मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग पहिला ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

 ☆ आत्मसंवाद – फिरुनी नवी जन्मेन मी – भाग पहिला ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

सूर्य, चंद्र, ग्रह, तारे, आकाशगंगा सारे आपापल्या मार्गाने वाटचाल करत असतात. तोच सूर्य आणि तोच चंद्र. तरीही सकाळ झाली की आपण म्हणतो सूर्योदय झाला. चंद्राच्या वाढत्या आणि कमी होणाऱ्या कला पाहून आपण रोज रात्री नव्यान चंद्र बघितल्याची  अनुभूती घेत असतो. मलाही स्वत:च्या बाबतीत तसंच काहीसं वाटलं. रोज उगवणारा दिवस वेगळा. त्या दिवसाची आव्हानं, कर्तव्य, कामगिऱ्या यात वेगळेपणा असतो. त्यानुसार आपण दिनचर्येत बारीक बारीक बदल करत असतो. एका तत्त्ववेत्त्याने म्हटलंय, आजचा मी कालच्या मीपेक्षा वेगळा आहे. वाटलं, बरोबर आहे. जीवनाच्या धकाधकीत येणाऱ्या नित्यनव्या अनुभवांमुळे आपली मतं बदलत राहतात. विशेषत: अडचणीच्या काळात आप्तेष्टांची खरी कसोटी होते. आपल्या भवतालाविषयी, मित्र, सखेसोयरे यांच्याविषयी आपले काही आडाखे असतात. अनुभवानुसार आपण त्यातही बदल करतच असतो. तेव्हा जीवनात ‘बदल’ हाच ‘नित्य’ असतो. कालची मी आज नाही. रोज माझा नव्यानं जन्म होत असतो, असा मला विश्वास वाटतो.

   संसारिक जबाबदाऱ्या काही प्रमाणात कमी झाल्या. मुलं आपापल्या शिक्षणात गुंतली होती. तेव्हा माझी मैत्रीण डॉक्टर मीना वैशंपायन हिने सुचवल्यामुळे मी मुंबईच्या एशियाटिक सोसायटीच्या लायब्ररीची आजीव सभासद झाले. टाऊन हॉलमधल्या त्या भव्य प्रांगणात शिरल्यावर अंगावर शहारे आले. मन भरून आलं. अगणित रॅक्स. ओळीने ठेवलेली लाखो पुस्तकं पाहिल्यावर लहान मुलाला खेळण्यांच्या भल्या मोठया दुकानात शिरल्यावर वाटेल, तशी माझ्या मनाची अवस्था झाली. तेव्हापासून पुस्तकांचं वेड लागलं. जगभरातली महत्त्वाची साप्ताहिकं, पाक्षिकं, मासिकं आणि नामवंत लेखकांची पुस्तकं असा हा कितीही लुटला तरी न संपणारा खजिना. ज्ञात-अज्ञात लेखकांची पुस्तकं वाचली. नोबेल पारितोषिक मिळवलेल्या लेखकांची पुस्तकं वाचली, काही नजरली. सीमित जगातून मी या असीम जगात प्रवेश केला होता. इथे अनेक नामवंत लेखक, प्रकाशक, कवी, प्राध्यापक अशा ज्ञानी मंडळींची उठबस बघत होते. नवीन ओळखी होत होत्या. तिथेच भेटले निवृत्त चीफ म्युनिसिपल इंजिनिअर पी.जी. उर्फ नाना जोशी.

   नाना जोशी ‘नवी क्षितिजे’ नावाचं एक अनियतकालिक काढत असत. माझ्या मासिकासाठी लिहा, असा त्यांचा सततचा आग्रह. मी म्हणत असे, ‘आजवरच्या आयुष्यात मी एक ओळही लिहिली नाही. मला कसं लिहिता येईल?’ शेवटी विषय आणि त्याला लागणारं साहित्य देत ते मला म्हणाले, ‘हे वाचून भारतीय भोजनातल्या विलायती भाज्या असा दीर्घ लेख तयार करा’. मी बाचकतच कामाला लागले. माझा लेख त्यांच्या पसंतीस उतरला. हा लेखन प्रवास दीर्घकाळ चालू राहिला. चहा, कॉफी, कोको, साखर, मीठ..एक ना दोन. सगळ्यांचे इतिहास लिहून झाल्यावर नाना जोशी विविध शास्त्रीय लेख देऊन त्यावरून मराठीत लेख लिहायला सांगू लागले. डोरिस लेसिंग ही नावाजलेली ब्रिटीश लेखिका. तिच्या आत्मचरित्राचे दोन खंड आणि इतर अनेक कादंबऱ्या आमच्या वाचनालयात होत्या. नानांनी त्याचा परामर्श मला घ्यायला सांगितला. मायक्रोबायॉलॉजी आणि पॅथॉलॉजीचा डिप्लोमा, यानंतर संसारात बुडून गेलेली मी, साहित्याचा तसा वारा लागला नव्हता. तरीही माझ्या अल्प मतीला जमेल त्यानुसार मी तीही कामगिरी पार पाडली. नाना जोशी यांनी त्याचे पुस्तक प्रकाशित केले. त्यांच्या मनात अनंत विषयांची यादी तयार असे. पुढचा विषय होता डार्विनची उत्क्रांती

   दिसामाजी काहीतरी ते लिहावे, प्रसंगी अखंडित वाचीत जावे या समर्थांच्या उक्तीनुसार माझी कृती चालू होती. नवीन ज्ञानाची भर पडत होती. नवीन लेखक भेटत होते आणि मी रोज नव्यानं जन्म घेत होते.

क्रमश:….

© सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. ई-मेल आयडी [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #79 – 1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा #79-1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ”)

☆ जीवन यात्रा #79 – 1 –हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ 

सम्पूर्ण उत्तर भारत में मनाये जाने वाले इस लोक त्योहार की छटा बुन्देलखण्ड में निराली है। रक्षा बन्धन के बाद भादौ कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को मनाये जाने वाले इस लोक उत्सव पर मातायें अपने-अपने पुत्रों की दीर्घायु की कामना के लिए कठोर वृत रखती हैं। वे प्रात: काल स्नानादि से निवृत्त हो पूजा स्थल को भैंस के गोबर से लीपकर कांस,झरबेरी व पलाश (छेवला, टेसू) की पत्तोंयुक्त टहनियों (हलषष्ट) को गोबर की गोल गेन्द में गाडकर पूजन करती हैं तथा बांस की छोटी -छोटी छह टोकरियों में गेहूँ के आटे की अठवाइ,भुन्जे हुये सात धान, ज्वार की लाई व सूखे महुआ के अलावा पतियों व बच्चों के हाथ बन्धी राखी हलषष्ट को  अर्पित करती हैं।ये दोने बाद   में पुत्रों को खाने के लिए दे दिये जाते हैं। इस दिन मातायें उपवास रखती हैं और फलाहार में जंगली फल,महुआ, पसई (एक प्रकार की घास) के चावल व भैंस का दूध-दही ग्रहण करती हैं।  हल चलाकर उपजे अनाज का प्रयोग  पूर्णत: वर्जित और यदि पड़वा ब्यायी भैंस का दूध मिल जाय तो सोने में सुहागा ।  देखिए सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण बांस की टोकरी बनाने वाला बसोंर (दलित) ,भैस का दूध लाने वाला अहीर,जंगली फल व हलषष्टी की पूजन सामग्री लाने वाला आदिवासी गौड़ और पूजन अर्चन के लिए पंडितजी तो है ही यानी गांव के हर हाथ को काम।पुराने जमाने का स्किल इन्डिया और मेक इन इन्डिया।

यह दिन कृष्ण के बड़े भाई बलदेव का जन्मदिन भी है। बलदेव हल के आविष्कर्ता हैं। जब समाज में गोपालन प्रथम पंसद है तब भैस पालन के प्रणेता कृषि विज्ञानीै। बलदेवजी के मन्दिर कम हैं पर एक मन्दिर मेरे पिता की जन्मभूमि पन्ना में अवस्थित है।

इस त्योहार पर मैं अपने परिवार की मातृशक्ति को नमन करता हूँ। मेरे पिताजी (स्व. श्री रेवा शंकर) व उनके तीन भाइयों, मेरे काका (स्व. श्री प्रभा, श्री कृपा व ज्ञान शंकर) तथा तीन बहनों, मेरी फोई  (आ. सरला,उर्मिला व निर्मला) की जननी मेरी दादी स्व.रामकुंअर (पत्नी पं. गोविन्द शंकर) जिन्होंने मेरे पिताजी व काका, फोई (बुआ) का लालन पालन करने में अनेक कष्ट सहे व अपनी दो अन्य जेठानी स्व. रुक्मिणी (पत्नी पं. प्रेम शंकर) व स्व. सीता (पत्नी पं. हरी शंकर) के साथ  हम बालवृन्दों को ना जाने कितनी जीवन रक्षक घुट्टी पिला कर स्वस्थ रख हलषष्टी की सदियों पुरानी परंपरा को मेरी माँ (स्व.कमला)  वा काकियों (आ. निर्मला, कुन्ती व रश्मि) को सौंपा।रूढ़िवादी जड़ परम्परा की चिर विद्रोही मेरी  माँ ने मुझे,  मेरी दो बहनों ( रीता व नीता) तथा छोटे भाई अतुल के लालन-पालन में ना जाने कितनी रातें बिना सोये गुजारी, जीवन पर्यन्त हलषष्टी पर पसई के बेस्वाद चावल खाये और जब तक जीवित रहीं हम भाई-बहनो की सुख समृद्धि की कामना की। हम सभी स्वस्थ,  समृद्ध व प्रसन्न हैं । मैं चिरॠिणी हूँ हमारी इन सभी माताओं (दादी, माँ, काकी,फोई) का।

इस अवसर पर यदि मैं अपनी पत्नी अलका व भैयाहू नीता का उल्लेख ना करूँ तो यह अन्याय होगा।  दोनों मातृशक्ति हैं, मेरे विस्तृत परिवार की अगली पीढ़ी की, जननी हैं, मेरे पुत्र अग्रेष, भतीजे अनिमेष व पुत्री निधि की, जो हमारे परिवार की सनातन परम्परा के वाहक हैं। पितृॠिण से मुक्ती प्राप्ति  की  मेरी अभिलाषा के दूत हैं।  इन मातृशक्तियों का भी आभार।

इसी वर्ष हमारे परिवार में एक और मातृ शक्ति का उदय हुआ I हमारी पुत्रवधू श्रुति ने हमें दादा बनने का सुख दिया I हमारी पौत्री मीरा की जननी श्रुति ने हमारे बाबूजी रेवाशंकर डनायक और माँ कमला की वंश परम्परा में एक परी  जोड़ी है , आज हरछट पर श्रुति का एक माता के रूप में भी अभिनन्दन I

इस पूरी कडी में एक और नाम है, मेरे पिताजी की ज्येष्ठ चचेरी बहन का।  उन्होंने ना केवल अपने सभी भाइयों को वरन अपनें भतीजों हम बालकों को भी मातृवृत का स्नेह दिया। वे और कोई नहीं हमारी आ.स्व. गायत्री फोई है। उन्हें भी मेरा नमन।

लिखते-लिखते, मैं नम आखों से,  मातृशक्ति की उपस्थिति  और आशीर्वाद का अनुभव कर रहा हूं।  अधिक वर्णन अब इन अविरल अश्रुधाराके मध्य अतिदुष्कर है। 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी  ने किया है। इस श्रंखला की यह अंतिम कड़ी है। )  

‘नवरत्न’ परिवार में मेरा प्रवेश होने के साथ ही नृत्य के साथ मेरी साहित्य की रूचि दिन-ब-दिन बढ़ने लगी, वह बढ़ती ही गई। हम सब सहेलियों का ‘काव्य कट्टा’ बीच-बीच में रंग भर रहा था। उससे स्फूर्ती लेकर मेरी कलम से काव्य रचनाएँ  प्रकट होने लगी ।

ऐसा कहा जाता है ‘संगति साथ दोष’। फिर भी मेरे साथ संगति के साथ काव्य बनता रहा। सहजता से अच्छी अच्छी कविताएं मैं  लिखने लगी। विशेषकर  यह कहना चाहती हूँ, हमारी सहेली सौ. जेरे मौसी, जो ७७ बरस की थी, उन्होंने मुझे अच्छी राह दिखाई। काव्य कैसे  प्रकट होना चाहिए, लुभावना कैसे होना चाहिए यह सिखाया।

मेरा पहला काव्य ‘मानसपूजा’ प्रभू विठ्ठल की षोडशोपचार पूजा काव्य में गुंफ दी। कोजागिरी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक मैं मम्मी के साथ घर के नजदीक विठोबा मंदिर में सुबह ५ बजे काकड़ आरती के लिए जाती थी। मंदिर की अभंगवाणी, आरती मेरे मन में दिनभर गूँजती  थी। उससे ही मेरे यह काव्य कागज पर उतरने लगे।

एक एक प्रसंग के रूप में बहुत सी कविताएं मैंने लिख दी। मैं मन ही मन में कविता रचाकर ध्यान में रखती थी। जब वक्त मिलेगा तब गोखले चाची को फोन पर बताती थी। हमारा वक्त दोपहर ३ बजे तय हो गया था। मैं मेरे घर के फोन से कविता बताती थी। चाची वह कागज पर लिखती थी। मेरे फोन की घंटी बजने से पहले ही चाची कागज, कलम लेकर तैयार रहती थी। इसी तरह काव्य जल्द ही- जल्द कागज पर उतरने लगा। मेरे मन और मस्तिष्क को ज्ञान का भंडार मिल गया। हमेशा मन और मस्तिष्क ज्यादा से ज्यादा काम करने लगा।

मेरे मामा जी हिमालय दर्शन करके आए थे। उन्होने मुझे और मम्मी को उनके प्रवास का इतना रसीला वर्णन कहा कि हमें लगा हम दोनों हिमालय का दर्शन करके आए हैं। मेरे मन में, मस्तिष्क में हिमालय की काव्य रचना होने लगी। सच में मेरे नेत्रविहीन दृष्टी के सामने हिमालय खड़ा हो गया। हिमालय की कविता तैयार हो गई। मेरी कविता सबको बहुत अच्छी लगी।

ऐसे समय के साथ कविता बनने लगी।

—————-समाप्त——————-

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ -२२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-2 – डॉ. हंसा दीप ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हंसा दीप जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार का अंतिम भागअब तक आप पढ़ चुके हैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार- साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी,  श्री संतराम पांडेय जी और श्री कैलाश मंडलेकर जी के आत्मसाक्षात्कार।

डॉ. हंसा दीप जी के इस आत्मसाक्षात्कार के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी के विशेष सहयोग के लिए हार्दिक आभार।  

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-2 – बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास …..  डॉ. हंसा दीप 

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय 

जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)

प्रकाशन 

  • उपन्यास – “बंदमुट्ठी”,  “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
  • कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।  
  • संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।  
  • पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
  • भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
  • कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
  • कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
  • सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।

सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।

न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

☆ भाग -2 – बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास ….  डॉ हंसा दीप ☆

आत्मसाक्षात्कार का प्रथम भाग >> भाग -1 – किताबें पढ़ने और समझने का जुनून, न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं….  डॉ. हंसा दीप

वाह मित्र, दो युग का खाका तो तुमने खींच दिया अब मैं उत्साहित हूँ तीसरे युग के बारे में सुनने के लिए।

जरूर सुनो, लंबी कहानी है।

कोई बात नहीं।

यह तीसरा युग आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से युक्त था। विश्व के बहुचर्चित महानगर न्यूयॉर्क की अट्टालिकाओं ने मेरे छोटे से हिन्दीमय व्यक्तित्व को आत्मसात तो किया पर लिखना छूटने लगा। भीड़ में खुद की पहचान बनाना फिर से अ, आ से शुरू करने जैसा था। बच्चे प्रगति कर रहे थे पर स्वयं की दशा विचित्र थी। धार महाविद्यालय की आत्मीय यादें न्यूयॉर्क जैसे महानगर को बहुत छोटा कर देती थीं। बहनों की, भाइयों की, अपने धार के खास मित्रों की यादों में घुलना अच्छा नहीं लगता था। हर फोन के साथ यह कहना कि “सब ठीक है” और उत्तर पाना – “यहाँ भी सब ठीक है” लंबी दूरी के रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाता रहा। बच्चियाँ भी बड़ी हो रही थीं। परदेश में उनकी शादी के सपने देखना भी खौफ़नाक लगता था।

ये बात तो है। तो क्या बहुत तनाव थे?

तनाव नहीं कहूँगी, पर हाँ चिंताएँ थीं।

तो फिर क्या किया तुमने?

बस कुछ सालों के लिए विराम लिया खुद से और उस जीवन से, जो पीछे छोड़ आयी थी। एक ही फोकस था, बच्चों का ध्यान रखना। तब लिखने में ठहराव आया।जब कथानक सोच में कुलबुलाते तो कागज पर लिखकर रख देती। कई अन्य नौकरियों के प्रस्ताव आते पर एक निश्चय बना रहा कि यदि मुझे काम करना है तो हिन्दी ही पढ़ाऊँगी, कोई दूसरी नौकरी नहीं करूँगी। इस प्रण से रास्ते सीमित हो गए पर बंद नहीं हुए। स्वयंसेवी के रूप में न्यूयॉर्क के फ्लशिंग में हिन्दू सेंटर में हिन्दी पढ़ाना शुरू हुआ तो कई लोग जानने लगे। हिन्दी पढ़ाते हुए मैं हिन्दी वाली दीदी कही जाने लगी। सदा मन में यह गर्व था कि भारत से दूर रहकर भी हिन्दी पढ़ाकर मैं मातृभूमि से जुड़ी हूँ। न्यूयॉर्क के क्वीन्स कॉलेज से कई अंग्रेज़ी के डिप्लोमा कोर्स भी किए।

ओहो, तो ये था न्यूयॉर्क शहर का पड़ाव? लेकिन फिर कैनेडा आना कैसे हुआ?

अगला पड़ाव टोरंटो, कैनेडा था जब धर्म जी ने नौकरी छोड़कर यहीं बसने का फैसला लिया। पाँच साल से जो आशा थी धार महाविद्यालय में फिर से जाकर सहायक प्राध्यापक की नौकरी जारी रखने की, अब वह भी खत्म हो गयी थी।

अच्छा अमेरिका से कैनेडा, विदेश में भी एक देश से दूसरे देश में!

हाँ, मित्र। सुनना अच्छा लगता है लेकिन है बहुत कठिन।

फिर से नये देश में, सेटल होना तो कठिन होगा ही। बताती रहो। तुम्हारी कहानी बड़ी रोचक होती जा रही है।

कहानी नहीं, सच्चाई है। एक बार फिर नया शहर था, नया देश था, नए लोग थे और कटे हुए पौधे को नयी जमीन की तलाश थी। भाषा को जीविका बनाने के ध्येय के साथ एक अनुवाद कंपनी खोली , दीपट्रांसइंक.।कंपनी के अध्यक्ष के रूप में अनुवाद का नया काम शुरू किया। कई प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्मों के हिन्दी में अनुवाद किए। इस नए काम से भाषा तो प्रखर हुई ही साथ ही साथ अनुवाद की चुनौतियाँ और इसके महत्व को भी विस्तार से समझा। यह यूनिकोड फांट्स के पहले का समय था जब हिन्दी के लिए तकनीकी समस्याओं से जूझना पड़ रहा था।

अच्छा, यूनिवर्सिटी में हिन्दी शिक्षण की शुरुआत यहाँ कैनेडा में हुई।

हाँ, बस यही समय था जब हिन्दीशिक्षण के लिए रास्तों की खोज जारी थी। तीन-चार सालों की अनवरत कोशिशों के बाद यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर बन कर हिन्दी कक्षाएँ शुरू करना मील का पत्थर था। यॉर्क यूनिवर्सिटी की कक्षा में खड़े होकर भारत के महाविद्यालय की अपनी कक्षा का आभास होना ज़ाहिर-सा था। यहाँ की कक्षा में छात्रों के चेहरे बता रहे थे कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। ये भारत की बी.ए., एम.ए. की कक्षाएँ नहीं थीं। अपनी स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की हिन्दी को बिगिनर्स के स्तर पर लाना था। समय की मांग ने अपने अहिन्दी भाषी छात्रों की सुविधा के लिए कोर्स पैक बनाने के लिए मजबूर किया जिनके द्वारा हिन्दी को अंग्रेज़ी में समझाया जा सके। बिगिनर्स और इंटरमीडिएट कोर्स के लिए लगातार दो साल मेहनत करके पुस्तकें एवं ऑडियो सीडी तैयार कीं। 

यहाँ तक आते-आते तो तुम विदेशी कक्षाओं के माहौल में आत्मविश्वास से भरपूर हो गयी होगी?

हाँ, दो साल की समयावधि में एक ही बात पर ध्यान दिया कि हिन्दी को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का सरल से सरल तरीका क्या है।

हम्म, मेहनत तो की तुमने।

हाँ, और फल भी मिला। इन अथक प्रयासों से हिन्दी पढ़ाने का आत्मविश्वास चरम पर था। उसके बाद तो गति और भी तेज़ हो गयी जब यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो से प्रस्ताव आया। यहाँ मेरे मसीहा थे डॉ. चलवा कनगनायकम, यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के सेंट जार्ज कैम्पस के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष। वे उन दिनों साउथ एशियन स्टडीज़ के चेयर थे। उन्होंने मेरे कोर्सपैक की बहुत तारीफ़ की एवं मेरी कक्षाओं में एक ऑडीटर की तरह बैठकर हिन्दी सीखी। उनसे एक दिन परिहास करते हुए मैंने कहा – “सर आप कक्षा में होते हैं तो मेरी रोज ही परीक्षा हो जाती है।” उनका जवाब था – “ऐसी परीक्षाओं से ही इंसान सफल होता है।”

गजब का अनुभव रहा होगा ये कि लैंग्वेजस्टडीज विभाग के अध्यक्ष तुम्हारी कक्षा में बैठकर हिन्दी सीखे।

हाँ, पूरा ध्यान तब अपनी हिन्दी कक्षाओं पर ही था।

तो फिर लेखन की ओर ध्यान कब दिया?

समय मानों उड़ रहा था। 2007 तक थोड़ी राहत मिली तब सोचा इतनी कहानियाँ लिखी हुई हैं। अखबारों व पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी हैं तो क्यों न उन्हें एक संकलन के रूप में लाया जाए। बस उन्हीं दिनों गर्मी की छुट्टियों में अपनी कहानियों का पहला संकलन “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन की योजना बन गयी। सुना था कि विदेश में रहने वाले लेखकों को पुस्तक छपवाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं परन्तु मेरे साथ उल्टा हुआ। मेरठ के डायनामिक पब्लिकेशन के श्री सत्येन्द्र रस्तोगी ने न केवल पुस्तक प्रकाशित की बल्कि रॉयल्टी भी दी। यह सब संयोग था या भाग्य पर मेरे लिए बहुत संतोषजनक था। हर नयी यात्रा में जो पीछे छूटता था उसका दु:ख कम सालने लगा इस उम्मीद में कि कुछ नया मेरा इंतज़ार कर रहा है। जमी-जमायी जड़ें कटती रहीं तो कुछ समय के बाद उन्हें और भी नयी उर्वरक मिट्टी मिलती रही फलने-फूलने के लिए। “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन से मेरी उड़ान में कुछ पंख और लगे।

पहला कहानी संग्रह आने के बाद लिखना फिर से शुरू हुआ?

नियमित लिखना तो नहीं पर हाँ कथानक एक जगह लिख लिए जाते थे। विस्तार नहीं मिलता था, न ही पत्रिका में भेजने का कोई विचार आता। यदा-कदा रचनाएँ  अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ सौरभ, चेतना, साहित्यकुंज आदि में प्रकाशित होती रहीं। उन दिनों मेरी हिन्दी कक्षाएँ चर्चा में थीं। विश्वविद्यालय की प्रचार पुस्तिकाओं में मेरी हिन्दी कक्षा के फोटो थे। सेंट जार्जकैम्पस, मिसीसागाकैम्पस, स्कारबोरोकैम्पस हर जगह हिन्दी कक्षाएँ शुरू हुईं और मेरा काम चौगुना हो गया। हर कैम्पस में कोर्स थे और मैं शहर के सब-वे और बस से सफ़र करते हुए एक कैंपस से दूसरे में जाती थी। यह लिखते हुए बेहद गर्व महसूस होता है कि हर एक सत्र में मैंने हिन्दी के चार-चार कोर्स पढ़ाए।

वाह हंसा, तब तो समय मिलने का सवाल ही नहीं।

बिल्कुल नहीं, घर आते-आते बहुत थक जाती थी। 2008 में छोटी बेटी की शादी की और जल्दी ही नानी बनने की खुशी एक नयी उमंग लेकर आयी।

तो फिर पहला उपन्यास कब और कैसे आया?

बहुत बाद में। बड़ी बेटी की शादी हो गयी। उसके सात साल बाद वर्ष 2017 तक मेरे पास समय ही समय था। अब तक यहाँ की शैक्षणिक प्रणाली से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी। सोच को नए आयाम मिल चुके थे।तब मैंने2005 में अधलिखे उपन्यास “बंद मुट्ठी” के कागजों को टटोला। नब्बे पेज लिखे हुए थे, यानी लगभग आधा काम हो चुका था। मैंने इसे पूरा करने व टोरंटो जैसे महानगर को हिन्दी दुनिया से परिचित करवाने की मन में ठान ली। यहाँ की शिक्षा प्रणाली और छात्रों की जिंदगी पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त सामग्री थी दिमाग़ में। गर्मी की छुट्टियों में इस कथानक को एक दिशा मिली। एक बार लिखना शुरू किया तो पेज दर पेज बढ़ते गए। उपन्यास पूर्ण होने पर कई समस्याएँ थीं सामने लेकिन समाधान भी तुरंत मिले।

तो इसके बाद तुम्हारा सक्रिय लेखन शुरू हुआ।

हाँ,बस इसी समय लेखन को विस्तार देते हुए “बंद मुट्ठी” उपन्यास ने मेरी मुट्ठी को भी पूरी तरह खोल दिया। मैं अपनी कहानियों की विस्तृत दुनिया में कदम-दर-कदम बढ़ते हुए कई जानी-मानी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पुन: पाठकों में जगह बनाने की कोशिश करने लगी।

वाह मित्र, मेरे इतने प्रश्नों के जवाब देकर मुझे जो तुष्टि दी है वह विस्मृत नहीं होगी। अब कैसा लगता है तुम्हें?

जीवन के इस पड़ाव तक किसी से कोई शिकायत नहीं है। अगर कोई शिकायत है भी तो वह है अपनी पहचान से, कोई देश अपना नहीं कहता। दुनिया की नज़रों में विदेशी हैं, अपने देश वालों की नज़रों में विदेशी हैं और यहाँ विदेशियों की नज़रों में भी विदेशी ही हैं। हालांकि किसी के विदेशी कहने से कुछ नहीं बदला है। नियम-कानून बदले, सरकारें बदलीं, सब कुछ बदला, मगर मेरे लिए कुछ नहीं बदला। न स्वाद बदला, न मिजाज़। बदलीं सरहदें,  बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास जो आज भी वक्त-बेवक्त यादों के झोंकों से उसे हवा देकर आग में तब्दील कर देता है। वह तपिश कागज़ पर शब्दों के संजाल उकेरती है। इस लंबे जीवन के बदलते रास्तों पर पड़ाव तो कई थे लेकिन कारवाँ चलता रहा।

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4–1- डॉ. हंसा दीप ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

र्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हंसा दीप जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. यह आत्मसाक्षात्कार आप दो भागों में पढ़ सकेंगे। अब तक आप पढ़ चुके हैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार- साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी,  श्री संतराम पांडेय जी और श्री कैलाश मंडलेकर जी के आत्मसाक्षात्कार।

डॉ. हंसा दीप जी के इस आत्मसाक्षात्कार के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी के विशेष सहयोग के लिए हार्दिक आभार।  

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-1 – किताबें पढ़ने और समझने का जुनून, न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं….…..  डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय 

जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)

प्रकाशन 

  • उपन्यास – “बंदमुट्ठी”,  “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
  • कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।  
  • संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।  
  • पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
  • भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
  • कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
  • कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
  • सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।

सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।

न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

भाग -1 – किताबें पढ़ने और समझने का जुनून, न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं….  डॉ. हंसा दीप

अरे  हंसा, आजकल तुम बहुत ही व्यस्त होती जा रही हो।  कभी-कभार मुझसे भी बात किया करो।

अच्छा  जी, आपको मुझसे गपशप करना है या फिर मेरा मज़ाक उड़ाना है?

अरे नहीं, चलो, आज बीती बातों की जुगाली करते हैं। अपने बारे में कुछ बताओ।

सच कहूँ तो अपने बारे में लिखना टेढ़ी खीर है लेकिन फिर भी, बीते दिनों को याद करना सुकून से भरा है। चलो, बचपन की कुछ बातों से शुरुआत की जाए।जीवन के इस मोड़ पर खड़े होकर पलट कर नज़र डालती हूँ तो तीन युग नज़र आते हैं। युग इसलिए कि समयांतर के इस चक्र में ज़मीन-आसमान का फ़र्क रहा। पहला युग वह था, जब लालटेन की रोशनी में पढ़ते थे। अंधेरे में ही तैयार होकर परीक्षा देने जाते थे।

सच्ची, लालटेन की रोशनी में पढ़ते थे?

हाँ,उन दिनों हमारे गाँव में बिजली नहीं आयी थी। कुछ वर्षों बाद जब बिजली आयी तो नाम के लिए ही आती थी और फिर से चली जाती थी। कंदील और दीये ही हमारा साथ देते थे। आदिवासी बहुल क्षेत्र ग्राम मेघनगर, जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश में जन्म लेकर वहीं पली-बढ़ी मैं। आज से साठ साल पहले उस पिछड़े हुए इलाके की हालत बदतर थी। सप्ताह में एक बार शनिवार को ही हरी सब्जी मिलती थी जो हाट-बाज़ार का दिन हुआ करता था। घर के नीचे की अनाज की खेरची दुकान में आदिवासी भीलों के बीच काम करते हुए मैंने पढ़ाई की। दुकान से स्कूल और स्कूल से दुकान, तब वही मेरी छोटी-सी दुनिया थी। उस दुनिया के आगे न कभी कुछ सोचा था, न सोचने की जरूरत पड़ी थी। आज कैनेडा के टोरंटो शहर में रहते हुए भी उस दुनिया की बहुत याद आती है। वे दिन भुलाए नहीं भूलते जो जीवन के सबसे खूबसूरत दिन थे।

वाह, तो तबसे वर्किंग वूमेन हो!

वर्किंग वूमेन कहलो या कामकाजी लड़की, पर हाँ भाई की मदद जरूर करती रही।

बताती रहो, सुनना अच्छा लग रहा है।

पिताजी के न रहने पर मसीहा बने बड़े भाई ने पिताजी का फर्ज़ निभाया। भाई के साथ दुकान का काम देखना, हिसाब-किताब में उनकी मदद करना और साए की तरह उनके साथ काम में लगे रहना। उन दिनों उस छोटे से गाँव में लड़कियों की स्थिति दयनीय थी, लेकिन मुझे उस बुरी स्थिति से कभी नहीं गुज़रना पड़ा। उस समय भी एक कामकाजी लड़की की भूमिका निभाते हुए पढ़ाई जारी रखने का सौभाग्य मुझे मिला। हाँ, पढ़ने के लिए आज की तरह यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो की लाइब्रेरी नहीं थी बल्कि दुकान का अनाज खाने के लिए ताक में रहती बकरियाँ थीं जो किताब से ध्यान खींच लेती थीं। किताबें पढ़ने और समझने का जुनून ऐसा था कि ये रुकावटें न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं। शिक्षकगण पढ़ने के शौक को देखते हुए अपनी संग्रहित किताबें देने में कभी संकोच नहीं करते। बीच-बीच में आदिवासी भीलों के लिए अनाज तौलना, पैसे गिनना और समय मिलते ही फिर से किताब में खो जाना, यही मेरी दिनचर्या थी। जो भी किताब मिल जाए उसे ही अपनी पसंद बना लेने की आदत-सी थी। पढ़ने के शौक से कक्षाओं में अव्वल आती रही और बड़े भाई को मुझ पर गर्व होता रहा।  

अच्छा मित्र हंसा, यह बताओ कि तुम सीधी-सादी लड़की थी या तेज तर्राट?

सीधी-सादी। मैं बहुत कम बोलती थी। ज्यादातर हाँ या ना में जवाब देकर अपना काम करती रहती थी। घर से कुछ ही दूर महमूद चाचा रहते थे। वे इस छोटी-सी चुपचाप रहकर काम करने वाली लड़की से बहुत स्नेह करते थे। माँ, जिन्हें हम भाई-बहनों सहित सारे गाँव वाले “जीजी” कहते थे, वे जब भी जीजी से मिलते यह दोहरा देते थे – “जीजी, तुम्हारी यह लड़की अल्लाह की गाय है।”

अल्लाह की गाय मतलब?

मतलब बहुत भोली और मासूम!

इस भोली लड़की के बारे में और बताओ न!

कम बोलने वाली इस लड़की के काम को बहुत सराहा जाता था। शिक्षक भी कहते – “यह लड़की जो भी करती है पूरी निष्ठा के साथ।” इन बातों से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती थी। मैं हर काम को और भी अधिक लगन से पूरा करती। उस छोटे-से जर्जर स्कूल के प्राचार्य श्री आर.एन. सिंह का मुझ पर वरदहस्त था। वे जिले की अन्य स्कूलों के दौरे के समय मुझे अपने साथ लेकर जाते थे। स्कूल हो या स्कूल के बाहर, तहसील स्तर पर या जिला स्तर पर कोई भी कार्यक्रम होता या कोई प्रतियोगिता होती, मेरा नाम सबसे पहले पहुँचता। स्कूल का प्रतिनिधित्व मैं ही करती। संसाधनों के न होने पर भी मैं बहुत मेहनत से हर प्रतियोगिता की तैयारी करती थी। वाद-विवाद प्रतियोगिता हो या निबंध, परिणाम आने पर मेरा नाम पहले नंबर पर ही होता था। प्रतियोगिता से पहले मौका देखकर कक्षा के लड़के पूछने आते थे- “तुम पक्ष में बोल रही हो या विपक्ष में? अगर तुम पक्ष में हो तो मैं विपक्ष में रहूँगा क्योंकि पहला नंबर तो तुम्हारा ही है।”पढ़ाकू छात्र भी मुझसे परेशान रहते थे। मुझसे कहते – “तुम्हारे कुल कितने अंक आए हैं बताओ, ताकि अगली बार हम उतनी पढ़ाई कर सकें।” आज भी जब गाँव में हम सब एक दूसरे से मिलते हैं तो इन सारी बातों को याद करके हुए अतीत में खो जाते हैं।

मतलब यह कि साथी छात्र परेशान रहते थे तुमसे?

नहीं, नहीं, परेशान नहीं पर मुझसे ज्यादा नंबर लाने के प्रयास जरूर करते रहे।

तो गाँव में तुम्हें आजादी थी सबसे बात करने की, सब दूर जाने की?

हाँ, मेरे भाग्य अच्छे थे। बड़े भाई महेश भंडारी मुझसे बहुत स्नेह करते थे। गाँव के संकुचित समाज में भी भाई ने मुझे सब दूर जाने की आज़ादी दे रखी थी। अपनी बहन ही नहीं, एक बेटी की तरह प्यार देकर सदा मेरी सफलताओं पर मुस्कुराते थे वे। वह मुस्कुराहट आज भी मैं उनके चेहरे पर देखती हूँ जब उनसे अपनी किसी सफलता का जिक्र करती हूँ। उस युग की खास बात यह थी कि वहाँ बहुत मौज-मस्ती थी, न कोई शिकायत थी, न ही किसी प्रकार की कोई चिन्ता। घर में व्यावसायिक माहौल होने के बावजूद मेरी पढ़ाई जारी रही। पढ़ाई ही नहीं, सिलाई की कक्षाएँ, कढ़ाई की कक्षाएँ, हर कक्षा में कुछ नया सीखने के लिए जरूर दाखिला ले लेती।

सचमुच रोचक बचपन रहा तुम्हारा।

हाँ, आज तुमने मुझेअपने जीवन की परतें खोलने को मजबूर कर दिया है।

तुमने एक युग के बारे में बताया। अब बताओ कि दूसरे युग में क्या हुआ।

दूसरा युग वह था जहाँ चिन्ताओं का सागर था, शादी के बाद की दुनिया। ससुराल में पहली बार जब जलती लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाया तो वह खाना सौ प्रतिशत फ्लाप फ़िल्म की तरह था। कई बार हाथ जले और कई दिन लगे इस नए बदलाव को अपनाने में। चूल्हे पर जैसे-तैसे रोटियाँ बना-बना कर धुएँ में आँखें मसलना और रात तक ढेर हो जाना। यह चौके-चूल्हे का वह काम था जिससे मैं अनभिज्ञ थी। देवर जी चंचल मेरी दुर्दशा को देखकर चूल्हे को संभालने में मेरी मदद करते थे। धर्म जी वे मसीहा बने जो जीवनपर्यंत कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने को तैयार थे। कुल मिलाकर यह संसार सपनों का था और आज भी है।

अरे वाह, लोगों का सपनों का संसार जल्दी खत्म हो जाता है।

हाँ, लेकिन मैं एक के बाद एक सपने भी तो देखती रही।

वाह क्या बात है, फिर क्या हुआ?

लगभग छ: महीने गाँव में संयुक्त परिवार के साथ बिताकर उज्जैन शहर में पहुँचना, किसी स्वर्ग में पहुँचने जैसा था। महाकाल की नगरी के साथ नया जीवन शुरू करके उस धरती से कुछ ऐसा आत्मीय रिश्ता बना कि आज भी यह शहर ‘अपना उज्जैन’ ही कहा जाता है। तब से लेकर सालों तक बैंक ने मध्यप्रदेश के कई गाँवों और शहरों से परिचित करवाया। धर्म जी अपनी कटी-पिटी रचनाओं को ठीक से लिख कर पत्रिकाओं में भेजने के लिए तैयार करने का काम मुझे देकर जाते थे। कागज़ के नीचे कार्बन लगाकर नकल करते हुए उसमें अगर कोई गलती हो जाती तो सब कुछ नये सिरे से लिखना पड़ता था। गुस्सा आता था पर कुछ कह नहीं पाती। इसी गुस्से ने मुझे खुद अपना लिखने का साहस दिया।

अच्छा तो लिखने की शुरुआत गुस्से से हुई।

हाँ, सच कहूँ तो यही समझ लो।

ओहो, फिर नियमित लिखती रही?

एक बार हिम्मत करके एक छोटी कहानी लिखी और आकाशवाणी इंदौर को भेज दी। स्वीकृति पत्र मिला और रिकार्डिंग की तारीख भी। पहली बार कहानी रिकार्डिंग के लिए जाना बेहद रोमांचक अनुभूति थी। उसके बाद आकाशवाणी से लगातार बुलावे आने लगे। उन दिनों इलाके के प्रसिद्ध अख़बार नईदुनिया में कहानी छपी तो लेखन को नयी गति मिली और दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत  इन्दौर, हिन्दी हेराल्ड अखबारों के अलावा सारिका, मनोरमा, योजना, शाश्वत धर्म, अमिता, दिल्ली एवं अन्य कई पत्रिकाओं में कहानियाँ छपती रहीं। इसी दौरान आकाशवाणी इंदौर और भोपाल के लिए नाटक लिखने का दौर शुरू हुआ।

आकाशवाणी के नाटकों के बारे में कुछ बताओ

उनके कार्यक्रमों के अनुसार पंद्रह मिनट और तीस मिनट के लगभग तीस से अधिक नाटक प्रसारित हुए। पूरा परिवार साथ बैठकर प्रसारण सुनता था।

अच्छा लगता होगा अपने पात्रों को रेडियो से सुनना!

हाँ, बहुत अच्छा लगता था जब मेरे कागज पर उतरे हुए पात्र किसी और की आवाज में सुनाई देते थे। रेडियो से भी पैसा मिलता था और अन्य रचनाओं का पारिश्रमिक उन दिनों मनीऑर्डर के रूप में आता था। जब भी कोई मनीऑर्डर आता था तब पोस्टमैन सहित हम सभी मिठाई और नमकीन खरीद कर खुशियाँ मनाते थे।

वाह,वे छोटी-छोटी खुशियाँ आज बड़ी खुशियों में तब्दील हो गयीं!

वे भी बड़ी खुशियाँ थीं। देखो मित्र, खुशी तो खुशी है। छोटी, बड़ी, ये तो मन का वहम है।

सही कहा, इसके बाद क्या हुआ।

समय के साथ कदमताल मिलाते जीवन के हर बदलाव से नया सीखने की प्रक्रिया शायद प्रकृतिदत्त थी। धर्म जी की नियुक्तियाँ जब ठेठ देहाती गाँवों जीरापुर, खुजनेर, राजगढ़, ब्यावरा में हुई तो उसका भी भरपूर फायदा मुझे हुआ। वह इलाका सौंधवाड़ के नाम से जाना जाता है। उस इलाके में लगभग सात वर्ष रहे हम। पीएच.डी. के शोध प्रबंध के लिए डॉ. बसंतीलाल बंम ने सौंधवाड़ी लोक साहित्य पर काम करने का निर्देश दिया। एक मालवी भाषी के लिए सौंधवाड़ी बोली पर काम करना बेहद रोमांचक था। बेटियों के जन्म के साथ पीएच.डी. का काम चलता रहा।

ओहो, ऐसे पीएच.डी करी तुमने हंसा?

हाँ मित्र, ऐसे किया शोध कार्य पीएच.डी के लिए। उन दिनों कोई तनाव नहीं होता था। काम करते रहते थे, इस चिंता के बगैर कि आगे क्या होगा।

हाँ, आज तो फल की चिंता अधिक होती है। अच्छा, सुनो लोक साहित्य के बारे में जानना चाहती हूँ मैं। कुछ इसके बारे में बताओ।

सौंधवाड़ी लोकगीतों और लोककथाओं के संग्रह के लिए मैं आसपास के गाँवों में जाती। गीतों को लिखते हुए, छोटे-छोटे गाँवों में घूमते हुए कई कथानक मिले। कहानी “इंटरव्यू” उसी का प्रतिनिधित्व करती है। हाल ही में प्रकाशित उपन्यास केसरिया बालम में भी लोकगीत और लोक संस्कृति की गहरी झलक है। डॉ. बंम का सानिध्य अभूतपूर्व था। हर एकत्रित गीत को सुनते और पढ़ते हुए वे भावविभोर हो जाते। उनके चेहरे के हाव-भाव मुझे असीम प्रसन्नता देते। उनके लोक-जीवन के ज्ञान ने मुझे बहुत कुछ सिखाया।

उसके बाद कॉलेज में नौकरी मिल गयी तुम्हें?

हाँ, वह एक मील का पत्थर था। पीएच.डी. मिलने के पहले ही महाविद्यालय में हिन्दी के सहायक प्राध्यापक के रूप में मेरी तदर्थ नियुक्ति हुई और छोटी-छोटी दो बच्चियों को स्कूल भेजकर महाविद्यालय के अध्यापन कार्य से परिचय होने लगा। मुश्किलें भी बढ़ीं। अपने ठेठ मारवाड़ी परिवार की मैं पहली बहू थी जो नौकरी करने का साहस कर रही थी। सिर पर पल्लू डालकर महाविद्यालय पहुँचती थी। यही वजह थी कि मेरी नौकरी की वजह से ससुराल वालों को कभी शिकायत करने का मौका नहीं मिला। मेरे लिए परम्पराएँ अपनी जगह थीं और काम अपनी जगह था। हाँ, कुछ शरारती छात्र यदा-कदा बहनजी कह दिया करते थे पर धीरे-धीरे ये सब बातें आम हो गयीं।  

जब तुमने भारत छोड़ा तब फिर क्या हुआ नौकरी का?

जब भारत छोड़ा तब तक स्थायी नियुक्ति हो चुकी थी और विदिशा, ब्यावरा, राजगढ़ (ब्यावरा) और धार महाविद्यालयों में हिन्दी अध्यापन का अनुभव हो चुका था। धार महाविद्यालय में वरिष्ठ कथाकार डॉ. विलास गुप्ते,  गीतकार प्रो. नईम,  डॉ. गजानन शर्मा,  डॉ. मधुसूदन शुक्ल सुधेश जैसे हिन्दी के कई मूर्धन्य विद्वानों के साथ काम करने का मौका मिला।

अरे वाह!

सचमुच बहुत अच्छा लगता था। घर पर गोष्ठियाँ होती थीं। महाविद्यालय के कामकाजी रिश्तों के साथ इन सभी से पारिवारिक रिश्ते भी बने। एक स्थापित कहानी लेखिका और सहायक प्राध्यापक के रूप में बहुत कुछ हासिल करने के बाद धर्म जी के न्यूयॉर्क तबादले के साथ सब कुछ छोड़कर विदेश प्रवास के लिए जाना पड़ा।  

शेष भाग कल के अंक में  

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -17 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 17 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

जैसे कली से कमल थोड़ा-थोड़ा बडा होकर खिलता है, वैसे ही मेरी प्रगति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। मेरे व्यक्तित्व के अच्छे गुण भी पल्लवित हो रहे थे। नवरत्न दीपावली अंक के माध्यम से हमारा छोटा सा ‘वाचन कट्टा’ महिलाओं की कविता, कहानियों से भर गया। उसी के कारण हमारा कविता सुनाना शुरू हो गया। उनमें की सहेली सौ. मुग्धा कानीटकर ने अपने घर के हॉल में मेरा अकेली का नृत्य का कार्यक्रम रखा था। उसी के साथ हमारे सहेलियों को भी आमंत्रित किया था। उसमें मैंने भरतनाट्यम का नृत्याविष्कार पेश किया। कविता भी सुनाई। सभी सहेलियों ने हृदय से मेरी प्रशंसा की। उनके प्रतिसाद के कारण मुझे प्रोत्साहन मिला।

उसके साथ-साथ मिरज के पाठक वृद्धाश्रम में ८ मार्च ‘महिला दिन’ पर कार्यक्रम में मेरी अदा का सादरीकरण करने का मौका मिल गया। सभी दीदियों ने मुझ पर आनंद और खुशियां बरसा दी।

५ जानेवारी २०२० में हमारे ‘नवरत्न’ दीपावली अंक का पुरस्कार प्रदान समारोह सेलिब्रिटी श्री प्रसाद पंडित इनके साथ संपन्न हुआ। उस वक्त मुझे स्वातंत्रवीर सावरकरजी के ‘जयोस्तुते’ गीत नृत्य के रूप में पेश करने को मिला। विशेषता यह थी कि सब दर्शकों ने हाथ से नृत्य और गाने को ताल लगाकर अभिवादन किया। यह सब अर्थ मुझे बाद में समझ आ गया। सब दर्शकों ने पूरा सहयोग दिया। विशेषता यह है कि श्री. प्रसाद पंडित जी ने मेरे प्राविण्यता को पीठ थपथपाकर गर्व से कहा, “शिल्पा ताई हमें आपके साथ एक फोटो खींचना है।”

मेरी वक्तृत्व की कला देखकर मैं सूत्रसंचालन भी कर सकूंगी ऐसा समझ में आने के बाद मुझे तीन बड़े कार्यक्रम का सूत्र संचालन करने का मौका दिया गया। ‘नवरत्न’ दीपावली अंक के प्रकाशन में वक्त सूत्रसंचालन करके गोखले चाची की मदद से यशस्विता प्राप्त कर ली। अध्यक्ष जी बहुत भावुक हो गए, उन्होंने ही मुझे शॉल और श्रीफल देकर गौरव किया। उसके बाद मेरे भाई न्यायाधीश होने के बाद मेरे माता और पिता जी ने भाई की विद्वता को जानकर एक छोटे से समारोह का आयोजन किया था। उसके भी सूत्र संचालन की जिम्मेदारी मैंने संपन्न की। लोगों ने मेरा बहुत बड़ा सम्मान किया। दूसरे दिन पंकज भैया मुझे बोले, शिल्पा ने कल सामने कागज नहीं होते हुए भी मुंह से जोर-जोर से शब्दों का भंडार सबके सामने रखा। मेरी सहेली सौ. अनीता खाडीलकर के ‘मनपंख’ पुस्तक का प्रकाशन भी संपन्न हुआ। उस पुस्तक के प्रकाशन का सूत्र संचालन भी मैंने यशस्विता के साथ संपन्न किया।

मेरी आंखों के सामने हमेशा के लिए सिर्फ काला-काला अंधेरा होते हुए भी मैं नजदीक वाले लोगों के सामने प्रकाश का किरण ला सकी। इस बात की मुझे बहुत बड़ी खुशी है। यह सब करिश्मा भगवान का है।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 6 ☆ सौ. नीलम माणगावे

सौ. नीलम माणगावे

? आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 6  ? सौ. नीलम माणगावे ?

बाल साहित्यामध्ये तू वेगवेगळे प्रयोग केलेस, त्याबद्दल सांग ना

अगं, प्रयोग वगैरे मी काही केले नाहीत.

मग वेगवेगळ्या विषयांवर लिहिलंस का..?

वेगवेगळ्या विषयांवर तर सगळेच लेखक लिहितात. आपल्या प्रत्येक पुस्तकांमध्ये वेगळाच विषय हाताळतात. त्यात काही नवीन नाही.

तरी,तुझ्या बाल साहित्या मधलं वेगळेपण सांग

वेगळं म्हणजे, ज्या गोष्टी मोठ्यांच्या आहेत पण मुलांनाही त्या माहित असणं गरजेचं आहे.. अशा गोष्टी मी बाल साहित्यातून आणण्याचा प्रयत्न केला आहे.. म्हणजे बघ, एकेकाळी नुकताच एड्स चालू झाला होता.. त्याचं प्रमाण पण मोठं होतं. तरुण मृत्युमुखी पडत होते. अशा काळात एड्स म्हणजे काय? तू कसा कशामुळे होतो, हे मुलांना माहीत असू दे म्हणून त्यांना समजण्यासारखं सोप्या भाषेत कथेतून मांडण्याचा मी प्रयत्न केला. त्या संग्रहाचं नाव आहे..’या चुकीला क्षमा नाही’. एका बाल कथेमध्ये मी स्त्री जोकर आणला.

मुलांना उत्क्रांती कशी झाली हे समजण्यासाठी सोप्या भाषेमध्ये कवितेच्या फॉर्ममध्ये.. सलग 76 कडवी लिहिली. त्यासाठी स्पेशल सांगलीच्या डी. एम. आंबेकर सरांकडून भरपूर चित्रे काढून घेतली. एका पानावर आठ ओळी आणि पान भरून चित्र असं पुस्तकाचं स्वरूप ठेवल. नुसती चित्रं बघत पान उलटवली तरी उक्रांती समजावी, असं या पुस्तकाचं स्वरूप. आता तर प्र.रा. आड्रे आर्डे, सांगली यांच्या प्रेरणेने या 76 कडव्यांचा व्हिडिओ बनवून घेतला.. कवितेच्या ओळी, त्याचं वाचन आणि बॅकग्राऊंडला कवितेच्या ओळींना पूरक कलरफुल चित्र.. असा व्हिडिओ बनवून घेतला. कोरोना चा काळ संपल्यानंतर शाळाशाळांतून मोठ्या स्क्रीनवर हा व्हिडिओ  दाखवून मुलांना उत्क्रांतीची सुलभ माहिती द्यावी,त्यांचा त्यांचा विचार आहे.

‘संविधान ग्रेट भेट’.. मुलांसाठी अतिशय सोप्या भाषेमध्ये हसत खेळत संविधान सांगण्याचा प्रयत्न.. सविधान म्हणजे काय हे लहान असल्यापासून समजायला हवं, हा उद्देश या लेखनामागे आहे.

शिवाय वयात येणाऱ्या मुलींसाठी ‘प्रिय मुली’ आणि मुलांसाठी ‘बेटा, हे तुझ्यासाठी’ अशा पुस्तिका लिहिल्या.. बाकी कथा, कविता, कादंबरी, नाट्यछटा वगैरे लिहिले आहेच..

तुझी कमाल आहे बाई… कधी करतेस हे सगळं? वेळ कसा मिळतो?

बाईसाहेब वेळ कधी मिळत नसतो. तो काढावा लागतो. बैठक मारून बसावं लागतं. तेवढ मी करते.. आणि मला त्यात आनंद आहे.

व्वा! ही ऊर्जा कुठून येते? आणि यामागे प्रेरणा कोणाच्या? तुझे मार्गदर्शक कोण आहेत?

पुन्हा तेच तुझं.. उर्जा मिळत नाही, मिळवावी लागते. ती आपण आपल्या मार्गदर्शकांकडून    घ्यायची असते.. सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, ताराबाई शिंदे, डॉक्टर तारा भवाळकर मॅडम, मिळून साऱ्याजणी च्या.. विद्याताई.. ही यादी बरीच वाढवता येईल. अवतीभवतीच्या घटना.. स्वस्थ बसू देत नाहीत.  सतत पाठीमागे लिहिण्याचा लकडा लावतात. मग मी लिहित जाते…आता पुरे..  बस्स झालं.

बरं बाई, पुढे तर पुरे.. आता आभार मानू का तुझे?

तू म्हणजे ना.. ? स्वतःच स्वतःचे कधी आभार मानायचे असतात का? पण बरं वाटलं, तुझ्याशी बोलल्यावर..

क्रमशः  

©  सुश्री नीलम माणगावे

जयसिंगपूर, जिल्हा कोल्हापूर

मो  9421200421

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 5 ☆ सौ. नीलम माणगावे

सौ. नीलम माणगावे

? आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 5 ? सौ. नीलम माणगावे ?

ललित लेखन करणारी तू समीक्षा करण्याकडे कशी वळलीस?

तुझं बरोबर आहे. ललित लेखन करणारी, कथा, कविता, कादंबरी मध्ये रमणारी मी.. समीक्षा करण्याकडे वळले नाही. तो माझा प्रांत नाही. तशी अभ्यासाची मला शिस्त नाही. एखाद्या साहित्यकृतीच्या मुळाशी जाऊन त्याला भिडण्याची, त्याचे अभ्यास पूर्ण विवेचन करण्याचा माझा पिंड नाही. पण भावनिक, तर्कसंगत विचार करत काही समजून घेण्याचा माझा स्वभाव आहे. त्यातूनच काही लिहून झालं एवढं खरं.

‘ उखाण्यातून स्त्री दर्शन’ या पुस्तकांमधील लेखन या उद्देशा मधूनच केलं. लग्न समारंभ, डोहाळे जेवण सारख्या शुभ प्रसंगी महिला उखाणे घेतात. त्या उखाण्या मागचा  अर्थ.. त्यातून त्यांना वेगळं काही सांगायचं आहे का? याचा तो एक शोध! नवऱ्याचे कौतुक, सासर माहेर च्या नातलगांचे कौतुक जसे उखाण्या मध्ये असतेच.. तसे काही उखाण्यामधून देशभक्ती दिसून येते. काही उखाण्यात  विनोद असतो. पतीला दीर्घायुष्य मिळावे, याचे मागणे म्हणजे तर उखाणे घ्यायचा केंद्रबिंदूच असतो पण बायकोला दीर्घायुष्य मिळावे असा एकही उखाणा सापडत नाही. पुरुष घेतलेले उखाणे फक्त टिंगल टवाळीचे असतात.. रुखवताचे उखाणे तर उणीदुणी काढण्यासाठीच असतात.. वगैरे गोष्टींना धरून मला जे वाटले ते लिहिण्याचा प्रयत्न केला आहे.

‘स्त्री आणि तिचे पातिव्रत्य”याविषयी विचार करताना काही ऐतिहासिक, पौरानिक, लोकसाहित्यातील स्त्रियांचा होणारा कोंडमारा, त्यांच्यावरील अन्याय आणि त्याला दिलेले पातिव्रत्याचे गोंडस नाव.. किती फसवे आणि स्त्रियांना कमी लेखणारे आहे हे सांगण्याचा माझ्या वकुबानुसार केलेला प्रयत्न आहे.

‘जैन महिला विकासाच्या पाऊलखुणा’.. हे संपादन आणि समीक्षेचे पुस्तक आहे..’प्रगती आणि जिने विजय’.. हे जैन समाजाचे साप्ताहिक मुखपत्र आहे. अलीकडच्या काळात त्याचे पाक्षिकमध्ये रुपांतर झाले आहे.. तर, त्याला आता एकशे वीस वर्षे झाली. जेव्हा शंभर वर्षे झाली तेव्हा, कुतूहलापोटी शंभर वर्षात स्त्रियांनी काय काय लिहिलं? हे पाहण्यासाठी मी शंभर वर्षातील अंकांचा अभ्यास केला. आणि त्यातून जैन महिलांचा विकास कसा होत गेला, याचा इतिहास मिळाला. तो आजच्या तरुण-तरुणींना समजायला हवा या हेतूने आणि तो एक ऐतिहासिक दस्तावेज आहे म्हणून  हे लेखन पुस्तक रूपाने प्रसिद्ध झाले. सांगण्यासारखे खूप खूप आहे पण ते सगळं सांगण्याची ही जागा नाही. एवढंच सांगते, या वाचन लेखनाने मला  आनंद तर दिलाच, शिवाय मला परिपक्व बनवलं. माझ्या मनाच्या, विचारांच्या कक्षा रुंदावल्या. असही असू शकतं, याचं भान दिलं. मला वाटतं, माझ्या दृष्टीनं हे महत्त्वाचं आहे. आपण आतून मोठ व्हावं यासारखा दुसरा आनंद नाही.

बरं का, मला नेहमी असं वाटत, की या साहित्यानं मला माझी ओळख दिली. माझी आयडेंटिटी मिळवून दिले. नाहीतर मी कोण होते? कुठे होते? वयाच्या चाळीस वर्षापर्यंत 14 लोकांचा फक्त स्वयंपाक करणारी, भांडी घासणारी, कपडे धुणारी, केर फरशी करणारी मी.. लिहायला लागले हाच माझ्यासाठी किती मोठा आनंद आहे..!

खरं आहे, बाईला तिचं नाव मिळणं ही सगळ्यात मोठी गोष्ट आहे. माझ्या लक्षात आलय की, या सगळ्यातून जाताना सुद्धा तुझ्या आत एक बालपण लपलं आहे.

हसणारं, खेळणारं, अवखळ, समजून घेणारं, नवनवीन शिकणारं एक मुल आहे, जे तुझ्याकडून बालसाहित्य लिहून घेतं… त्याबद्दल सांग.

अच्छा म्हणजे तुला बाल साहित्याविषयी ऐकायचं आहे तर

हो,सांग…

क्रमशः  

©  सुश्री नीलम माणगावे

जयसिंगपूर, जिल्हा कोल्हापूर

मो  9421200421

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 4 ☆ सौ. नीलम माणगावे

सौ. नीलम माणगावे 

? आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 4 ? सौ. नीलम माणगावे ?

कथे विषयी सांगण्याआधी मला सांग, साहित्याचे एवढे प्रकार तू कसे काय हाताळत गेलीस?

अगं, मुद्दाम ठरवून मी हे साहित्यप्रकार हाताळले आहेत. काय झालं, सुरुवातीला कविता लिहिली. खूप सार्‍या लेखकांची लेखन सुरुवात कवितेपासून होते तशी ती माझी पण झाली. खूप कविता लिहिल्या. नंतर वाटायला लागलं,आपल्याला खूप काही सांगायचं आहे.. पण ते कवितेमधून सांगता येत नाही. कदाचित ही माझी मर्यादा असेल, पण मला कवितेमधून सगळं सांगता येत नव्हतं. म्हटलं कथा लिहून बघावी. मग कथा लिहिली. जमली. मग कथा लिहिल्या. पुन्हा वाटायला लागलं, कथासुद्धा आपल्याला व्यक्त व्हायला अपुरी पडत आहे. खूप सारं सांगायचं आहे, जगण्याचा पट मांडायचा आहे.. आपल्या आजूबाजूला एवढं घडतय आणि आपण ते सगळं कथेमध्ये बांधू शकत नाही. चला, कादंबरी लिहून बघूया.. मग कादंबरी लिहिली. जमली. मग छान वाटायला लागलं. पूर्ण व्यक्त होता आलं. झाडाची एक फांदी  नव्हे, तर पूर्ण झाड…  फांद्या, पान, फुलं, लगडलेली फळ, फांद्यांवर ची घरटी, घरट्याटले पक्षी, झाडाचे मूळ.. वगैरे सगळं म्हणजे पूर्ण झाड. तसं कादंबरीचं. सगळ्या बाजूंचा लेखाजोखा मांडायचा असेल तर कादंबरी शिवाय पर्याय नाही.

कादंबरी मधून वेगवेगळे विषय हाताळले. बालगुन्हेगारी, कुष्ठरोगी   त्यांचे आयुष्य, वेश्या आणि तिचे जगणे, हिंदू-मुस्लिम दंगल अशा वेगवेगळ्या विषयांवर कादंबरी लिहिली. एका अपंग महिले वरची आणि महापुरावर ची कादंबरी लिहिली

कथासंग्रहवर म्हणशील तर, नऊ-दहा कथासंग्रह आले. पैकी ‘रथ वादळ’ या कथासंग्रह मधील कथा जैन समाजाच्या समाजाच्या म्हणजेच जैन कथा आहेत.’ सूर्य, देव आणि माणूस ‘ या संग्रहामधील कथा.. लघुत्तम कथा आहेत.’ निर्भया लढते आहे ‘ या संग्रहा मधील कथा बलात्कार झालेल्या स्त्रियांवरच्या कथा आहेत… त्यांच्या पुनर्वसनाच्या कथा आहेत. एखाद-दुसऱ्या कथेचा अपवाद सोडला तर बलात्कारित स्त्रीला आईने,नवऱ्याने स्वीकारले आहे. या कथांमधून मला हेच सांगायचे आहे, की बलात्कार ही फार मोठी घटना नसून तो एक अपघात आहे.. अपघातात एखाद्या अवयवाला इजा होते तशी बलात्कारा मध्ये योनीला इजा होते.. एवढेच समजून त्या स्त्रीला माणूस म्हणूनच स्वीकारवे. बलात्कार झाला म्हणून ती पापी ठरत नाही किंवा शील भ्रष्ट ठरत नाही किंवा अपवित्र वगैरे सुद्धा होत नाही, हे समाजाने समजून घ्यावे.असो

साहित्याचा प्रकार कुठलाही असो, एक स्त्री म्हणून आणि लेखक म्हणूनही मी शोषितांच्या बाजूला असते. शोषितांचा विचार करते. समाजातल्या प्रत्येक घटकाकडे माणूस म्हणून बघते. ही माझी भूमिका आहे आणि त्या भूमिकेशी मी प्रामाणिक राहते. हे मी आत्मप्रौढीचा धोका पत्करूनही सांगते की, एकेकाळी मी शोषित होते म्हणून शोषितांचा विचार संवेदनशीलतेने करते.

माझा मागचा प्रवास मला सांगत असतो… तू त्यातलीच एक आहेस, हे कधीही विसरू नको. बस्स, लेखनात मी तेवढेच करते..

तू समीक्षणात्मक काही लिहिलं आहेस, त्याबद्दल सांग.

सांगते….

क्रमशः …

©  सुश्री नीलम माणगावे

जयसिंगपूर, जिल्हा कोल्हापूर

मो  9421200421

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 3 ☆ सौ. नीलम माणगावे

सौ. नीलम माणगावे

? आत्मसाक्षात्कार – स्वतः स्वतःची घेतलेली मुलाखत – भाग – 3 ? सौ. नीलम माणगावे ?

माजघरातील हुंदक्या बद्दल ऐकण्याची मला उत्सुकता लागली आहे.. काय आहे हे

मुलाखतींवर आधारित हे पुस्तक आहे. असं म्हटलं जातं आज-काल, की पूर्वी ची एकत्र कुटुंब पद्धती किती छान होती, पण असं नाही आहे. दुरून डोंगर साजरे, म्हणतो ना, तसं आहे हे.. बघणाऱ्याला छान वाटतं पण वास्तव वेगळच असतं. माझं माहेर खेड्यातलं. सासर खेड्यातलं. सगळे पाहुणे खेड्यात राहणारे. त्यातून पुन्हा एकत्र कुटुंबात राहणारे. आजूबाजूलाही एकत्र कुटुंबं होतीच. माझे पाच मामा एकत्र राहायचे.. आम्ही सात जावा दीर सुद्धा एकत्र राहत होतो. ही सगळी एकत्र कुटुंब बघताना, समजून घेताना एक गोष्ट लक्षात आली, की प्रत्येक एकत्र कुटुंबामध्ये एका स्त्रीवर अन्याय होतो. अन्यायाची कारणं वेगवेगळी असतील.. एखादीला माहेर कडून हुंडा दाग-दागिने मिळाले नसतील, एखादी सुमार रूपाची असेल, हुशार नसेल, तिचा नवरा नव्हता नसेल किंवा तिच्या नवऱ्याला प्रतिष्ठान असेल.. कारण अनेक पण परिणाम एक की अशा स्त्री ला त्रास सहन करावा लागतो. तिचे शोषण होते. हे पाहून मी अशा अन्याय झालेल्या पन्नास एक स्त्रियां च्या मुलाखती घेतल्या. वेगवेगळ्या जाती-धर्माच्या, वेगवेगळ्या आर्थिक स्तर असलेल्या, वेगवेगळ्या वयोगटांच्या स्त्रियांच्या मुलाखती घेतल्या. 90 वर्षापासून पंचवीस वर्षापर्यंत इस्त्री या मुलाखतींमध्ये आहे. एकही स्त्री अशी नव्हती, कि जी बोलताना रडत नव्हती. अशा स्त्रियांच्या या मुलाखती आहेत. माजघरातल्या या स्त्रियामधली एक स्त्री म्हणाली.. माजघरातील स्त्रियांनी आता रडत न बसता रस्त्यावर बोंब मारायला हवी…

एकत्र कुटुंबातील खानदानीपणाचा बुरखा फाडून टाकतात त्या स्त्रिया.. पुरुष प्रधान संस्कृतीची चिरफाड करतात

या  मलाही खुप रडवलं..

खरंच आहे, आज सुद्धा आपण टीव्हीवरच्या मालिकांमध्ये ही.. एखाद्या स्त्रीवर अन्याय होताना बघतोच.

हो ना गं, स्त्री शिकली. मिळवती झाली. चारचौघात वावरू लागली. तिचं बाह्य रूप बदललं. पण तिचे शोषण थांबलं नाही. शोषणाचे प्रकार बदलले. पण शोषण आहेच. शोषण फक्त आधी घरात उंबऱ्यात होत होतं ते आता कामाच्या ठिकाणी.. अगदी कार्पोरेट क्षेत्रातही होऊ लागलं आहे.. बलात्काराचा घटना बद्दल तर बोलायलाच नको.

खरं आहे. आता तुझ्या कवितांबद्दल सांग

माझ्या कविता सुद्धा स्त्री शोषणावर जास्त बोलतात. प्रेमाची हिरवळ, प्रेमातला वसंत, प्रेमातल्या गुदगुल्या माझ्या कवितांमध्ये नसतात

गमतीची गोष्ट म्हणजे माझा नवरा म्हणतो.. तुला प्रेमच करता येत नाही, मग प्रेमाच्या कविता कशा लिहिता यतील?.. मी म्हणते, प्रेमाची आणि माझी कधी गाठभेटच  झाली नाही, मग प्रेमाच्या कविता मी  कशाला येणार? खोट्या अनुभवावर लिहिता येत नाही. प्रेम अनुभवायचं वय दहशतीखाली गेलं.. आईनं सुद्धा कधी प्रेम नाही केलं. चोख कर्तव्य बजावलं. आपल्या मुलींना जपलं. मांजरी आपल्या पिल्लांना वाचवते तसं वाचवलं. आपल्या मुलींना कोणी नावे ठेवू नयेत, याची काळजी घेतली. कर्तव्य म्हणजेच प्रेम, असं मानण्याचा तो काळ होता.. आमची तर परिस्थितीच वेगळी होती. असो.

मग कवितेत हे नाही येणार तर काय येणार? अलीकडेच लिहिलेल्या चार ओळी सांगते

“त्यांनी तिच्या हाताची

बोटे तोडली

कारण त्यांना संशय होता

ती हस्तमैथुन करते”

मिळून साऱ्याजणी.. मासिकाच्या दिवाळी अंकात ही कविता प्रसिद्ध झाली.. कितीतरी लोकांचे फोन आले.. अगदी पुरुषांची सुद्धा.

बापरे! या चार ओळींवर कितीतरी देता येईल, बोलता येईल. स्त्री शोषणाची ही पुरुषप्रधान व्यवस्थेची प्रवृत्तीच म्हणायची.

स्त्रियांनी आपलं सुख आपण मिळवायचं नाही. तिचं सुख पुरुषांवर अवलंबून असेल तरच तिने ते घ्यावे नाही तर मिळेल ती शिक्षा भोगण्याची तयारी ठेवावी.

मला माहिती आहे, सगळेच पुरुष असे नसतात पण बहुतांशी असतात, हे विसरता येत नाही.

मध्ये मी नुकतीच वयात आलेल्या.. आमच्या कामवाल्या बाई मधल्या आईची वेदना, तिची काळजी एका कवितेत मांडली. ती कविता एका मासिकांमध्ये प्रसिद्ध झाल्यानंतर अनेक लोकांचे विशेषतः काही पुरुषांचे फोन आले की.. मॅडम खरंच आहे हो, मुलगी वयात आल्यानंतर बाप घाबरतो…. मी मनात म्हणाले, पण हाच बाप आपल्या मुलीच्या वयाच्या मुलींकडे.. आपल्या मुलीसारखा बघतो का?

नाही ना बघत.. हीच तर अडचण आहे. तुझी कविता तळमळीने काय सांगते.. काय बोलते.. हे लक्षात आलं माझ्या. तरी, वेगळ्या काही कविता लिहिल्या असशीलच ना?

हो. लिहिल्या. माझी आई गेल्यानंतर.. “कंदील, काठी आणि तू”कवितासंग्रह तिच्या पहिल्या वर्ष श्राद्धदिवशी प्रकाशित केला. त्यामध्ये सगळ्या आईच्या आठवणी आहेत. शिवाय जागतिकीकरणाशी संबंधित कवितांचा”उद्ध्वस्तायन”नावाचा कवितासंग्रह सुद्धा प्रकाशित झाला. वेगवेगळ्या आशय विषयाच्या कविता लिहिल्या पण माझा कल स्त्री शोषणाच्या बाजूने भाष्य करणाऱ्या जास्त आहेत.. कारण समाजाचं ते वास्तव आहे आणि वास्तव सोडून पळ काढता येत नाही.. आज तर ते जास्त चाललंय, हेही नाकारता येत नाही.

आता तुझ्या कथांविषयी सांग..

क्रमशः …

©  सुश्री नीलम माणगावे

जयसिंगपूर, जिल्हा कोल्हापूर

मो  9421200421

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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