श्री राकेश कुमार
(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला का पहला भाग।)
☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज स्थानीय समाचार पत्र में एक ब्रांडेड गुड़ का विज्ञापन छपा था “डॉ. गुड़” तो अचंभा लगा कि गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ को विज्ञापन की क्या आवश्यकता आ गई ? ब्रांड का नाम ही रखना था तो “वैद्य गुड़” कर सकते थे। ये तो वही बात हो गई गुरु (वैद्य) गुड़ रह गया चेला (डॉ.) शक्कर हो गया। माहत्मा गांधी ने सही कहा था “अंग्रेज देश में ही रह जाए परंतु अंग्रेज़ी वापिस जानी चाहिए”, लेकिन हुआ इसका विपरीत अंग्रेज़ तो चले गए और अंग्रेज़ी छोड़ गए।
देश में हापुड़ को गुड़ की मंडी का नाम दिया गया है। दक्षिण भारत में तो अंका पली का डंका बजता हैं। उत्तर भारत को सबसे बड़ा आई टी केंद्र गुरुग्राम भी तो गुड़ का गांव (गुड़गांव) ही था। कुछ वर्ष पूर्व दैनिक पेपर में अनाज और अन्य जिंसों की भाव तालिका प्रतिदिन छपा करती थी, आज की युवा पीढ़ी क्रय करने से पूर्व मूल्य पर कम ही ध्यान देती हैं।
हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है, यही बात शक्कर (चीनी) पर भी लागू होती है। गुड़ सोना है,और चीनी चांदी है। हालांकि ये बात शुगर लॉबी वालों को हज़म नहीं होगी, उनके निज़ी स्वार्थ जो जुड़े हैं। खांडसारी कुटीर उद्योग को तो शुगर इंडस्ट्री कब का चट कर गई।
अब लेखनी को विराम देता हूँ, गुड़ की चाय पीने के बाद दूसरा भाग लिखूंगा।
अगले सप्ताह पढ़िए गुड़ की चाय पीने के बाद का अगला भाग …..
© श्री राकेश कुमार
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