हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #82 – शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के  शिक्षक दिवस से सम्बंधित संस्मरण  शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास)

☆ जीवन यात्रा #82 – शिक्षक दिवस एवं “स्मार्ट क्लास” ☆ 

विगत 5 सितम्बर को ही में हम सब ने शिक्षक दिवस मनाया। भारत के यशस्वी राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधा कृषणन (5 सितम्बर 1888 – 17 अप्रैल 1975) का जन्म दिन था।  वे शिक्षाविद थे और महात्मा गांधी के कहने पर भारतीय राजनीति में आए। सर्वपल्ली राधाकृष्णन की यह प्रतिभा थी कि अखिल भारतीय कांग्रेसजन भी  यह चाहते थे कि उन्हे गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। स्वतन्त्रता के बाद उन्हें  संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक के समय कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 – 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।  वे भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे । उन्होंने महात्मा गांधी पर दो विषद ग्रंथों  का सम्पादन किया गांधी अभिनंदन ग्रंथ (वर्ष 1939 ) और गांधी श्रद्धांजलि ग्रंथ (वर्ष 1955 )। उनके इन्हीं अनेक गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। पंडित नेहरू ने उनको मान  सम्मान दिया,  पहले उपराष्ट्रपति और फिर  राष्ट्रपति निर्वाचित करवाने में अपने पद का  या अंग्रेजी में कहें तो गुड आफिसेस का उपयोग किया। उन्हे श्रद्धापूर्वक नमन।

वर्ण व्यवस्था की माने तो हमारे परिवार का पेशा  होना चाहिए था अध्ययन अध्यापन, पठन पाठन। पर विगत दस-बारह  पीढ़ियों में हमारे परिवार का पेशा  शिक्षण कार्य तो नहीं रहा। हमारे पुरखे जो गुजरात से पन्ना आए वे पहले तो सामाजिक व्यवस्था में निर्यायक  या दंडनायक की भूमिका निभाते रहे और इसीलिए हमारा उपनाम डनायक  हुआ।  फिर तीन पीढ़ियों ने हीरा और अनाज विक्रय  आदि का व्यवसाय किया और अब भूत-वर्तमान चार पीढ़िया नौकरी कर जीवन यापन कर रही हैं। उनमें से कुछ शिक्षक भी हैं ।

मेरी, माँ स्व श्रीमती कमला डनायक, विवाह के पूर्व जैन प्राथमिक शाला दमोह में पढ़ाती थी, बाबूजी के दो चचेरे भाई स्व श्री भगवान शंकर डनायक उनकी भार्या स्व श्रीमती तारा  व श्री केशव राम एवं  उनकी अर्धागनी  श्रीमती उषा डनायक सेवानिवृति तक हमारे पैतृक नगर पन्ना में शिक्षक रहे।  बाबूजी के एक अन्य चचेरे भाई श्री श्याम शंकर डनायक, हमारे परिवार में प्रथम स्नातकोत्तर तक शिक्षित,  ने भी अपनी आजीविका  की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में तो की  पर बाद को वे रेलवे में नौकरी करने लगे । लेकिन सेवानिवृति के बाद कुछ साल तक वे सतना में अर्थ-शास्त्र पढ़ाते रहे ।  मेरी, एक बहन रीता पण्ड्या,  केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका रही तो अनुज, अतुल कुमार डनायक भी उच्चतर माध्यमिक शाला में प्राचार्य बना और वर्तमान में राज्य शिक्षा केंद्र में संयुक्त निदेशक के रूप में शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभा रहा है ।  मेरे एक चचेरे भी रवि शंकर केशव राम डनायक  भी शिक्षक हैं। मेरी पुत्र वधू श्रुति सेलट डनायक ने पहले मुंबई और फिर अमेरिका और कनाडा में शिक्षक के दायित्व को सफलतापूर्वक निभाया है।  मेरे चचेरी बहनें भावना मेहता (पुत्री श्री  केशव राम डनायक ) व सोनाली ठाकर  (आत्मजा स्व श्री  भगवान शंकर डनायक ) भी शिक्षक हैं और भौतिक विज्ञान व गणित  जैसे कठिन विषयों को पढ़ाने में पारंगत हैं। 

इन्ही भाइयों और काका–काकी की प्रेरणा से मैं भी सेवानिवृति के बाद स्कूली शिक्षा से  जुड़ा । और जन सहयोग, जिसका अधिकांश हिस्सा मेरे साथियों, स्टेट बैंक  से सेवानिवृत अधिकारियों व अन्य सेवनिवृत मित्रों  ने आर्थिक सहयोग के रूप में दिया था के द्वारा 27 विद्यालयों में स्मार्ट क्लास शुरू करवाने में सफलता पाई । कोरोना संक्रमण ने हमारे इस अभियान को अल्प विराम दिया है।  आशा की किरणे  धूमिल नहीं हुई हैं, कभी फिर यह सपना आकार लेगा। अमरकंटक के माँ सारदा  कन्या विद्या  पीठ की बैगा आदिवासी बालिकाओं को तो कभी कभार मैंने पढ़ाने का असफल प्रयत्न भी किया।  जब इन बच्चियों को मैं पढ़ाता हूँ तो मुझे मेरी माँ की याद आती है।  हम भाई बहनों ने अपने चरवाहे के पुत्र सबलू को शिक्षित करने की ठानी।  एक सप्ताह तक प्रयास करने पर भी हम उसे अ लिखना भी नहीं सिखा  सके।  और तब मेरी माँ ने स्लैट पेंसिल उठाई और दो दिनों में उस अबोध आदिवासी बालक को ‘सबलू ‘ लिखना सिखा दिया।

तो आज शिक्षक दिवस पर मेरी प्रथम गुरु हमारी मां  कमला डनायक , परमेश्वर रूपी गुरु पिता रेवाशांकर डनायक, परिवार के शिक्षक व्यवसाय से जुड़े काकाजी, काकी, को सादर नमन।  मेरे सभी शिक्षकों , परिवार के शिक्षक व्यवसाय से जुड़े, भाइयों और बहनों जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, 27 विद्यालयों के शिक्षकों जहां जन सहयोग से  स्मार्ट क्लास शुरू की गई, मेरे शिक्षक मित्र डाक्टर मनीष दुबे, स्मार्ट क्लास के प्रणेता दिव्य दम्पत्ति ( दिव्य प्रकाश और मीनाक्षी सिंह ) तथा इन शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों को शुभकामनाएं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज  श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के जीवन-यात्रा स्तम्भ के अंतर्गत  ‘’सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ’। हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते  रहेंगे।)

(कुरुक्षेत्र के युवा कवि स्व महीप प्रशांत)
☆ जीवन यात्रा ☆ सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ☆

(वानप्रस्थ में हिंदी पखवाड़ा – युवा कवि स्व महीप प्रशांत का स्मरण को याद किया)

कुरुक्षेत्र में पले बढ़े महीप प्रशांत मात्र 21 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए पर अपने पीछे उच्च स्तर की साहित्यिक रचनाओं का जो अच्छा खासा खज़ाना छोड़ गए हैं, वह उन्हें अमर बनाए रखेगा।

हिंदी पखवाड़े के उपलक्ष्य में आयोजित एक वेबिनार में हिसार की वानप्रस्थ संस्था ने जहां एक ओर हिंदी भाषा के इतिहास, विकास, चुनौतियों और संभावनाओं पर विचार किया वहीं युवा कवि प्रशांत की जीवनी और उनकी साहित्यिक यात्रा पर भी गंभीर विचार किया।

पुणे से ऑनलाइन जुड़ी प्रशांत की छोटी बहन दीपशिखा पाठक ने श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन व रचनाओं पर प्रकाश डाला और उनकी कुछ कविताओं  का पाठ किया।

‘श्रृंखला की कड़ियां ‘ शीर्षक की कविता में वे कहते हैं:

‘अंधकार से संघर्ष में ऊबा हुआ

गहन निराशा में डूबा हुआ

क्षितिज पर सूरज अस्त हो रहा था।

उदीयमान क्षुद्र तारकों का सूर्य की पराजय पर उल्लास.

यही नहीं-

पर्वतों की ओट से झाँकता अंधकार;

अभी भी सूर्य के डर से काँपता अंधकार

भी छिपा हुआ कर रहा था गगनभेदी अट्टहास।

और मैं एक मूक दर्शक देखे जा रहा था-

विस्मृति का विलास

निवृत्ति का  उपहास!

हाँ! सूरज हार गया।

अंधकार को नष्ट करने का प्रण लिए

सदियों से उससे लड़ता हुआ

सूरज इस बार भी हार गया!

पर नहीं-

वह पुनः उठेगा

मन में प्रण व विश्वास लिए

जीवन का प्रकाश लिए

और अंधकार का नाश लिए।

संघर्ष पुनः शुरू हो जाएगा

सृष्टि के अंत तक चलता जायेगा…..

क्यूँकि … संघर्ष  ही जीवन है!!!

 

‘खिड़कियाँ’ शीर्षक की कविता सन 1983 में लिखी गई थी जब महीप प्रशांत केवल 20 वर्ष के थे। 

“इस शहर के फुटपाथों में छेद देखे,

भूख से हमने चेहरे सफ़ेद देखे,

मरा जो कोई लू में,

तो उन्हें खेद हुआ अख़बारों में-

छोटी सी बातों में

हमने बड़े भेद देखे,

और अपन चुप रहे,

देखा किए,

कुछ ना कहा,

एक खिड़की थी खुली,

उठे, उठ कर बंद कर ली।

 

खिड़कियाँ भी बहुत हैं

यहाँ ताले भी बहुत हैं

ज़िंदा रहने के यूँ तो

मसाले भी बहुत हैं।

पर साँस लेने को भी तो

कुछ हवा चाहिए

चारों तरफ़ यहाँ तो

जाले भी बहुत  हैं।

इन जालों के नीड़ में

जग को विचरते देखा है,

सड़क की धुंद में

आसमाँ को डरते देखा है,

देखा है इस खिड़की से अपना जनाज़ा रोज़ उठते हुए

… और .. अपन चुप हैं,

देखा किए हैं.. क़ुछ न कहा।

 

महीप प्रशांत की भावभीनी याद के इलावा हिंदी दिवस समारोह की चर्चा में  साहित्य से जुड़े और भी कई व्यक्ति शामिल हुए। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ दिनेश दधीचि ने कहा कि हिंदी में इसकी 49 लोकबोलियों के शब्द लिए जाने चाहिएं ।

आकाशवाणी के वरिष्ठ अधिकारी रहे पार्थसारथी थपलियाल का कहना था कि यूं तो हिंदी का इतिहास करीबन एक हज़ार साल का है पर इसका वर्तमान परिष्कृत स्वरूप लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तैयार किया ।

पूर्व बिजली निगम अधिकारी डी पी ढुल, पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी एस पी चौधरी, देविना ठकराल,  वीना अग्रवाल, प्रो राज गर्ग, प्रो जे के डांग व प्रो सतीश भाटिया ने भी अपने विचार रखे।

गोष्ठी का संचालन करते हुए दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कहा कि असीम विविधता के देश भारत में कोई एक भाषा राष्ट्र भाषा नहीं हो सकती इसीलिए संविधान के 8वें अनुच्छेद में 22 क्षेत्रीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी गई है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिंदी अगर सभी प्रांतीय भाषाओं के शब्द अपना ले तो यह न केवल समृद्ध होगी बल्कि इससे राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलेगा।

वेबिनार में विभिन्न स्थानों से लगभग 30 व्यक्तियों ने भाग लिया।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक के रूप में कार्यरत रह चुके हैं। )

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #81 – 3 – पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/प्रसंग “पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ”)

☆ जीवन यात्रा #81 – 3 – पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ☆ 

(मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश)

आज जन्माष्टमी है बाल गोपाल , कृष्ण कन्हैया , गिरधर नागर, नन्द किशोर यशोदानंदन, देवकीसुत का जन्मोत्सव का दिन I आगामी छह दिनों तक कभी घर- घर सजाई जाने वाली झाँकी और बालमुकुन्द का झूला तो अब कुछ घरों में  सिमट कर रह गया है I पर बृज भूमि अगर कृष्प भक्णि के लिए प्रसिद्द  है तो भैया हमाओ  बुंदेलखंड भी कछु कम नईया I आज से मैं आपको पन्ना  के जुगल किशोर के दर्शन आगामी छह दिनों तक रोज कराउंगा I यह अंश है मेरी आगामी पुस्तक  घुमक्कड़ के

पन्ना शहर के मध्य में स्थित  जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों  की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह  में राधा  कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी  प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I  गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।

श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन  होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव  जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं । मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की  सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति  अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान  कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक  पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी । 

पन्ना शहर के मध्य में स्थित  जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों  की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह  में राधा  कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी  प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I  गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।

श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन  होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव  जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं। मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की  सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति  अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान  कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक  पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी ।

मंदिर के पुजारी रोज सुबह 5 बजे जुगलकिशोर को जगाकर उनकी मंगल आरती करते हैं , फिर कनक कटोरा आरती का आयोजन होता है। इसके बाद पट बंद कर दिए जाते हैं। दोपहर 12 बजे फिर मंदिर के द्वार खोले जाते हैं । ढाई बजे जब पूरे शहर के लोग भोजन कर चुके होते हैं, तब भगवान को भोग लगाया जाता है। यह भोग बहुत ही सात्विक वातावरण में पकाया जाता है I मैंने भी एक बार 2010 में मुंबई से पन्ना आकर थाल भोग अर्पित किया था I मैंने मंदिर के पुजारी से इतने विलम्ब से भगवान को दोपहर का भोजन अर्पित करने का कारण पूछ लिया I पंडितजी के अनुसार आमतौर पर मंदिरों में पहले भगवान को भोग लगता है, फिर भक्तों को प्रसाद मिलता है, लेकिन पन्ना के जुगलकिशोर इतने भक्तवत्सल माने जाते हैं कि वे  पहले अपने भक्तों को पेट पूजा का मौका देते हैं, उसके बाद ही भोग ग्रहण करते हैं। यही वजह है कि यहां दोपहर के भोजन की आरती 2.30 बजे और रात्रि के भोजन की आरती रात 10.30 बजे होती है । मैं भी पुजारी के इस उत्तर को सुनकर भावविभोर हो गया I इस  अनूठी परंपरा और उससे जुड़ी भावना पन्ना वासियों की इस आस्था को और अधिक बल प्रदान करती है कि जुगल किशोरजी अपने राज्य में किसी को भी भूखा नहीं सोने देते । पन्ना के सभी मंदिरों के पट प्राय: रात्रि नौ बजे बंद हो जाते हैं किन्तु जुगल किशोर जू के पट बंद होने का समय साढे दस बजे रात्रि है I

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #80 – 2 – पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा  -पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन”)

☆ जीवन यात्रा #80 – 2 –पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ 

गतांक से आगे

जीएम की विशेष रेलगाडी, आउटर सिगनल को पार करने से पहले ही स्टेशन की ओर पीछे आ रही थी, मध्य रेल  के सर्वोच्च अधिकारी  का इस तरह वापस आना किसी आसन्न खतरे का सूचक ! बाबूजी ने, जिन्हें स्वयं को संतुलित करने में देर नहीं लगती थी, अपने माथे पर अचानक आ गई  पसीने की बूंदों को पोंछा, एक गिलास पानी पिया, और पूरी मुस्तैदी के साथ महाप्रबंधक का स्वागत करने प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हो गए I महाप्रबंधक का कोच स्टेशन के मुख्य द्वार के सामने रूका और अधिकारियों का जत्था स्टेशन की ओर बढ़ा।  बाबूजी और उनके अधीनस्थों ने अभिवादन किया तभी महाप्रबंधक की कड़क आवाज गूंजी ‘Who is Master of this Station ?’ बाबूजी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ जवाब दिया ‘महोदय मैं’ । और इसके साथ ही स्टेशन के  सूक्ष्म निरीक्षण का कार्य प्रारम्भ हो गया । महाप्रबंधक  विभिन्न रिकार्ड मांगते और स्टेशन पोर्टर, अविलम्ब  उन्हें प्रस्तुत कर देते । महाप्रबंधक की  पैनी निगाहें रिकार्ड को देखती और किसी अन्य पुस्तक की  फरमाइश होते देर न लगती । उन्होंने इसी दौरान  स्टेशन पोर्टर से रेल संरक्षा के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, उत्तर से वे संतुष्ट हुए  और अचानक  चमचमाती  हुई ब्रास मेटल की टिकिट खिड़की, उद्घोषणा करने वाले पीतल के  घंटे और स्वच्छ कक्ष   को देखकर सम्बंधित सफाई कर्मचारी को बुलाने का आदेश दिया । सामने खड़े मुन्ना लाल ने बाबूजी का इशारा समझा और महाप्रबंधक के चरणों में अपना शीश नवा दिया । महाप्रबंधक ने मुन्ना लाल से पूछा कि ‘रोज इतने समय तक नौकरी पर उपस्थित रहते हो ।’ मुन्ना लाल ने भी त्वरित जवाब दिया ‘नहीं साहब, आज आपका दौरा था तो बड़े बाबू ने हम सभी को स्टेशन में दिन भर रहने का आदेश दिया था ।’  ‘तो फिर तुम लोगों को ओव्हर टाइम का पैसा मिलेगा ?’ महाप्रबंधक ने जब यह प्रश्न दागा तो सामूहिक उत्तर मिला ‘हम लोग आपके स्वागत और दर्शन के लिए ड्यूटी पर हैं तो भला ओव्हर टाइम क्यों मांगेंगे ।’ यह सब वार्तालाप महाप्रबंधक को प्रसन्न व प्रभावित  करने पर्याप्त था और उन्होंने स्थल पर ही,  मुन्नालाल  व स्टेशन पोर्टर को पचास-पचास रुपये और बाबूजी व उनकी टीम को सात सौ रुपये नगद पुरस्कार की घोषणा तत्काल कर दी । शाम को अपनी ड्यूटी से निवृत होकर बाबूजी माँ और मैं, अनेक स्टेशन कर्मियों के साथ जागेश्वरनाथ के दर्शन करने गए । शास्त्रीजी ने इस यश को भोलेनाथ का आशीर्वाद एवं चमत्कार  बताते हुए बाबूजी के गले ईश्वर को अर्पित पुष्पमाला पहना दी। दूसरे दिन स्टेशन स्टाफ का भंडारा ‘बड़ी बाई’ की ओर से आयोजित हुआ और माँ ने सबको  भरपूर खीर-पूड़ी स्वयं परोसकर खिलाई ।

इसके बाद तो अक्टूबर 1986 तक मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय से कोई न कोई अधिकारी बांदकपुर  स्टेशन निरीक्षण करने आता और और बाबूजी प्रसंशा पत्र या नगद पुरस्कार से सम्मानित होते रहे। बाबूजी की कर्तव्यपरायणता ने हम सब के लिए आदर्श प्रस्तुत किया । आज भी हम भाई-बहनों और उनके पुत्र-पुत्री जब हतोत्साहित होते हैं, कर्तव्यपथ से विचलित होते हैं तो चितहरा से बांदकपुर तक की उनकी 39 वर्ष की कर्म प्रधान यात्रा के किस्से सुनकर परिवार के लोग उत्साह से भर उठते हैं, कर्म पथ पर चलने की प्रेरणा पाते हैं ।

मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग तिसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग तिसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

आई म्हणून घडत असताना आपली मुलं आपल्याला अनेक धडे देत असतात. आपण शिकत जातो, साच्यात बंदिस्त न होता स्वत:ला नव्यानं घडवू लागतो. वयानं लहान असली तरी कधीकधी ती आपल्याला नवीन काहीतरी सुचवत असतात. माझ्याही  बाबतीत तसंच काहीसं घडलं. माझा धाकटा मुलगा आँकॉलॉजी या विषयात सुपर स्पेशलायझेशन करायला तीन वर्षांसाठी अहमदाबादला जायला निघाला, सूनही तिच्या पी.एच.डी.च्या कामात व्यस्त होती. निघतांना तो मला म्हणाला, “आई, मी आता तीन वर्षे इथे येणार नाही. तुला काही करायचं असलं तर कर.” हे वाक्य माझ्या जीवनाला कलाटणी देणारं ठरलं. उत्क्रांती लिहून झाल्यावर आलेलं रिकामपण खायला उठत होतं. एखादी नवीन भाषा का शिकू नये? असं वाटल्यावर शोधाशोध सुरू झाली. गोरेगावला प्रतिमा गोस्वामी एका म्युनिसिपल शाळेत बंगालीचे वर्ग घेत असत. त्यांना फोन लावला, पण सप्टेंबर महिना उलटून गेला असल्यामुळे त्यांनी प्रवेश नाकारला. चिवटपमाणे परत फोन केला. जूनमध्ये वर्ग सुरू झालेले असल्यामुळे चार महिने बरंच काही शिकवून झालं होतं. ते मी पुन्हा शिकवणार नाही, या अटीवर मला एकदाचा प्रवेश मिळाला. पुस्तकं कोलकात्यावरून मागवावी लागत असल्यामुळे त्याही बाबतीत ‘आनंद’च होता. पण झेरॉक्सची सोय असल्यामुळे तोही अडथळा सहज पार करता आला. शाळा, धुळीने भरलेले वर्ग, छोटया मुलांना बसता येईल असे लहान लहान बेंचेस वगैरे अडचणींकडे दुर्लक्ष करायचं ठरवलं. बंग भाषा प्रचार समितीतर्फे चालवलेल्या या कोर्समध्ये प्रत्येक वर्षी एक याप्रमाणे तीन परीक्षा द्यायची सोय होती. माझ्यापाशी तीन वर्षांचाच कालावधी होता. अर्जुनाला दिसणाऱ्या पक्ष्यांच्या डोळ्याप्रमाणे माझी मानसिकता झाली होती. अक्षरं गिरवणं, जोडाक्षरं लिहिणं, अकारांत, आकारांत या क्रमाने शब्द, छोटी वाक्यं असं लेखन चालू होतं. पहिली परीक्षा पार पडली. दुसऱ्या परीक्षेचे वर्ग सुरू झाले. पण विद्यार्थ्यांची संख्या विसावरून तीनवर रोडावली. प्रतिमादीही वयोवृद्ध होत्या. शाळा उघडण्याचा व्याप त्यांनाही नकोसा वाटत असावा. त्यांच्या घरीच क्लास होऊ लागले. लहानशा गॅलरीतल्या बिछान्यावर दीदी स्थानापन्न होत आणि आम्ही भोवताली. दुसऱ्या परीक्षेच्या अभ्यासक्रमाची पुस्तकं इयत्ता आठवीला शोभतील अशी. साहजिकच दीदींना अभ्यासक्रम पूर्ण करायची घाई असे. बंगाली सोडून इतर भाषेतला एकही शब्द त्या उच्चारत नसत. प्राण गोळा करून कान देऊन ऐकायचा आम्ही प्रयत्न करत होतो. बोलायला फारसा वाव नसे. प्रश्नांची उत्तरं लिहिणं, निबंधलेखन, पत्रलेखन, सारांशलेखन असे अनेक विषय अभ्यासात होते. दिदींनी आम्हाला सर्वात चांगली सवय लावली. त्यांनी कधीही उत्तरं डिकटेट केली नाहीत. ‘तुम्हाला येईल तसं लिहा, मी तपासून देईन’ हे त्यांचं घोषवाक्य. त्यामुळेच आम्हाला स्वत: विचार करून लिहायची सवय लागली. दुपारी तीन ते पाच, आठवडयातून दोन वेळा क्लास होत. संसार सांभाळून जमेल तसा अभ्यास. तिसऱ्या परीक्षेचा अभ्यासक्रम मारुतीच्या उड्डाणासारखा. गीतांजली, कादंबरी, नावाजलेल्या लेखकांच्या कथा. प्रश्नोत्तरांबरोबर काव्याचा अर्थ, समीक्षा, कादंबरीतल्या व्यक्तिरेखांचं विवेचन, निबंध, कल्पनाविस्तार आणि व्याकरण याचाही समावेश होता. सायन्सची डिग्री घेतलेल्या माझ्यासारखीला हे फारच डोईजड होणारं होतं. अभ्यास करायची तयारी होती. माझ्या वयाच्या साठाव्या वर्षी मी लेखी आणि तोंडी दोन्ही परीक्षा दिल्या. सर्व विद्यार्थ्यांमधून पहिला क्रमांक मिळाल्याचा दीदींचा फोन आला. ते साल होतं २०१०. तीन वर्षे केलेला आटापिटा सुफळ संपूर्ण झाला. सहज म्हणून मी एका कथेचा अनुवाद केला. तो प्रकाशित झाला. तेव्हापासून अनुवाद करायचा नाद लागला. या एका दशकात मी अनुवाद केलेली सात पुस्तकं-बंगगंध, सुचित्रा भट्टाचार्य यांच्या निवडक कथा भाग १ आणि २, वसुधारा, तुटलेली तार, आकाशप्रदीप या कादंबऱ्या आणि ‘काही जमणार नाही तुला’, ही छोट्यांची कादंबरी उन्मेष प्रकाशनातर्फे प्रकाशित झाली. बुकगंगावर ती उपलब्ध आहेत. साठोत्तरीचा हा प्रवास म्हणजे आनंदयात्रा.

समाप्त

© सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. ई-मेल आयडी [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग दुसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग दुसरा ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

जीवनात बरेचदा योगायोगानं घटना घडत असतात. आपण मात्र सगळ्याचं श्रेय घ्यायला टपलेले असतो. यात गैर काही नाही. तो मनुष्य स्वभाव आहे. नाना जोशी यांनी मला ‘उत्क्रांती’ या विषयावर लिहायला सांगितलं. उत्क्रांती हा विषय आकाशाला गवसणी घालण्यासारखा. ‘उत्क्रांतीचा डार्विनने मांडलेला सिद्धांत’ हा नानांना अभिप्रेत असलेला विषय होता. मी त्याला आधुनिक विज्ञानाची जोड द्यायचे  ठरवले. म्हणजेच जनुकीय शास्त्रानुसार डी.एन.ए. आर.एन.ए. या रेणूंची रचना कशी असते, जनुक म्हणजे काय, याचा सगळ्यांना समजेल असा अर्थ सांगायचा. संशोधनाचा उपयोग मानवजातीच्या कल्याणासाठी व्हावा असाच उद्देश असतो. या संशोधनाचा उपयोग माणसांचं जीवनमान उंचावायला, जीवन सुसह्य व्हायला झालाय का? हे मुद्दे विचारात घेऊन त्यांचा उहापोह करावा अशी माझ्यापुरती सीमारेषा मी आखून घेतली.

या विषयाकडे वळण्यापूर्वी एक महत्त्वाचा मुद्दा इथे सांगायला हवा. माझ्या घराजवळ असलेल्या एका शाळेत राष्ट्रीय शिष्यवृत्तीच्या परीक्षेची तयारी करून घेण्यासाठी वर्ग चालवले जात. इयत्ता आठवी आणि नववीचे विद्यार्थी त्यात सहभागी होत. सी.बी.एस.सी.च्या बारावीपर्यंतचा अभ्यासक्रम यात समाविष्ट केलेला असे. इतका विस्तृत अभ्यासक्रम आठवी आणि नववीच्या मुलांच्या गळी उतरवणं ही तारेवरची कसरत होती.  पश्चिम उपनगरातल्या विविध शाळातली हुशार मुलं इथे प्रवेश घेत. शिवाय नाममात्र पैसे मिळत असल्यामुळे खरी आवड असणारी माणसंच इथे शिकवायला येत. हे वर्ग दुपारी एक ते पाच या दरम्यान असल्यामुळे ही वेळ माझ्यासारख्या गृहिणीला सोयीची होती. शिवाय मायक्रोबायॉलॉजी आणि पॅथॉलॉजी या विषयातली पदवीधर असल्यामुळे मी शिकवू शकेन असा मला विश्वास वाटत होता. हे काम मी एकूण एकवीस वर्षे करत होते. साहजिकच डार्विनचा उत्क्रांतिवाद, जनुकांचा शोध, मूळ रेणूंची रचना याविषयी मला सखोल ज्ञान होतं. हे अवघड विषय आठवी, नववीच्या पातळीवर जाऊन सोपे करून कसे शिकवावेत याचं तंत्र मी माझ्यापुरतं विकसित केलं होतं. डार्विनच्या उत्क्रांतीच्या सिद्धांतावर पुस्तक लिहितांना मला याचा अतिशय उपयोग झाला.

या विषयावरची अनेक पुस्तकं एशियाटिक सोसायटीच्या वाचनालयात होती. त्यांचं अभ्यासपूर्ण वाचन मी सुरू केलं. माझ्या स्वत:च्या नोट्स काढू लागले. सुमारे वर्षभर अभ्यास करून पूर्वतयारी केल्यावर मी प्रत्यक्ष लिहायची सुरुवात केली. संगणक युगाचा प्रारंभ झाला होता. आमच्या घरी डेस्क टॉप घेतलेला होता. त्यावर मराठी फॉन्ट डाऊनलोड करून कसं लिहायचं ही साक्षरता व्हायला हवी होती. म्हणजे हा मुळारंभ आरंभ…होता. ते साध्य झाल्यावर मी लिहू लागले. काही नवीन पुस्तकं खरेदी केली. एकीकडे तेही वाचन चालू होतं. जुन्या लेखनात नव्याची भर पडत होती. संगणकावर लेखन करत असल्यामुळे कापा-चिकटवा-गाळा-पुसा या गोष्टी अनायासे करता येत होत्या. लिहिता लिहिता पृष्ठसंख्या तीनशेच्या वर गेली. अर्थात एडीटिंग करणं अत्त्यावश्यक ठरणार होतं. त्यासाठी मला माझ्या यजमानांची मोलाची मदत झाली. एकशे सत्तर पानांत हा सिद्धांत मांडण्याचा मी प्रयत्न केला आणि हे पुस्तक राजहंस प्रकाशनाकडे पाठवलं. ते दोन हजार आठ साल असावं. राजहंसचे डॉक्टर सदानंद बोरसे यांनी त्याला मान्यता दिली. दोन हजार दहा या साली डार्विनचा सिद्धांत प्रकाशित झाल्याला दीडशे वर्षे होत होती. डिसेंबर महिन्यात ‘उत्क्रांती’ हे मी लिहिलेलं पुस्तक प्रकाशित झालं. या विषयावर तोपर्यंत मराठीत काही लिहिलं गेलं नव्हतं. डार्विन म्हटला म्हणजे लोक त्याच्या बीगलच्या रोमांचकारी सफरीचा वृत्तांत लिहित, पण कोणीच त्याचा उत्क्रांतीचा सिद्धांत सोपा करून लिहिला नव्हता आणि जनुकीय विज्ञानाशी त्याची सांगडही घातली नव्हती. या पुस्तकाची दुसरी आवृत्तीही निघाली. राज्य शासनाच्या त्या वर्षीच्या विज्ञान पुरस्कारासाठी या पुस्तकाची निवड झाली. अनेक योगायोग जुळून आल्यामुळे हे लेखन करता आलं. अर्थात त्याला अभ्यासाची आणि अथक परिश्रमांची जोड द्यावी लागली होती.

क्रमश:….

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≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग पहिला ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग पहिला ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

सूर्य, चंद्र, ग्रह, तारे, आकाशगंगा सारे आपापल्या मार्गाने वाटचाल करत असतात. तोच सूर्य आणि तोच चंद्र. तरीही सकाळ झाली की आपण म्हणतो सूर्योदय झाला. चंद्राच्या वाढत्या आणि कमी होणाऱ्या कला पाहून आपण रोज रात्री नव्यान चंद्र बघितल्याची  अनुभूती घेत असतो. मलाही स्वत:च्या बाबतीत तसंच काहीसं वाटलं. रोज उगवणारा दिवस वेगळा. त्या दिवसाची आव्हानं, कर्तव्य, कामगिऱ्या यात वेगळेपणा असतो. त्यानुसार आपण दिनचर्येत बारीक बारीक बदल करत असतो. एका तत्त्ववेत्त्याने म्हटलंय, आजचा मी कालच्या मीपेक्षा वेगळा आहे. वाटलं, बरोबर आहे. जीवनाच्या धकाधकीत येणाऱ्या नित्यनव्या अनुभवांमुळे आपली मतं बदलत राहतात. विशेषत: अडचणीच्या काळात आप्तेष्टांची खरी कसोटी होते. आपल्या भवतालाविषयी, मित्र, सखेसोयरे यांच्याविषयी आपले काही आडाखे असतात. अनुभवानुसार आपण त्यातही बदल करतच असतो. तेव्हा जीवनात ‘बदल’ हाच ‘नित्य’ असतो. कालची मी आज नाही. रोज माझा नव्यानं जन्म होत असतो, असा मला विश्वास वाटतो.

   संसारिक जबाबदाऱ्या काही प्रमाणात कमी झाल्या. मुलं आपापल्या शिक्षणात गुंतली होती. तेव्हा माझी मैत्रीण डॉक्टर मीना वैशंपायन हिने सुचवल्यामुळे मी मुंबईच्या एशियाटिक सोसायटीच्या लायब्ररीची आजीव सभासद झाले. टाऊन हॉलमधल्या त्या भव्य प्रांगणात शिरल्यावर अंगावर शहारे आले. मन भरून आलं. अगणित रॅक्स. ओळीने ठेवलेली लाखो पुस्तकं पाहिल्यावर लहान मुलाला खेळण्यांच्या भल्या मोठया दुकानात शिरल्यावर वाटेल, तशी माझ्या मनाची अवस्था झाली. तेव्हापासून पुस्तकांचं वेड लागलं. जगभरातली महत्त्वाची साप्ताहिकं, पाक्षिकं, मासिकं आणि नामवंत लेखकांची पुस्तकं असा हा कितीही लुटला तरी न संपणारा खजिना. ज्ञात-अज्ञात लेखकांची पुस्तकं वाचली. नोबेल पारितोषिक मिळवलेल्या लेखकांची पुस्तकं वाचली, काही नजरली. सीमित जगातून मी या असीम जगात प्रवेश केला होता. इथे अनेक नामवंत लेखक, प्रकाशक, कवी, प्राध्यापक अशा ज्ञानी मंडळींची उठबस बघत होते. नवीन ओळखी होत होत्या. तिथेच भेटले निवृत्त चीफ म्युनिसिपल इंजिनिअर पी.जी. उर्फ नाना जोशी.

   नाना जोशी ‘नवी क्षितिजे’ नावाचं एक अनियतकालिक काढत असत. माझ्या मासिकासाठी लिहा, असा त्यांचा सततचा आग्रह. मी म्हणत असे, ‘आजवरच्या आयुष्यात मी एक ओळही लिहिली नाही. मला कसं लिहिता येईल?’ शेवटी विषय आणि त्याला लागणारं साहित्य देत ते मला म्हणाले, ‘हे वाचून भारतीय भोजनातल्या विलायती भाज्या असा दीर्घ लेख तयार करा’. मी बाचकतच कामाला लागले. माझा लेख त्यांच्या पसंतीस उतरला. हा लेखन प्रवास दीर्घकाळ चालू राहिला. चहा, कॉफी, कोको, साखर, मीठ..एक ना दोन. सगळ्यांचे इतिहास लिहून झाल्यावर नाना जोशी विविध शास्त्रीय लेख देऊन त्यावरून मराठीत लेख लिहायला सांगू लागले. डोरिस लेसिंग ही नावाजलेली ब्रिटीश लेखिका. तिच्या आत्मचरित्राचे दोन खंड आणि इतर अनेक कादंबऱ्या आमच्या वाचनालयात होत्या. नानांनी त्याचा परामर्श मला घ्यायला सांगितला. मायक्रोबायॉलॉजी आणि पॅथॉलॉजीचा डिप्लोमा, यानंतर संसारात बुडून गेलेली मी, साहित्याचा तसा वारा लागला नव्हता. तरीही माझ्या अल्प मतीला जमेल त्यानुसार मी तीही कामगिरी पार पाडली. नाना जोशी यांनी त्याचे पुस्तक प्रकाशित केले. त्यांच्या मनात अनंत विषयांची यादी तयार असे. पुढचा विषय होता डार्विनची उत्क्रांती

   दिसामाजी काहीतरी ते लिहावे, प्रसंगी अखंडित वाचीत जावे या समर्थांच्या उक्तीनुसार माझी कृती चालू होती. नवीन ज्ञानाची भर पडत होती. नवीन लेखक भेटत होते आणि मी रोज नव्यानं जन्म घेत होते.

क्रमश:….

© सुश्री सुमती जोशी

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≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #79 – 1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा #79-1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ”)

☆ जीवन यात्रा #79 – 1 –हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ 

सम्पूर्ण उत्तर भारत में मनाये जाने वाले इस लोक त्योहार की छटा बुन्देलखण्ड में निराली है। रक्षा बन्धन के बाद भादौ कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को मनाये जाने वाले इस लोक उत्सव पर मातायें अपने-अपने पुत्रों की दीर्घायु की कामना के लिए कठोर वृत रखती हैं। वे प्रात: काल स्नानादि से निवृत्त हो पूजा स्थल को भैंस के गोबर से लीपकर कांस,झरबेरी व पलाश (छेवला, टेसू) की पत्तोंयुक्त टहनियों (हलषष्ट) को गोबर की गोल गेन्द में गाडकर पूजन करती हैं तथा बांस की छोटी -छोटी छह टोकरियों में गेहूँ के आटे की अठवाइ,भुन्जे हुये सात धान, ज्वार की लाई व सूखे महुआ के अलावा पतियों व बच्चों के हाथ बन्धी राखी हलषष्ट को  अर्पित करती हैं।ये दोने बाद   में पुत्रों को खाने के लिए दे दिये जाते हैं। इस दिन मातायें उपवास रखती हैं और फलाहार में जंगली फल,महुआ, पसई (एक प्रकार की घास) के चावल व भैंस का दूध-दही ग्रहण करती हैं।  हल चलाकर उपजे अनाज का प्रयोग  पूर्णत: वर्जित और यदि पड़वा ब्यायी भैंस का दूध मिल जाय तो सोने में सुहागा ।  देखिए सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण बांस की टोकरी बनाने वाला बसोंर (दलित) ,भैस का दूध लाने वाला अहीर,जंगली फल व हलषष्टी की पूजन सामग्री लाने वाला आदिवासी गौड़ और पूजन अर्चन के लिए पंडितजी तो है ही यानी गांव के हर हाथ को काम।पुराने जमाने का स्किल इन्डिया और मेक इन इन्डिया।

यह दिन कृष्ण के बड़े भाई बलदेव का जन्मदिन भी है। बलदेव हल के आविष्कर्ता हैं। जब समाज में गोपालन प्रथम पंसद है तब भैस पालन के प्रणेता कृषि विज्ञानीै। बलदेवजी के मन्दिर कम हैं पर एक मन्दिर मेरे पिता की जन्मभूमि पन्ना में अवस्थित है।

इस त्योहार पर मैं अपने परिवार की मातृशक्ति को नमन करता हूँ। मेरे पिताजी (स्व. श्री रेवा शंकर) व उनके तीन भाइयों, मेरे काका (स्व. श्री प्रभा, श्री कृपा व ज्ञान शंकर) तथा तीन बहनों, मेरी फोई  (आ. सरला,उर्मिला व निर्मला) की जननी मेरी दादी स्व.रामकुंअर (पत्नी पं. गोविन्द शंकर) जिन्होंने मेरे पिताजी व काका, फोई (बुआ) का लालन पालन करने में अनेक कष्ट सहे व अपनी दो अन्य जेठानी स्व. रुक्मिणी (पत्नी पं. प्रेम शंकर) व स्व. सीता (पत्नी पं. हरी शंकर) के साथ  हम बालवृन्दों को ना जाने कितनी जीवन रक्षक घुट्टी पिला कर स्वस्थ रख हलषष्टी की सदियों पुरानी परंपरा को मेरी माँ (स्व.कमला)  वा काकियों (आ. निर्मला, कुन्ती व रश्मि) को सौंपा।रूढ़िवादी जड़ परम्परा की चिर विद्रोही मेरी  माँ ने मुझे,  मेरी दो बहनों ( रीता व नीता) तथा छोटे भाई अतुल के लालन-पालन में ना जाने कितनी रातें बिना सोये गुजारी, जीवन पर्यन्त हलषष्टी पर पसई के बेस्वाद चावल खाये और जब तक जीवित रहीं हम भाई-बहनो की सुख समृद्धि की कामना की। हम सभी स्वस्थ,  समृद्ध व प्रसन्न हैं । मैं चिरॠिणी हूँ हमारी इन सभी माताओं (दादी, माँ, काकी,फोई) का।

इस अवसर पर यदि मैं अपनी पत्नी अलका व भैयाहू नीता का उल्लेख ना करूँ तो यह अन्याय होगा।  दोनों मातृशक्ति हैं, मेरे विस्तृत परिवार की अगली पीढ़ी की, जननी हैं, मेरे पुत्र अग्रेष, भतीजे अनिमेष व पुत्री निधि की, जो हमारे परिवार की सनातन परम्परा के वाहक हैं। पितृॠिण से मुक्ती प्राप्ति  की  मेरी अभिलाषा के दूत हैं।  इन मातृशक्तियों का भी आभार।

इसी वर्ष हमारे परिवार में एक और मातृ शक्ति का उदय हुआ I हमारी पुत्रवधू श्रुति ने हमें दादा बनने का सुख दिया I हमारी पौत्री मीरा की जननी श्रुति ने हमारे बाबूजी रेवाशंकर डनायक और माँ कमला की वंश परम्परा में एक परी  जोड़ी है , आज हरछट पर श्रुति का एक माता के रूप में भी अभिनन्दन I

इस पूरी कडी में एक और नाम है, मेरे पिताजी की ज्येष्ठ चचेरी बहन का।  उन्होंने ना केवल अपने सभी भाइयों को वरन अपनें भतीजों हम बालकों को भी मातृवृत का स्नेह दिया। वे और कोई नहीं हमारी आ.स्व. गायत्री फोई है। उन्हें भी मेरा नमन।

लिखते-लिखते, मैं नम आखों से,  मातृशक्ति की उपस्थिति  और आशीर्वाद का अनुभव कर रहा हूं।  अधिक वर्णन अब इन अविरल अश्रुधाराके मध्य अतिदुष्कर है। 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी  ने किया है। इस श्रंखला की यह अंतिम कड़ी है। )  

‘नवरत्न’ परिवार में मेरा प्रवेश होने के साथ ही नृत्य के साथ मेरी साहित्य की रूचि दिन-ब-दिन बढ़ने लगी, वह बढ़ती ही गई। हम सब सहेलियों का ‘काव्य कट्टा’ बीच-बीच में रंग भर रहा था। उससे स्फूर्ती लेकर मेरी कलम से काव्य रचनाएँ  प्रकट होने लगी ।

ऐसा कहा जाता है ‘संगति साथ दोष’। फिर भी मेरे साथ संगति के साथ काव्य बनता रहा। सहजता से अच्छी अच्छी कविताएं मैं  लिखने लगी। विशेषकर  यह कहना चाहती हूँ, हमारी सहेली सौ. जेरे मौसी, जो ७७ बरस की थी, उन्होंने मुझे अच्छी राह दिखाई। काव्य कैसे  प्रकट होना चाहिए, लुभावना कैसे होना चाहिए यह सिखाया।

मेरा पहला काव्य ‘मानसपूजा’ प्रभू विठ्ठल की षोडशोपचार पूजा काव्य में गुंफ दी। कोजागिरी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक मैं मम्मी के साथ घर के नजदीक विठोबा मंदिर में सुबह ५ बजे काकड़ आरती के लिए जाती थी। मंदिर की अभंगवाणी, आरती मेरे मन में दिनभर गूँजती  थी। उससे ही मेरे यह काव्य कागज पर उतरने लगे।

एक एक प्रसंग के रूप में बहुत सी कविताएं मैंने लिख दी। मैं मन ही मन में कविता रचाकर ध्यान में रखती थी। जब वक्त मिलेगा तब गोखले चाची को फोन पर बताती थी। हमारा वक्त दोपहर ३ बजे तय हो गया था। मैं मेरे घर के फोन से कविता बताती थी। चाची वह कागज पर लिखती थी। मेरे फोन की घंटी बजने से पहले ही चाची कागज, कलम लेकर तैयार रहती थी। इसी तरह काव्य जल्द ही- जल्द कागज पर उतरने लगा। मेरे मन और मस्तिष्क को ज्ञान का भंडार मिल गया। हमेशा मन और मस्तिष्क ज्यादा से ज्यादा काम करने लगा।

मेरे मामा जी हिमालय दर्शन करके आए थे। उन्होने मुझे और मम्मी को उनके प्रवास का इतना रसीला वर्णन कहा कि हमें लगा हम दोनों हिमालय का दर्शन करके आए हैं। मेरे मन में, मस्तिष्क में हिमालय की काव्य रचना होने लगी। सच में मेरे नेत्रविहीन दृष्टी के सामने हिमालय खड़ा हो गया। हिमालय की कविता तैयार हो गई। मेरी कविता सबको बहुत अच्छी लगी।

ऐसे समय के साथ कविता बनने लगी।

—————-समाप्त——————-

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ -२२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-2 – डॉ. हंसा दीप ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हंसा दीप जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार का अंतिम भागअब तक आप पढ़ चुके हैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार- साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी,  श्री संतराम पांडेय जी और श्री कैलाश मंडलेकर जी के आत्मसाक्षात्कार।

डॉ. हंसा दीप जी के इस आत्मसाक्षात्कार के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी के विशेष सहयोग के लिए हार्दिक आभार।  

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-2 – बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास …..  डॉ. हंसा दीप 

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय 

जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)

प्रकाशन 

  • उपन्यास – “बंदमुट्ठी”,  “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
  • कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।  
  • संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।  
  • पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
  • भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
  • कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
  • कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
  • सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।

सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।

न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

☆ भाग -2 – बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास ….  डॉ हंसा दीप ☆

आत्मसाक्षात्कार का प्रथम भाग >> भाग -1 – किताबें पढ़ने और समझने का जुनून, न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं….  डॉ. हंसा दीप

वाह मित्र, दो युग का खाका तो तुमने खींच दिया अब मैं उत्साहित हूँ तीसरे युग के बारे में सुनने के लिए।

जरूर सुनो, लंबी कहानी है।

कोई बात नहीं।

यह तीसरा युग आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से युक्त था। विश्व के बहुचर्चित महानगर न्यूयॉर्क की अट्टालिकाओं ने मेरे छोटे से हिन्दीमय व्यक्तित्व को आत्मसात तो किया पर लिखना छूटने लगा। भीड़ में खुद की पहचान बनाना फिर से अ, आ से शुरू करने जैसा था। बच्चे प्रगति कर रहे थे पर स्वयं की दशा विचित्र थी। धार महाविद्यालय की आत्मीय यादें न्यूयॉर्क जैसे महानगर को बहुत छोटा कर देती थीं। बहनों की, भाइयों की, अपने धार के खास मित्रों की यादों में घुलना अच्छा नहीं लगता था। हर फोन के साथ यह कहना कि “सब ठीक है” और उत्तर पाना – “यहाँ भी सब ठीक है” लंबी दूरी के रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाता रहा। बच्चियाँ भी बड़ी हो रही थीं। परदेश में उनकी शादी के सपने देखना भी खौफ़नाक लगता था।

ये बात तो है। तो क्या बहुत तनाव थे?

तनाव नहीं कहूँगी, पर हाँ चिंताएँ थीं।

तो फिर क्या किया तुमने?

बस कुछ सालों के लिए विराम लिया खुद से और उस जीवन से, जो पीछे छोड़ आयी थी। एक ही फोकस था, बच्चों का ध्यान रखना। तब लिखने में ठहराव आया।जब कथानक सोच में कुलबुलाते तो कागज पर लिखकर रख देती। कई अन्य नौकरियों के प्रस्ताव आते पर एक निश्चय बना रहा कि यदि मुझे काम करना है तो हिन्दी ही पढ़ाऊँगी, कोई दूसरी नौकरी नहीं करूँगी। इस प्रण से रास्ते सीमित हो गए पर बंद नहीं हुए। स्वयंसेवी के रूप में न्यूयॉर्क के फ्लशिंग में हिन्दू सेंटर में हिन्दी पढ़ाना शुरू हुआ तो कई लोग जानने लगे। हिन्दी पढ़ाते हुए मैं हिन्दी वाली दीदी कही जाने लगी। सदा मन में यह गर्व था कि भारत से दूर रहकर भी हिन्दी पढ़ाकर मैं मातृभूमि से जुड़ी हूँ। न्यूयॉर्क के क्वीन्स कॉलेज से कई अंग्रेज़ी के डिप्लोमा कोर्स भी किए।

ओहो, तो ये था न्यूयॉर्क शहर का पड़ाव? लेकिन फिर कैनेडा आना कैसे हुआ?

अगला पड़ाव टोरंटो, कैनेडा था जब धर्म जी ने नौकरी छोड़कर यहीं बसने का फैसला लिया। पाँच साल से जो आशा थी धार महाविद्यालय में फिर से जाकर सहायक प्राध्यापक की नौकरी जारी रखने की, अब वह भी खत्म हो गयी थी।

अच्छा अमेरिका से कैनेडा, विदेश में भी एक देश से दूसरे देश में!

हाँ, मित्र। सुनना अच्छा लगता है लेकिन है बहुत कठिन।

फिर से नये देश में, सेटल होना तो कठिन होगा ही। बताती रहो। तुम्हारी कहानी बड़ी रोचक होती जा रही है।

कहानी नहीं, सच्चाई है। एक बार फिर नया शहर था, नया देश था, नए लोग थे और कटे हुए पौधे को नयी जमीन की तलाश थी। भाषा को जीविका बनाने के ध्येय के साथ एक अनुवाद कंपनी खोली , दीपट्रांसइंक.।कंपनी के अध्यक्ष के रूप में अनुवाद का नया काम शुरू किया। कई प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्मों के हिन्दी में अनुवाद किए। इस नए काम से भाषा तो प्रखर हुई ही साथ ही साथ अनुवाद की चुनौतियाँ और इसके महत्व को भी विस्तार से समझा। यह यूनिकोड फांट्स के पहले का समय था जब हिन्दी के लिए तकनीकी समस्याओं से जूझना पड़ रहा था।

अच्छा, यूनिवर्सिटी में हिन्दी शिक्षण की शुरुआत यहाँ कैनेडा में हुई।

हाँ, बस यही समय था जब हिन्दीशिक्षण के लिए रास्तों की खोज जारी थी। तीन-चार सालों की अनवरत कोशिशों के बाद यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर बन कर हिन्दी कक्षाएँ शुरू करना मील का पत्थर था। यॉर्क यूनिवर्सिटी की कक्षा में खड़े होकर भारत के महाविद्यालय की अपनी कक्षा का आभास होना ज़ाहिर-सा था। यहाँ की कक्षा में छात्रों के चेहरे बता रहे थे कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। ये भारत की बी.ए., एम.ए. की कक्षाएँ नहीं थीं। अपनी स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की हिन्दी को बिगिनर्स के स्तर पर लाना था। समय की मांग ने अपने अहिन्दी भाषी छात्रों की सुविधा के लिए कोर्स पैक बनाने के लिए मजबूर किया जिनके द्वारा हिन्दी को अंग्रेज़ी में समझाया जा सके। बिगिनर्स और इंटरमीडिएट कोर्स के लिए लगातार दो साल मेहनत करके पुस्तकें एवं ऑडियो सीडी तैयार कीं। 

यहाँ तक आते-आते तो तुम विदेशी कक्षाओं के माहौल में आत्मविश्वास से भरपूर हो गयी होगी?

हाँ, दो साल की समयावधि में एक ही बात पर ध्यान दिया कि हिन्दी को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का सरल से सरल तरीका क्या है।

हम्म, मेहनत तो की तुमने।

हाँ, और फल भी मिला। इन अथक प्रयासों से हिन्दी पढ़ाने का आत्मविश्वास चरम पर था। उसके बाद तो गति और भी तेज़ हो गयी जब यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो से प्रस्ताव आया। यहाँ मेरे मसीहा थे डॉ. चलवा कनगनायकम, यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के सेंट जार्ज कैम्पस के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष। वे उन दिनों साउथ एशियन स्टडीज़ के चेयर थे। उन्होंने मेरे कोर्सपैक की बहुत तारीफ़ की एवं मेरी कक्षाओं में एक ऑडीटर की तरह बैठकर हिन्दी सीखी। उनसे एक दिन परिहास करते हुए मैंने कहा – “सर आप कक्षा में होते हैं तो मेरी रोज ही परीक्षा हो जाती है।” उनका जवाब था – “ऐसी परीक्षाओं से ही इंसान सफल होता है।”

गजब का अनुभव रहा होगा ये कि लैंग्वेजस्टडीज विभाग के अध्यक्ष तुम्हारी कक्षा में बैठकर हिन्दी सीखे।

हाँ, पूरा ध्यान तब अपनी हिन्दी कक्षाओं पर ही था।

तो फिर लेखन की ओर ध्यान कब दिया?

समय मानों उड़ रहा था। 2007 तक थोड़ी राहत मिली तब सोचा इतनी कहानियाँ लिखी हुई हैं। अखबारों व पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी हैं तो क्यों न उन्हें एक संकलन के रूप में लाया जाए। बस उन्हीं दिनों गर्मी की छुट्टियों में अपनी कहानियों का पहला संकलन “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन की योजना बन गयी। सुना था कि विदेश में रहने वाले लेखकों को पुस्तक छपवाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं परन्तु मेरे साथ उल्टा हुआ। मेरठ के डायनामिक पब्लिकेशन के श्री सत्येन्द्र रस्तोगी ने न केवल पुस्तक प्रकाशित की बल्कि रॉयल्टी भी दी। यह सब संयोग था या भाग्य पर मेरे लिए बहुत संतोषजनक था। हर नयी यात्रा में जो पीछे छूटता था उसका दु:ख कम सालने लगा इस उम्मीद में कि कुछ नया मेरा इंतज़ार कर रहा है। जमी-जमायी जड़ें कटती रहीं तो कुछ समय के बाद उन्हें और भी नयी उर्वरक मिट्टी मिलती रही फलने-फूलने के लिए। “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन से मेरी उड़ान में कुछ पंख और लगे।

पहला कहानी संग्रह आने के बाद लिखना फिर से शुरू हुआ?

नियमित लिखना तो नहीं पर हाँ कथानक एक जगह लिख लिए जाते थे। विस्तार नहीं मिलता था, न ही पत्रिका में भेजने का कोई विचार आता। यदा-कदा रचनाएँ  अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ सौरभ, चेतना, साहित्यकुंज आदि में प्रकाशित होती रहीं। उन दिनों मेरी हिन्दी कक्षाएँ चर्चा में थीं। विश्वविद्यालय की प्रचार पुस्तिकाओं में मेरी हिन्दी कक्षा के फोटो थे। सेंट जार्जकैम्पस, मिसीसागाकैम्पस, स्कारबोरोकैम्पस हर जगह हिन्दी कक्षाएँ शुरू हुईं और मेरा काम चौगुना हो गया। हर कैम्पस में कोर्स थे और मैं शहर के सब-वे और बस से सफ़र करते हुए एक कैंपस से दूसरे में जाती थी। यह लिखते हुए बेहद गर्व महसूस होता है कि हर एक सत्र में मैंने हिन्दी के चार-चार कोर्स पढ़ाए।

वाह हंसा, तब तो समय मिलने का सवाल ही नहीं।

बिल्कुल नहीं, घर आते-आते बहुत थक जाती थी। 2008 में छोटी बेटी की शादी की और जल्दी ही नानी बनने की खुशी एक नयी उमंग लेकर आयी।

तो फिर पहला उपन्यास कब और कैसे आया?

बहुत बाद में। बड़ी बेटी की शादी हो गयी। उसके सात साल बाद वर्ष 2017 तक मेरे पास समय ही समय था। अब तक यहाँ की शैक्षणिक प्रणाली से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी। सोच को नए आयाम मिल चुके थे।तब मैंने2005 में अधलिखे उपन्यास “बंद मुट्ठी” के कागजों को टटोला। नब्बे पेज लिखे हुए थे, यानी लगभग आधा काम हो चुका था। मैंने इसे पूरा करने व टोरंटो जैसे महानगर को हिन्दी दुनिया से परिचित करवाने की मन में ठान ली। यहाँ की शिक्षा प्रणाली और छात्रों की जिंदगी पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त सामग्री थी दिमाग़ में। गर्मी की छुट्टियों में इस कथानक को एक दिशा मिली। एक बार लिखना शुरू किया तो पेज दर पेज बढ़ते गए। उपन्यास पूर्ण होने पर कई समस्याएँ थीं सामने लेकिन समाधान भी तुरंत मिले।

तो इसके बाद तुम्हारा सक्रिय लेखन शुरू हुआ।

हाँ,बस इसी समय लेखन को विस्तार देते हुए “बंद मुट्ठी” उपन्यास ने मेरी मुट्ठी को भी पूरी तरह खोल दिया। मैं अपनी कहानियों की विस्तृत दुनिया में कदम-दर-कदम बढ़ते हुए कई जानी-मानी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पुन: पाठकों में जगह बनाने की कोशिश करने लगी।

वाह मित्र, मेरे इतने प्रश्नों के जवाब देकर मुझे जो तुष्टि दी है वह विस्मृत नहीं होगी। अब कैसा लगता है तुम्हें?

जीवन के इस पड़ाव तक किसी से कोई शिकायत नहीं है। अगर कोई शिकायत है भी तो वह है अपनी पहचान से, कोई देश अपना नहीं कहता। दुनिया की नज़रों में विदेशी हैं, अपने देश वालों की नज़रों में विदेशी हैं और यहाँ विदेशियों की नज़रों में भी विदेशी ही हैं। हालांकि किसी के विदेशी कहने से कुछ नहीं बदला है। नियम-कानून बदले, सरकारें बदलीं, सब कुछ बदला, मगर मेरे लिए कुछ नहीं बदला। न स्वाद बदला, न मिजाज़। बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास जो आज भी वक्त-बेवक्त यादों के झोंकों से उसे हवा देकर आग में तब्दील कर देता है। वह तपिश कागज़ पर शब्दों के संजाल उकेरती है। इस लंबे जीवन के बदलते रास्तों पर पड़ाव तो कई थे लेकिन कारवाँ चलता रहा।

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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