हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जो जस करहिं तो तस फल चाखा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… 

फल का क्या? कर्म करने पर मिलता है। अब समस्या ये है कि जो देंगे वही मिलेगा, ये लेन- देन किसी को भी चैन से बैठने ही नहीं देता। कोई भी एप  से जुड़ो नहीं कि तुरंत मैसेज आना शुरू हो जाते हैं अब समस्या ये है कि सारा दिन नोटिफिकेशन ही देखते रहें या कोई जरूरी कार्य भी करें। खैर तकनीकी को समझना और जानना है तो कदम बढ़ाना ही होगा। हर वर्ष एक ही राह पर चलते रहने से कभी तरक्की मिली है। इस बार कुछ नया हो ऐसी सोच के साथ पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का मंत्र मेरे मोटिवेशनल कोच द्वारा दिया गया।

सकारात्मक सोच के साथ जो भी चलेगा वो विजेता के रूप में उभरेगा ही। संघ की परिकल्पना को अमलीजामा पहनाते हुए सबके साथ सामंजस्य बैठाने में मशक्कत तो करनी पड़ती है किंतु जान- पहचान बढ़ने से कई समस्याओं का हल चुटकी बजाते ही मिल जाता है। व्हाट्सएप पर सार्थक चैटिंग हो तो बहुत से नए रास्ते खुलते हैं जहाँ न केवल कल्पनाओं की उड़ान को पंख मिलते हैं वरन अपनी सशक्त पहचान भी बन जाती है। जो लोग दूरगामी दृष्टि के मालिक होते हैं वही लीडर के रूप में प्रतिष्ठित होकर अपना परचम फैलाते हैं।

डर- डर कर कदम बढ़ाने से भला कभी किसी को मंजिल मिली है। सार्थक करते हुए लोगों को जोड़ते जाना कोई आसान कार्य नहीं होता। मन अगर सच्चा हो और केवल सबकी भलाई का लक्ष्य हो तो आगे  बढ़कर पूरे दमखम के साथ कार्य को पूरा करने हेतु जुट जाना चाहिए। पूर्णता तक पहुँचने वाले ही शिखर पर प्रतिस्थापित होते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर न बनने पाए इसलिए सही नेतृत्व के साथ चलते रहने में ही भलाई है। जैसा करेंगे वही मिलेगा तो क्यों न सबका हित साधें और बढ़ें।

नया वर्ष ऐसे चिंतन हेतु एक नयी ऊर्जा लेकर आता है सो हम सब चिंतन- मनन करते हुए अपने लिए भी एक मुकाम तय करें और उसे पूरा करने के लिए जुट जाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 101 – लघुकथा – क्या बोले? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “क्या बोले?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 101 ☆

☆ लघुकथा — क्या बोले? ☆ 

आज वह स्कूल से आई तब बहुत खुश थी। चहकते हुए बोली, ” मम्मीजी! आप मुझे रोज डांटती थी ना।”

” हां। क्योंकि तू शाला में कुछ ना कुछ चीजें रोज गुमा कर आती है।”

” तब तो मम्मीजी आप बहुत खुश होंगी,”  उसने अपने बस्ते को पलटते हुए कहा।

” क्यों?” मम्मी ने पूछा,” तूने ऐसा क्या कमाल कर दिया है?”

” देखिए मम्मीजी,” कहते हुए उसने बस्ते की ओर इशारा किया,” आज मैं सब के बस्ते से पेंसिल ले-लेकर आ गई हूं।”

” क्या!” पेंसिल का ढेर देखते ही मम्मीजी आवक रह गई। उसने झट से ने खोला और कहना चाहा,” अरे बेटा, तू तो चोरी करके लाई हैं।” मगर वह बोल नहीं पाए।

बस कुछ सोचते हुए चुपचाप रह गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-11-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 138 ☆ कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  ‘खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 138 ☆

? कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ?

पुरानी फाईलें सहेज रहा था

आलमारी में

मुझे मिली

मेरे बब्बा जी की डायरी

मैने जाना वे मण्डला में अप्रभावित थे  

१९२० के स्पैनिश फ्लू और

प्लेग से, कोरोना सी  गांवों तक 

व्यापक नही थी

वे महामारियां  

पीछे के पन्नो पर

घर खर्च का हिसाब दिखा

मैने जाना कि

१९२५ में

आधा पैसा भी होता था

और उससे

भर पेट खाना भी खाया जा

सकता था.

 

उन दिनो सत्तू, बूंदी के लड्डू, और जलेबी

वैसे ही कामन थे

जैसे आज

ब्रेड बटर , कार्न फ्लैक्स और पिज्जा

तब  फेरी वाले आवाज लगाते थे

सास की चोरी , बहू का कलेवा हलवा हलेवा

मतलब हलुआ भी बना बनाया मिलता था उन दिनों

और खोमचे लेकर गाता निकलता था चने वाला

ऊपर चले रेल का पहिया

नीचे खेलें कृष्ण कन्हैया, चना जोर गरम,

मैं लाया मजेदार चना जोर गरम

यानी चना जोर गरम वैसा ही पाप्युलर था

जैसे अब पापकार्न है.

 

डायरी ने यह भी बतलाया कि तब

तीन रुपये महीने में बढ़ियां तरीके से

घर चल जाता था.

ऐसा जैसा आज साठ हजार में भी नही चल पाता.

 

आबादी बढ़ती रही

चुनाव होते रहे

बाढ़, अकाल और युद्ध भी हुये

हर घटना से मंहगाई का इंडैक्स कुछ और बढ़ता रहा

शेयर बाजार का केंचुआ

लुढ़कता पुढ़कता चढ़ता बढ़ता रहा

सोने का भाव जो आज पचास हजार रुपये प्रति १० ग्राम है

महज २० रुपये था १९२५ में

और पिताजी की शादी के समय १९५० में केवल १०० रु प्रति १० ग्राम

 

बच्चे दो या तीन अच्छे वाला नारा देखते देखते

हम दो हमारे दो

में तब्दील हो चुका है

प्रगति तो बेहिसाब हुई है

पर पर-केपिटा इनकम उस तेजी से नही बढ़ी

क्योंकि आबादी सुरसा सी बढ़ रही है

और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून

जरूरी लगने लगा है

 

आने वाले कल की कल्पना करें

शादी के लिये

सरकारी अनुमति लेने की नौबत न आ जाये !

शादी के बाद माता पिता बनने के लिये भी

परमीशन लेनी पड़ सकती है .

आनलाईन प्रोफार्मा भरना होगा

पूछा जायेगा

होने वाले बच्चे के लिये

स्कूल में सीट आरक्षित करवाई जा चुकी है ?

आय के ब्यौरे देने होंगे

परवरिश की क्षमता प्रमाणित करने के लिये  

स्वीकृति के लिये सोर्स लगेंगे

रिश्वत की पेशकश की जायेगी

अनुमति मिलने के डेढ़ साल के भीतर

जो पैरेंट्स नही बन सकेंगे

उन्हें टाईम एक्सटेंशन लेना होगा .

 

पानी की कमी के चलते

टी वी कैंपेन चलेंगे

नहाओ ! हफ्ते में बस एक दिन

कोई राजनेता समझायेंगें

हमने नहाती हुई हीरोईन के विज्ञापन

इसीलिये तो दिखलाये हैं कि बस देखकर ही

सब नहाने का आनंद ले सकें

वर्चुएल स्नान का आनंद

 

अंगूर दर्जन के भाव मिलेंगे और

आम फांक के हिसाब से

संतरे की फांक  

पाली पैक में प्रिजर्वड होकर बिकेंगी

किसी मल्टी नेशनल ब्रांड के बैनर में

मिलेगा घी चम्मच की दर पर

अगर उत्पादन न बढ़ा उतना

जितने कन्ज्यूमर्स बढ़ रहे हैं तो

मैं प्रगति का हिमायती हूं

खूब बढ़ें कन्ज्यूमर

पर हाँ उत्पादन भी उतना हो

 

कवियों की संख्या भी बढ़ेगी

बढ़ती आबादी के साथ

और उसे देखते हुये

वर्चुएल प्लेटफार्म

बढ़ाने पड़ेंगे, कविता करने के लिये.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 91 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे ”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 91 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

चाहत से कुछ कब मिले, बिन चाहे मिल जाय।

जब बरसे उसकी कृपा, धन से मन भर जाय।। 1

 

लाख बुराई जग करे, बुरा न चाहें ईश।

ईश्वर ही सच्चा सखा, सदा झुकाऊँ शीश।। 2

 

नंगा पैदा खुद हुआ, जाए खाली हाथ।

बुरा – भला जो भी किया, जाए अपने साथ।। 3

 

कृपा करें परमात्मा, मार सके कब कोय।

सुख – दुख भी उसकी कृपा, मत जीवन भर रोय।। 4

 

जग में ढूंढ बुराइयां, अपनी ठोके पीठ।

ऐसा मानव जगत में,  रीछ बहुत ही ढीठ।। 5

 

कपटी खुश होता नहीं, दूजों के सुख देख।

बस अपने में मुग्ध है, चाहे खुद अभिषेक।। 6

 

मैल, कपट मन में रखें, हैं वे रिश्तेदार।

झूठ दिखावा कर रहे, खोखल उनका प्यार।। 7

 

खाली – मूली बात कर, झूठे ही हरषायँ।

काम पड़े जब तनिक – सा, कभी काम ना आयँ।। 8

 

कपट रखें कुछ बावरे , करते मीठी बात।

सदा दूर रखना प्रभू, इनका, मेरा साथ।। 9

 

करता हूँ कर्तव्य मैं, कब है मन में चाह।

तनिक काम जब भी कहा, लोग करें बस आह।। 10

 

मानव वे ही श्रेष्ठ हैं, करें न पीछे वार।

मिलें, खिलें वे फूल से, सदा लुटाएं प्यार।। 11

 

कपटी , दम्भी मूढ़ हैं, पीटें अपना ढोल।

तनिक-तनिक – सी बात पर, बिगड़ें उनके बोल।। 12

 

खुद में निरी बुराइयाँ, हे मानव तू देख।

जीवन में लिखते रहो, रोज नए अभिलेख।। 13

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 94 – मी, मोबाईल व्हायला हवं होतं.. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #94  ?

☆ मी, मोबाईल व्हायला हवं होतं.. 

खरंच माणसा ऐवजी मी,

मोबाईल व्हायला हवं होतं..

काळजामध्ये माझ्याही,

सिमकार्ड असायला हवं होतं…!

 

स्वतः पेक्षा जास्त कुणीतरी,

माझी काळजी घेतली असती..

मोबाईलच्या गॅलरीत का होईना,

आपली माणसं भेटली असती…!

 

माझं रिकामं पोट सुध्दा,

दिसलं असतं स्क्रिन वर..

इलेक्ट्रिसिटी खाऊन मी,

जेवलो असतो पोटभर…!

 

कुणालाही माझी कधी,

अडचण झाली नसती..

खिसा किंवा पर्समध्ये ,

हक्काची जागा असती..!

 

माझ्यामधल्या सिमकार्डचंही,

रिचार्ज करावं लागलं असतं..

वय झाल्यावर मला कुणी ,

वृध्दाश्रमात सोडलं नसतं…!

 

आपलेपणाने कुणीतरी मला,

जवळ घेऊन झोपलं असतं..

रात्री जाग आल्यावरही,

काळजीने मला पाहिलं असतं..!

 

माझ्यासोबत लहान मुलं,

आनंदाने हसली असती..

कधी कधी माझ्यासाठी,

रूसूनही बसली असती..!

 

कधी कधी माझं सुद्धा,

नेटवर्क डाऊन झालं असतं..

स्विच ऑफ करुन मला पुन्हा ,

रेंज मध्येही आणलं असतं..!

 

प्रत्येकाने मला अगदी,

सुखात ठेवलं असतं..!

प्रत्येक वेळी स्वतः बरोबर,

सोबतही नेलं असतं..!

 

आत्ता सारखं एकटं एकटं,

तेव्हा मला वाटलं नसतं..!

तळहातावरच्या फोडासारखं,

प्रत्येकाने मला जपलं असतं…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #114 – नव वर्ष अभिनंदन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं नववर्ष पर एक विचारणीय गीतिका “नव वर्ष अभिनंदन…”)

☆  तन्मय साहित्य  #114 ☆

☆ नव वर्ष अभिनंदन…

करें हम नए वर्ष की बात

उजालों की होगी सौगात

पुराने अनुभव होंगे साथ

चलो! हम मिलकर साथ चलें

ले हाथों में हाथ,

प्रेम से आओ गले मिले।

 

आशाओं के दीप जलाएं, खुशियां सब पाएं

मधुर छंद, गीतों के संग, नूतन अभिलाषाएं

नई किरण के साथ, सोच चिंतन हो नया नया

सीख, पुरातन से लें, त्रुटियां पुनः न दुहरायें,

नहीं फिर हो जीवन मे हार

भाई-चारे की बहे बयार

करे सब एक-दूजे से प्यार

विजयरथ आगे सदा चले

सीढ़ी उन्हें बना लें

पथ हो चाहे पथरीले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

स्वागत हँस कर करें समय के, नवपरिवर्तन का

अभिनंदन मन से, प्रकृति के मोहक नर्तन का

मौसम सुख-दुख के आये, मुरझाये कभी न हम

जीवन एक तपस्या, विधि के पूजन अर्चन का,

रहे अंतर में,  सात्विक भाव

स्वच्छ परिवेश, नगर अरु गांव

हरित पेड़ों की शीतल छांव

प्रदूषण से शिकवे गीले

पर्यावरण विशुद्ध, सभी

हम होंगे, खिले खिले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

जातिवाद और धर्म पंथ के, भेद मिटे सारे

सम्यक दर्शन, समभावो के, फैले उजियारे

नया वर्ष-उत्कर्ष, हर्ष, संकल्प, सुखद होंगे

घर आँगन में खुशियों के, चमके चंदा-तारे,

करें  इक – दूजे का सम्मान

सभी के अधरों पर मुस्कान

सुलभ हो सब को अक्षरज्ञान

न कोई पथ में हमें छले

जीतेंगे  निश्चित  ही

संघर्षों के सभी किले,

प्रेम से आओ गले मिले।।……….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 7 – नज़्म-उसे भूल जा ना याद कर ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नव वर्ष के आगमन पर आपकी एक भावप्रवण रचना “उसे भूल जा ना याद कर”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 7 ✒️

? नज़्म – उसे भूल जा ना याद कर —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो जुदा हुए वो अजीज़ थे,

तेरे अपने तेरे क़रीब थे ।

उन्हें भूल जा ना याद कर ,

जो तूने सहा ना फ़रियाद कर ।।

 

यह कैसी ग़म की हवा चली ,

सुनसान हो गई है गली – गली ,

सुबहा से पहले शाम ढली ,

चमन को सिर्फ़ ही ख़िज़ां मिली ,

जो गया ख़ुदा का हबीब था ,

तू फ़िर से गुलशन आबाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

वो करोना से जुदा हुए ,

सारी उम्र तुझ पर फ़िदा हुए ,

ना वबा का कोई कुसूर था ,

ये सब इंसान का ही फ़ितूर था ,

ये क़हर हमारा नसीब था ,

बची उम्र को ना बर्बाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

किसी के जाने से कमी नहीं ,

ये दुनियां आज तक थमीं नहीं ,

जो मिल रहा वो ग़नीमत है ,

अभी कुछ दिनों की अज़ीयत है ,

वो दीन – दुनिया का रक़ीब था ,

उसे रिश्तों से आज़ाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

दवा अस्पताल का बहाना था ,

क़ज़ा को उन्हें ले जाना था ,

जो बचा है उसका बन रहनुमा ,

कहीं सब हो जाए ना धुंआं ,

बहारों का वो अक़ीब था ,

उसकी यादों को पुरताब कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

इक बार मिलती है ज़िन्दगी ,

कर शुक्र अल्लाह की बन्दगी ,

जो बचा है उसको सहेज ले ,

 तू गिले-शिकवे सारे समेट ले ,

फ़लसफ़ा ये तेरा अजीब था ,

‘ सलमा ‘ तू अपना दिल शाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #13 – अलंकृत भाषा ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे।

आज प्रस्तुत है असहमत से अलग एक अनोखी कहानी हमारी भाषा…. उसकी बोली। )     

☆ कथा-कहानी #13 – अलंकृत भाषा ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस  प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.

एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर,आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.

साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं ,पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता,आप ?

 शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं. जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.

जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था. एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.

स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.

हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है. हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है।पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?

क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.

एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो, शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें  पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं.

शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो.

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 1 – जंगल में खेती ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 1 जंगल में खेती ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

हटा में जन्मे जगन मोहन पांडे जब बैक की नौकरी के चौथे पल में पहुंचे तो उच्च प्रबंधन को उनकी कर्मठता के बारे में अनायास ही पता चल गया और बड़े साहब ने उन्हें वरिष्ठ प्रबंधन श्रेणी में पदोन्नत किए जाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। बड़े साहब की कृपा दृष्टि से उन्हे पदोन्नति मिल गई और पंडिताइन ने हटा की चंडी माता के मंदिर में सवा किलो गुजिया का प्रसाद, जो उन्होंने गफ़लू हलवाई के यहां गुजिया का आकार छोटा रखने का  विशेष आर्डर दे कर बनवाई थी, चढ़ाया और प्रेम से चीन्ह चीन्ह कर उसी अंदाज में दिया जिस पर सदियों पहले कहावत बनी थी, ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह के देय।’

खैर प्रमोशन की खुशियां बधाइयों के साथ खत्म हो गई और पांडेजी की नई पदस्थापना के आदेश आ गए। बैंक की नौकरी  जिंदगी भर दमोह, सागर में गुजारने वाले पांडे जी को बहुत आघात लगा जब उनकी पदस्थापना का समाचार मिला। उमरिया में उन्हें बैंक द्वारा संचालित ग्रामीण प्रशिक्षण संस्थान में मुख्य प्रबंधक बनाकर भेजा जा रहा था। जब सारे जुगाड़ चिरौरी बिनती काम ना आई तो पांडे जी ने ‘ ‘प्रभु इच्छा ही बलियसी’ ऐसा मानकर उमरिया अकेले जाकर नौकरी के शेष बचे तीन वर्ष काटने का निर्णय आखिरकार ले ही लिया।

उमरिया जंगल का आदिवासी बहुल क्षेत्र था और आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षण की प्रतिदिन  शुरुआत पांडे जी इसी कहावत से करते ‘ उत्तम खेती मध्यम वान, अधम चाकरी भीख निदान।‘ पांडेजी रोज यही बताते कि खेती श्रेष्ठ व्यवसाय है नौकरी और व्यापार के चक्कर में मत पड़ो। उनकी बातें सुनते सुनते आदिवासी युवा जब अघा गए तो एक थोड़े चतुर गोंड ने कहा ‘सर कहना सरल है पर करना कठिन, आप हमारे गाँव चलकर देखिए तो समझ में आएगा कि जंगल में खेती करना कितना कठिन है।’

बस फिर क्या था पांडेजी ने हामी भर दी और शनिवार रविवार परिवार के पास हटा जाने की अपेक्षा उमरिया जिले के दूरदराज के गाँव भेजरी जाने का फरमान जारी कर दिया। यात्रा भत्ता चित्त करने के उद्देश्य से दौरा सरकारी बनाया और प्रधान कार्यालय से इसकी अनुमति भी ले ली।

जब पांडेजी गाँव जाने लगे तो उनके मन में खेती किसानी को लेकर बहुत सी बुन्देली कहावतें, मुख से बाहर निकलने कुलबुलाने लगी। ग्रामीणों को बातचीत के लिए उकसाने हेतु उन्होंने खटिया पर बैठते ही कहा “ गेवड़े खेती हमने करी, कर धोबिन सौं  हेत। अपनों करो कौंन सें कइए, चरों गदन ने खेत।“

आदिवासियों को उनकी बुन्देली भाषा समझ में नहीं आई तो पांडेजी ने इसका अर्थ कथावाचक जैसे रोचक अंदाज में सुनाते हुए बताया कि ‘गाँव के समीप कभी खेती किसानी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गाँव के पालतू पशु खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं उसे कहा जाते हैं। इसी प्रकार अगर किसी गाँव में धोबी या कुम्हार रहते हैं तो उनसे भी ज्यादा प्रेम संबंध बनाना ठीक नहीं है क्योंकि किसान तो धोबिन के प्रेमालाप में डूबा रहेगा और उसका गधा सारी फसल को नष्ट कर देगा।“

पांडे जी की रोचकता लिए इस कहानी को सुनते ही आदिवासियों के मन से अनजान व्यक्ति के प्रति भय खतम हो गया और उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई “ साहब जू हमारे खेत तो जंगल की तलहटी  में हैं और हमें उनकी दिन रात रखवाली करनी पड़ती है। दिन में तो पक्षी और बंदर फसल को खाने आते रहते हैं और रात में हिरण और नील गाय पूरा खेत साफ कर जाती हैं। “

पांडे जी ने हटा में फसलों की बर्बादी की ऐसी दुखद दास्तान नहीं सुनी थी तुरंत बोल उठे “ खेती धन की नाश, धनी न हुईयै पास। और फिर इसका अर्थ बताते हुए बोले कि जो व्यक्ति खेती अपने हाथ से करता है अथवा अपनी निगरानी में कृषि कार्य की देखभाल कराता है उसे ही लाभ प्राप्त होता है। दूसरों के हाथ खेती छोड़ने से हानि होती है। आप लोग खुद मेहनत करोगे तभी फसल की रक्षा होगी।‘

पांडे जी की मधुर वाणी ने आदिवासियों को गुस्सा कर दिया। वे बोले “साहब जू हम लोग शहरी बाबू नहीं है जो बटिया खेती, साँट सगाई करें। हम लोग तो दिन रात खेत की रखवाली पौष की कड़कड़ाती ठंड में भी करते हैं फिर भी जानवर खेत में घुसकर फसल बर्बाद कर देते हैं।“

किसानों की यह परेशानी सुनकर पांडेजी के मन में बैंक के क्षेत्राधिकारी की आत्मा प्रवेश कर गई और वे खेतों का निरीक्षण करने के बाद कुछ सलाह देने की बात बोल उठे। आदिवासी भी सहर्ष उन्हे अपने खेतों में ले गए। जब पांडेजी खेतों को देखने पहुंचे तो वहाँ की प्राकृतिक छटा, कटीली झाड़िया और श्वेत फूलों से लदे  काँस की लहलहाती घाँस को देखकर अपने दद्दा की वह कहावत जो वे बचपन से सुनते आए थे याद आ गई “ जरयाने उर काँस में, खेत करो जिन कोय, बैला दोऊ बेंचकैं, करो नौकरी सोय।“

एक आदिवासी ने पूछ  ही लिया कि ‘महराज का गुनगुना रहे हो।‘

पांडे जी बोल उठे ‘ कंटीली झाड़ियों और काँस से भरी हुई भूमि में खेती करने से कोई लाभ नहीं होता है। इस भूमि में उत्पादन कम होगा इससे अच्छा तो यह है कि बैल बेचकर परदेश चले जाओ और वहाँ नौकरी करो।‘

पांडे जी की बात सुनकर किसान निरुत्साहित नहीं हुआ, बोला ‘ हम खेती किसानी लाभ के लिए नहीं करते हैं, बस दो जून की रोटी मिल जाए और उन्हा लत्ता का जुगाड़ हो जाए इसी उम्मीद से यहां फसल उगाते हैं। हम काहे को परदेश जाकर नौकरी करेंगे।’

पांडे जी ने खेतों को ध्यान से देखा लेकिन बाड़ी व बिजूका उन्हे किसी भी खेत में दिखाई नहीं दिए। कृषि कार्य में निरीक्षण को लेकर उनके दिमाग में आदिवासियों की यही सबसे बड़ी कमजोरी है ऐसा भाव उपजा और वे पंद्रह दिन बाद इस समस्या का कोई निदान बताएंगे ऐसा कहकर अपना सरकारी दौरा पूरा कर उमरिया वापस आ गए।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 115 ☆ हेमंत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 115 ?

☆ हेमंत ☆

 हेमंत ऋतूच तर सुरू आहे,

 हवेतला गारवा..

सारं कसं मस्त…

 सुखासीन!!

मार्गशीर्ष ,पौष व्रतवैकल्यात  रमलेला..

संक्रांतीची गोड चाहूल…

 

ती ही हेमंतातलीच संध्याकाळ,

तू दिलास तिळगुळ,

काहीही न बोलता…..

रात्री मैत्रीणींबरोबर सिनेमाला गेले,

तिथल्या गर्दीत दिसलास अचानक,

तो “आम्रपाली”होता वैजयंतीमालाचा!

लक्षात राहिला,

संक्रातीच्या दिवशी पाहिला म्हणून!

तू कोण कुठला काहीच माहित नाही,

मैत्रीण म्हणाली एकदा,

कोण गं हा देव मुखर्जी ??

आणि हसलो खूप!!

एकदा शाळेत जाताना–‐-

कुठूनसे सूर येत होते,

जाने वो कैसे लोग थे…..

आणि तू दिसलास….

आज ऋतूंचा हिशेब मांडताना,

तू आठवलास, त्याच बरोबर,

तिळगुळ..आम्रपाली….आणि हेमंतकुमार चे सूरही आठवले!

 हेमंत असतोच ना वर्षानुवर्षे,

आठवणीत, सिनेमात, गाण्यात,

आणि तिळगुळातही…….

 

© प्रभा सोनवणे

(१७ डिसेंबर  २०२१)

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares
image_print