श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ऐसा माना जाता है कि राजा धाम देव और बीर देव से इस शक्तिशाली राजवंश का पतन शुरू हुआ। राजा बर्देव भारी कर वसूल करते थे और अपने लोगों को दास के रूप में काम करने के लिए मजबूर करते थे, राजा बर्देव ने अपनी ही मामी टीला से जबरन शादी कर ली। कहा जाता है कि कुमाऊंनी लोकगीत ‘ममी टाइल धरो बोला’ उसी दिन से लोकप्रिय हो गया था। बर्देव की मृत्यु के बाद राज्य उनके आठ पुत्रों के बीच विभाजित हो गया था और वे थोड़े समय के लिए इस क्षेत्र में अपने अलग-अलग छोटे राज्यों का निर्माण करने में सक्षम थे, जब तक कि चंद कत्यूरी रियासतों को हराकर इस क्षेत्र में उभरे और कुमाऊं के रूप में फिर से कुरमांचल को एकजुट किया। पिथौरागढ़ में अस्कोट के राजबर राजवंश की स्थापना 1279 ईस्वी में कत्यूरी राजाओं की एक शाखा द्वारा की गई थी, जिसका नेतृत्व अभय पाल देव ने किया था, जो कत्यूरी राजा ब्रह्मा देव के पोते थे। 1816 में सिघौली की संधि के माध्यम से ब्रिटिश राज का हिस्सा बनने तक राजवंश ने इस क्षेत्र पर शासन किया।

कत्यूरी वंश के अंतिम राजाओं की शक्ति क्षीण होने पर छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गए, तथा उन्होंने संगठित होकर अपने राज्य का विस्तार कर लिया। सम्पूर्ण कुमाऊँ में कोई एक शक्ति न थी, जो सबको अपने अधीन कर पाती। इस संक्रान्ति काल में राज्य बिखर गया तथा कत्यूरी राजाओं द्वारा प्रारंभ किए गए विकास कार्य या तो समाप्त हो गए या उनका स्वरूप ही बदल गया। कत्यूर वंश के अंतिम शासकों ने प्रजा पर अत्यधिक अत्याचार भी किए। उसी परम्परा में इस संक्राति काल में भी स्थानीय छोटे-छोटे राजाओं ने भी प्रजा पर अत्यधिक अत्याचार किए, परन्तु शनैः-शनैः चन्द्रवंशी राजाओं ने अपने एकछत्र राज्य की नींव डाली। चंद राजवंश की स्थापना सोम चंद ने 10 वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं को विस्थापित करके की थी, जो 7 वीं शताब्दी ईस्वी से इस क्षेत्र पर शासन कर रहे थे। उन्होंने अपने राज्य को कुरमांचल कहना जारी रखा। काली कुमाऊं जिसे काली नदी के आसपास होने के कारण कहा जाता है, की राजधानी चंपावत में स्थापित की। 11वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान इस राजधानी शहर में बने कई मंदिर आज भी मौजूद हैं, इसमें बालेश्वर और नागनाथ मंदिर शामिल हैं।

कुछ इतिहासकार चन्द्रवंशी शासन काल का प्रारंभ 1261 ई. से मानते हैं तो कुछ सन 953 से। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार चन्द्रवंश का प्रथम राजा सोमचन्द सन्‌ 700 ई. के आसपास गद्दी पर बैठा। चन्द्रवंशी राजाओं के कुमाऊँ में आने का कारण भी स्पष्ट नहीं है। विद्वानों के अनुसार कत्यूरी शासन की समाप्ति के बाद देशी राजाओं के अत्याचारों से दुखी प्रजा कन्नौज के राजा सोमचन्द के पास गई और उन्हें कुमाऊँ में शांति स्थापना के लिए आमंत्रित किया। अन्य इतिहासकारों के अनुसार सोमचन्द इलाहाबाद के पास स्थित झूंसी के राजपूत थे। सोमचन्द्र के बद्रीनाथ यात्रा पर आने पर सूर्यवंशी राजा ब्रह्मदेव ने उन्हें अपना मित्र बना लिया। सोमचन्द्र ने अपने व्यवहार एवं परिश्रम से एक छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया तथा कालांतर में खस राजाओं को हटाकर अपने राज्य का विस्तार कर लिया। इस प्रकार कुमाऊँ में चन्द्रवंश की स्थापना हुई। सम्पूर्ण काली, कुमाऊँ, ध्यानीरौ, चौमेसी, सालम, रंगोल पट्टियाँ चंद्रवंश के अधीन आ गई थीं। राजा महेन्द्र चंद (1790 ई.) के समय तक सम्पूर्ण कुमांऊं में चन्द राजाओं का पूर्ण अधिकार हो चुका था। साढ़े पांच सौ वर्षों की अवधि में चन्दों ने कुमाऊँ पर एकछत्र राज्य किया।

इसी समय कन्नौज आदि से कई ब्राह्मण जातियाँ कुमांऊँ में बसने के लिए आईं तथा उनके साथ छुआछूत, खानपान में भेद, वर्ण परम्परा एवं विवाह सम्बन्धी गोत्र जाति के भेद भी यहाँ के मूल निवासियों में प्रचलित हो गए, जो कुमाऊँ में आज भी है। चन्द राजाओं के शासन काल में कुमाऊँ में सर्वत्र सुधार तथा उन्नति के कार्य हुए। चन्दों ने जमीन, कर निर्धारण तथा गाँव प्रधान या मुखिया की नियुक्ति करने का कार्य किया। चन्द राजाओं का राज्य चिह्न ‘गाय’ था। तत्कालीन सिक्कों, मुहरों और झंडों पर यह अंकित किया जाता था। उत्तर भारत में औरंगजेब के शासनकाल में मुस्लिम संस्कृति से कुमाऊँनी संस्कृति का प्रचुर मात्रा में आदान-प्रदान हुआ। कुमाऊँ में मुस्लिम शासन कभी नहीं रहा, परन्तु ‘जहाँगीरनामा’ और ‘शाहनामा’ जैसी पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चंद राजाओं से मुगल दरबार का सीधा सम्बन्ध था। यद्यपि यह सम्बन्ध राजा से राज्य तक ही सीमित रहा परन्तु आगे चलकर यह संबंध भाषा व साहित्य में दृष्टिगोचर होने लगा। इसी समय कुमाऊँ भाषा में अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं के कई शब्द प्रयुक्त होने लगे।

अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में आपसी दुर्भावनाओं व राग-द्वेष के कारण चंद राजाओं की शक्ति बिखर गई थी। फलतः गोरखों ने अवसर का लाभ उठाकर हवालबाग के पास एक साधारण मुठभेड़ के बाद सन्‌ 1790 में अल्मोड़ा पर अपना अधिकार कर लिया। कुमाऊं पर गोरखा शासन 24 वर्षों तक चला। इस अवधि के दौरान स्थापत्य की उन्नति काली नदी को अल्मोड़ा के रास्ते श्रीनगर से जोड़ने वाली एक सड़क थी। गोरखा काल के दौरान अल्मोड़ा कुमाऊं का सबसे बड़ा शहर था, और अनुमान है कि इसमें लगभग 1000 घर हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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