हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 99 ☆ व्यंग्य – अरे मन मूरख जनम गँवायो ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ अरे मन मूरख जनम गँवायो ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 99 ☆

☆ व्यंग्य –  अरे मन मूरख जनम गँवायो

जैसे शादी-ब्याह, मुंडन-जनेऊ की एक निश्चित उम्र होती है, उसी तरह साहित्यकार का अभिनन्दन साठ वर्ष की उम्र प्राप्त करने पर ज़रूर हो जाना चाहिए। साठ पार करने के बाद भी अभिनन्दन न हो तो समझना चाहिए दाल में कुछ काला है, वैसे ही जैसे आदमी का ब्याह अट्ठाइस- तीस साल तक न हो तो लगता है कुछ गड़बड़ है। जो पायेदार, पहुँचदार और समझदार साहित्यकार होते हैं उनका अभिनन्दन साठ तक आते आते चार-छः बार हो जाता है। कमज़ोर और लाचार साहित्यकार ही अभिनन्दित होने के लिए साठ की उम्र तक पहुँचने का इन्तज़ार करते हैं।

मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख यही है कि साठ पार किये कई साल बीतने के बाद भी अब तक अभिनन्दन नहीं हुआ। जो तथाकथित मित्र हैं उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। दूसरे साहित्यकारों के मित्रों ने उन पर हजार हजार पृष्ठों के अभिनन्दन-ग्रंथ छपवा दिये। इन अभिनन्दन- ग्रंथों के लिखे जाने में अक्सर खुद साहित्यकार का काफी योगदान रहता है। वे ही तय करते हैं कि ग्रंथ में क्या क्या शामिल किया जाए और क्या शामिल न किया जाए, किससे लिखवाया जाए और किससे बचा जाए। आजकल दूसरे साहित्यकारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप यह सोचकर निश्चिंत हो जाते हैं कि वे आपकी तारीफ के पुल बाँधेंगे, लेकिन जब ग्रंथ छप कर आता है तो पता चलता है कि जिन पर भरोसा किया था उन्होंने मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।

साठ पर पहुँचने से काफी पहले से मैं अपने तथाकथित दोस्तों की तरफ बड़ी उम्मीद से देखता रहा हूँ,लेकिन उन्होंने साठ पूरा करने की निजी बधाई देने और सौ साल तक ज़िन्दा रहने की शुभकामना देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सवाल यह है कि बिना अभिनन्दन के सौ साल तक क्यों और कैसे जिया जाए?अभिनन्दन- विहीन ज़िन्दगी एकदम बेशर्मी की, बेरस ज़िन्दगी होती है। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर और लानत है ऐसे दोस्तों पर। ऐसे दोस्तों से दुश्मन भले।

आपको रहस्य की बात बता दूँ कि मैंने दस-पन्द्रह हज़ार रुपये अपने अभिनन्दन  के खाते में डाल रखे हैं। कोई भरोसे का आदमी मिले तो उसे सौंपकर निश्चिंत हो जाऊँ। खर्चे के अलावा एक हज़ार रुपये अभिनन्दन के आयोजक को मेहनताने के दिये जाएंगे ताकि काम पुख्ता और मुकम्मल हो।

रकम प्राप्त करने से पहले मुझे आयोजक से कुछ न्यूनतम आश्वासन चाहिए। समाचारपत्रों और स्थानीय टीवी में भरपूर प्रचार होना अति आवश्यक है—अभिनन्दन से पहले सूचना के रूप में और अभिनन्दन के बाद रिपोर्ट के रूप में। स्थानीय अखबारों से मेरे मधुर संबंध हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है।

कार्यक्रम में बोलने वाले कम से कम दस वक्ता होना चाहिए। उनका चुनाव मैं करूँगा। उनके अलावा कोई बोलने के लिए आमंत्रित न किया जाए, अन्यथा आयोजक को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। कार्यक्रम के बीच में बोलने के लिए अपनी चिट भेजने वालों को शंका की दृष्टि से देखा जाए।

कार्यक्रम में सौ, दो सौ श्रोता होना ही चाहिए, अन्यथा कार्यक्रम का कोई मतलब नहीं है। मुझे हाल में एक साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण मिला था जिसमें लिखा था कि सबसे पहले पहुँचने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कार दिया जाएगा। मैंने अभिनन्दित की सूझ की दाद दी। क्या आइडिया है! मेरे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही किया जा सकता है। सबसे पहले पहुँचने वालों के अतिरिक्त सबसे अन्त तक रुकने वालों  को भी पुरस्कृत किया जा सकता है। मेरे पास अपनी लिखी किताबों की प्रतियाँ पड़ी हैं। वे पुरस्कार देने के काम आ जाएंगीं।

कार्यक्रम में कम से कम पचास मालाएँ ज़रूर पहनायी जाएं। इसमें बेईमानी न हो। ऐसा न हो कि दस बीस मालाओं को पचास बार चला दिया जाए। सभा में पचास आदमी ऐसे ज़रूर हों जो माला पहनाने को तैयार हों। यह न हो कि नाम पुकारा जाए और आदमी अपनी जगह से हिले ही नहीं। साहित्यकार राज़ी न हों तो कोई भी पचास आदमी तैयार कर लिये जाएं।

एक बात और। कार्यक्रम आरंभ होने के बाद आने जाने का एक ही दरवाज़ा रखा जाए और उस पर तीन चार मज़बूत आदमी रखे जाएँ, ताकि जो घुसे वह अन्त तक बाहर न निकल सके। जो भी बाहर निकलने को आये उसे ये तीन चार स्वयंसेवक विनम्रतापूर्वक हँसते हँसते पीछे की तरफ धकेलते रहें। चाय का भी एक बहाना हो सकता है। श्रोताओं को पीछे धकेलते समय कहा जाए कि बिना चाय पिये हम आपको बाहर नहीं जाने देंगे। ज़ाहिर है कि चाय कार्यक्रम के एकदम अन्त में ही प्रकट हो, जब कृतज्ञता-ज्ञापन की औपचारिकता हो रही हो।

पाँच-छः चौकस और मज़बूत टाइप के लोग श्रोताओं के इर्दगिर्द खड़े रहें ताकि कोई ‘हूटिंग’ न कर पाये। ’हूटिंग’ और आलोचना से मेरे कोमल साहित्यिक मन को धक्का लगता है। स्पष्ट है कि जब मेरे विरोधियों को बोलने का मौका नहीं मिलेगा तो वे ‘हूटिंग’ और हल्ला-गुल्ला मचाने की घटिया हरकत पर उतरेंगे। अतः उनकी छाती पर सवार रहना ज़रूरी होगा।

अभिनन्दन में होती देर से जब मन उदास होता है तो मन को यह कह कर समझा लेता हूँ कि हर महान आदमी के साथ ऐसा ही होता है। एक तो सामान्य और नासमझ लोग महानता को देर से पहचान पाते हैं। दूसरे, जो समझ पाते हैं वे दूसरे की महानता से जलते हैं। महानता को स्वीकार करने के लिए जो उदारता चाहिए वह उनमें कहाँ?इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि अभिनन्दन में विलम्ब मेरी महानता का सबूत है।  ‘दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 64 ☆ राहत की चाहत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “राहत की चाहत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 64 – राहत की चाहत

मनमौजी लाल ने अपनी इमारत की नींव खोद कर सारे पत्थर एक- एक कर फेंक दिए। सुनते हैं कि उन्होंने पहले ही चार पिलर खड़े कर लिए थे। पर जल्दी ही पिलर आँखों में किरकिरी बन चुभने लगे। तभी उनकी नयी सलाहकार ने कहा  कि आजकल तो चार लोग काँधे के लिए भी नहीं चाहिए, अब सब आधुनिक तरीके से हो रहा है तो एक ही विश्वास पात्र बचाकर रखिए बाकी की छुट्टी करें। बात उनको सोलह आने सच लगी। भले ही वे अपनी पत्नी को मूर्ख समझते हों, किंतु बाहरी महिलाओं की पूछ परख करने में उन्हें महारत हासिल है। सबको सम्मान देते हुए विभिन्न पदों पर सुशोभित करते हुए चले जा रहे हैं।

मजे की बात ये है कि जब वे सीढ़ी चढ़ते, तो स्वयं  चढ़ जाते, पर ऊपर जाते ही सीढ़ी तोड़ देते, जिससे वहाँ कोई न पहुँच सके। जहाँ जो मिलता, उसी से काम चलाकर नई मंजिल का सफर तय करना उनकी आदत बन चुकी थी। इधर टूटा हुआ समान बटोरने वाले कबाड़ी उसी में जश्न मनाते हुए प्रसन्न होते। वैसे भी तोड़ – फोड़, जोड़ – तोड़ ये सब देखने वाले को भी आनन्दित करते ही हैं। असली कलाकारी तो ऐसी ही परिस्थितियों में देखने को मिलती है। ये क्रम अनवरत चलता जा रहा था तभी वहाँ सुखी लाल जी पहुँच गए  और राहत की खोज बीन करने लगे। सबने बहुत समझाया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। आजकल सब कुछ डिजिटल है, फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही पढ़ें- पढ़ाएँ। ज्यादा हो तो गूगल की शरण में पहुँचिए। यहाँ आए दिन तफरी करने मत आया करिए। यहाँ हम लोग रिमूवल रूपी अस्त्र लेकर बैठे हैं ज्यादा होशियारी आपको भारी पड़ेगी। जो मन हों लिखें पर पूछने आए तो छुट्टी निश्चित मिलेगी।

हम तो मनोरंजन हेतु लिखने- पढ़ने में जुटे हुए हैं। ज्यादा से ज्यादा स्वान्तः सुखाय तक ही हमारी पहुँच है। सो मूक बनकर देखते रहते हैं। हालांकि इस पंक्ति की याद आते ही मन विचलित जरूर होता है –

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।

राहत की खोजबीन में लगा हुआ व्यक्ति इधर से उधर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भटक रहा है, पर हर जगह पॉलिटिक्स का कब्जा है। कोई किसी को आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहता। सब मेरा हो इस सोच ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है।

अब ये आप पर निर्भर है कि राहत आपको  कैसे और कहाँ मिलेगी।

चाहत सबकी बढ़ रही, राहत ढूंढ़े रोज।

बार- बार आहत हुए, रुकी न फिर भी खोज।।

बड़ी बोली वे बोलें।

राज अपने ही खोलें।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 98 ☆ व्यंग्य – टैक्नॉलॉजी के पीड़ित ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ टैक्नॉलॉजी के पीड़ित‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 98 ☆

☆ व्यंग्य –  टैक्नॉलॉजी के पीड़ित

अफसर, कर्मचारी, चपरासी सब भारी दुखी हैं। यह तो बड़ी धोखाधड़ी हो गयी,हिटिंग बिलो द बैल्ट। आये, मुस्करा मुस्करा कर नोट दिये, और बिना जाने फोटू उतारकर चले गये, जैसे कोई चतुर चोर आँख से अंजन या दाँत से मंजन चुरा ले जाए। अब दो दिन बाद टीवी पर नोट समेटने के फोटू उतर रहे हैं, जैसे कपड़े उतर रहे हों। हद हो गयी भई, ऐसे ही चला तो आदमी का आदमी पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसे शत्रु-समय में रिश्वत लेने का जोखिम कौन उठाएगा, और रिश्वत बन्द हो गयी तो काम का क्या होगा? बिना ‘इन्सेन्टिव’ के कौन काम करेगा? सब के बाल-बच्चे हैं।

पूरे दफ्तर में अफरातफरी और हड़कम्प है। जिनके फोटू नहीं उतरे वे दौड़कर नुक्कड़ के मन्दिर में नारियल चढ़ा आये हैं। अच्छा हुआ कि उस दिन पत्नी की टाँग टूटने के कारण छुट्टी पर थे वर्ना—-। वाइफ के फ्रैक्चर्ड फुट की जय। भगवान ने बचा लिया। जय जय जय हनुमान गुसाईं।

एक अफसर टीवी पर भोलेपन से कहते हैं, ‘हमने तो उधार दिये थे, वही वापस लिये थे।’

चैनल का प्रतिनिधि पूछता है, ‘किस से वापस लिये थे?’

जवाब मिलता है, ‘अब यह तो चेहरा देख कर ही बता सकते हैं। आप चेहरा दिखा दीजिए तो हम बता देंगे।’

प्रतिनिधि पूछता है, ‘आप क्या दफ्तर में उधार लेने-देने का काम करते हैं?’

बड़ा मासूम सा जवाब मिलता है, ‘नईं जी। कभी कभी देना पड़ता है। किसी पहचान वाले को डिपार्टमेंट में जमा करने के लिए पैसे कम पड़ जाएँ तो वह किससे माँगेगा? यह तो इंसानियत का तकाज़ा है। आख़िर हम भी इंसान हैं जी।’

पूरे डिपार्टमेंट में भुनभुन मची है। जहाँ देखो गोल बनाकर लोग फुसफुसा रहे हैं, जो फँसे हैं वे भी, और जो नहीं फँसे हैं वे भी। भई हद हो गयी। पानी सर के ऊपर चढ़ गया। यानी कि प्राइवेसी नाम की चीज़ रह ही नहीं गयी। कल के दिन पता चलेगा कि हमारे बाथरूम और बेडरूम के भीतर के फोटू भी उतर गये। दिस इज़ टू मच। मीडिया मस्ट बी केप्ट विदिन लिमिट्स।

अफसरों और कर्मचारियों की जो बीवियाँ रोज़ की ऊपरी कमाई से साड़ियाँ और ज़ेवर खरीदती रही हैं, वे भारी कुपित हैं।’झाड़ू मारो ऐसे मीडिया को। मेरे घर आयें तो बताऊँ। सारा फोटू उतारना भूल जाएंगे। दूसरे का सुख नहीं देखा जावै ना!बड़े दूध के धुले बने फिरते हैं।’

एक छोटे अफसर आला अफसर के सामने रुँधे गले से कह आये हैं—-‘सर, ऐसइ होगा तो हम तो अपने बाल-बच्चों को आपके चरनों में पटक जाएंगे। ऐसी हालत में कोरी तनखाह में घर का खरचा कैसे चलाएंगे?’

बड़े साहब ने पूरे डिपार्टमेंट की मीटिंग बुलायी है। जो जो फँसे हैं वे सिर झुकाये बैठे हैं। जो नहीं फँस पाये वे गर्व से सब तरफ गर्दन घुमा रहे हैं। साहब थोड़ी देर तक ज़मीन का मुलाहिज़ा करने के बाद चिन्तित मुद्रा में सिर उठाते हैं, कहते हैं, ‘यह दिन डिपार्टमेंट के लिए शर्म का दिन है। आप लोगों ने हमारी नाक कटा दी।’

आरोपी नज़र उठाकर साहब के चेहरे की तरफ देखते हैं। नाक तो बिलकुल साबित है। साहब कहते हैं, ‘मुझे इस बात का ज़्यादा अफसोस नहीं है कि आप लोगों ने गलत काम किया। ज़्यादा अफसोस इस बात का है कि आप गलत काम करते पकड़े गये और आपने फोटो भी खिंचने दिया। अब पूरे मुल्क में हमारी थू थू हो रही है।’

कुछ देर सन्नाटा। झुके हुए सिर और झुक गये हैं। जो छोटे साहब अपने बाल-बच्चों को बड़े साहब के चरनों में पटकने की कह आये थे वे धीरे धीरे उठ कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सर, हम इस बात को लेकर बहुत लज्जित हैं कि हम पैसा लेते फोटू में आ गये। लेकिन मेरा निवेदन यह है कि इस के लिए आज की टैकनालॉजी जिम्मेदार है। आज टैकनालॉजी इतनी बढ़ गयी है कि आदमी को पता ही नहीं चलता और उसकी फोटू उतर जाती है। इसलिए जो कुछ हुआ उसमें कसूर हमारा नहीं, टैकनालॉजी का है। हम करप्ट नहीं हैं, नयी टैकनालॉजी के सताये हुए हैं।’

सब फँसे हुए लोग यह तर्क सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। क्या बात कही पट्ठे ने! अपराध- बोध और शर्म तत्काल आधी हो जाती है।

साहब सहमति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘यू आर राइट। द होल प्राब्लम इज़ कि आज टैक्नॉलॉजी बहुत तेजी से बढ़ रही है और हम उसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। इसीलिए सारी गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। हमें आज की तब्दीलियों के हिसाब से अपने को एडजस्ट करना चाहिए। इसी को मैनेजमेंट की ज़बान में मैनेजमेंट ऑफ चेंज कहते हैं। लेकिन आपकी गलती यह है कि यू वर नॉट एनफ केयरफुल। आप सावधान होते तो यह घटना न घटती और डिपार्टमेंट को जिल्लत न उठानी पड़ती।’

छोटे साहब कहते हैं, ‘हम अपनी गलती मानते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि आगे हम इतनी सावधानी से काम करेंगे कि कोई हमारी फोटू न उतार सके। हम टैकनालॉजी की चुनौती को स्वीकार करते हैं। हम भी देखेंगे कि इस लड़ाई में टैकनालॉजी जीतती है या आदमी जीतता है। फिलहाल आपसे निवेदन है कि स्थिति को सुधारने की दिशा में तत्काल यह व्यवस्था कर दी जाए कि फालतू लोग डिपार्टमेंट में प्रवेश न कर सकें। यह बहुत जरूरी है।’

साहब उठते उठते कहते हैं, ‘ठीक है, मैं इन्तज़ाम करता हूँ। अब आप लोग अपने काम में लग जाएं।’

सब अधिकारी-कर्मचारी निश्चिंत और प्रसन्न मन से उठकर अपनी अपनी सीट पर पहुँचते हैं और निष्ठापूर्वक अपने काम में लग जाते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य-कथा ☆ सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ व्यंग्य- कथा – सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

इतवार की छुट्टी थी। यूँ  ही घूमने के लिये  बाहर निकल पड़ा । रास्ते में शरद मिला। बहूत दिन के बाद भेट हुई थी। शरद मेरा जिगरी दोस्त है। स्कूल, कॉलेज में हम दोनों की पढ़ाई  एक साथ हुई थी। आज-कल घर-गृहस्थी की व्यस्तता और रोजी-रोटी के चक्कर में बार बार मिलना नही होता था।

शरद ने कहा,  ‘बहुत दिन के बाद मिल रहा है यार… चलो। घर चलेंगे। चाय की चुस्कियाँ लेते लेते बातें करेंगे।‘ मुझे कुछ खास काम नहीं था, सो उस के साथ चल पड़ा।

शरद हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहता है। आज-कल, एक अच्छे लेखक के रूप में  उसका अच्छा नाम था। नवाजा जा रहा था।

शरद के ड्रॉईंग रूम में जैसे ही कदम रखा, सामने की दीवार पर लगी हुई शो केस पर नज़र टिकी। उस में आठ-दस सन्मानचिन्ह सजा कर रखे थे। मैं ने नज़दीक जाकर देखा, ‘अक्षर साहित्य संस्था’, ‘अमर साहित्य संस्था’,  ‘चिरंजीव साहित्य संस्था’ ऐसे ही विभिन्न संस्था द्वारा दिए हुए सन्मानचिन्ह थे। मैंने शरद से गुस्से से कहा, ‘तुम्हारे इतने सन्मान समारोह हुए, एक बार भी मुझे नहीं बुलाया। मैं आता न तालियाँ बजाने के लिए। सामने बैठकर खूब तालियाँ पीटता।‘

उस नें कहा, ‘समारोह हुआ ही नहीं।‘

‘फिर? उन्होँ नें आपको ये सन्मानचिन्ह बाय पोस्ट भेजे? या फिर कुरियरद्वारा या बाय हॅन्ड?’ हैरान हो कर मैंने पूछा।

‘नहीं… वैसा नहीं है…’

‘फिर?…’

‘संस्था की इच्छानुसार मैं नें ये स्वयं ही बना लिये ?’

बात कोई मेरे पल्ले नहीं पड़ी। ‘ वो कैसे ?’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी।

शरद ने वहां रखे हुए टेबुल के खाने से एक फाईल निकाली। उसमें से एक कागज निकाल कर  मेरे हाथ में थमा दिया और एक सन्मानचिन्ह की ओर निर्देशित करते हुए कहा, ‘अक्षर साहित्य संस्थ्या’ का यह सन्मानचिन्ह और यह उन का पत्र।‘

मैंनें पत्र पढ़ना शुरू किया। उस में लिखा था, ‘आपकी साहित्य सेवा के लिए हम आप को सन्मानित करते हुए, आप को, संस्था के वर्धापन दिन के अवसर पर पुरस्कार देना चाहते है। पुरस्कार में आप को शाल, श्रीफल, सन्मानचिन्ह और नगद  ५००० रुपये की राशि दी जाएगी। कृपया अपनी स्वीकृती के बारे में तुरंत लिखे।’

‘फिर?’ मैं नें बेसब्री से पूछा।

‘मैं नें अपना स्वीकृति पत्र तुरंत भेजा।‘

‘फिर?’ मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी।

‘रात को संस्था के अध्यक्ष महोदय जी का फोन आया, ‘आप बीस हजार का चेक भेज कर संस्था के संरक्षक सदस्य बन जाए, तभी हम आप को पुरस्कृत कर सकते है।‘

‘सोचा, इतने सारे पैसे कहां से लाये? किन्तु संस्था की इच्छा है मुझे सन्मानित करने की, तो क्यौं न उन की इच्छा का आदर किया जाय? और मैंने उन के नाम का यह सन्मानचिन्ह बना लिया।‘

वह कहता जा रहा था, ‘ ये देख और निवेदन पत्र… विभिन्न साहित्य संस्थाओं द्वारा मिले हुए।

फर्क इतना ही है की हर संस्था नें अलग अलग कीमत की राशि मंगवाई है और वह अलग अलग पद देना चाहती है, जैसे संस्था का आजीवन  सदस्यत्व, कही संस्था का अध्यक्षपद, कही विश्वस्त…. जब इस तरह का निवेदन पत्र आता है, तब मैं उस संस्था के नाम से सन्मानचिन्ह बनवा लेता हूँ। उन का निवेदन पत्र इन सन्मानचिन्हों का आधार है और यह काम उन की अपेक्षा से बहुत ही कम खर्चे में होता है।‘

और हम ठहाके मार मार कर हँसने लगे।

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – १७६/२ ‘गायत्री प्लॉट नं १२ , वसंत दादा साखर कामगार भवन के पास, सांगली ४१६४१६ महाराष्ट्र मो. 9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 63 ☆ अधूरे हिसाब ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “अधूरे हिसाब”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 63 – अधूरे हिसाब

मोबाइल की गैलरी से सारे चित्र तो एक झटके में रिमूव हो जाते हैं, किंतु क्या मानस पटल पर अंकित चित्रों से हम दूर हो सकते हैं। इसी उधेड़बुन में  दो घण्टे बीत गए। दरसल कोरोना का टीका तो लगवा लिया पर उसकी फोटो नहीं खिंचवा पाए थे। अब सारे डिजिटल फ्रैंड  हैशटैग कर अपनी-अपनी फोटो मेरी वाल पर चस्पा किए जा रहे हैं और एक मैं इस सुख से अछूती ही रह गयी।

मेरी पक्की सहेली ने समझाया कोई बात नहीं ऐसा करो कि डिजिटल सर्टिफिकेट ही पोस्ट कर दो, अपने नाम वाला, उससे भी काम चल जायेगा। मन को तसल्ली देने के लिए मैंने मैसेज खंगालना शुरू किया तो वहाँ भी मेरा नाम नदारत था। कोई प्रूफ ही नही टीकाकारण का ,अब तो मानो मेरे पैरो तले जमीन ही खिसक गई हो। खैर बुझे मन से स्वयं को समझाते हुए 6 हफ्ते बीत जाने की राह ताकने लगी, पर कहते हैं कि जब भाग्य रूठता है तो कोई साथ नहीं देता, सो जिस दिन बयालीस दिन पूरे हुए उसी दिन ये खबर मिली कि अब तीन महीनें  बाद टीका लगेगा। डॉक्टरों की टीम ने नई रिसर्च के बाद कहा कोविशिल्ड वैक्सीन के दूसरे डोज में जितनी देरी होगी उतना ज्यादा लाभ होगा।

लाभ और हानि के बारे में तो इतना ही पता है कि कोई डिजिटल प्रमाण न होने से टीके की फोटो पोस्ट नहीं हो पाई ,चिंता इस बात की है कि जब दोनों प्रमाणपत्र एक साथ पोस्ट करूँगी तो मेरा क्या होगा? मैंने तो सबकी दो पोस्टों पर लाइक करूँगी पर मेरी तो एक ही पोस्ट पर होगा।

आजकल अखबारों में मोटिवेशनल कॉलम की धूम है और मैं तो पूर्णतया सकारात्मक विचारों को ही आत्मसात करती हूँ, तो सोचा चलो टीकाकरण केंद्र में जाकर ही पता करते हैं। झटपट गाड़ी उठाई और पहुँची तो पता चला ये केंद्र बंद हो चुका है। अब आप दूसरी जगह जाइए। उम्मीद का दामन थामें दूसरे केंद्र में पहुँची। वहाँ पर पूछताछ की तो उन्होंने कहा अभी बहुत भीड़ है, कुछ देर बाद बतायेंगे। पर अब तो 18 प्लस का जलवा चल रहा था तो वे लोग धड़ाधड़ आकर टीका लगवाते जा रहे थे और हाँ सेल्फी लेना भी नहीं भूलते। ये सब देखकर जितनी पीड़ा हो रही थी उतनी तो पहला टीका लगवाने के बाद भी नहीं हुई थी। शाम चार बजे जाकर मेरा नंबर आया तब कंप्यूटर ऑपरेटर ने सर्च किया और माथे पर हाथ फेरते हुए बोला अभी सर्वर डाउन है, कुछ पता नहीं चल पा रहा है, आप कल सुबह 9 बजे आइए तब कुछ करते हैं।

उदास मन से अपना मुँह लिए, मंद गति से गाड़ी चलाते हुए, चालान से बचने की कोशिश कर रही थी। घर पहुँचने ही  वाली थी तभी , बहन जी गाड़ी रोकिए की आवाज कानों में पड़ी। किनारे गाड़ी लगाकर खड़ी की तब तक लेडी पुलिस आ गयी।

कहाँ घूम रहीं हैं , लॉक डाउन है पता नहीं है क्या ?

जी, मैं तो टीका लगवाने का प्रमाणपत्र लेने गयी थी।

अच्छा कोई और बहाना नहीं मिला।

मेम, मुझे दो महीने पहले ही टीका लग चुका है, पर कोई प्रूफ नहीं था, सो उसे ही लेने के लिए टीका केंद्र गयी थी।

कहाँ है दिखाओ ?

वहाँ सर्वर डाउन था इसलिए नहीं  मिला।

कोई बात नहीं चलो 500 रुपये निकालो, चालान कटेगा , तब आपके पास प्रूफ होगा।

मैंने बुझे मन से 500 दिए और  तेजी से गाड़ी भगाते हुए घर पहुँची।

बच्चे गेट पर ही इंतजार कर रहे थे।उतरा हुआ चेहरा देखकर बच्चों ने पूछा क्या हुआ ?

चालान की पर्ची दिखाते हुए मैंने कहा, काम तो हुआ नहीं, 500 की चपत ऊपर से लग गई।

तभी मेरी बिटिया ने तपाक से कहा कोई बात नहीं मम्मी, आप इसी की फोटो खींच कर पोस्ट कर दो, कम से कम एक प्रूफ तो मिला कि आप दूसरी डोज वैक्सीन की लगवाने के लिए कितनी जागरूक है।

तभी मेरे दिमाग़ की बत्ती जल उठी कि सही कह रही है, अब मैं फेसबुक व इंस्टा पर यही पर्ची पोस्ट कर लाइक व कमेंट के अधूरे हिसाब पूरे करूँगी।   

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 105 ☆ प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय व्यंग्य  – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104☆

? व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग ?

जमाना दो मिनट में मैगी  तैयार, वाला है. बच्चे को भूख लगने पर दो मिनट में मैगी बनाकर माँ फटाफट खिला देती हैं. घर पर मैगी न हो तो मोबाईल पर जोमैटो, स्विगी या डोमिनोज का एप तो है न, इधर आर्डर प्लेस हुआ और टाईम लिमिट में डिलीवरी पक्की है.

दादी का जमाना था जब चूल्हे की आग कभी बुझाई ही नहीं जाती थी, राख में अंगारे छोड़ दिये जाते थे.  जाने कब वक्त बेवक्त कोई पाहुना आ जाये. मुडेंर पर कौये की कांव कांव होती ही रहती थी, जब तब अतिथि पधारते ही रहते थे. नाश्ते के समय कोई खास आ जाये तो तुरत फुरत गरम भजिये तले जाते थे, और यदि भोजन के समय मेहमान आ जायें तो गरमागरम पूड़ियां और आलू की सब्जी, पापड़ का मीनू लगफभग तय होता था. रेडी मेड मेहमान नवाजी के लिये दादी के कनस्तर में पपड़ियां, खुरमें, शक्कर पाग, नमकीन वगैरह  भरे ही रहा करते थे. मतलब वह युग पूर्व तैयारी का था. दादा जी की समय पूर्व तैयारी का आलम यह था कि ट्रेन आने के आधा घण्टे पहले से प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार किया जाता था. किसी आयोजन में पहुंचना हो तो निर्धारित समय से बहुत पहले से आयोजन स्थल पर पहुंच मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा किये जाने की परम्परा थी.

पर अब सब बदल चुका है. अब  कुएं का महत्व संस्कृति की रक्षा में विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है. धार्मिक अनुष्ठान के समय कुंआ ढ़ूंढ़ने की नौबत आने लगी है, क्योंकि अब पेय जल नल से सीधे किचन में चला आता है. कुंये के अभाव में महिलाएं, नल का पूजन कर सांकेतिक रूप से संस्कारो को  बचाये हुये हैं. सर पर मटकी पर मटकी चढ़ायें पनहारिनें खोजे नही मिलती, इससे रचनाकारों को साहित्य हेतु नये विषय ढ़ूंढ़ने पड़ रहे हैं. सच पूछा जाये तो मुहावरों की भाषा में अब हमने प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग निर्मित कर लिया है. प्यास लगते ही बाटल बंद कुंआ खरीद कर शुद्ध मिनरल वाटर पी लिया जाता है. प्यास के लिये पानी की सुराही लिये चलने का युग आउट आफ डेट हो चुका अब तो वाटर बाटल लटकाये घूमना भी बोझ प्रतीत होता है.

इन परिस्थितियों में बच्चे के जन्मोत्सव पर प्रकृति प्रदत्त आक्सीजन का कर्ज चुकाने के लिये वृक्षारोपण मेरे जैसे दकियानूसी कथित आदर्शवादी बुद्धिजीवीयों का शगल मात्र बन कर रह गया है, जो ये सोचते हैं कि जब हम बाप दादा के लगाये वृक्षो के फल खाते हैं तो आने वाली पढ़ीयों के लिये फलदार वृक्ष लगाना हमारा कर्तव्य है. इस चट मंगनी पट ब्याह और फट बच्चा और झट तलाक वाली पीढ़ी को कर्तव्यो पर नही अधिकारो पर भरोसा है. कोरोना सांसो से सांसो तक पहुंचता है, सबको पता है, पर कुंभ की ठसाठस भीड़ पर सवाल उठाओ तो मौलाना साहब की मैयत की भीड़ दिखा दी जाती है. चुनाव की रैली पर रोक लगाना चाहो तो पहले खेलों का खेला रोकने को कहा जाता है. खेल रोकना चाहो तो राजनीती रोकने नहीं देती. राजनीति विज्ञापन पर भरोसा करती है. राजनीति को मालूम है कि दुनियां ग्लोबल है,  जरूरत पड़ेगी तो आक्सीजन, वैक्सीन, दवायें सब आ ही जायेंगी, खरीद कर, सहानुभूति में या मजबूरी में ही सही. और तब तक लाख दो लाख काल कवलित हो भी गये तो क्या हुआ संवेदना व्यक्त करने के काम आयेंगे. चिताओ की आग दुनियां के दूसरे छोर के अखबारों की हेड लाइन्स बनेंगी तो क्या हुआ विपक्षियो पर लांछन लगाने के लिये इतना तो जरूरी है. राजकोष का अकूत धन आखिर होता किसलिये है. राजा की तरह दोनो हाथों से बेतरतीब लुटाकर जहां जिसको जैसा मन में आया, संवेदनाओ के सौदे कर लिये जायेंगे.

आपदा की पूर्व नियोजित तैयारी का युग आउट डेटेड है, भला कोई कैसे अनुमान लगा सकता है कि कब, कहाँ, कितना, कैसा संकट आयेगा, इसलिये जिसे जो करना है करने दो, हम प्रजातंत्र हैं. हमें पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिये.  खुद जो मन आये करो, नेतृत्व को बोल्ड होना ही चाहिये.  जब प्यास लगेगी, कुंआ खोद ही लेंगें. बहुत ताकतवर, संसाधन संपन्न, ग्लोबल हो चुके हैं हम.  कुंआ खोदने में जो समय लगेगा उसके लिये न्यायालय की चेतावनी चलेगी, हम लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, और न्यायालयों का बड़ा सम्मान होता है जनतंत्र में. इसलिये अस्पतालों की अव्यवस्था, आक्सीजन की कमी, दवाओ की अफरा तफरी, कोरोना की दहशत पर  क्षोभ उचित नही है. आपदा में अवसर तलाशने वाले कालाबाजारियों, जमाखोरों, नक्कालो से पूरी हमदर्दी रखिये जिन्होंने अनाप शनाप कीमत पर ही सही जिंदगियों को चंद सांसे तो दीं ही हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘अपनी किताब पढ़वाने का हुनर‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 97 ☆

☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर

सुबह आठ बजे दरवाज़े की घंटी बजी। आश्चर्य हुआ सुबह सुबह कौन आ गया। दरवाज़ा खोला तो सामने बल्लू था। चेहरे से खुशी फूटी पड़ रही थी। सारे दाँत बाहर थे। हाथ पीछे किये था, जैसे कुछ छिपा रहा हो।

दरवाज़ा खुलते ही बोला, ‘बूझो तो, मैं क्या लाया हूँ?’

मैने कहा, ‘मिठाई का डिब्बा लाया है क्या? प्रोमोशन हुआ है?’

वह मुँह बनाकर बोला, ‘तू सब दिन भोजन-भट्ट ही बना रहेगा। खाने-पीने के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ है।’

मैं झेंपा। वह हाथ सामने लाकर बोला, ‘यह देखो।’

मैंने देखा उसके हाथ में किताब थी। कवर पर बड़े अक्षरों में छपा था ‘बेवफा सनम’, और उसके नीचे लेखक का नाम ‘बलराम वर्मा’।

मैंने झूठी खुशी ज़ाहिर की। कहा, ‘अरे वाह, तेरी किताब है?ग़ज़ब है। तू तो अब बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हो गया।’

वह गर्व से बोला, ‘उपन्यास है। यह तुम्हारी कापी है। पढ़ कर बताना है। ढाई सौ पेज का है। रोज पचास पेज पढ़ोगे तो आराम से चार- छः दिन में खतम हो जाएगा। वैसे हो सकता है कि तुम्हें इतना पसन्द आये कि एक रात में ही खतम हो जाए।’

मैंने झूठा उत्साह दिखाते हुए कहा, ‘ज़रूर ज़रूर, तेरी किताब नहीं पढ़ूँगा तो किसकी पढ़ूँगा?दोस्ती किस दिन के लिए है?’

वह किताब पकड़ाकर चला गया। अगले दिन रात को नौ बजे उसका फोन आ गया। बोला, ‘वह जो उपन्यास की भूमिका में ‘घायल’ जी ने मेरी किताब को सदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक बताया है,वह तूने पढ़ा है?’

मैंने घबराकर झूठ बोला, ‘बस पढ़ ही रहा हूँ, गुरू। तकिये की बगल में रखी है।’

वह व्यंग्य से बोला, ‘मुझे पता था तूने अभी किताब खोली भी नहीं होगी।’

मैंने कहा, ‘बस शुरू कर रहा हूँ तो खतम करके ही छोड़ूँगा।’

किताब की भूमिका पढ़ी। उसमें ‘घायल’ जी ने बल्लू को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। फिर पहला चैप्टर पढ़ा। उसमें घटनाओं और भाषा का उलझाव ऐसा था कि पढ़ते पढ़ते दिमाग सुन्न हो गया। पता नहीं कब नींद आ गयी।

दो दिन बाद फिर उसका फोन आया। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर को थप्पड़ मारती है वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैंने घबराकर पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर में है गुरू?’

वह व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘तीसरे चैप्टर में। मुझे मालूम था तू अभी पहले चैप्टर में ही अटका होगा। मेरी किताब को छोड़कर तुझे बाकी बहुत सारे काम हैं।’

मैंने शर्मिन्दा होकर कहा, ‘बस स्पीड बढ़ा रहा हूँ, गुरू। जल्दी पढ़ डालूँगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर से झगड़ा करके सहेली के घर चली जाती है,वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैं फिर घबराया, पूछा, ‘यह कौन सा चैप्टर है गुरू?’

वह फिर व्यंग्य से हँसा,बोला, ‘छठवाँ। मुझे पता था कि तू कछुए की रफ्तार से चल रहा है। बेकार ही तुझे किताब दी।’

मैंने फिर उसे भरोसा दिलाया, कहा, ‘बस दौड़ लगा रहा हूँ,भैया। दो तीन दिन में पार हो जाऊँगा।’

अगले दिन फिर उसका फोन— ‘वो जो लवली अपने पुराने प्रेमी के पास पहुँच जाती है वह सही लगा?’

मैंने कातर स्वर में पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर की बात कर रहा है?

वह बोला, ‘नवाँ। उसके बाद तीन चैप्टर और बाकी हैं। तू इसी तरह घसिटता रहेगा तो महीने भर में भी पूरा नहीं होगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन आ गया। उसके कुछ बोलने से पहले ही मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी किताब पूरी पढ़ ली है, भैया, लेकिन अभी तीन चार दिन उसकी बात मत करना। अभी तबियत ठीक नहीं है। दिमाग काम नहीं कर रहा है। तबियत ठीक होने पर मैं खुद बात करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 62 ☆ सोचकर देखिए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सोचकर देखिए”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 62 – सोचकर देखिए

क्या जिसने पौधा लगाया वही उसका स्वामी होगा , वही वृक्ष के सारे फलों का उपयोग करेगा?  जब ऐसा नहीं होता तो हम ये अपेक्षा क्यों करते हैं कि ये कार्य मैंने किया अब इस पर  मेरा ही अधिकार है। वास्तविकता तो यही  है कि जब तक आप सजग होकर कार्य करते रहेंगे तभी तक आपका मूल्य है जैसे ही कोई और सक्रिय व्यक्ति आपकी जगह लेगा  तब उसका अधिकारी वो कहलायेगा।

प्रकृति के सभी क्रियाकलापों को देखें तो पाते हैं कि सूर्य  , चन्द्रमा, धरती, ग्रह नक्षत्र, जीव -जंतु, नदी, सागर,पर्वत, वृक्ष  ये सब हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते तो हम मनुष्य ही क्यों केवल अपेक्षाओं का पुतला बन  हमेशा माँगते ही रहते हैं यहाँ तक कि परमशक्ति के आगे भी निःस्वार्थ भाव से शीश नहीं झुका पाते वहाँ भी भगवान ये दे दो वो दे दो  की ही माला जपते रहते हैं।

हर गलती का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देना बहुत सरल होता है पर अपना मूल्यांकन करना जरा दुश्कर होने लगता है।

कामयाबी को शब्दों में बाँधना बहुत कठिन  है। केवल आर्थिक रूप से शीर्ष पर स्थापित होने से नाम और पहचान सहजता से मिलती है किंतु लोगों के हृदय में सम्मान बनाने हेतु निःस्वार्थ  भाव से कार्य करना पड़ता है।

जब आप मैं से दूर हो समाज के लिए उपयोगी हो जाते हैं  तभी अंतरात्मा प्रसन्न हो मनोवांछित फल देने लग जाती है। तब ये खुशी चेहरे की आभा बन जनमानस के लिए एक मार्गदर्शक व्यक्तित्व का निर्माण करती है।

हार्दिक बधाई, स्वागत है। ये लिखते- लिखते मानों साँसों की डोरी थम सी गयी हो। अपने क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए स्वतः विचार अवश्य करना चाहिए। समय के साथ जोड़ना – घटाना चलता ही रहेगा किन्तु अपना सफर कहाँ से कहाँ तक तय किया गया उसे याद कर आज कहाँ तक जा पहुँचे हैं ये भी सोचकर जिन्होंने देखा वो कामयाबी की माला पहने नज़र आए।

पतझड़ तो सबके जीवन में आते हैं, शाख से टूटे हुए पत्तों को कोई जोड़ नहीं सकता। नई कोंपले निकलेंगी वे ही वृक्ष की रौनक बढ़ाते हुए उसे पुष्पित और पल्लवित करेंगी। अब समय है कि इन बदलावों को सहजता से स्वीकार कर अपने साथ- साथ लोगों को भी बढ़ाएँ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 96 ☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘सीनियारिटी की फाँस‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 96 ☆

☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस

उस दफ्तर में एक काम से गया था। बरामदे में से गुज़रते हुए किशोर बाबू टकरा गये। मेरे परिचित थे। वे बरामदे की पट्टी पर कुहनियाँ टेके,शून्य में ताकते, आँखें झपका रहे थे। सलाम- दुआ हुई।

मैंने पूछा, ‘आप इसी दफ्तर में हैं?’

वे बोले, ‘हाँ जी। तीस साल हो गये।’

मैं समझ गया कि फाइलें खंगालते खंगालते वे मछली की तरह थोड़ी ऑक्सीजन लेने के लिए बाहर आ गये हैं।

उनसे बात करते करते खिड़की में से मेरी नज़र एक और परिचित बृजबिहारी बाबू पर पड़ी। वे अन्दर एक मेज़ पर झुके थे।

मैंने किशोर बाबू से पूछा, ‘बृजबिहारी जी भी आपके ऑफिस में हैं?’

वे सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ जी, वे भी यहीं हैं।’

बृजबिहारी बाबू के बालों की सफेदी को ध्यान में रखते हुए मैंने पूछा, ‘आप उनके अंडर में होंगे?’

सुनते ही किशोर बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर कई रंग आये और गये। लगा जैसे मेरी बात से उनको ज़बरदस्त धक्का लगा।

एक क्षण मौन रहकर उत्तेजित स्वर में बोले, ‘क्या कह रहे हैं! बृजबिहारी जी मेरे अंडर में हैं। आई एम हिज़ सीनियर।’

मैंने सहज भाव से कहा, ‘अच्छा, अच्छा! मुझे मालूम नहीं था। उनकी उम्र देखकर मैंने उन्हें सीनियर समझा।’

वे आहत स्वर में बोले, ‘उम्र से क्या होता है?मैंने सन इक्यासी में ज्वाइन किया और वे पचासी में आये। चार साल की सीनियारिटी का फर्क है।’

मैं ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर लगा कोई पीछे से आवाज़ दे रहा है। देखा तो किशोर बाबू झपटते आ रहे थे। मैं रुक गया। उनके माथे पर बल दिख रहे थे,लगता था किसी बात को लेकर परेशान हैं। पास आकर बोले, ‘आपने मुझे बहुत डिस्टर्ब कर दिया। सीनियारिटी बड़ी तपस्या के बाद मिलती है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है। आपने बिना सोचे समझे कह दिया कि बृजबिहारी बाबू मुझसे सीनियर हैं। थोड़ा मुझसे पूछ तो लेते।’

मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। मुझे मालूम नहीं था।’

वे बोले, ‘आप मुझे अपना मोबाइल नंबर दीजिए। मैं आपको डिटेल में समझाऊँगा कि मैंने किस किस के अंडर में काम किया और कैसे सीनियर हुआ। आई एम वन ऑफ द सीनियरमोस्ट परसंस इन द डिपार्टमेंट।’

मैंने ‘बताइएगा’ कह कर उनसे पीछा छुड़ाया।

उस दिन उनका फोन नहीं आया। मैंने समझा बात उनके मन से उतर गयी। रात को खा-पी कर गहरी नींद में डूब गया। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। नींद में कुछ समझ में नहीं आया। बिना चश्मे के मोबाइल भी नहीं पढ़ पाया। दीवार पर घड़ी देखी तो डेढ़ बजे का वक्त दिखा। उस तरफ किशोर बाबू थे। बुझे बुझे स्वर में बोले, ‘इस वक्त जगाने के लिए माफ कीजिएगा। बात यह है कि आपने आज मेरे पूरे दिन का सत्यानाश कर दिया। आपसे मिलने के बाद अभी तक टेंशन में हूँ। नींद नहीं आ रही है, इसलिए आपको फोन करना पड़ा। आप सीनियारिटी का मतलब नहीं समझते। उसे मामूली चीज़ समझते हैं। मैं आपको समझाता हूँ कि सीनियारिटी कैसे मिलती है और उसकी क्या अहमियत है।’ फिर वे बिना साँस लिये बताते रहे कि उन्होंने किन किन महान अधिकारियों के मार्गदर्शन में काम किया और कैसे सीनियारिटी नाम का दुर्लभ रत्न प्राप्त किया।

दस मिनट तक उनकी सफाई सुनने के बाद मैंने मोबाइल दूर रख दिया और उनके शब्दों की भनभनाहट चलती रही। जाने कब मुझे नींद आ गयी। सबेरे जब आँख खुली तो मोबाइल और किशोर बाबू,दोनों ही शान्त थे।

उस दिन से डर रहा हूँ कि किसी दिन फिर किशोर बाबू फोन करके सीनियारिटी की अहमियत न समझाने लगें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 95 ☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मेरी दूकान’ का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 95 ☆

☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा

उनसे मेरा रिश्ता वैसा ही था जैसे शहर के आम रिश्ते होते हैं।कभी वे मुझे देखकर रस्म-अदायगी में हाथ लहरा देते, कभी मैं उनके बगल से गुज़रते,दाँत चमका देता।कभी वे मुझे देखकर अनदेखा कर देते और कभी मैं उन्हें देखकर पीठ फेर लेता।वे एक किराने की दूकान के मालिक थे और उन्होंने अपना नाम शायद गोलू शाह बताया था।वे एक दो बार मुझसे दरख़्वास्त कर चुके थे कि मैं सामान उन्हीं की दूकान से ख़रीदूँ क्योंकि सामान बढ़िया और वाजिब दाम पर मिलेगा।लेकिन मैं उसी दूकान से सामान ले सकता था जो उधार दे सके और तकाज़ा न करे।इसलिए मैं उनके प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका।

ऐसे ही एक दूसरे के बगल से गुज़रते गुज़रते वे एक दिन घूम कर मेरी बगल में आ गये।बोले, ‘एक मिनट रुकेंगे?’

मैंने स्कूटर रोक लिया।वे भारी विनम्रता से बोले, ‘कैसे हैं?’

मैंने ज़बान पर चढ़ा जवाब दे दिया, ‘अच्छा हूँ।’

वे बोले, ‘बच्चे कैसे हैं?’

मैंने फिर कहा, ‘अच्छे हैं।’

वे बोले, ‘बच्चे तो अभी छोटे हैं न?’

मैंने कहा, ‘हाँ,बेटी सात साल की है और बेटा पाँच साल का।’

वे प्रसन्न होकर बोले, ‘दरअसल मैंने सदर बाज़ार में खिलौनों की दूकान खोली है।एक से एक बढ़िया खिलौने हैं।बच्चों को लेकर पधारिए।बच्चे बहुत खुश होंगे।’

मैंने टालने के लिए कहा, ‘ज़रूर आऊँगा।जल्दी ही आऊँगा।’

वे इसरार करते हुए बोले, ‘ज़रूर आइएगा।मैं आपका इन्तज़ार करूँगा।’

मैं ख़ुश हुआ।लगा कि अभी भी बाज़ार में मेरे जैसे ख़स्ताहालों की कुछ इज़्ज़त बाकी है।

एक दिन परिवार के साथ बाज़ार निकला तो मन हुआ कि बाल-बच्चों को बताया जाए कि बाज़ार में उनके बाप की कितनी साख है।उनके बाप का रूप सिर्फ दूध वाले और किराने वाले से आँख चुराने वाले का ही नहीं है।कहीं उनके बाप की पूछ-गाछ भी है।

मैंने स्कूटर सदर बाज़ार की तरफ मोड़ दिया।पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ चल रहे हैं?’ मैं चुप्पी साधे रहा।

गोलू शाह की दूकान में मैं इस तरह अकड़ कर घुसा जैसे दूकान में पहुँच कर मैं शाह जी पर अहसान कर रहा हूँ।गोलू मुझे देखकर ऐसे गद्गद हुए जैसे भक्त के घर भगवान अवतरित हुए हों।मैंने गर्व से पत्नी की तरफ देखा।

गोलू शाह हाथ जोड़कर बोले, ‘खिलौने दिखाऊँ?’

मैंने थोड़ा सिर हिलाकर स्वीकृति प्रदान की।वे बोले, ‘आइए।’

उन्होंने एक एक कर खिलौनों को निकालना शुरू किया।बच्चों की आँखों में चमक आ गयी।लगा उनके सामने कारूँ का ख़ज़ाना फैल गया हो।कभी इस खिलौने को बगल में दबा लेते, कभी उस को।उनकी मंशा ज़्यादा से ज़्यादा खिलौनों को समेट लेने की थी।

मैंने बच्चों से पूछा, ‘कौन सा पसन्द आया?’

उन्होंने सात आठ खिलौनों की तरफ उँगली उठा दी।ज़ाहिर था कि उन्हें सब खिलौने पसन्द आ रहे थे।गोलू शाह थोड़ी दूर पर प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे।

थोड़ी देर में उन्होंने आगे बढ़कर एक डिब्बा खोलकर एक विशालकाय भालू निकाला और उसे बच्चों के सामने रखकर हाथ बाँधकर फिर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गये।बच्चे अपने खिलौनों को छोड़कर भालू की तरफ लपके।

बच्चे जब भालू में उलझे थे तभी उन्होंने एक बड़े बड़े बालों वाला प्यारा सुन्दर कुत्ता पेश कर दिया।बच्चे भालू को छोड़कर उस तरफ दौड़े।

खिलौनों के आकार-प्रकार को देखकर मेरे मन में उनके मूल्य को लेकर कुशंकाएँ उठने लगी थीं।ऊपर से अपनी अकड़ को बरकरार रखते हुए मैंने गोलू शाह से पूछा, ‘इस भालू की कीमत क्या होगी?’

गोलू शाह बत्तीसी निकालकर बोले, ‘कीमत की क्या बात करते हैं।बच्चों को देखने तो दीजिए।’

मैंने मन में उठते डर को ढकेलते हुए कहा, ‘फिर भी।बताइए तो।’

गोलू शाह आँखें बन्द करके मुस्कराते हुए बोले, ‘आपके लिए सिर्फ पाँच सौ रुपये।’

मेरी रीढ़ को ज़बर्दस्त झटका लगा।सारी अकड़ निकल गयी।गर्दन लटकने लगी।

मैंने कातर आँखों से गोलू शाह की तरफ देखकर पूछा, ‘पाँच सौ?’

गोलू शाह ने फिर आँखें बन्द कर दुहराया, ‘सिर्फ आपके लिए।’

मैंने सूखे गले से पूछा, ‘और कुत्ता कितने का है?’

गोलू शाह एक बार फिर आँखें बन्द कर बोले, ‘आपके लिए सिर्फ छः सौ का।’

मुझे लगा गोलू शाह इसलिए आँखें बन्द कर लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कीमत सुनकर ग्राहक की सूरत बिगड़ जाएगी।उनका जवाब सुनकर मैं बच्चों के हाथ से खिलौने छीनकर उन्हें पीछे खींचने लगा।बच्चे खिलौनों को छोड़ नहीं रहे थे और मैं उन्हें वहाँ से खींच निकालने पर तुला हुआ था।

मेरी सारी कोशिशों के बावजूद ढाई हज़ार के खिलौने खरीद लिये गये।लघुशंका के बहाने सड़क के एक अंधेरे कोने में जाकर मैंने पर्स के नोट गिने।सिर्फ डेढ़ हज़ार थे।इनमें से गोलू शाह को दे देता तो महीने का हिसाब गड़बड़ा जाता।

मैंने गोलू शाह से झूठी शान से कहा, ‘आज तो ऐसे ही घूमते हुए आ गये थे।एक दो दिन में पेमेंट हो जाएगा।’

गोलू शाह हाथ जोड़कर झुक गये, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं! आपकी दूकान है।पैसे कहाँ भागे जाते हैं।फिर आइएगा।’

मैं ऊपर से चुस्त और भीतर से पस्त, दूकान से बाहर आ गया।घर आकर बच्चों पर खूब झल्लाया, लेकिन वे मेरी बातों को अनसुना कर खिलौनों से खेलने में मगन रहे।

अगले माह तनख्वाह मिलने पर बजट में कटौती करके गोलू शाह को एक हज़ार रुपये दे आया।कहा, ‘बाकी तीन चार दिन में दे दूँगा।’.

गोलू फिर हाथ जोड़कर झुके, बोले, ‘क्यों शर्मिन्दा करते हैं बाउजी!आपकी दूकान है।’

उसके बाद दो माह बजट में खिलौनों के भुगतान का प्रावधान नहीं हो पाया।मैंने गोलू शाह की सड़क से निकलना बन्द कर दिया।

एक दिन उनका फोन आ गया—‘कैसे हैं जी?’

मैंने जवाब दिया, ‘आपकी दुआ से ठीक हूँ।’

‘और?’

‘ठीक है।’

‘और?’

‘बिलकुल ठीक है।’

गोलू शाह गला साफ करके बोले, ‘बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए।मैंने सोचा फोन कर लूँ।’

मैंने कहा, ‘अच्छा किया।’

थोड़ी देर सन्नाटा।

गोलू शाह फिर गला साफ करके बोले, ‘आपके नाम कुछ पेमेंट निकलता है।सोचा याद दिला दूँ।’

मैंने कहा, ‘मुझे याद है।एक दो दिन में आता हूँ।’

वे तुरन्त बोले, ‘कोई बात नहीं।आपकी दूकान है।कई दिनों से दर्शन नहीं हुए थे, इसलिए फोन किया।कोई खयाल मत कीजिएगा।’

फिर एक महीना निकल गया।उन्हें दर्शन देने लायक स्थिति नहीं बनी।

फिर एक दिन उनका फोन आया।बोले, ‘बाउजी, आप आये नहीं।हम आपका इन्तजार कर रहे हैं।’

मैंने कहा, ‘हाँ भाई साब, निकल नहीं पाया।’

वे बोले, ‘पेमेंट कर देते, बाउजी।तीन चार महीने हो गये।’

मैंने कहा, ‘बस तीन चार तारीख तक आता हूँ।’

वे शंका के स्वर में बोले, ‘जरूर आ जाना बाउजी।काफी टाइम हो गया।’

अगले माह फिर बजट को खींच तान कर उन्हें एक हज़ार दे आया।इस बार उनके चेहरे पर पहले जैसी मुहब्बत नहीं थी।विदा लेते वक्त निहायत ठंडी आवाज़ में बोले, ‘बाकी जल्दी दे जाइएगा।मार्जिन बहुत कम है।बहुत परेशानी है।’

दो तीन माह बाद किसी तरह उनके ऋण से मुक्त हुआ।आखिरी मुलाकात में वे ऐसी बेरुखी से पेश आये जैसे हमसे कभी मुहब्बत ही न रही हो।मुझे ‘फ़ैज़’ साहब की मशहूर नज़्म का उनवान याद आया—‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग।’

कुछ दिन बाद फिर बच्चों ने धक्का देकर उनकी दूकान में पहुँचा दिया।इस बार वे मुझे देखकर कुर्सी से भी नहीं उठे।कलम से सिर खुजाते हुए नितान्त अपरिचय के स्वर में बोले, ‘हाँ जी, क्या खिदमत करूँ?’

मैंने कहा, ‘बच्चों को कुछ खिलौने देखने हैं।’

वे एक आँख मींजते हुए बोले, ‘बात यह है बाउजी कि आपके लायक खिलौने हैं नहीं।नया स्टाक जल्दी आएगा।तब तशरीफ लाइएगा।’

मैंने कहा, ‘फिक्र न करें।आज उधार नहीं करूँगा।’

वे कुछ शर्मा कर बोले, ‘वो मतलब नहीं है बाउजी।कुछ खिलौने हैं।आइए,दिखा देता हूँ।’

उनके पीछे चलते हुए मैंने कहा, ‘मैंने सोचा कि बहुत दिन से आपसे भेंट नहीं हुई।आखिर अपनी दूकान है।आना जाना चलते रहना चाहिए।’

वे धीरे धीरे चलते हुए ठंडे स्वर में बोले, ‘सच तो यह है बाउजी, कि दूकान जनता की है।अब इसे कोई अपनी समझ ले तो हम क्या कर सकते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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