श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “बने रहो….।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆

☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆ 

मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर  महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी।  जोड़ लगाई ।

” 9 धन  6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।

तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला !  दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”

” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ”  यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”

” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।

” सर!  यह क्या किया?  आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”

यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा!  देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”

बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ”  सर!  मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।” 

” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए।  मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”

मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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