श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए उपलब्ध किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम ऐसे स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

बंगलौर प्रवास पर हूं। मेरे भतीजे अनिमेष के पास पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। मुझे प्रसन्नता है कि पुस्तकें पढ़ने की जो परिपाटी मेरे माता-पिता ने साठ के दशक में शुरु की थी, वह परम्परा तीसरी पीढ़ी में भी जारी है। मेरे पुत्र अग्रेश, पुत्री निधि और भतीजे अनिमेष के संग्रह में मुझे हमेशा कुछ नया पढ़ने को मिलता है, पर यह सब क़िताबें अंग्रेजी में हैं और उन्हें मैं धीमें धीमें पढ़ता हूं। अब अच्छा है कि मोबाइल में शब्दकोश है सो कठिन व अनजान अंग्रेजी शब्दों के अर्थ खोजने में ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ता। अनिमेष ने इतिहास में मेरी रुचि को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी शोधकर्ता जान एम फ्रिट्ज व जार्ज मिशेल दर्शाया लिखित ‘Hampi Vijayanagara’ पुस्तक पढ़ने को दी। किसी विदेशी लेखक भारतीय पुरातत्व व इतिहास पर पुस्तक पढने का यह मेरा प्रथम प्रयास है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरी प्रबल इच्छा आंध्र प्रदेश की सीमा पर तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित हम्पी जाने की हो रही है।

अपने आप में राम व बानरराज सुग्रीव की मित्रता संबंधित अनेक कहानियां समेटे यह पर्यटक स्थल कभी विजयनगर राज्य की राजधानी था। वहीं विजयनगर जिसे हम राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम की चतुराई के कारण जानते हैं। पहले अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा 1970 के दशक में इस स्थल का  पुरातत्ववेत्ताओं की उपस्थिति में उत्खनन किया गया।  यह बैंगलोर से  केवल 376 किलोमीटर  दूर स्थित है और होसपेट निकटतम रेलवे स्टेशन  है। मैंने होटल आदि की बुकिंग के लिए  क्लब महिंद्रा के सदस्य होने के लाभ लिया और विजयश्री रिसोर्ट एवं हेरिटेज विलेज, मलपनगुडी , हम्पी रोड होसपेट में एक हेरिटेज कुटिया चार दिन के लिए आरक्षित करवा ली। घूमने के लिए टैक्सी और गाइड तो जरुरी थे ही और इनकी व्यवस्था हम्पी पहुचने के बाद हो गई।  रात भर बंगलौर से हम्पी की बस यात्रा के बाद जब हम रिसोर्ट पहुंचे तो पहला दिन तो आराम की बलि चढ गया। हाँ, शाम जरुर आनंददायक रही क्योंकि रिसार्ट के संचालक राजस्थान के हैं और उन्होंने अपने आगंतुकों के मनोरंजनार्थ राजस्थान के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की व्यवस्था की हुई है।हमने  दुलदुल घोड़ी के स्वागत नृत्य से लेकर मेहंदी लगाना, ग्रामीण ज्योतिष, स्वल्पाहार, जादूगर के कारनामे, राजस्थानी नृत्य व गीत-संगीत, ऊँट, घोड़े व बैलगाड़ी की सवारी के साथ साथ लगभग चौबीस  राजस्थानी व्यंजन से भरी थाली के भोज का भरपूर  आनंद सर पर राजस्थानी पगड़ी पहन कर  लिया।

अपने मार्गदर्शक की सलाह पर हमने तय किया कि पहले दिन बादामी फिर दुसरे दिन हम्पी और तीसरे दिन कोप्पल जिले में रामायण कालीन स्थलों को देखा जाय। दूसरे दिन हम बादामी के गुफा मंदिर देखने गए। बादामी चालुक्य वंश की राजधानी रही है। ब्रम्हा की चुल्लू से उत्पन्न होने  की  जनश्रुति वाले चालुक्य साम्राज्य का दक्षिण भारत के राज वंशों में प्रमुख स्थान है। पुलकेशिन प्रथम (ईस्वी सन 543- 566) से प्रारंभ इस राजवंश के शासकों ने लगभग 210 वर्षों तक कर्नाटक के इस क्षेत्र में राज्य किया और एहोली, पट्टदकल तथा बादामी में अनेक गुफा  मंदिरों व प्रस्तर इमारतों का निर्माण कराया।  कर्नाटक के बगलकोट जिले की ऊंची पहाडियों में स्थित बादामी गुफा का आकर्षण अद्भुत है। बादामी गुफा में निर्मित हिंदू और जैन धर्म के चार मंदिर अपनी खूबसूरत नक्‍काशी, मानव निर्मित अगस्त्य  झील और शिल्‍पकला के लिए प्रसिद्ध हैं। चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफा का दृश्‍य इसके शिल्‍पकारों की कुशलता का बखान करता है। बादामी गुफा में दो मंदिर भगवान विष्‍णु, एक भगवान शिव को समर्पित है और चौथा जैन मंदिर है। गुफा तक जाती सीढियां इसकी भव्‍यता में चार चांद लगाती हैं।6 वीं शताब्दी में चालुक्य राजवंश की राजधानी, बादामी, ऐतिहासिक ग्रंथों में वतापी, वातपीपुरा, वातपीनगरी और अग्याति तीर्थ के रूप में भी प्रसिद्द है। दो खड़ी पहाड़ी चट्टानों के बीच मलप्रभा  नदी के उद्गम स्थल के नजदीक है । बादामी गुफा मंदिर पहाड़ी चट्टान पर नरम बादामी बलुआ पत्थर से तैयार किए गए हैं।बादाम का रंग लिए हुए बादामी के पहाड़ पर चार गुफा मंदिर हैं।

बादामी हम्पी से लगभग 160 किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन एकल सड़क मार्ग होने के कारण यहाँ पहुचने में तीन घंटे से भी अधिक का समय लगता है। मार्ग में बनशंकरी देवालय है जोकि एक विशाल और आकर्षक मानव निर्मित सरोवर के किनारे अवस्थित है। कतिपय स्थल अब भग्नावस्था में है पर द्रविड शैली में निर्मित देवालय के अन्दर अष्टभुजी बनशंकरी देवी, जिसे शाकाम्बरी देवी भी कहा जाता है, की मूर्ति स्थापित है। बनशंकरी वस्तुतः वन देवी या वनस्पति की देवी है और विभिन्न धार्मिक यात्राओं के आयोजन पर देवी का श्रंगार शाक सब्जियों से किया जाता है।   बनशंकरी देवी को दुर्गा भी माना गया है और इसलिए   देवी के दाहिने हाथ में तलवार, बिगुल,त्रिशूल और  फंदा है तो बायाँ हाथों में कपाल, मानव का कटा हुआ शीष,ढाल व डमरू सुसज्जित है। मंदिर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर मार्गदर्शक ने हमें बताया कि यह मंदिर बादामी के राज्य के पहले से है और राष्ट्रकूट राजाओं ने भी इसका जीर्णोद्वार समय समय पर करवाया।

बादामी का प्रथम गुफा मंदिर  शिव के लिंग रूप  को समर्पित है। प्रवेश मंडप, सभा मंडप व गर्भगृह से युक्त इस गुफा मंदिर का निर्माण काल ईस्वी सं 543 माना गया है।गुफा के प्रवेश द्वार पर शैव द्वारपाल की प्रतिमा है जिसके नीचे गज बृषभ का शिल्प है जो  शिल्प कला के चरमोत्कर्ष का अनूठा उदाहरण है। इस कलाकृति में शिल्पकार ने दोनों प्राणियों का  मुख व देह  इस प्रकार उकेरे हैं की केवल ध्यान से देखने पर ही गजमुख व बृषभ मुख अलग अलग दिखते हैं।।  इस गुहालय में अठारह हाथ के नटराज की आकर्षक मूर्ति है, जो नृत्य  कला की चौरासी संयोजनों को दर्शाता है। सर्पों के अलावा शिव के हाथों में विभिन्न वाद्य यंत्र हैं जो तांडव नृत्य की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त भैंसासुर का वध करती हुई महिषासुर मर्दिनि का शिल्प अति सुन्दर है। इसी गुफा में शिव-पार्वती के अर्धनारीश्वर स्वरुप व शिव और विष्णु के हरिहर स्वरुप का आकर्षक शिल्प देखने योग्य है। इस शिल्प में शिव अर्ध चन्द्र, कपाल, बाघचर्म और अपनी सवारी नंदी से पहचाने जा सकते हैं तो विष्णु को शंख ,चक्र मुकुट धारण किये हुए दिखाया गया है। दोनों देवताओं के पार्श्व में उनकी अर्धांगनी पार्वती व लक्ष्मी भी शिल्पकार ने बड़ी खूबी के साथ उकेरी है।नंदी की सवारी करते शिव पार्वती व उनकी तपस्या में लीन कृशकाय  भागीरथ की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है ।

(बादामी में त्रिविक्रम शुक्राचार्य बुद्ध के रूप में )

बादामी की दूसरे नम्बर की गुफा विष्णु को समर्पित है और इसका निर्माण छठवी शती ईस्वी में किया गया था। यहाँ द्वारपाल के रूप में जय विजय प्रवेश द्वार में खड़े हुए उत्कीर्ण हैं। इस गुफा का आकर्षण बामन अवतार की कथा दर्शाती त्रिविक्रम की मूर्ति है। इस शिल्प में विष्णु की  अपनेबामन फिर  विराट स्वरुप में तीन पाद से भूमंडल नापते हुए, राजा बलि उनकी पत्नी विन्ध्यवली, पुत्र नमुची व गुरु शुक्राचार्य की कलाकृति उत्कीर्ण की गई है। विष्णु के तीसरे अवतार नर वराह व कमल पुष्प पर खडी हुई भूदेवी का शिल्प भी दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त इस गुफा मंदिर में समुद्र मंथन की कथा के माध्यम से विष्णु के  कच्छप अवतार, कृष्ण लीला कथा  के द्वारा कृष्ण अवतार व मत्स्य अवतार को भी बख़ूबी दर्शाया गया है। हमारे मार्गदर्शक से पता चला कि कहीं कहीं शिल्पियों ने अपने नाम भी मूर्तियों के मुखमंडल के पास उकेरे हैं। स्तंभों व गुफा की छत पर भी अनेक पुष्पों, जीव जंतुओं, देवी देवताओं के शिल्प दर्शनीय हैं।

बादामी गुफा के चारों मंदिरों में से तीसरे मंदिर का स्‍वरूप अत्‍यंत ही मनोहारी एवं विशाल है। इस गुफा मंदिर का निर्माण ईस्वी सं 578 में चालुक्य नरेश मंगलेश ने अपने बड़े भाई व पूर्व नरेश कीर्तिवर्मा की स्मृति में करवाया था।  इस मंदिर में शिव और विष्‍णु दोनों के विभिन्‍न रूपों को नक्‍काशी में उकेरा गया है। इसमें त्रिविक्रम, शंकरनारायण (हरिहर),  वराह अवतार को ओजपूर्ण शैली में उत्‍कीर्ण किया गया है। शेषनाग पर राजसी मुद्रा में बैठी हुई विष्णु की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है।इसके अतिरिक्त हिरण्यकश्यप का संहार करते नरसिह व बामन अवतार में विष्णु की प्रतिमा दर्शनीय है। बामन अवतार की मूर्ति सज्जा में बलि के गुरु शुक्राचार्य को बुद्ध के रूप में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त महाभारत व अन्य पौराणिक कथाओं, विभिन्न वैदिक देवी देवताओं , नृत्य करती स्त्रियाँ को भी सुन्दर शिल्प कला के द्वारा दर्शया गया है। गुफा 3 छत पर भित्तिचित्र भी है जो अब समय की मार झेलते झेलते धूमिल व फीके पड़ गए हैं। यहाँ के  भित्ति चित्र भारतीय  चित्रकला के सबसे पुराने ज्ञात प्रमाणों में से हैं। ब्रह्मा को भित्ति चित्र में हंस  वाहन पर दर्शाया गया है। शिव और पार्वती के विवाह में सम्मिलित विभिन्न हिंदू देवताओं के चित्र भी यहाँ दिखाई देते हैं।।

गुफा 3 के आगे और पूर्व में स्थित, गुफा क्रमांक  4  सबसे छोटी है। यह जैन धर्म के तीर्थंकरों को समर्पित है। इस गुफा मंदिर का निर्माण काल  7 वीं शताब्दी के बाद हो सकता है। अन्य गुफाओं की तरह, गुफा 4 में विस्तृत नक्काशी और रूपों की एक विविध श्रेणी शामिल है। गुफा में पांच चौकियों वाले प्रवेश द्वार हैं, जिनमें चार वर्ग स्तंभ हैं। गुफा के अंदर बाहुबली, पार्श्वनाथ  और महावीर के साथ  अन्य तीर्थंकरों के शिल्प  हैं। बाहुबली  अपने पैर के आसपास लिपटे दाखलताओं के साथ ध्यान मुद्रा में खड़े हुए हैं। पार्श्वनाथ को पंचमुखी नाग के साथ दिखाया गया है। महावीर एक आसन पर रखे हुए है। चौबीस जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएं भीतर के खंभे और दीवारों पर उत्कीर्ण होती हैं। इसके अलावा यक्ष, यक्ष और पद्मावती की मूर्तियां भी हैं।

बादामी से लगभग 22 किलोमीटर दूर पट्टदकल स्मारक समूह हैं, यूनेस्को द्वारा  वर्ष 1987 में पट्टदकल को ‘विश्व धरोहर’ की सूची में शामिल किया गया। चालुक्य साम्राज्य के दौरान पट्टदकल महत्वपूर्ण शहर हुआ करता था। उस दौरान ‘वातापी’ या  बादामी राजनीतिक केंद्र और राजधानी थी, जबकि पट्टदकल सांस्कृतिक राजधानी थी। यहाँ पर राजसी उत्सव और राजतिलक जैसे कार्यक्रम हुआ करते थे। द्रविड़, उत्तर भारत की नागर शैली तथा द्रविड़ व नागर के मिश्रित शैली  से बने दस   मंदिरों का यह समूह मलप्रभा नदी के किनारे स्थित है व चालुक्य नरेशों के द्वारा ईस्वी सं 733-45 के मध्य  निर्मित है।

यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण मन्दिर विरुपाक्ष मंदिर है, जिसे पहले ‘लोकेश्वर मन्दिर’ भी कहा जाता था। द्रविड़ शैली के इस शिव मन्दिर को विक्रमादित्य द्वितीय (734-745 ई.) की पत्नी लोक महादेवी ने बनवाया था। विरुपाक्ष मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के बीच में भी अंतराल है। विरुपाक्ष मंदिर के चारों ओर प्राचीर और एक सुन्दर द्वार है। द्वार मण्डपों पर द्वारपाल की प्रतिमाएँ हैं। एक द्वारपाल की गदा पर एक सर्प लिपटा हुआ है, जिसके कारण उसके मुख पर विस्मय एवं घबराहट के भावों की अभिव्यंजना बड़े कौशल के साथ अंकित की गई है। मुख्य मण्डप में स्तम्भों पर श्रृंगारिक दृश्यों का प्रदर्शन किया गया है। अन्य पर महाकाव्यों के चित्र उत्कीर्ण हैं। जिनमें हनुमान का रावण की सभा में आगमन, खर दूषण- युद्ध तथा सीता हरण के दृश्य उल्लेखनीय हैं ।

विरूपाक्ष मंदिर के बगल में ही शिव को समर्पित एक और  द्रविड़ शैली की भव्य संरंचना  मल्लिकार्जुन मंदिर है, जिसकी निर्माण कला विरूपाक्ष मंदिर के ही समान है पर आकूति छोटी है। इस मंदिर का निर्माण 745 ईस्वी में चालुक्य शासक विक्रमादित्य की दूसरी पत्नी ने करवाया था।मंदिर के मुख्य मंडप में स्तंभों पर रामायण, महाभारत वैदिक देवताओं की अद्भुत नक्काशी है। एक स्तम्भ में महारानी  के दरबार के दृष्यों को भी बड़ी सुन्दरता से दिखाया गया है।

पट्टदकल के मंदिर समूह में नागर शैली के चार मंदिरों मे से हमने आठवी सदी में निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। यह मदिर काफी ध्वस्त हो चुका है गर्भ गृह में काले पत्थर का आकर्षक शिव लिंग स्थापित है। मुख्य द्वार पर गरुड़ व सर्फ़ को दर्शाया गया है। अनेक स्तंभों पर विभिन्न मुद्राओं में स्त्रियों को उकेरा गया है। स्तंभों पर शिव पार्वती विवाह, कृष्ण लीला,रावण द्वारा कैलाश पर्वत को उठाने आदि का सुन्दर वर्णन प्रस्तर नक्काशी के द्वारा किया गया है।

मलप्रभा नदी के तट पर स्थित, ऐहोल या  आइहोल मध्यकालीन भारतीय कला और वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। इस गाँव को यह नाम यहाँ विद्वानों के रहने के कारण दिया गया।बादामी चालुक्य के शासनकाल में यह वास्तु  विद्या व मूर्तिकला सिखाने का प्रमुख केंद्र था।   यह कर्नाटक पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के समृद्ध अतीत को दर्शाता है, जिनमें चालुक्य भी शामिल थे। ऐहोल कुछ वर्षों तक चालुक्यों की राजधानी भी थी। यहां सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर हैं। ऐहोल में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला स्थान दुर्ग मंदिर है जो द्रविड़ वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। कहा जाता है कि यह मंदिर एक बौद्ध रॉक-कट चैत्य हॉल के तर्ज पर बनाया गया है। मंदिर में गर्भ गृह के चारो ओर प्रदिक्षणा पथ है तथा बाहरी दीवाल मजबूत चौकोर स्तंभों से वैसी ही बनी है जैसे हमारे संसद भवन में गोल स्तम्भ हैं।बाहरी दीवारों पर नरसिंह, महिषासुरमर्दिनी, वाराह, विष्णु, शिव व अर्धनारीश्वर की सुन्दर व चित्ताकर्षक शिल्पाकृति हैं। आठवी सदी में निर्मित एक देवालय की छत छप्पर जैसी है और इसलिए इसे कुटीर देवालय कहते हैं। लाड खान मंदिर भी  है, भगवान शिव को समर्पित, इस मंदिर का नाम कुछ समय तक यहां निवास करने वाले एक मुस्लिम राजकुमार के नाम पर रखा गया है। यह  पंचायत हॉल शैली की वास्तुकला में चालुक्यों द्वाराईस्वी सं 450 के आसपास बनाया गया था। सूर्य नारायण मंदिर में सूर्य की आकर्षक मूर्ति गर्भगृह में स्थापित है। ऐहोल के सबसे दर्शनीय स्थानों में से एक रावण फाड़ी का गुफा मंदिर है जो एक चट्टानी पहाड़ी के समीप  है जहां से इसे तराशकर बनाया गया है।इस गुफा मंदिर में नटराज शिव, पार्वती, गणेश, अर्धनारीश्वर आदि की सुन्दर मुर्तिया उकेरी गई हैं।  अन्य प्रसिद्ध मंदिरों में मेगुती जैन मंदिर और गलगनाथ मंदिर के समूह हैं। आइहोल से हमें हम्पी व्वा वापस पहुंचने में लगभग ढाई घंटे का समय लगा।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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