हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 102 – मन के पार जाना ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #102 🌻 मन के पार जाना 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।

एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।

जनक के जीवन में एक उल्लेख है।

जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।

एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।

गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।

जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?

यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।

सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।

बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।

लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।

वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए, लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।

सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।

सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।

उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।

रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?

उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।

गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।

उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला…। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?

किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।

सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।

रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।

रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।

अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।

मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह जो सम्राट जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो जाना।

जैसे ही मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।

गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।

चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।

‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’ वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।

संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।

इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।

साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कथा ♣ खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ बाल कथा खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

‘मिल गया! पन्द्रह का एक बता रहा था। बीस में दो दे दिया। यानी दस की एक फूल गोभी!’ बेनीबाबू जंगफतह करनेवाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गये। आलू, बैगन, अदरक, छीमी एवं सर्वोपरि गोभी से भरे झोले को सँभालते हुए वे जल्दी जल्दी घर लौट रहे थे।

दोनों तरफ सड़क पर सब्जीवाले बैठे हैं। कोई हाँक रहा है, ‘बीस में डेढ़, टमाटर ढेर।’ उधर ठेले के पास खड़ा फलवाला नारा बुलंद कर रहा है, ‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ल ऽ भर बस्ता!’

तार पर बैठे कपिकुल सोच रहे हैं – मौका मिले तो झपट कर अमरूद उठा लावें। सौ फीसदी फोकट में।

वैसे, भाशा विज्ञान का एक प्रश्न है – पेड़ की शाखा पर विचरने के कारण अगर बंदरों का नाम शाखामृग पड़ा, तो आजकल के टेलिफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उनका नाम तारमृग भी क्यों न हो?

बाबू बेनीपूरी ने ख्याल नहीं किया – भीड़ में कोई उनके पीछे पीछे चलने लगा था। उनको ‘फॉलो’ कर रहा था एक विशालकाय काला साँड़-‘बच्चू, तू अकेले अकेले सब खायेगा? हजम नहीं होगा बे। एक फूलगोभी तो मुझे देते जा।’ भच्च्…भच्च्…..उसके नथूने फूलने लगे  ……

ध्वनि से चौंककर बेनीपुरी ने पीछे मुड़कर देखा – अरे सत्यानाश हो! झोले में पैर भरकर भागे। कुछ कुछ उड़ते हुए ……

‘अबे भाग कहाँ रहा है? सरकार का टैक्स है, पुलिस गुंडे – सबका टैक्स है। हमारा टैक्स नहीं देगा? चल गोभी निकाल।’ साँड़ दौड़ा उनके पीछे …..

बेनीबाबू भागे आगे -‘ना मानूं, ना मानूं, ना मानूं रे! दगाबाज तेरी बतिया ना मानूँ रे!’

‘अबे तुझे हजम नहीं होगा। तेरे पेट से निकलेगी गंगा। तेरा खानदान न रहेगा चंगा।’ सांड को गुस्सा आ गया। विलम्बित से द्रुत लय में उसके कदम चलने लगे ……

एक राही ने कहा, ‘भाई साहब, भागिए -’

दूसरे ने यूएनओ स्टाइल में समझौता करवाना चाहा, ‘एक गोभी उसके आगे फेंक कर घर जाइये।’ यानी संधिपत्र पर हस्ताक्षर।

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? ऐ दिल, कहाँ तेरी मंजिल ? तड़पने लगे बेनीबाबू। तभी ध्यान आया दाहिने बिस्नाथ गल्ली के ठीक सामने पुलिस चौकी  है। और कोई न बचाये, – खाकी, अपनी रख लो लाज! बचा लो मुसीबत से आज।

सीन नंबर टू। दौड़ते हाँफते हुए हाथ में थैला लटकाये बेनीबाबू का थाने में प्रवेश ……

सुबह सुबह नहा धोकर बलीराम दरोगा अंगोछा यूनिफार्म में उस समय हनुमानजी की तस्वीर के सामने दीया घुमा रहे थे – ‘श्री गुरुचरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ……’

थम गये उनके हाथ,‘अरे रे रे – इ का हो रहा है? तुम – आप कौन हैं? ए पाँड़ेजी, इ कौन अंदर दाखिल हो गया? देखिए तो -’

‘वो साँड़ मुझे फॉलो कर रहा है, सर।’

‘साँड़ ? फॉलो? वो कोई गुंडा बदमाश होता तो कोई बात होती।’

‘अरे साब, इ तो गुंडा बदमाश से भी बीस नहीं, बाईस है।’

बाहर से पाँड़ेजी की मुनादी,‘लीजिए, उ पधार चुके हैं।’

इसी बीच दरोगा के ऑफिस  के अंदर काला पहाड़ का प्रवेश।

चौंक कर बलीराम ने दीया वहीं टेबुल पर रख दिया। ‘प्रभु, जब तुम छलांग  लगा कर सागर लाँघ सकते हो, तो आज अपनी आरती खुद नहीं कर लीजिएगा? टोटल हनुमान चालीसा खुदे नहीं कंप्लीट  कर लीजिएगा ?’

इतने में साँड़ झपटा बेनीपुरी की ओर। वह छुप गये दरोगा के पीछे। शुरु हो गया म्युजिकल चेयर रेस। टेबुल के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं तीनों। सबसे पहले बेनीपुरी, उनके पीछे बलीराम, और दोनों  को खदेड़ता हुआ काला पहाड़….

‘अरे पाँड़ेजी इसको भगाओ। नहीं तो तुम सबको लाइन हाजिर कराऊँगा।’ मिलिट्री स्टाइल में बलीराम का आर्तनाद।

‘सा‘ब, हम का करें? मामूली चोर उचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं। इ तो महादेव का नंदी है। कैसे सँभाले?’ पाँड़ेजी की सत्यवादिता।

उधर झूम झूम कर, घूम घूम कर चल रहा है तीनों का चक्कर। बीच में मेज को घेर कर ……

दरोगा ने आदेश दिया, ‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो।’

‘हमलोग दरवाजा खोल रहे हैं, हुजूर। आप अंदर से उसे बाहर हाँकिए।’

‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है। मैं कैसे हाँकूंगा? इस आदमी को यहाँ से निकाल बाहर करो।’

‘आपही लोग जनता की रक्षा नहीं कीजिएगा, तो कौन हमें बचायेगा?’

‘निकलते हो कि -’बेनीपुरी पर बलीराम झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें। साँड़ लपका उनपर। तुरंत बेनीपुरी ने टेबुल के नीचे आसन जमा लिया। हाथ में झोला सँभाले हुए।

साँड़ भौंचक रह गया। गोभीवाला बाबू गया कहाँ ? उसे दरोगा पर गुस्सा आ गया – कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली? खट्…खट्…..खट्….. वह बलीराम के पीछे, ‘छुप गये तारे नजारे सारे, ओय क्या बात हो गयी! तुमने गोभी चुरायी तो दिन में रात हो गयी !’

बलीराम के ऑफिस  के सामने हवालात का दरवाजा था खुला। वह पहुँचे अंदर, ‘अरे पाँड़े, हवालात का दरवाजा बंद करो। जल्दी।’

पाँड़े ने तुरन्त आदेश का पालन किया।

साँड़ बंद हवालात के सामने फुँफकारने लगा, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा। मैं प्रजा हूँ, तुम हो राजा। भूखे की गोभी मत छीनो। सुना नही क्या अरे कमीनो?’

इसके बाद क्या हुआ, मत पूछिए। दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत स्टोरी छपी थी।

हाँ, इतना बता सकता हूँ कि मिसेज बेनिपुरी को दोनों फूलगोभी मिल गयी थीं। सही सलामत!

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सुख की खोज ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सुख की खोज ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

इस धरती पर सुख की कामना हर प्राणी करता है। उसके सारे क्रियाकलाप प्रत्यक्ष हों या परोक्ष उसे सुख प्राप्ति की दिशा में ही आगे बढ़ाने के लिये चलते रहते हैं। उसकी पंच ज्ञानेन्द्रियां जिनके द्वारा वह अनुभव पाता है या रस प्राप्त करता है, उसे किसी न किसी सुखानुभूति के लिये काम करने में लगाये रहती हैं। देखने, सुनने, संूघने, स्वाद पाने या सुखद स्पर्श प्राप्त करने की लालसा व्यक्ति के मन में निरन्तर रहती है। कभी एक इच्छा बलवती होती है, कभी दूसरी। कामना के इसी प्रपंच में फंसा जीवन एक मकड़ी की भांति नित नये जाल बुनता रहता है व एक दिन उसी में उलझकर समाप्त हो जाता है। वास्तव में ये सभी इन्द्रियों के सुख तात्कालिक और क्षणिक होते हैं तथा पुनरावृत्ति की प्यास बढाने वाले होते हैं। सुखों को जितना उपभोग होता है प्यास उतनी ही अधिक गहराती जाती है और फिर फिर प्राप्ति की आकांक्षा बढ़ती जाती है। रसोपभोग की पुनरावृत्ति एक दुर्निवार रुग्णता या विकार का रूप ले लेती है।

व्यक्ति में सुख प्राप्ति की इच्छा जन्मजात व स्वाभाविक है। वह उसी की खोज में व्यस्त रहता है। बारीकी से देखने पर समझ में आता है कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति भी ऐसा सब सुख की प्राप्ति के लिये ही करता है। अपने तात्कालिक असहय दुखों से मुक्ति पाना भी तो सुख पाने की दिशा में बढऩा ही है। जब से संसार का सृजन हुआ है तब से जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी का जीवन क्रम उसी रीति-नीति पर चलता आया है। वह है सुख की कामना- प्रयत्न-प्राप्ति-रसोपभोग-अतृप्ति-क्रमिक शारीरिक क्षय और विनाश। तथाकथित सुख पाकर भी सुख पाया नहीं जाता। सुख प्राप्तिकी नित्य कामना कभी पूरी नहीं होती। इसका सरल अर्थ यही है कि सच्चा सुख जिसे हर व्यक्ति चाहता है इस संसार में कहीं नहीं है। यदि वह चाहिये हो तो उसकी खोज कहीं अन्यत्र की जानी चाहिये।

सुख के स्वरूप में भी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। किसी को खाने में, किसी को गाने में, किसी को संग्रह में, किसी को विग्रह में, किसी को दान में, किसी को सम्मान में, और ये भी व्यक्ति की अलग-अलग मनोदशाओं पर विविधता लिये हुये। भिन्न रुचिहि लोभ:। जितने लोग उतनी उनकी रुचियों और सुख लालसाओं में भिन्नता। एक व्यक्ति धनी मानी होकर भी दुखी रहता है और दूसरा निर्धन होकर भी सुख की नींद सोता है। यह सिद्ध करता है कि सुख बाह्य उपलब्ध साधनों से प्राप्त नहीं होता, आंतरिक मनोवृत्तियों से मिलता है। अगर ऐसा है तो सुख का मूल उत्स मन ही है। मन में ही उसकी खोज की जानी चाहिये। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’। अर्थात् जीव आत्मा परमात्मा का अंश है। परमात्मा सत् चित आनन्द रूप है इसलिये उसका अंश आत्मा में भी वही गुण स्वभाविक है।

सच्चे सुख-परम आनन्द जो नित्य है, को पाने के लिये आत्मज्ञान चाहिये, आत्मा को समझना जरूरी है, अपने वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये अपने अन्तकरण को टटोलना, भीतर झांककर देखना आवश्यक है। जिसे अपने अन्तकरण में परमानंद ईश्वर के दर्शन हो गये उसे संसार तृणवत दिखता है और मनमंदिर में परम चिन्तन शांति और सम्पूर्ण सुख प्राप्त हो जाता है। सुख का भंडार अपने मन में ही है बाह्य आडम्बरों में नहीं अत: अन्तर्मुखी हो, सुख के हेतु अपने भीतर ही खोज की जानी चाहिये। यदि दुनियां के प्रपंच से हटकर मन शुद्ध और शांत हो गया, तो प्रभु के दर्शन सुलभ है और सब सुख प्राप्त हो जाना कठिन नहीं। कबीर कहते हैं-

मन ऐसो निर्मल भयो जैसो गंगा नीर।

पीछे पीछे हरि फिरें कहत कबीर कबीर॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ६ ऑगस्ट – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ ६ ऑगस्ट – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दत्तात्रय पांडुरंग खांबेटे

द. पां. खांबेटे यांनी मराठी साहित्यात वेगळ्या प्रकारचे म्हणजे युद्धकथा, हेरकथा, विज्ञान काल्पनिका, परमाणूशास्त्र यासह अध्यात्म आणि भविष्य या विषयांवर लेखन केले आहे. शिवाय अनेक वर्षे ते हंस, मोहिनी व नवल या मासिकांत नियमितपणे दरमहा लेखन करत होते.

सोमाजी गोमाजी कापसे, भाऊ हर्णेकर, रमाकांत वालावलकर, मुमुक्षू, ज्ञानभिक्षू, के. दत्त, प्रज्ञानंद, अवधूत आंजर्लेकर ही त्यांची लेखनातील टोपणनावे.

निवडक साहित्य:

आटप, अरे आटप लवकर-रहस्यकथा

माझं नाव रमाकांत वालावलकर.

दहा निळे पुरूष. . विज्ञान काल्पनिक

चंद्रावरचा खून. . गूढ कथा

न्यूनगंड. . . मानसशास्त्र

वयाच्या 71 व्या वर्षी 1983 मध्ये त्यांचे निधन झाले.🙏

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महमहोपाध्याय डाॅ. ब्रह्मानंद देशपांडे

डाॅ. ब्रह्मानंद देशपांडे हे प्रसिद्ध वक्ते, इतिहास संशोधक व महानुभाव पंथाचे अभ्यासक होते. त्यांना मराठी, हिंदी, इंग्रजी, संस्कृत,गुजराती, कन्नड, बंगाली, उर्दू, बुंदेलखंडी व छत्तीसगढी अशा दहा भाषा येत होत्या. शिवाय ब्राह्मि, फारसी आणि मोडी लिपीचे ते तज्ञ होते.

महानुभाव या मासिकाचे ते कार्यकारी संपादक होते. त्यांचे दिडशेहून अधिक शोधनिबंध प्रसिद्ध झाले आहेत. त्यांनी आकाशवाणीवर अनेक रूपके, परीक्षणे सादर केली आहेत. महानुभाव व जैन साहित्याचे ते अभ्यासक होते.

त्यांचे चौतिसहून अधिक संशोधनपर ग्रंथ प्रकाशित झाले आहेत. त्यापैकी काही असे:

इये नाथांचिये नगरी, चक्रपाणी चिंतन, देवगिरीचे यादव, रत्नमाला स्तोत्र, शब्दवेध, सप्तपर्णी, लिळाचरित्र  एकांक इत्यादी.

प्राप्त सन्मान :

18वी अखिल महाराष्ट्र इतिहास परिषद, श्रीगोंदे चे अध्यक्ष.

‘देवगिरीचे यादव’ ला महा. राज्याचे उत्कृष्ट ग्रंथ निर्मिती पुरस्कार

‘रत्नमाला स्तोत्र’ ला महानुभाव विश्वभारती पुरस्कार

दिवाकर रावते भूमिपूत्र पुरस्कार

संत साहित्य संशोधन पुरस्कार

उत्तर भारतीय ब्राह्मण महासंघातर्फे त्यांना महामहोपाध्याय ही पदवी प्रदान करण्यात आली होती.

वयाच्या 73व्या वर्षी 2013 मध्ये त्यांचे दुःखद निधन झाले. 🙏

☆☆☆☆☆

कृष्णशास्त्री राजवाडे

कृष्णशास्त्री हे साहित्य व अलंकारशास्त्र ह्या विषयांचे अभ्यासक व अध्यापक होते. ब्रिटिश काळात त्यांची शिक्षण खात्याच्या भाषांतर विभागात नेमणूक झाली. (1856). अलंकारविवेक हा त्यांचा उल्लेखनिय ग्रंथ. यात संस्कृतातील अलंकारांचा परिचय करून देण्यात आला आहे. मराठी रचनांच्या संदर्भासह व उदाहरणांसह हा ग्रंथ असल्यामुळे संस्कृत साहित्य मराठीत आणण्याचा हा पहिला प्रयत्न ठरतो.

त्यांनी मालतीमाधव, मुद्राराक्षस, शाकुंतल, महावीरचरित या नाटकांचे मराठी अनुवाद केले आहेत. ऋतुवर्णन आणि उत्सवप्रकाश ही काव्ये रचली आहेत.

पुणे येथे 1885 साली भरलेल्या दुस-या मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

1820 ते 1901 हा त्यांचा कालखंड. वयाच्या 81 व्या वर्षी ते पुणे येथे निवर्तले.🙏

☆☆☆☆☆

लक्ष्मण लोंढे

मराठी साहित्यात विज्ञान कथा लेखन करण्-या लेखकांतील आघाडीचे लेखक !

वयाच्या 50 व्या वर्षी स्वेच्छानिवृत्ती स्विकारून पूर्ण वेळ विज्ञान कथा लेखनासाठी दिला.

‘सायन्स टुडे’ या नियतकालिकात त्यांची दुसरा आईनस्टाईन ही कथा इंग्रजीत प्रसिद्ध झाली. या कथेला जागतिक सर्वोत्कृष्ट कथा हा पुरस्कार कन्सास विद्यापिठाकडून मिळाला. जगातील निवडक विज्ञान कथांमध्येही या कथेची निवड झाली. मराठी लेखकाला हा सन्मान प्रथमच मिळाला होता.

लक्ष्मण लोंढे यांचे प्रकाशित साहित्य:

अस घडली नाही. . . कादंबरी

आणि वसंत पुन्हा बहरला

कारकीर्द

काउंट डाऊन

गुंता

थॅक यू मि. फॅरेड

दुसरा आईनस्टाईन

धर्मयोद्धा, लक्ष्मण उवाच, लक्ष्मण झुला, वाळूचे गाणे इत्यादी

प्राप्त पुरस्कार: शांताराम कथा पुरस्कार

लक्ष्मण लोंढे यांचे 2015 मध्ये वयाच्या 70 व्या वर्षी निधन झाले.

मराठी साहित्यात वेगवेगळ्या प्रकारचे लेखन व संशोधन केलेल्या या चारही साहित्यिकांचा आज स्मृतीदिन आहे. त्यांच्या कार्यास व स्मृतीस नम्र अभिवादन.🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया, मराठी विश्वकोश, विकीवॅन्ड.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – श्री अमोल केळकर – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

श्री अमोल केळकर

💐अ भि नं द न 💐

आपल्या समुहातील लेखक व कवी श्री अमोल केळकर यांना,  त्यांच्या ‘माझी टवाळखोरी’  या विडंबन लेखन पुस्तकास आचार्य अत्रे स्मृती प्रतिष्ठान संचलित विनोद विद्यापीठ, पुणे यांचा पुरस्कार प्राप्त झाला आहे. त्यांच्या पहिल्याच पुस्तकास पुरस्कार प्राप्त झाल्याबद्दल त्यांचे ई-अभिव्यक्ती मराठी तर्फे  विशेष कौतुक व अभिनंदन!   

💐 श्री अमोल केळकर यांचे ई अभिव्यक्ती मराठी समुहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पंचमी ☆ आनंदराव (नंदकुमार) रघुनाथ जाधव ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पंचमी ☆  आनंदराव (नंदकुमार) रघुनाथ जाधव ☆

सख्या सयांनो चला ग

सख्या सयांनो चला ग

 

पंचमीच्या सणाला

झीम्मा फुगडी खेळायला

हातात बिलवर पाटल्या ग

लेकी सुना नटल्या ग

 

कपाळी कुंकू सजल ग

पायात पैंजण वाजलं ग

झन झन टाळ्या वाजल्या ग

सख्या सया जमल्या ग

 

जरतारी शालू नेसुया

ऊंच झोका चढवूया

दण दण फुगडी फिरवुया

घम घम घागर घुमवूया

 

फेर धरून गावुया

गर गर गिरक्या घेऊया

तालात सुरात गावुया

देवाच दर्शन घेऊया

 

सख्या सयांनो चला ग

सख्या सयांनो चला ग

 

आई बापाची माया आठवूया

माहेरची थोरवी गाऊया

बहीण भावाची सय आली ग

जिवाची घालमेल झाली ग

 

माहेरचा सांगावा आला ग

आनंदी आनंद झाला ग

नाकत नथ बाई सोन्याचा

पती देव माझा गुणाचा

 

पतीच गुणगान गावुया

संसारी सुखान नांदुया

गळ्यात गंठण सजवुया

देव्हारा फुलान भरवुया

 

अंगणी रांगोळी रंगवूया

दारी तोरणं लावूया

श्रावण महिना मोठा ग

सनाला नाही तोटा ग

 

सख्या सयांनो चला ग

सख्या सयांनो चला ग

 

© श्री आनंदराव (नंदकुमार) रघुनाथ जाधव

सांगली ८८३०२००३८९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 114 – अंधश्रद्धा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 114 – अंधश्रद्धा ☆

भुलू नका चलाखीला

दांभिकांचा फास न्यारा ।

जादू  टोणा नसे खरा

भावनांचा खेळ सारा।

 

होई नवसाने मूल

उठवली कोणी भूल

द्यावे सोडून अज्ञान

घ्यावी विज्ञान चाहूल ।

 

खाणे कोंबडी बकरी

धर्म नसे माणसांचा।

स्वार्थासाठी नका देऊ

बळी असा निष्पापांचा।

 

देऊनिया नरबळी

कसा पावे वनमाळी ।

वैरभाव साधण्यास

सैतानाची येई हाळी।

 

उगवल्या दिवसाला

कर्तृत्वाने सिद्ध करू।

शुभाशुभ नसे काही

मत्रं नवा मनी स्मरू।

 

परंपरा जुन्या सार्‍या

विज्ञानाची जोड देऊ।

चित्ती डोळस श्रद्धेने

भविष्याचा वेध घेऊ। 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वेध लागले श्रावणाचे… ऋतू बरवा ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

?  विविधा  ?

☆ वेध लागले श्रावणाचे… ऋतू बरवा ☆ सौ राधिका भांडारकर  ☆

श्रावणातले दिवसच हिरवे हसरे सुखद!! या श्रावण महिन्याला एक सुगंध आहे.. जाई जुई मोगर्‍याचा दरवळ आहे. सभोवताली दाट हिरवळ आहे. शिवारात पीकांचा डौल आहे.फुटणार्‍या कणसांचा परिमळ आहे. सृष्टी कशी तृप्त तजेलदार आहे. पावसांच्या सरींची शीतल, आनंददायी बरसात आहे. सर्वत्र चैतन्य, उत्साह आणि एक प्रकारची प्रसन्न व्यस्तता आहे.. नेमाने येणार्‍या या श्रावणाची इंद्रधनु रुपे मनांत कशी साठलेली आहेत.

श्रावण महिना म्हणजे सणांचा सोहळाच. घराघरात हे पारंपारिक साजरेपण सजते.पारंपारिक पदार्थांचांही  सुगंध वातावरणात भरुन असतो..

खरोखरच श्रावणमासी सुगंधाच्या राशी…

नवविवाहीतांसाठी श्रावणी सोमवारची शिवामूठ, मंगळवारची मंगळागौर .. त्यानिमीत्ताने नटणे मुरडणे.. ठेवणीतल्या पैठण्या आणि अलंकारांचा साज…

श्रावण महिना म्हणजे जिकडे तिकडे सौंदर्याचा, पावित्र्य, मांगल्याचाच वर्षाव..

श्रावणातले सणही किती अर्थपूर्ण!! नागपंचमीच्या नागपूजेतून  सृष्टीच्या चराचराला एक आदराचे स्थान देण्याचीच भावना असते. बहिणभावांच्या प्रेमाचे रक्षाबंधन… कोळी आणि समुद्राचे अतूट नाते सांगणारी नारळी पौर्णीमा. उधाणलेल्या दर्यात नारळ टाकून त्याला पूजण्याचा संकेत किती भावपूर्ण आहे…

सण आणि निसर्ग यांचा भावपूर्ण मेळ साधणारा.. गोकुळअष्टमीच्या गोविंदाइतकं गोजीरवाणं

तर अद्वितीयच!! तो डाळींबाचे दाणे घालून नारळ पोह्यांचा प्रसादकाला … त्याची चवच न्यारी.खरं म्हणजे पिठोरी अमावस्या म्हणजे मातृदिनच. सुरेख आकाराचे पीठाचे दिवे पेटवून माता मुलांना दीपदान देते. त्यांच्या उजळ भविष्यासाठी प्रार्थना करते…

श्रावणातला अत्यंत कृतज्ञतेचा दिवस म्हणजे बैलपोळा..

घराघरात खीर पुरणाचा बेत घडतो. ढवळे पवळे नटतात. सजतात, रंगतात.

बळीराजाची अर्धांगिनी त्यांच्या मुखी औक्षण करुन प्रेमाचा घास भरवते….

खरोखरच श्रावण महिना म्हणजे प्रेम कृतज्ञता..

श्रावण महिना म्हणजे मांगल्य ‘पावित्र्य…

आनदाचे डोही आनंदाचेच तरंग… सौंदर्याचा अजोड अविष्कार…

आषाढ सरतो आणि श्रावण येतो..

सृष्टी नटते. अवखळ झर्‍यांचा नाद घुमतो.

डोंगर माथे ढगांशी गुजगोष्टी करतात.

भिजल्या घरट्यात पक्षी कुचकुचतात..

रानफुले आनंदे डुलतात…

सप्तरंगांची उधळणच होते….

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ किमया – भाग-4 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ किमया – भाग-4 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

(त्यांनी आपल्या अश्रूंना, हुंदक्यांना रोखून ठेवायचा प्रयत्नही केला नाही. बऱ्याच वेळानं त्यांना हलकं हलकं वाटू लागलं.) आता पुढे…

सकाळी उठल्यावर पुन्हा मनाची तीच विचित्र अवस्था!

माझ्या मुलांना मी नकोशी झालेय, आता मी कुणासाठी, कशासाठी आणि कशाच्या जोरावर जगायचं? देवानं आपल्याला लवकर मरण द्यावं. हे आणि असले सगळे निराशावादी विचार त्यांना थकवून टाकू लागले. मनाची शक्ती खेचून घेऊ लागले. मन विचारातून बाहेर पडायला तयारच होईना.दुःखाच्या भावनेला ते गोंजारतच राहिलं.

तशा त्या बुद्धिवादी, मानसशास्त्राचा अभ्यास असलेल्या, वाचनवेड्या… इतरांना निराशेच्या गर्तेतून बाहेर काढण्यासाठी त्या समुपदेशन  करायच्या. त्यांच्या त्याच बुद्धीने उचल खाल्ली. जे  उपाय त्या दुसऱ्यांना सांगायच्या, ते स्वतः अंमलात आणायला त्यांनी सुरुवात केली.’ यातून तुला बाहेर पडावच लागेल’ असं स्वतःला बजावून त्यांनी प्रयत्न सुरू केले. प्राणायाम, ध्यानधारणा ,त्या जोडीला रिकाम्या वेळी स्तोत्रपठण, जप जाप, देवपूजा हे सगळं सुरू झालं. वेळ चांगला जाऊ लागला. मन त्यात  थोडसं रमलंही, पण मनाची उलाघाल  कमी होत नव्हती. डिप्रेशन जात नव्हतं.आला दिवस- गेला दिवस करत आयुष्य ढकललं जात होतं.

असंच एकदा कपाटातून कपडे काढत असताना ऊतू आलेल्या कप्प्यातले सगळे कपडे त्यांच्या अंगावर कोसळले. त्यात श्रीधरपंतांचा फोटो पण होता. एकदम चपापून त्यांनी फोटो व्यवस्थित ठेवला…पतीच्या फोटोतल्या हसऱ्या चेहऱ्याकडे त्या टक लावून पहात राहिल्या. हार्ट फेलनंअर्ध्या संसारातून उठून गेलेले श्रीधरपंत…. त्यांच्या माघारी आठ जणांच्या मोठा संसार लिलया पेलेल्या त्या…. सगळे वैवाहिक जीवनातले सुखदुःखाचे प्रसंग त्यांना आठवले…. आणि नंतर त्यांचे मन पतीला कैफियतच सांगू लागले.

‘बघा ना, अठरा वर्षाची मी, जेव्हा उंबरठ्यावरचे माप ओलांडून या घरात आले तेव्हा घरात तुमच्या मावशी ,आत्या आणि आई तीन-तीन वडीलधारी मंडळी होती. मावशी, आत्या म्हाताऱ्या.. तर आई कायमच्या आजारी!… ते लग्नानंतरचे नव्या नवलाईचे दिवस असूनही, मला कधीही त्यांची अडचण वाटली नाही. आणि असेही कधी वाटले नाही कीआई वडिलांनी मला वृद्धाश्रमात किंवा नर्सिंग होम मध्ये ढकलून दिलंय. प्रेम मिळालं ,प्रेम दिलं ,सगळ्यांची तंत्रं सांभाळत संसार आनंदोत्सवा सारखा साजरा केला…. पण आता जग बदललंय. एकत्र कुटुंबाच्या संस्कारात वाढलेली आपली मुलंही सगळे संस्कार विसरलीत. ती निर्मम, व्यवहारी आणि स्वार्थी झालीत. त्यांना पंखाबरोबरच शिंगही फुटलीत. आणि ते धाकटं रत्न कामिनी… ती तर पहिल्यापासूनच बेछूट बोलणारी आणि उद्धटपणे वागणारी…. नकळत पोटात वाढणारा चौथा जीव …तो आपल्याला नको होता. पण वडीलधाऱ्यांचा मान राखून आपण तो निर्णय नाही घेतला. ही गोष्ट लहानपणीच कधीतरी मावशींकडून कळल्यापासून.   “मी अनवॉन्टेड बेबी …. निगलेक्टेड चाईल्ड आहे…. ही शस्त्र पाजरत आपल्या सगळ्या मागण्या, हट्ट तिने पुरे करून घेतलेते… हे तर तुम्ही जाणताच. पण आता ती तिने तर फार पुढची पायरी गाठलीय.’लिव्ह इन रिलेशन ‘मधे राहू लागलीय. अन् आता तिच्या वागण्या- बोलण्याला ताळतंत्रच नाही राहिलाय…..

इतर कोणालाही न सांगितलेली, मनात साठलेली खंत पतीसमोर उघडी करून त्यांना खूप हलकं वाटलं. पण त्यांच्या हेही लक्षात आलं की  मन फारच हटवादी झालंय. सारखं आपलं… एकाकी पडल्याचं, निराधार झाल्याचं दुःख गोंजारत राहिलंय. सगळं कळतंय पण वळत नाही ही त्याची अवस्था… दुसऱ्यांना समुपदेशन करणं सोपं असतं पण आपल्यावर तशी वेळ आल्यावर त्यातून बाहेर पडणं किती अवघड असतं हेही त्यांच्या लक्षात आलं होतं.

संध्याकाळची वेळ…. गच्चीतून रस्त्यावरची रहदारी त्या पाहत होत्या खऱ्या पण मन नाही नाही त्या विचारात भरकट होतं. अचानक आपल्या सुकलेल्या टेरेस गार्डनकडे त्यांचे लक्ष गेले. आपले जीवन पण या बागेसारखेच वाळून कोळ झालेय. मनात विचार चक्र चालूच होतं ….’किती अभिमान होता मला आपल्या बागेचा आणि समृद्ध आयुष्याचा. पण हाती काय लागलं ?’विचार.. विचार… नुसतेच विचार!

सहजच त्या पुढे झाल्या आणि कुंड्यातल्या वाळलेल्या रोपट्यांच्या काड्या मोडू लागल्या. वाळकी रोपं उपटू लागल्या….आणि जशा त्या वृंदावनातल्या तुळशीच्या काड्या उपटू लागल्या तशी एक किमयाच घडली…… डोळ्यावर विश्वास ठेवणंच शक्य नव्हतं… अद्भुत… अतर्क्य…..तुळशीच्या वाळलेल्या रोपट्यांच्या मुळात त्यांना दोन हिरवे तजेलदार छोटेसे टिपके दिसले. जिवंतपणानं चमकत दमकत असलेले… चष्म्याची काच पुसून निरखून त्यांनी खात्री करून घेतली. होय ,ती तुळशीची इवली इवली, पोपटी पानंच होती. हा सुखद आश्चर्याचा मोठा धक्काच होता.खरंतर या दुष्काळी प्रांतात महिनोंन् महिने पाणी न मिळाल्यानं इतर झाडं, रोपं ,वेली वाळून कोळपून गेल्या होत्या.पण तिथंच हे तुळशीचं रोप पुन्हा मुळातनं जिवंत होऊन उठलं होतं. इतक्या विपरीत, खडतर परिस्थितीत आपलं अस्तित्व टिकवून ठेवून होतं…. आपल्या जिवंतपणाची साक्ष देत होतं. त्या भारावून गेल्या.अत्यानंदानं त्यांचे डोळे भरून आले. त्यांच्या डोळ्यातून वाहणाऱ्या अश्रूंबरोबर जणू त्यांच्या मनातील मळभ आणि अवसाद ही वाहून जात होता. मन ज्या दु:खाला कवटाळून बसलं होतं ते आपलं दुःख किती क्षूद्र आहे. आलेल्या कठीण परिस्थितीचा आपण धैर्याने सामना केला पाहिजे त्या इवल्याशा रोपट्यासारखा.असे विचार मनात येताच एक अपूर्व शांतीनं त्यांचं मन भरून गेलं. असा अनुभव त्यांना पूर्वी कधीच आला नव्हता. तुळशीच्या रोपातली जगण्याची तीव्र इच्छा त्यांच्यातला आशावाद जागृत करून गेली. नव्या चैतन्यानं त्यांचं मन भरून गेलं.जे काहीतरी आपल्यातून निघून गेलेय हरवलंयअसं त्यांना वाटत होतं…. ते.. हे चैतन्यच!… त्यांच्या मनाला उभारी आली.  त्या इवल्याशा दोन पोपटी पानांनी केलेल्या किमयेमुळं त्यांच्या मनाची सगळी कवाडं उघडून गेली. तिथे आता किंतू-परंतूला जागाच उरली नव्हती. आता जीवन यात्रेतील पुढची वाट त्यांना स्वच्छ प्रकाशानं उजळून गेल्या सारखी वाटत होती.

क्रमशः…

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ श्रावण…. ले . – कविता ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆  श्रावण…. ले . – कविता ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

तिन्ही सांजेला तेलाचा दिवा, तुपाचं निरांजन लावून केलेल्या दिपपूजनानंतर प्रकाशमान होणारं घर आणि त्यांत मिसळलेले शुभंकरोतीचे सूर .. ‘ दिव्याची आवस ‘ म्हणून जाड कणिक आणि केशरी गूळ वापरून केलेले खमंग दिवे आणि त्यावर मुक्तहस्ते घातलेलं रवाळ तूप… म्हणजेच येणाऱ्या श्रावणाची चाहूल !!

डबाभर चिरलेला पिवळा धम्मक गूळ, हरभरा डाळ, भाजलेले दाणे, फुटाणे, दाण्याचं खमंग कूट, नुकतीच करून ठेवलेली वेलचीची पूड, उपासाची भाजणी, राजगिरा लाडू व खजूर यांनी भरलेले डबे, म्हणजेच श्रावणाच्या स्वागतासाठी सजलेलं घरातलं स्वयंपाकघर !!

जिवतीचा फोटो, कहाण्यांचे पुस्तक, स्वच्छ घासून चमकणारं पळीपंचपात्र , दिव्यांनी सजलेलं देवघर, फुलपुडीतून डोकावणाऱ्या दुर्वा- आघाडा- फुलं आणि सगळी मरगळ झटकून सजलेेलं घर म्हणजेच श्रावणाचं आगमन !!

श्रावण म्हणजे आवर्जून करायचं पुरण, भाजणीचे वडे, नारळी भात, नारळाच्या वडया, वालाचं बिरडं, गव्हाची खीर, हारोळ्याचे लाडू, भोपळयाचे घारगे, गाकर, पुरणाची पोळी, पुरणाचे दिंड आणि दूध फुटाण्याचा नैवेद्य.. श्रावण म्हणजे वेगवेेगळ्या चवींतून घरांत दरवळणारा गंध !!

श्रावण म्हणजे बहीण भावाच्या प्रेमाची राखी, आईने मुलांसाठी केलेली जिवतीची पूजा, शुक्रवारी मुलांच केलेलं पुरणाचं औक्षण, आपल्या घरासाठी सर्वांच्या आनंदासाठी केलेली देवीची पूजा, माहेरची येणारी आठवण, म्हणून आई वहिनीकडे झालेलं सवाष्ण जेवण व मैत्रिणींबरोबर सजलेली मंगळागौर.. प्रत्येक नात्याला जपणारा हा श्रावण, अनेक रंगांची उधळण करत येणारा श्रावण !!

श्रावण म्हणजे गाभाऱ्यात उमटणारे ओंकार.. श्रावण म्हणजे समईतल्या शुभ्र प्रकाशात दिसणारं पांढऱ्या फुलांनी सजलेलं शिवलिंग, कापसाच्या वस्त्रानं, हळदी कुंकवाच्या करंड्यानं, धूप- अगरबत्ती- दिवा आणि चंदनाने सजलेलं पूजेचं ताट, गोकर्ण- जाई- जुई- तगर- जास्वंद- बेल- दुर्वा- पत्री- तुळस- यांनी सजलेली पूजेची परडी. श्रावण म्हणजे प्राजक्ताच्या सडयाने नटलेलं आणि श्रावण सरींनी सजलेलं माझं आंगण !!

श्रावण म्हणजे हिरवा ऋतू  .. या सजलेल्या निसर्गाच्या बरोबरीने सजायचे दिवस.. कांकणांची किणकीण, काचेचा चुडा, हातावरची मेंदी, जरी काठाच्या साड्या, केसात जुईचा गजरा, पायीच्या जोडव्यांचा आवाज, गळ्यांत मंगळसूत्राबरोबर चमकणारा सर, कानांत कुड्या आणि पायांत पैंजण.. म्हणजेच घरातही भेटणारा, सजवणारा  श्रावण !!

श्रावण म्हणजे आठवणींची सर.. श्रावण म्हणजे डोळे मिटतां केवड्याच्या पानाचा पसरलेला गंध..  तर कधी तिच्या चाहुलीने दरवळणारा सभोवताल… श्रावण म्हणजे नेमाने देवळांत जाणाऱ्या तिची आठवण करून देणारा सण..  तर कधी मंगळागौर उजवताना तिला दिलेल्या वाणाची एक गोड आठवण.. श्रावण म्हणजे शुक्रवारी न चुकता तिनं केलेलं औक्षण, माहेरवाशीण म्हणून भरलेली ओटी आणि तिने आग्रहानं खाऊ घातलेली पुरणाची मऊसूत पोळी.. श्रावण म्हणजे देव्हाऱ्यात समईच्या मंद प्रकाशात दिसणारं तिचं प्रसन्न रूप….  

श्रावण म्हणजे आई तुझ्या आठवणींचा पाऊस !!!

ले . – कविता

संग्राहिका : स्मिता पंडित 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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