डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. अक्सर  समय एवं परिवेश बच्चों की विचारधारा को भी परिपक्व बना देता है. आज प्रस्तुत है  उनकी एक ऐसी ही लघुकथा  “दयालु लोग” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 17 ☆

 

☆ लघुकथा – दयालु लोग ☆

मिसेज़ लाल के घर महीना भर पहले नयी बाई लगी है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन के लिए। बाई अच्छी है लेकिन दुबली-पतली, बीमार सी है। इसलिए कभी खुद आती है, कभी अपनी बारह-चौदह साल की बेटी गिन्नी को भेज देती है।

मिसेज़ लाल काम के मामले में काफी सख्त हैं, हर काम को बारीकी से देखती हैं। बड़ी सफाई-पसन्द हैं। लेकिन काम खत्म होने के बाद बाइयों के प्रति उदार हो जाती हैं। चाय पिला देती हैं और घर-परिवार के बारे में फुरसत से गप भी लगा लेती हैं।

बाई के काम पर लगने के कुछ दिन बाद ही मिसेज़ लाल की आठ साल की बेटी का जन्मदिन आया। जन्मदिन का आयोजन हुआ। मिसेज़ लाल बाई से बोलीं, ‘शाम को गिन्नी को भेज देना। वो भी डॉली के बर्थडे में शामिल हो लेगी।’

शाम को जन्मदिन मनाया गया, सब बच्चे आये, लेकिन गिन्नी नहीं आयी। दूसरे दिन मिसेज़ लाल ने बाई से शिकायत की, ‘कल गिन्नी नहीं आयी?’

बाई संकोच में हँसकर बोली, ‘हाँ, नहीं आ पायी।’

लेकिन मिसेज़ लाल के मन में नाराज़ी थी कि उनकी उदारता के बावजूद गिन्नी नहीं आयी थी। बोलीं, ‘वजह क्या थी? क्यों नहीं आयी?’

बाई सिर झुकाकर बोली, ‘कुछ नहीं, पगली है।’

मिसेज़ लाल अड़ गयीं, बोलीं, ‘आखिर कुछ वजह तो होगी। क्या कहती थी?’

बाई ज़मीन पर नज़रें टिकाकर बोली, ‘अरे क्या बतायें! कहती थी कि वहाँ जाएंगे तो कुछ न कुछ काम करना पड़ेगा। इसीलिए नहीं आयी।’

मिसेज़ लाल, कमर पर हाथ धरे, बाई का मुँह देखती रह गयीं।

परिहार

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