानी बिल्ली को जूता नोचना पड़ता।
नई चरण पादुकाएँ पहन कर प्रभु निवास पर जाना मुझे नहीं सुहाता। पिछले सप्ताह जब अपने नए ‘हश पपीज़’ जूते पहन मैं प्रभु दर्शन को पहुँचा तो मैंने दायाँ जूता पूर्व दिशा में और बायाँ जूता पश्चिम दिशा में खोला। ताकि किसी दर्शनार्थी का मन नए जूते पर डोल भी जाए तो उसे दूसरा जूता सहज सुलभ नहीं हो। यद्यपि यह तरकीब काम कर गई, जूते यथास्थान ही रहे पर प्रभुदर्शन में मेरा चित्त न लगा। बार-बार मेरा चित्त प्रवेश द्वार के पूर्व और पश्चिमी कोनों में भटकता रहा। प्रभु ने पूछा भी, वत्स क्या बात है आज तुम व्यथित हो, कुछ माँग नहीं रहे? मैं इतना ही कह पाया – प्रभु मेरे नए जूतों का ध्यान रखना। प्रभु हँस कर चले गए। मैंने मूर्खतावश ऐसा दुर्लभ अवसर जूतों की रक्षा में गवाँ दिया। तब मैं प्रभु से जूतों का भरा-पूरा स्टोर भी माँग लेता तो प्रभु तथास्तु कह देते। बाबा को जब यह वाकया बताया तो वे बहुत खिन्न हुए। उपदेश देने लगे, ‘बेटे तुम्हें स्वर्ग मिल सकता था, तुम जूतों की रखवाली में यह जनम गवाँ आए मूर्ख।’ अब कोई मैं अकेला मूर्ख तो हूँ नहीं जो जूतों के चक्कर में स्वर्ग गवाँ रहा हूँ। उस दिन के बाद से मैं कभी नए जूते पहन कर प्रभु दर्शन के लिए नहीं गया, न प्रभु वहाँ आए। प्रभु बड़े नटखट हैं, भक्तों की कैसी परीक्षा लेते हैं! नए जूतों में मन रमा था तो आशीर्वाद देने प्रकट हो गए। अब उनसे मिलने जाते-जाते जूते घिस गए हैं, वे प्रकट ही नहीं होते।
जूतों के चक्कर में मैंने प्रभु को खो दिया तब से जूतों से वितृष्णा हो गई है। अब घर से बिना जूते पहने प्रभुदर्शन को जाता हूँ। रुआँसा घर लौटता हूँ तो ध्यान कहीं और होता है। घर आ कर पता लगता है कि मैं नंगे पाँव गया था, ढँके पाँव आया हूँ। घर में समान नंबर के जूतों का स्टोर बन रहा है, सब प्रभु की माया है। प्रभु मैं तो पुण्य कमाने आ रहा था, जूते कमा रहा हूँ। बाबा पूछते हैं कितनी पनौती इकट्ठी करेगा? जिसे मैं प्रभु प्रसाद समझ रहा था वह पनौती कैसे हो गई?
आज लौट रहा था तो एक सज्जन ने पूछा, “बड़े अच्छे जूते हैं, कहाँ से ख़रीदे?”
“यहीं से लिए थे।”
“ये तो मेरे जूते हैं।”
“आप ले लीजिये।”
“फिर आप क्या करेंगे?”
“मैं खाली हाथ आया था, खाली पैर चला जाऊँगा।”
मैंने एक वाक्य में उन्हें सारा जीवन दर्शन समझा दिया।
नई चरण पादुकाओं ने मुझे हमेशा धर्म संकट में डाला है। मुझे याद है, मेरे पाँवों में नए जूते थे, विवाह वेदी पर बैठने के लिए जूते खोलने थे। प्रियतमा वरमाला लिए खड़ी थीं पर मेरा सारा ध्यान जूतों पर ही था। जूते खोलूँ तो लूट जाऊँ, न खोलूँ तो कुआँरा रह जाऊँ। जूतों के चक्कर में सर्वप्रिय सलोनी सालियाँ खूँखार शेरनियाँ लग रही थीं। उनकी हँसी ने मेरे दिल को और उनकी तीखी निगाहों ने मेरे नए जूतों को छलनी-छलनी कर दिया था। मैंने सोचा भी दुल्हन को जाने दूँ, अपनी इज्ज़त, जूतों को बचा लूँ। भला हो बाबा का, मेरी दुविधा ताड़ गए और जूते उतरवा दिए। अन्यथा पहले भगवान गवाएँ थे, अब दुल्हन को गवाँ देता।
जैसे ऑफिस में घुसते ही बॉस अपनी कुर्सी पर बिराज जाते हैं, घर में घुसते ही जूते अपना नियत स्थान सम्हाल लेते हैं। पहली फुरसत में आदमी उन्हें कीचड़-माटी रहित कर, पुनः पॉलिश से चमका देता है। मुख और मन मलिन हो तो कुछ नहीं, जूते और बाल चमचमाते रहना चाहिए।
हमारे गाँव और शहर के बीच एक नदी है। प्रभु की जटा से जितनी सिमटी गंगा निकलती है, उसकी धारा यहाँ वैसी ही पतली है। पर नदी का पाट सरकारी आश्वासनों जैसा चौड़ा है। गर्मी में जब पानी चाहिए नदी सूखी पड़ी होती है। झमाझम बारिश में जब चारों तरफ पानी ही पानी होता है, नदी भी पूरे आवेग में बहती है। बाढ़ में पुलिया बहा ले जाती है। ग्रामवासी अपनी चरण पादुकाएँ सिर पर रख या दिल से लगा कर नदी पार कर रहे होते हैं। तब भी आदमी को ख़ुद से ज़्यादा अपनी चरण पादुकाओं का ध्यान रहता है।
चरण अब पादुकाओं में बंद रहते हैं। आशीर्वाद की ज़रूरत में मैं बड़े-बूढ़ों के चरण स्पर्श करना चाहता हूँ तो उनकी पादुकाएँ ही दिखती हैं। आशीर्वाद की जगह जूते ही मिलते हैं। लगता है जूते मिलने की परम्परा हमारी संस्कृति से जुडी है। मेरे कवि मित्र बिना बुलाए ही कवि सम्मेलनों में नंगे पाँव जाते हैं। बिना मानदेय के जाते हैं और जब लौटते हैं तो जूतों की चार-छः जोड़ियाँ उपहार में ले कर आते हैं। उपहार का उपहास करना उन्हें अच्छा नहीं लगता। उनका मानना है कि प्रसिद्ध व्यक्तियों को ही जूते पड़ते हैं। वे बताने लगे, “पत्रकार वार्ता में एक पत्रकार ने जॉर्ज बुश के ऊपर जूता दे मारा, पहला निशाना चूका तो उसने दूसरा जूता भी दे मारा। दो जूते पा कर अमेरिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध हो गए कि कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता, राष्ट्रपति ट्रम्प भी नहीं। पत्रकार की चर्चा तो कुछ महीनों में बंद हो गई पर जॉर्ज बुश जूते खाने के लिए अमर हो गए। याद रखें, जूते मारने वाले से जूते खाने वाला बड़ा होता है और उसे हमेशा याद रहता है कि उसे जूता पड़ा था।”
मुझे कवि मित्र की बात में दम लगा। दुनिया भर में लाखों व्यंग्यकार रोज ही तमाम विसंगतियों तथा कुप्रवृत्तियों पर तंज कसते हैं। देर रात तक कॉमेडी शोज़ चलाते हैं। लोग व्यंग्य को भी हँस कर टाल देते हैं, इन सबका कोई गंभीर नोटिस नहीं लेता। व्यंग्यकार ने शाब्दिक जूतों की बजाय भौतिक जूते चलाए होते तो दुनिया अलग हो सकती थी।
कुछ भी हो, इन दिनों फटे-पुराने जूतों की माँग बढ़ गई है, बड़े चुनाव आने वाले हैं। विरोधियों को जूते की माला पहना कर सम्मानित करने के लिए फटे-पुराने जूते ही चाहिए। नए जूतों से सम्मान को गरिमा नहीं मिलती।
क्या कहा आपने, आपके जूते नहीं मिल रहे। थोड़ी प्रतीक्षा कीजिए, मैं आता हूँ।
बुश दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध हो गए कि कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता, राष्ट्रपति ट्रम्प भी नहीं। पत्रकार की चर्चा तो कुछ महीनों में बंद हो गई पर जॉर्ज बुश जूते खाने के लिए अमर हो गए। याद रखें, जूते मारने वाले से जूते खाने वाला बड़ा होता है और उसे हमेशा याद रहता है कि उसे जूता पड़ा था।”
मुझे कवि मित्र की बात में दम लगा। दुनिया भर में लाखों व्यंग्यकार रोज ही तमाम विसंगतियों तथा कुप्रवृत्तियों पर तंज कसते हैं। देर रात तक कॉमेडी शोज़ चलाते हैं। लोग व्यंग्य को भी हँस कर टाल देते हैं, इन सबका कोई गंभीर नोटिस नहीं लेता। व्यंग्यकार ने शाब्दिक जूतों की बजाय भौतिक जूते चलाए होते तो दुनिया अलग हो सकती थी।
कुछ भी हो, इन दिनों फटे-पुराने जूतों की माँग बढ़ गई है, बड़े चुनाव आने वाले हैं। विरोधियों को जूते की माला पहना कर सम्मानित करने के लिए फटे-पुराने जूते ही चाहिए। नए जूतों से सम्मान को गरिमा नहीं मिलती।
क्या कहा आपने, आपके जूते नहीं मिल रहे। थोड़ी प्रतीक्षा कीजिए, मैं आता हूँ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम एवं विचारणीय व्यंग्य – ‘उत्कोच-स्वीकारक महासंघ की विशेष सभा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # ३०५ ☆
☆ व्यंग्य ☆ उत्कोच-स्वीकारक महासंघ की विशेष सभा ☆
‘अखिल भारतीय उत्कोच-स्वीकारक महासंघ’ की एक आपात्कालीन बैठक हुई। कारण यह था कि रिश्वतखोरी का एक मामला सनसनीखेज़ हो गया था। यों तो रिश्वतखोरी अब सनसनीखेज़ रही नहीं। रिश्वतखोरी में पकड़े जाने की कोई खबर छपे तो लगता है अखबारों को खबरों का टोटा पड़ गया।
लेकिन इस बार मामला सनसनीखेज़ इसलिए हो गया कि एक आदमी सामान्य कुर्ता, धोती, जूते पहने एक दफ्तर में घुसा। जब बाहर आया तो कपड़े जूते गायब थे। सिर्फ चड्डी बाकी थी। यह भी सामान्य बात थी, ऐसा तो होता ही है। लेकिन बाहर खड़े चपरासी ने झपटकर उसकी चड्डी भी उतार ली। आदमी मादरज़ात नंगा हो गया। कोई शर्मदार आदमी था। लगता है रिश्वत के अदब- कायदे का अभ्यास नहीं था। वह पच्चीस कदम दूर नीम के पेड़ तक गया और वहीं ढेर हो गया। उसका हार्टफेल हो गया। इस युग में शर्मदारों का यही हश्र होता है।
बात ने तूल पकड़ा। अखबारों ने मामले को उछाला। लिखा कि अब हद हो गयी, पानी सर के ऊपर से गुज़र गया, रिश्वतखोरी कोढ़ है, कैंसर है, समाज के लिए अभिशाप है, वगैर:वगैर:। वही बातें जो सदियों से दुहराई जा रही हैं।
मजबूरन ‘अखिल भारतीय उत्कोच- स्वीकारक महासंघ’ की कार्यकारिणी की आपात्कालीन बैठक बुलायी गयी।
महासंघ के अध्यक्ष पवित्र नारायण बोले, ‘भाइयो, यह बैठक बुलाने का कारण यह है कि हमारे समाज-सेवा के काम में एक बाधा उत्पन्न हो गयी है। एक आदमी हमारे महासंघ के सदस्यों से सेवा प्राप्त करके कार्यालय से बाहर निकला और वहीं स्वर्गवासी हो गया। वैसे मृत्यु से बढ़कर मामूली और अनिवार्य घटना मनुष्य के जीवन में दूसरी नहीं है। फिर, जहां सौ काम सफलता से होते हैं वहां एकाध गड़बड़ी भी होती है। लेकिन अखबार वाले खामखां मामले को उछाल रहे हैं। हमें बदनाम कर रहे हैं। इसीलिए यह बैठक बुलायी है कि हम विचार करें कि अपने काम करने के तरीके में कौन सा परिवर्तन करें कि इन ऐरे-गैरे लोगों को मुंह खोलने का मौका न मिले।’
कार्यकारिणी के एक सदस्य दयाराम बोले, ‘इस बात का क्या प्रमाण है कि वह आदमी रिश्वत देने के कारण मरा? हो सकता है उसे रक्तचाप या दिल की कोई बीमारी रही हो।’
पवित्र नारायण बोले, ‘पोस्टमार्टम से यह बात पता चली है कि वह किसी रोग का रोगी नहीं था। वह अकस्मात मानसिक धक्के से मरा।’
दूसरे सदस्य दीनानाथ बोले, ‘यह कहां साबित होता है कि वह मानसिक धक्का रिश्वत का ही था? हो सकता है उसे किसी पारिवारिक समस्या या दुश्चिंता का धक्का लगा हो।’
महासंघ के महासचिव करुणानिधान बोले, ‘अरे भई, बेपर की मत हांको। सब ने उसे दफ्तर से नंगे निकलते और मरते देखा।’
दयाराम और दीनानाथ चुप हो गये। अध्यक्ष पवित्र नारायण का जीवन उत्कोच की कृपा से सभी सिद्धियों और फलों से भर चुका था। एक तरह से वे अघा चुके थे। बोले, ‘मेरे खयाल से हमारे कुछ सदस्य आजकल अति करने लगे हैं। कई लोग रातों-रात करोड़पति बन जाना चाहते हैं। इसीलिए हमारे महासंघ की बदनामी होती है। मैं सोचता हूं अब हमें कुछ समय के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए कि लोगों को यह भ्रम हो कि हमें राष्ट्र की चिन्ता है। हमारे ऊपर जो कीचड़ उछाला जा रहा है उसे साफ करना भी ज़रूरी है। इस संबंध में मैं आपसे सुझाव आमंत्रित करता हूं।’
कार्यकारिणी के एक सदस्य धर्मदास काफी रिश्वत खा चुकने के बाद अब धीरे-धीरे अध्यात्म की ओर मुड़ रहे थे। वे उठकर बोले, ‘मेरा सुझाव है कि हमें गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों से रिश्वत लेना बन्द कर देना चाहिए।’
एक दूसरे सदस्य नेकराम चिढ़ कर बोले, ‘तुम रहे मूसर के मूसर। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की लिस्ट कहां से लाओगे? फिर हमारे देश में यह खराब प्रवृत्ति है कि एक वर्ग को जो सुविधा दी जाए वह दूसरे वर्ग भी मांगने लगते हैं। उससे हम भारी संकट में पड़ जाएंगे। हम हमेशा समानता और गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों पर चले हैं और उन्हीं पर अटल रहेंगे।’
‘मूसर’ संबोधन से नाराज़ होकर धर्मदास नेकराम से उलझ गये। थोड़ी देर तूतू- मैंमैं हुई। अध्यक्ष महोदय ने उन्हें शान्त किया।
नेकराम खड़े होकर बोले, ‘मेरे खयाल से तो हमें अपनी कार्य प्रणाली में परिवर्तन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हर मिनट हजारों लोग मरते हैं, इसके लिए विचलित होने की ज़रूरत नहीं है। हमारा तौर तरीका ठीक है इसीलिए हमारी सदस्य-संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी हुई है। जो रिश्वत नहीं लेता उस पर लोग हंसते हैं। इसलिए मेरी समझ में तो इस बैठक की ही कोई ज़रूरत नहीं थी। वी आर सिंप्ली वेस्टिंग अवर प्रेशस टाइम। इतनी देर में तो हम जनता के सहयोग से दस बीस हजार रुपये खड़े कर लेते।’
पवित्र नारायण सिर हिला कर बोले, ‘नहीं नहीं, कुछ न कुछ तो करना होगा। मेरे खयाल से हम सरकार को प्रस्ताव भेजें कि हम रिश्वतखोरी छोड़ने को तैयार हैं, बशर्ते कि सरकार हमें वैसा ही ‘नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस’ दे जैसा वह प्राइवेट प्रैक्टिस न करने वाले डॉक्टरों को देती है।’
दयाराम बोले, ‘नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस किस आधार पर तय होगा?’
अध्यक्ष ने जवाब दिया, ‘पद के हिसाब से तय हो जाएगा।’
नेकराम अपना हाथ उठाकर बोले, ‘मुझे इसमें एतराज़ है। मैं अफसर न होते हुए भी किसी अफसर से ज्यादा रिश्वत पैदा करता हूं। इसलिए पद के हिसाब से अलाउंस लेने के प्रस्ताव को मैं तुरंत रिजेक्ट करता हूं।’
अध्यक्ष महोदय सोच में पड़ गये। बोले, ‘अच्छा तो फिलहाल ऐसा करते हैं कि महासंघ की ओर से ‘उत्कोच त्याग पखवाड़ा’ घोषित करते हैं। इस पखवाड़े में कोई सदस्य रिश्वत नहीं लेगा। इस पखवाड़े का जोरदार प्रचार किया जाए।’
दीनानाथ बोले, ‘कोई अपनी मर्जी से दे तब भी न लें?’
अध्यक्ष बोले, ‘बिलकुल नहीं।’
दीनानाथ का मुंह बिगड़ गया।
एक और घाघ सदस्य दस्युदास चुपचाप बैठे मुंह में पान की जुगाली कर रहे थे। रिश्वत लेने के मामले में वे घोर सिद्धांतवादी थे। बाप का काम भी बिना रिश्वत लिये नहीं करते थे। उन्हें अब तक की सारी बातें निरर्थक और हास्यास्पद लग रही थीं।
एकाएक वे चोंच ऊपर उठाकर बोले, ‘हम फालतू बातों में अपना कीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं। आज की बैठक में हमें सिर्फ उस महान आदमी की मौत का शोक करना चाहिए जो हमारा कल्याण करते हुए काम आया। बेचारा कमज़ोर दिल का था। ऐसे कमज़ोर दिल वालों को आज की दुनिया में जन्म नहीं लेना चाहिए। सब लोग उठें और एक मिनट का मौन धारण करके दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।’
अध्यक्ष महोदय प्रस्ताव से निरुत्तर हो गये। सब उठकर आंख मूंद कर खड़े हो गये। एक मिनट तक ईश्वर से प्रार्थना करते रहे कि वह सब प्राणियों को रिश्वत का धक्का सहने की शक्ति प्रदान करे।
मौन के बाद दस्युदास बोले, ‘हम एक शोक-प्रस्ताव दुखी परिवार को भेजें। सुना है मरने वाला पांच हजार रिश्वत देकर मरा था। भला आदमी था। महासंघ उसके प्रति कृतज्ञ है। मेरा प्रस्ताव है कि उस पांच हजार में से दो हजार रुपया सहानुभूति-राशि के रूप में दुखी परिवार को दिया जाए और इस बात का बाकायदा प्रचार हो ताकि हमारे महासंघ के बारे में लोगों के भ्रम दूर हों।’
यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हो गया। दस्युदास आगे बोले, ‘शोक प्रस्ताव के बाद कोई कार्यवाही नहीं होती, इसलिए आज की बैठक समाप्त की जाए। पखवाड़ा अखवाड़ा मनाने के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए दो-चार माह बाद फिर बैठक रखी जाए।’
फिर एक आंख दबाकर बोले, ‘तब तक मामला ठंडा भी हो जाएगा।’
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।
जीवन के कुछ अनमोल क्षण
तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित।
मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी से भेंट करते हुए।
बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए।
आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना और रिश्तों की असली दूरी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # ६४ – और रिश्तों की असली दूरी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
कभी-कभी लगता है कि हमने जन्मपत्री गलत जगह से बनवा ली। थोड़ी-सी गड़बड़ी होती तो हम उस जमाने में पैदा होते जब चिट्ठी लिखने में स्याही सुखाने का सब्र चाहिए था, और जवाब आने में इतनी देर कि आदमी अपनी दाढ़ी को कर्जदार समझकर काटना भूल जाए। तब लोग समझाते थे—“धैर्य रखो।” आज वही बगुला-भगत व्हाट्सऐप पर ‘सीन’ दिखते ही ऐसे तमतमाते हैं जैसे संसद में घूस खाते पकड़े गए हों। तब जवाब में महीनों का सांप-सीढ़ी खेल होता था, अब घंटों का। फर्क बस इतना कि तब इंसान ‘मुलाक़ात’ करता था और अब ‘निगाहबानी की नीली टिक’ करता है। पुराना जमाना एक लंबी प्रतीक्षा-यात्रा था, और आज का जमाना ‘तुरंत खाओ और डकार लो’। धैर्य अब शब्दकोश में बंद पड़ा है, उतना ही अनुपयोगी जितना सरकारी दफ्तर में रखी इन्वेस्टमेंट गाइडलाइन।
बचपन की अलमारी याद आती है—जिसकी चाबी माँ के पास और जिज्ञासा हमारे पास। उस ताले की खटाखट से हमें लगता था मानो किसी ऐतिहासिक किला-कुंडली का रहस्य खुल गया हो। ऊपर सरकारी आदेशों जैसी सुनहरी लकीरों से भरी नोटबुकें, और नीचे दबा-छिपा शक्करपारे का लोकतांत्रिक खज़ाना। वह अलमारी किसी ‘म्यूज़ियम’ नहीं, बल्कि घर का लघु संसद थी—जहाँ मिठाई और ज्ञान दोनों पर ‘माँ की एकल पार्टी’ का कब्ज़ा था। आज की आधुनिक अलमारियाँ क्या हैं? अमेज़न के ‘कार्ट’ जैसी—हमेशा भरी हुई लेकिन रहस्य शून्य। अब अलमारी खोलकर रस नहीं मिलता, बस डिलीवरी बॉक्स खोलकर प्लास्टिक का झुनझुना मिलता है। सच कहें तो पुरानी अलमारी के भीतर इतना रोमांच था कि इंडियाना जोन्स भी शर्म से इस्तीफा दे देता। अब तो पूरी ‘रहस्यमयी दुनिया’ उस जगह दफ़न है, जहाँ लोग पासवर्ड भूल जाते हैं और कंपनी ईमेल पर चिल्लाती है—“पासवर्ड रीसेट करिए।”
पुराने ज़माने की छुट्टियाँ रिश्तेदारों की भीड़ से शुरू होती थीं। घर किसी संसद की तरह गरम हो जाता था और पंखे के पंखों को घुमाने का अधिकार किसी ‘कैबिनेट मिनिस्टर’ जितना महत्वपूर्ण काम होता। बढ़िया लोकतंत्र था—झोंके के लिए झगड़ा और संतुलन बैठाने को दिलासा। आज हर कमरे में एसी है, हर हाथ में रिमोट है, पर माहौल फिर भी गरमाया हुआ रहता है, क्योंकि रिश्ते अब स्क्रीन पर इमोजी निकालते हैं। तब गले लगने में पसीना आता था और मोहल्ले में खबर फैलती थी कि ‘रिश्ता आया है’। अब सिर्फ़ एक कमेन्ट आता है—“बहुत अच्छे लग रहे हो।” बिना आलिंगन वाली प्रशंसा उतनी ही बेकार है जितनी बिना घी की जलेबी। तब की चख-चख वाली गर्माहट भी मीठी थी, आज की खामोशी वाली ठंडक भी कड़वी है। परिवार का ‘संस्थागत ढाँचा’ अब लाइक-बटन की सरकारी मुहर से चलता है।
“बड़ों का पैर छूने से ज्ञान मिलता है”—ये वाक्य हमें बचपन से ठोंक-पीटकर पढ़ाया गया। हमने न जाने कितने पैर छुए, और बदले में सिर्फ़ यही ज्ञान मिला कि “पैरों से बदबू आती है।” अब नई पीढ़ी ने इस परंपरा को चाय की प्याली की तरह हल्के से रख दिया है। वे पैर क्या छुएँगे, उन्होंने फ़ॉन्ट साइज इतना बड़ा कर दिया है कि बड़ों की धुँधली आँखें भी इन्फ्लेशन का चार्ट पढ़ सकें। आशीर्वाद? वो अब व्हाट्सऐप पर ‘जय श्री रैम’ का फॉरवर्ड बन चुका है। पहले कहते थे—“बड़ों का स्पर्श आत्मा को पवित्र करता है।” आज आत्मा नहीं, फेसबुक प्रोफ़ाइल पिक्चर पवित्र करनी की ज़रूरत है। तब पैर छूने में रीढ़ की हड्डी झुकती थी, अब मोबाइल झुकाकर ‘लाइक’ दे दिया जाता है। फर्क बस इतना है कि तब आशीर्वाद महँगा था और अब मुफ्त ‘गुड मॉर्निंग’ मैसेज सारे सवेरे में फैलता है।
पुराना रेडियो याद है? जब ‘समाचार’ सुनाने वाला खुद बोलने से पहले तौलता था, जैसे कोई वकील अदालत में बयान देता है। अखबार में ‘संपादकीय’ ऐसे छपता था जैसे ईश्वर के उपदेश हों। तब हमें सच आधा मिलता था, मगर उसमें शांति थी, क्योंकि आवाज़ें कम थीं। आज? अब तूफानी चैनल आधा सच भी पूरे दहाड़कर परोसते हैं, और बाद में कहते हैं—“घटना हुई ही नहीं।” यही प्रगति है—झूठ भी उसी जोश से बोला जाता है जैसे पहले सच। पहले संपादक धूल झाड़ता था, अब एंकर लार झाड़ता है। फर्क इतना है कि तब समाचार शांत बाण था, और अब पाँच पंडित मिलकर वही अधूरा सच “ब्रेकिंग” करके परोसते हैं। ब्रेकिंग आमतौर पर खबर कम और चायपत्ती ज़्यादा होती है। आज समाचार वो है जिसमें शोर इतना हो कि मक्खी की भनभन भी चुनाव का मुद्दा बन जाए।
स्कूल की बात करें तो मास्टरजी की तख्ती पर चाक की लकीरें और उनकी धूल ने बच्चों के छल-छिपे ज्ञान को गढ़ा था। वे चाक इतने ईमानदार होते थे कि हर सवाल पर धूल झाड़ते-झाड़ते अपनी सफेदी इतनी बढ़ा देते थे कि सफाई कर्मचारी संघ ने हड़ताल की सोच ली थी। पर वह सफेदी ही असली थी—तख्ती पर लिखावट ज्यों की त्यों छोड़ती अक्स वाली। आज के स्मार्ट क्लास में प्रोजेक्टर और टचपेन भले हों, पर बच्चों की बुद्धि से तेज़ तो पिक्सेल ही रहती हैं। इस विकास का सच ये है कि बचपन की मासूमियत ने “एप के नये वर्ज़न” का स्वागत किया है लेकिन अभी भी समझ नहीं पाया कि इस नवाचार से न तो ज्ञान बढ़ा, न ही शिक्षक के माथे की शिकन कम हुई। पढ़ाई का खेल अब लुकाछिपी नहीं, बस नोटिफिकेशन के बीच का युद्ध है, जिसमें बच्चे ‘डिस्टर्ब’ पाए बिना फोन छीनने की कला में पारंगत हो रहे हैं।
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गली-मोहल्ले की याद आ रही है? शाम को गोलगप्पे वालों की ठेलियाँ चलती थीं, बच्चे दौड़ते थे जैसे नोबेल इनाम के लिए आवेदन कर रहे हों। चटकारे होते थे स्वाद के और झगड़े थे ठेला को लेकर—“मेरे में ज्यादा आलू, तेरे में कम पानी।” दुकानदार बापू बहुत धीरज के साथ कहते—“बेटा, सबका बराबर मिलेगा।” यह तब का बड़ा lesson था—सबको बराबर हो सकता है। अब तो ग्राहक एक सितारा दे देता है ‘कस्टमर टू साल्टी’, और दुकानदार भी ऐप की रेटिंग देखता है। वहां से रोज़ चरस टपकती रहती है और मोहल्ला सोशल मीडिया की तरह आगंतुकों की निंदा करता रहता है। आज का गोलगप्पा वाला ऐप चला रहा है, क्रिकेट के स्कोर के साथ लेन-देन, और बच्चे घर बैठे टेक्स्ट पर लड़ाई कर रहे हैं। यहीं है असली विकास—गोलगप्पा पर झगड़ा ऐप पर, और ठेले पर एक-दूसरे को म्यूट।
सिनेमा हॉल का जमाना भी बड़ा मज़ेदार था। बीच-बीच में फिल्म रुकती थी, ऑपरेटर धुआँ छुपाने का बहाना करता, और दर्शक सीट से उठकर कुर्सी भगाते। लेकिन जैसे ही फिल्म वापस चलती, सब अपने पुराने मोह में डूब जाते। वहीं खत्म होता मनोरंजन का असली नशा। आज का युग नेटफ्लिक्स और यूट्यूब का है, जहां अगर पचास सेकंड का एड भी आ जाए तो लोग अंतर्निहित संविधान तक संशोधन के लिए तैयार हो जाते हैं। रिलैक्सेशनशून्य, सब्र सून्य। पिछली पीढ़ी की वो लंबी प्रतीक्षा और धीरज अब इंस्टाग्राम स्टोरी में ‘गोल्डन एरा’ बन गई है, जहाँ उनकी निराशाएँ भी फिल्टर होकर गुलाबी सी नजर आती हैं। और वही नॉस्टैल्जिया एक बिज़नेस मॉडल बन चुका है—जो कष्ट हमने झेले, वही अब #ओल्डइज़गोल्ड के नाम से सस्ते में बिकता है।
होली-दीवाली की पुरानी रौनक भी अब डिजिटल हो चुकी है। तब दीवाली लड्डू और पटाख़ों के संग आती थी, अब सेल का ऑफर लेकर आती है—“लड्डू बाद में, अभी ऑफ़र्स ग्रैब करो।” पटाखों का धुआँ अब रेटिंग और रिव्यू के रूप में उड़ता है। होली पर पिचकारी में पानी भरने की मेहनत अब कागज़ी संदेश में बदल गई—“गुलाल की जगह मुस्कान भेज रहा हूँ, अपनापन बनाए रखना।” रंग खिलाड़ियों से हटकर इमोजी खिलाड़ियों में बदल गए हैं। ऐसा लगता है जैसे जमीनी रंगों ने डिजिटल फिल्टर ठोक दिया हो। लेकिन यह बदलाव भी व्यंग्य से खाली नहीं है, क्योंकि रंग अब ऑनलाइन होते हैं और जश्न केवल टेक्स्ट में। खूब खूब हूँई है तो, पर त्योहारों की रौनक कहीं ‘पेंडिंग’ की तरह छुट्टी पर है।
सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि पहले मोहल्ले का सम्मान ‘तीन कुर्सियों वाला आदमी’ होता था, जिसकी मेहमाननवाज़ी से पूरा मोहल्ला खिलखिलाता था। अब सम्मान बन गया है डिलीवरी बॉय का। रोज़ ‘पैंट आ गई, शर्ट अलग आएगी।’ रिश्तों की डिलीवरी भी अब सिस्टम में ‘पेंडिंग’ है। कोई पूछता नहीं कि हे डिलिवरी बॉय, तुम्हारी सेल्फी कब आएगी? रिश्ते इतने डिजिटल हो गए हैं कि अब उनका ‘मोड’ और ‘सेटिंग’ ही चलन है। कहीं भी संपर्क हो, लेकिन संपर्क जैसा नहीं। इंसानी रिश्ता अब ‘डेटा’ में सिमट गया है, जहां झूठ की फाइलें पहले भी होती थीं पर आकड़ों की तेजी ने इन्हें ‘डाटा सेव्ड सक्सेसफुली’ कर दिया है।
अख़बार का स्वरूप पहले भजन की तरह होता था, जिसे लोग भक्तिभाव से पढ़ते थे। शब्दों की ताकत ऐसी होती थी कि वह आत्मा को गुदगुदा देती थी। आज के समय में वही ताकत मेम और मीम के रूप में फैल रही है, जो दिमाग को चकरा देती है। पहले संपादकीय इतने गंभीर होते थे कि लेखक की हाजिरी तक लगती थी, अब तो सोशल मीडिया पर एक मज़ेदार मीम ही संपादकीय बन जाता है। शब्दों के लिए दिल की जगह अब ‘लाइक्स’ और ‘शेयर’ की तंगी है। पहले लोग सोचते थे, अब लोग बस रिएक्ट करते हैं। खबरों की धार इतनी तेज हो गई है कि असली तथ्य कहीं खो गए हैं, और अफवाहें चमचमाती हेडलाइन बनकर इंटरनेट की गलियों में नाचती हैं। यही डिजिटल युग का व्यंग्य है जहाँ शब्द अपनी आत्मा खो बैठे हैं पर फिर भी इंटरनेट पर वायरल हो रहे हैं।
क्या सचमुच पुराना समय स्वर्णिम था? या हमारी स्मृतियाँ उस जमाने की कमी को गुलाबी फिल्टर की तरह छुपा देती हैं? पुराना जमाना भी संकटों से भरा था, पर तब रोशनी कम थी इसलिए अंधेरा कम दिखता था। नॉस्टैल्जिया हमें एक ऐसा आईना दिखाता है जिसमें हर बीता वक्त बेहतर नजर आता है और आने वाला वक्त हमेशा खराब। आज जो हम वर्तमान कहते हैं, वही कल का नॉस्टैल्जिया बनेगा। जैसे अगली पीढ़ी कहेगी—“क्या जमाना था, जब लोग रील्स देखते-देखते अकाउंट डिलीट कर देते थे। कितना प्योअर टाइम था।” यह घमंड और विडंबना का मेल है कि हम हमेशा बीते वक्त को परफेक्ट मानते हैं और वर्तमान को दोष देते हैं। यही नॉस्टैल्जिया की सबसे बड़ी फंदाकशी है—वह हमारी आंखों को वह गुलाबी चश्मा देता है जिससे हम भूल जाते हैं कि असली ज़िंदगी हमेशा त्रासदी और कॉमेडी का मिश्रण होती है।
सच यह है कि नॉस्टैल्जिया हमारी आत्मा की सांत्वना है और व्यंग्य उसका सर्वांग दुखी पक्ष। हमें ग़म के साथ हँसी भी दी जाती है, लेकिन फर्क इतना है कि पहले यह थाली पीतल की थी—उसकी चमक जरा कम भी होती तो उसमें गरिमा थी। अब वही थाली प्लास्टिक की है, चमकदार लेकिन टूटने वाली। इस इशारे में समाई है हमारी आधुनिक ज़िंदगी की सच्चाई—जहां हंसी कम और कटुता ज्यादा है, और जहां यादें भी ज्यों-ज्यों पुरानी होती हैं, व्यंग्य भी मित्र की तरह करीब आता जाता है। इसलिए हम लिखते जाते हैं, सोचते हैं, और हंसते हैं, कभी-कभी खुद पर, तो कभी यादों पर। आखिरकार, यही वह ज़िंदगी है जो हमें मिली है—पीतल की चमक से घिरी हुई, मगर प्लास्टिक की मजबूती में दम तोड़ रही। इसी में छुपा है सबसे तीखा व्यंग्य।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – “व्यंग्य – बीत गया हैप्पी हिंदी डे” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # ३७१ ☆
व्यंग्य – बीत गया हैप्पी हिंदी डे श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
आज हिंदी दिवस है और हम सभी अपनी मातृभाषा हिंदी दिवस का जन्मदिन मना रहे हैं।
यूं हिंदी और अंग्रेजी तिथियों में हम सबका जन्म दिन दो बार मनाया ही जाता है, उसी तरह हिंदी दिवस भी प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर 14 सितंबर को एवं 10 जनवरी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है।
तो “हैप्पी बर्थडे” हिंदी ।
क्योंकि हिंदी को अंग्रेजी का सहारा लेने में कोई शर्म नहीं करनी चाहिए , यही आधुनिकता है ।
प्यारी हिंदी आज कितनी खुश होगी! आखिरकार साल दर साल इसी बहाने हम हिंदी को याद तो करते हैं। सरकारी खजाने से बड़ा बजट एलाट होता है, सेमिनार होते हैं की हिंदी का उपयोग कैसे बढ़ाएं। पोस्टर,बैनर बनते हैं हिंदी फॉर्म बुकलेट, छपते बंटते हैं।
आज का दिन , हिंदी का होता है । सबके व्हाट्सएप स्टेटस हिंदी में होंगे, फेसबुक पोस्ट हिंदी में होंगे भले ही रोमन हिंदी में लिखें । कल से फिर भले ही वापस अंग्रेजी में काम जारी हो जाए, लेकिन आज तो हिंदी की जय-जयकार है!
हमने हिंदी को स्मार्ट बना लिया है। एफ एम रेडियो पर अंग्रेजी मिक्सड हिंदी का नया प्रयोग सुनने मिलता है। हम कहते हैं “मैं अपने ऑफिस से घर जा रहा हूं।” वाह! कितना अच्छा लगता है। “कार्यालय से घर” कहने में जिव्हा ट्विस्ट होती है!
अब हम मॉडर्न हैं, अप-टू-डेट हैं। हमारी हिंदी में भी इंग्लिश का तड़का लगा रहता है।
देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेजी ही सबकी प्रिय है। स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है, लेकिन अच्छे स्कूल वे माने जाते हैं जहां सब कुछ अंग्रेजी में होता है। हिंदी मीडियम के बच्चे तो जैसे दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में हिंदी एक विषय है, बाकी सब विषय का मध्यम अंग्रेजी ही है।
नेता जी भी कितने समझदार हैं! हिंदी दिवस पर दो-चार वाक्य हिंदी में बोल देते हैं, बाकी सारे साल इंटरनेशनल इमेज बनाने के लिए अंग्रेजी में भाषण देते हैं, भले ही गलत स्पेलिंग में या हिंदी में लिखे अंग्रेजी शब्द पढ़ कर बोलते हों।
बॉलीवुड की तो बात ही न्यारी है। पहले फिल्में होती थीं “मुगल-ए-आजम”, “शोले”, “दीवार”। अब आती हैं “हाउसफुल”, “रेडी”, “वांटेड”। गाने भी कमाल के हैं – “यू आर माई सोनिया”, “नागिन डांस”। हमारे फिल्मकार कहते हैं कि अंग्रेजी नाम रखने से फिल्म इंटरनेशनल लगती है। जी हां, “प्रेम कहानी” कहने से तो बहुत लोकल लगता है!
व्यापारियों का भी अपना फलसफा है। दुकान पर लिखा रहता है “सेल”, “ऑफर”, “डिस्काउंट”। “बिक्री”, “छूट” जैसे शब्द पुराने जमाने की बात हो गई। ग्राहक भी खुश होते हैं , लगता है कि विदेशी माल मिल रहा है। “स्वदेशी” शब्द सुनकर तो लोग डर जाते हैं कि कहीं कुछ घटिया न हो।
मीडिया भी दो कदम बढ़कर है। न्यूज चैनल पर “ब्रेकिंग न्यूज”, “एक्सक्लूसिव रिपोर्ट”, “लाइव अपडेट” चलता रहता है। हिंदी में कहना हो तो “ताजा समाचार”, “विशेष रिपोर्ट”, “सीधा प्रसारण” कहते हैं, लेकिन यह सब पुराने जमाने की बात है। आजकल की पत्रकारिता में अंग्रेजी का तड़का जरूरी है, वरना टी आर पी रेटिंग कैसे आएगी? मजेदार बात यह है कि हम अपनी डिग्रियों पर भी अंग्रेजी में नाम लिखवाते हैं। “राम कुमार शर्मा” की जगह “Ram Kumar Sharma” लिखवाना जरूरी है। जॉब इंटरव्यू में हिंदी नाम बताने में शर्म आती है, लगता है कि इंटरव्यूअर सोचेगा कि यह तो निरा गंवार है।
रेस्टोरेंट में मेनू कार्ड अंग्रेजी में होता है। “दाल, चावल” की जगह “फ्राइड दाल” ” राइस”, “रोटी” की जगह “इंडियन ब्रेड ” लिखा रहता है। वेटर से हिंदी में बात करने में हिचकिचाहट होती है, लगता है कि हम कुछ छोटे लोग हैं।
मजेदार यह है कि हमारे घरों में दादी-नानी से हिंदी में बात करते हैं, बच्चों से अंग्रेजी में। बुजुर्गों के लिए हिंदी, बच्चों के लिए अंग्रेजी यह हमारी भाषाई नीति बन गई है। बच्चे हिंदी बोलें तो मां बाप परेशान हो जाते हैं कि कहीं ये बच्चा जमाने से पिछड़ न जाए।
सोशल मीडिया पर भी कमाल का दृश्य है। फेसबुक पर स्टेटस लिखते हैं “गुड मॉर्निंग फ्रेंड्स, हैव अ नाइस डे”। व्हाट्सएप पर “गुड नाइट स्वीट ड्रीम्स”। दो भाषाओं का ऐसा घालमेल कि समझ में ही नहीं आता कि हम कौन सी भाषा बोल रहे हैं।
अस्पतालों में भी यही हाल है। डॉक्टर साहब अंग्रेजी में बीमारी बताते हैं, हिंदी में समझाना पड़ता है। दवाइयों के नाम भी अंग्रेजी में ही लिखे रहते हैं। मरीज को समझ में नहीं आता, लेकिन अंग्रेजी में लिखा है तो दवाई बेहतर लगती है।
अजीब बात यह है कि हम अपने बच्चों के नाम भी अंग्रेजी वर्शन में रखते हैं। “आर्यन”, “रिया”, “ट्विंकल” जैसे नाम फैशन में हैं। “रामकुमार”, “श्यामसुंदर” जैसे नाम आउट ऑफ डेट हो गए हैं।
लेकिन फिर भी आज का दिन हिंदी का है! आज हमें गर्व से कहना चाहिए कि हम भारतीय हैं और हिंदी हमारी भाषा है। भले ही कल से फिर अंग्रेजी शुरू हो जाए, आज तो हिंदी की जय-जयकार है। तो आइए मिलकर कहते हैं “हैप्पी बर्थडे हिंदी!” अरे क्षमा करें, “हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!”
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी…” ।)
☆ शेष कुशल # ५५ ☆
☆ व्यंग्य – “गरीब का जीना भी कोई जीना है लल्लू!!…”– शांतिलाल जैन ☆
इन दिनों यमराज और उनका पूरा डिपार्टमेंट हैरान परेशान है. चित्रगुप्त का और चुनाव आयोग के डाटा का आपस में मिलान नहीं हो पा रहा. यमदूत जिसकी आत्मा लेने इहलोक में आते हैं मतदाता सूची में वे ऑलरेडी मरे हुए निकलते हैं. बीस बाईस लाख आत्माएँ तो अकेले बिहार में हैं जो मरने के बाद भी सशरीर आर्यावर्त में ही घूम रहीं हैं. चुनाव आयोग उनको जिन्दा नहीं मान रहा और यमदूत उनको ले जा नहीं पा रहे. ‘सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और अनारकली हम तुम्हें जीने नहीं देंगे’ टाईप का मामला है. वैसे हमारा चुनाव आयोग निष्पक्ष और निडर है. उसने चित्रगुप्त को एफेडेविट देकर साफ़ साफ़ बोल दिया है कि जो मरे नहीं उनके नाम एक सितम्बर तक बता दें हम वेरीफाई करा लेंगे, शेष आत्माएँ आप ले जाईए परलोक में. बैकुंठ में रखिए, स्वर्ग में रखिए, नर्क में रखिए, बफर ज़ोन में रखिए – कहीं भी रखिए, ये आपका सरदर्द है. आर्यावर्त में नहीं रहेंगे. आप ले जा पाए तो ठीक, नहीं तो सशरीर पृथ्वीलोक में ही उनको कहीं डिपोर्ट कर दिया जावेगा.
चित्रगुप्त की परेशानी यहीं तक सीमित नहीं है. हजारों मामलों में यमदूत रोजाना बिना आत्मा लिए खाली हाथ वापस आ जा रहे हैं. अब आप इन पंक्तियों के लेखक का ही मामला लीजिए. पिछले दिनों यमदूत उनको लेने आया था और कंफ्यूज होकर वापस चला गया, खाली हाथ. जाकर चित्रगुप्त को रिपोर्ट किया – “प्रभु, सेम पर्सन, सेम वोटर आईडी. फोटो में भी सेम-टू-सेम सांतिभिया उज्जैन में भी मिले, लखनऊ में भी, बेंगलुरु में भी, फिर महाराष्ट्र में भी. मैं कौनसे वाले सांतिभिया को लाता, टेल-मी.”
“पिताजी के नाम से मिलान करके ले आना था.”
“प्रभु, फादर का नाम ऐसा उजबक् कि कांट प्रोनाउंस. क्या तो लिखा था एएसडीऍफ़जी….समथिंग लाईक देट.”
“यमदूत होकर इत्ती अंग्रेजी बोलते हो!!”
“सॉरी सर, पिछले दिनों ही आर्यावर्त में ट्रान्सफर होकर आया हूँ. पहले लंदन से आत्माएँ लाता था.”
उधर सांतिभिया भी खुश. न कभी डाटा टेली होगा न कभी वे मरेंगे, और चार जगह वोट डालने को मिलेगा सो बोनस में. डेमोक्रेसी मज़बूत करने के लिए एक से ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों में वोट डालकर वे अपना अप्रतिम योगदान देते रहेंगे. आर्यावर्त के लोकतंत्र में जिन्दा रहना भी एक कला है. काश, सावित्री को यह कला आती. उसने चुनाव आयोग से संपर्क किया होता तो सत्यवान को वापस लाने के लिए यमराज की चिरौरी नहीं करनी पड़ती.
बहरहाल, ऐसा सभी मामलों में नहीं हुआ है. बहुत से लोग सच में जिन्दा मिले हैं मगर उनकी कद-काठी चित्रगुप्त के रिकार्ड से मैच नहीं कर रही. उनको आदमकद होना था मगर वे कद में इतने छोटे-छोटे थे कि एक कमरे के मकान में एक सौ अस्सी की संख्या में समाए हुए थे. बरसों से बंद एक कमरे में सैकड़ों की संख्या में घूमते तिलचट्टों नुमा. यमदूत फिर कन्फ्यूज्ड. खचाखच भरे एक कमरे के मकान में पाँव रख पाना मुश्किल तो आत्मा निकालकर बाहर लाएँ कैसे ?
वैसे आप और हम इस बात पर और अधिक गर्व कर सकते हैं भारत ने दुनिया को शून्य की अवधारणा दी और आयोग ने उसका उपयोग हजारों मकानों को पहचान देने में किया है. महान भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट के बाद ये चुनाव आयोग ही है जिसने शून्य का इतना शानदार उपयोग किया है. ये बात और है कि इससे यमदूत चकरघिन्नी हो गए हैं कौनसे वाले ज़ीरो नंबर के मकान से आत्मा ले जाना है, समझ नहीं आता.
यमदूतों का जॉब इतना कठिन कभी नहीं रहा श्रीमान् जितना इन दिनों हो गया है. एक मकान में वे एक सौ चौबीस वर्षीय महिला को लेने के लिए पहुँचे. महिला की आत्मा ने साथ में चलने से मना कर दिया, कहा – ‘फर्स्ट-टाईम वोटर हूँ मैं, मैंने अभी-अभी तो फॉर्म सिक्स भरकर वोटरलिस्ट में नाम जुड़वाया है. अभी से मैं आपके साथ कैसे चल सकती हूँ. दो-चार बार वोट डालने तो दीजिए. दो हज़ार सैंतालीस का विकसित भारत देख लूं, फिर चलूंगी,’ बेचारा यमदूत, मुँह लटकाकर वापस चला गया.
आंकड़ों के मिलान, चेकिंग, बेलेंसिंग, रिकन्सिलीएशन ने इन दिनों आर्यावर्त में जन्म-मृत्यु का सिस्टम बिगाड़ दिया है. चुनाव आयोग एक स्वायत्त, संवैधानिक संस्था है, उसकी विश्वसनीयता संदेह से परे है. रिकार्ड तो चित्रगुप्त को ही अपना ठीक करना पड़ेगा. गरीब, अनपढ़, प्रवासी, अल्पसंख्यकों को मृत दिखाकर बीएलओ ने अपनी ड्यूटी निभा दी है अब उन आत्माओं को आर्यावर्त से ले जाना यमराज के डिपार्टमेंट की जिम्मेदारी है. वैसे आर्यावर्त में गरीब का जीना भी कोई जीना है लल्लू!!