हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 12 ☆ नर्मदा परिक्रमा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नर्मदा परिक्रमा – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नर्मदा परिक्रमा ?

हमारे जीवन का हर अध्याय अपने समय पर ही खुलता है और पूर्ण भी होता है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो समय आने पर ही संभव होती हैं और समझ में भी आती हैं।

हमारा रिटायर्ड शिक्षिकाओं का एक छोटा – सा समूह है जिसे हम यायावर दल कहते हैं क्योंकि हम सब रिटायर होने के बाद निरंतर कहीं ना कहीं घूमने के लिए निकल पड़ते हैं। इस दल में पचहत्तर वर्षीया शिक्षिका सबसे उत्साही हैं।

कुछ समय से आपस में हम सभी नर्मदा परिक्रमा की बात कर रहे थे और लो 2022 आते-आते मानो सभी के मन की बात खुलकर सामने आ गई और 5 मार्च हम 4 सहेलियाँ नर्मदा परिक्रमा के लिए निकल पड़ीं।

सच पूछा जाए तो इस परिक्रमा के विषय में विशेष कोई जानकारी हमें नहीं थी। यह अवश्य ज्ञात था कि एक पवित्र नदी के चारों तरफ एक परिक्रमा पूर्ण करना हिंदू धर्म के अंतर्गत एक तीर्थ यात्रा ही है। बस तो उसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए हम लोग निकल पड़े।

मन में एक आस्था थी। हमें यह विश्वास भी था कि कुछ अलग, कुछ हटकर और कुछ विशेष करने के लिए जा रहे थे। साथ में मन में खास कोई अपेक्षाएँ भी नहीं थीं कि हमें किस तरह के दृश्यों का या परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। पर जो कुछ मिला, जो देखा जो अनुभव किया वह सब न केवल अद्वितीय और अनोखा है बल्कि अविस्मरणीय भी।

हम चार सहेलियों ने एक इनोवा बुक किया और 3500 किलोमीटर की यात्रा बाय रोड करने का निर्णय लिया क्योंकि हमारे पास वह शारीरिक बल, क्षमता और संकल्प करने की दृढ़ता नहीं थी कि हम यह यात्रा पदयात्रा के रूप में पूर्ण करते जबकि यह यात्रा लोग पदयात्रा के रूप में ही पूर्ण करते हैं।

हम पुणे से 5 मार्च को प्रातः ओंकारेश्वर के लिए रवाना हुए। यह 603 किलोमीटर की दूरी है। हमें वहाँ पहुँचने में रात हो गई। वहीं पर हमसे ट्रैवेल एजेंट श्री मयंक भाटे मिलने आए जो मूल रूप से इंदौर के निवासी हैं। इस परिक्रमा की सारी व्यवस्था उनके द्वारा ही की गई थी। रात को भोजन कर एक साधारण होटल में रात बिताने के लिए हम सब उपस्थित हुए।

दूसरे दिन प्रातः नर्मदा स्नान कर वहीं घाट पर पूजा -अर्चना कर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए रवाना हुए। हमने नाव द्वारा मंदिर जाने का निर्णय लिया। वैसे यदि यात्री चाहें तो एक बड़ा पुल है उसे भी पार कर चलकर मंदिर में जा सकते हैं। हमें नर्मदा में नौका विहार का भी आनंद लेना था इसलिए हम लोगों ने नाव से ही जाना उचित समझा।

यहाँ एक और आवश्यक बात की जानकारी देना चाहूँगी कि नियमानुसार परिक्रमा करने वाले जब घाट पर पूजा अर्चना करते हैं तो वहाँ पर पंडित आपसे एक संकल्प करवाते हैं। उस संकल्प के आधार पर जिस घट में आप पानी लेकर पूजा करते हैं उसे लेकर दूसरे दिन गुजरात के भरूच डिस्ट्रिक्ट अंकलेश्वर में समुद्र में उस पानी को छोड़ना होता है। नर्मदामाता भी वहीं तक अपनी यात्रा बनाए रखती हैं। हाँ जाने के लिए 4 घंटे नाव से यात्रा करने की आवश्यकता होती है। उस नाव में काफी भीड़ होती है। लाइफ जैकेट की कोई व्यवस्था नहीं होती और साथ ही साथ कितने दिनों में समुद्र में जाकर नाव पहुँचेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। कारण बड़ी भीड़ होती है। इसलिए हम चारों सहेलियों ने संकल्प ना करते हुए ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर एक और रात ओंकारेश्वर में बिताकर वहाँ से दूसरे दिन राजपिपल्या होते हुए शहादा पहुँचे।

रास्ते में हम भटियाण बुजुर्ग नामक गाँव के एक संत का दर्शन करने गए। वे 99 वर्षीय हैं। पचास -साठ वर्ष पूर्व पदयात्रा करने निकले थे फिर किसी साधु की सेवा में सारा जीवन वहीं रह गए। वे दक्षिणा के रूप में दस रुपये ही लेते हैं और सभी को भुने चने और इलायचीदाने (साखरफुटाणे)देते हैं।

दोपहर को हम नर्मदालय में भारती ठाकुर के आश्रम पहुँचे। भारती ठाकुर पिछले कई दशकों से बंजारों के बच्चों को शिक्षित करने तथा उनकी देखभाल में जुटी हैं। उनसे मुलाकात तो न हो सकी पर उनका आश्रम देखकर और समाज सेवाभाव देखकर हम सब निःशब्द हो गए। उस रात हम शहदा में रुके। भारती ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा की भक्ति करती हैं और मिशन से जुड़ी हुई हैं।

केदारेश्वर, पुष्पदंतेश्वर महादेव मंदिर, शूलपाणी मंदिर स्वामी नारायण मंदिर, रंगावधूत नारेश्वर होते हुए नारेश्वर आश्रम में निवास के लिए एक रात रुके।

यहाँ पर नर्मदापरिक्रमा पद यात्री रात के समय रुकते हैं। हम प्रातः स्नान करने गए तो वहाँ कुछ गेरवावस्त्र धारी नदी को स्वच्छ करते हुए दिखाई दिए। वे फूल, निर्माल्य, दीया आदि वस्तुएँ एकत्रित करते दिखे। नदी के प्रति समर्पित भाव देखकर हम भी अभिभूत हुए।

अगले दिन हम नारेश्वर दर्शन, कुबेर भंडारी दर्शन कर गरुड़ेश्वर में रुके। आपको बता दें कि यह स्थान सरदार सरोवर से केवल छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यात्री स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भी देखने के लिए जा सकते हैं।

अगले दिन हम गरुड़ेश्वर मंदिर वासुदेव सभा मंडप, दत्त मंदिर, जल कोटि – सहस्र धारा, राज राजेश्वर मंदिर अहिल्याबाई फोर्ट अहिल्या घाट देखने के लिए माहेश्वर पहुँचे।

नर्मदा नदी के किनारे बसा यह शहर अपने बहुत ही सुंदर व भव्य घाट तथा माहेश्वरी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है। घाट पर अत्यंत कलात्मक मंदिर हैं जिनमें से राजराजेश्वर मंदिर प्रमुख है।

विश्वास है कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था। इस शहर को महिष्मती नाम से भी जाना जाता था। कालांतर में यह महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रही है। देवी अहिल्याबाई होलकर के कालखंड में बनाए गए यहाँ के घाट सुंदर हैं और इनका प्रतिबिंब नदी में और खूबसूरत दिखाई देते हैं। संध्या के समय जब किले में रोशनी की जाती है तो सारा परिसर जगमगा उठता है।

अहिल्याबाई घाट पर स्नान करने की सुविधा उपलब्ध है। हम स्नान व माता की पूजा कर किला व अहिल्याबाई होल्कर के निवास स्थान का दर्शन करने गए। अहिल्याबाई शिव मंदिर में आज भी नर्मदा की मिट्टी से 108 लिंग बनाकर उनकी पूजा की जाती है और तत्पश्चात विसर्जित कर दिया जाता है। यह प्रथा अहिल्याबाई के समय से आज तक चलती आ रही है। वहीं पर बाल गोपाल के लिए बना हुआ सोने के झूले का दर्शन भी मिला।

इतिहास गवाह है कि एक विधवा स्त्री ने किस तरह माता नर्मदा पर आस्था रखते हुए अपनी प्रजा के लिए कितना काम किया। माहेश्वर में आज जो साड़ियाँ बनती हैं इस कार्य को अहिल्याबाई ने ही स्त्रियों को कुटीर उद्योग सिखाने और स्वावलंबी बनाने के लिए प्रारंभ किया था। वे अत्यंत न्यायप्रिय रानी थीं।

उस रात हम मंडलेश्वर गोंधवलेकर महाराज नेमावर आश्रम में संध्यारती के लिए पहुँचे। प्रसाद भी अनेक पदयात्रियों के साथ ग्रहण किया और उन सबसे बातचीत करने, उनके अनुभव जानने का अवसर मिला।

इसके अगले दिन हम जबलपुर पहुँचे। यह हमारी यात्रा का नौवां दिन था। हम लोगों ने कभी आश्रमों में रात गुज़ारी तो कभी साधारण व उपलब्ध होटलों में। सभी स्थान पर ताज़ा भोजन और स्नान के लिए गरम पानी अवश्य मिला। साफ़ – सुथरा स्थान आवास के लिए उपलब्ध कराए गए।

आज भेड़ाघाट नामक अलग स्टेशन है। भेड़ाघाट में नर्मदा का विशाल प्रवाह देखने को मिला। तीव्र गति से प्रवाहित होता स्वच्छ जल आपको आकर्षित करेगा। यहाँ नौका विहार और केबल कार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। विविध रंग के संगमरमर के बीच से गुज़रती नाव और आकर्षक दृश्य आपको आह्लादित कर देंगे। संध्या के समय ग्वारी घाट जबलपुर में माता नर्मदा की अद्भुत सुंदर संध्यारती होती है। हम सबने इसका भी आनंद लिया। लोगों की नदी के प्रति आस्था ही उसे जीवित बनाती है। यहाँ नौका विहार के लिए नावों को खूब सजाया जाता है और संध्यारती से पूर्व लोग नौका विहार करते हैं।

दूसरे दिन सुबह धुआँधार जल प्रपात और चौंसठ योगिनी मंदिर दर्शन के लिए गए। चौंसठ योगिनी मंदिर हज़ार वर्ष पुराना मंदिर है। शिव -पार्वती की मूर्तियों के साथ चौंसठ अन्य मूर्तियाँ भी हैं। पुराण के अनुसार एक संपूर्ण पुरुष बत्तीस कलाओं से युक्त होता है और स्त्री भी बत्तीस कलाओं से युक्त होती है। दोनों के संयोग से बनते हैं चौंसठ। तो ये माना जा सकता है कि चौंसठ योगिनी शिव और शक्ति जो सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हैं उन के मिलन से प्रकट हुई हैं। अन्य कई कथाएँ भी हैं। आज यह खंडहर मात्र है। औरंगज़ेब ने इन मूर्तियों को क्षति पहुँचाई थी।

हमारी यात्रा के दौरान भारी संख्या में हमें पदयात्री मिलते रहे। ये पदयात्री दिन में पच्चीस से तीस किलोमीटर चलते हैं। कुछ भक्त नंगे पैर चलते हैं। प्रातः सात बजे चलना प्रारंभ करते हैं और सूर्यास्त से पूर्व किसी आश्रम में रात गुज़ारने के लिए पहुँच ही जाते हैं।

समस्त मार्ग में पदयात्रियों को लोग जल, बिस्कुट, अल्पाहार देकर उनकी सेवा करते हैं।

समस्त राज्य में परिक्रमायात्रियों के लिए लोगों के मन में गहन श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है।

स्त्री-पुरुष सभी निर्भय होकर यात्रा करते हैं। उनकी पीठ पर एक हैवरसैक होता है। जिसमें दो जोड़े वस्त्र, थाली, गिलास, चम्मच, चादर आवश्यक दवाइयाँ होती हैं। एक योगासन मैट का रोल होता है जिसे वे सोने के लिए काम में लाते हैं। साथ में मोबाइल और एक लाठी होती है। एक डोलची लेकर चलते हैं जिसमें जल भरकर रखते हैं। सभी यात्री बिना रुपये – पैसे के चलते हैं। अन्य लोग उन्हें धर्म के नियमानुसार दक्षिणा देते रहते हैं। पद यात्री श्वेत वस्त्र धारण किए हुए होते हैं। इससे उन्हें पहचानना भी आसान हो जाता है। प्रत्येक यात्री एक अद्भुत आस्था लेकर चलता है और उसे भी 3500 किलोमीटर की यात्रा पूरी करनी पड़ती है।

शूलपाणी का इलाका घने जंगल का इलाका है। यहाँ पक्की सड़क अवश्य बनाई गई है पर यह बंजारों का गाँव है, वे मुख्य सड़क से बहुत दूर जंगल के भीतर निवास करते हैं। पच्चीस -तीस किलोमीटर के परिसर में न रुकने का स्थान है न पानी की सुविधा। पर पदयात्री तो इसी मार्ग से चलते हैं। उनका अनुभव है कि नौ किलोमीटर की दूरी से मोटरसाइकिल पर सवार लोग पानी, चाय, बिस्कुट आदि देने के लिए आते हैं। यह सेवा भाव ही है जो सनातन धर्म की शक्ति है।

अगली सुबह हम अमरकंटक के लिए रवाना हुए। यह यात्रा काफी लंबी थी। हमें पहुँचते रात हो गई। यहाँ रामकृष्ण मठ में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हम रात की आरती में सम्मिलित होने के लिए नर्मदामाता मंदिर पहुँचे। सुंदर तथा विशाल परिसर, जल से भरे कई कुंड दिखाई दिए। रात के आठ बजे आरती प्रारंभ हुई। समस्त परिसर आलोकित था मानो नर्मदा माता स्वयं वहाँ उपस्थित थीं।

हर स्थान पर हमें अनुभव रहा कि माता हर समय साथ चल रही हैं। जल में उतरे तो वह हमें बुलाती हैं मानो कहती हैं -आओ मुझसे गले लगो। तट पर हों तो वह स्वयं बढ़कर हम तक आती हैं। मन के भीतर एक अद्भुत शांति का अहसास होता है जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते। स्नान करते हुए हर श्रद्धालु कहता है माता आओ।

दूसरे दिन प्रातः कपिल धारा और दूध धारा जल प्रपातों का हमने दर्शन किया। यहाँ कुछ गुफाएँ हैं जहाँ ऋषि कपिल और ऋषि दुर्वासा तपस्या करते थे। कहा जाता है कि ऋषियों की तपस्या में व्यवधान उत्पन्न न हो इस कारण माता ने अपने प्रवाह को अन्यत्र मोड़ लिया।

हम माता की बगिया नामक स्थान देखने पहुँचे। यह नर्मदा नदी का उद्गम स्थल है। एक छोटा सा कुंड मात्र दिखाई देता है और जल पृथ्वी में समा जाता है। आगे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जल बाहर निकलकर अपने पूर्ण व विस्तृत रूप में नदी बनकर बहने लगता है। इस स्थान में श्रद्धालु माता को साड़ी पहनाते हैं जो सिंबॉलिक होता है। कई स्थानों पर साड़ी टंगी हुई दिखाई देती है।

हमारी अगली यात्रा अब नरसिंहपूर से होशंगाबाद की ओर प्रारंभ हुई। होशंगाबाद को अब नर्मदापुरम कहा जाता है। यहाँ एक सुंदर स्वच्छ घाट है, नाम है सेठानी घाट। हम दोपहर को पहुँचे इसलिए केवल नर्मदा माता का दर्शन मात्र कर सके। तेज़ धूप और गर्मी का प्रकोप भारी पड़ने लगा था।

नर्मदापुरम से आगे एक लच्छोरा नामक गाँव है। यहाँ पुणे की प्रतिभाताई चितळे रहती हैं। हम उनसे मिलने गए। वे कई वर्ष पूर्व नर्मदा परिक्रमा करने निकली थीं। इस अवसर पर उन्हें जो अनुभव मिला तो वे सब कुछ छोड़कर अपने पति के साथ नर्मदा के तट पर घर बनाकर रहने लगीं। आज वे उन लोगों की सेवा करती हैं जो पदयात्रा करते हुए परिक्रमा करते हैं। ऐसे कई यात्री और श्रद्धालु हैं जो नदी के तट पर से ही यात्रा करते हैं। यह और भी कठिन यात्रा है। बीहड़ जंगल, भरी हुई अन्य छोटी नदियों तथा पहाड़ और असमतल मार्ग का उन्हें सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग अक्सर प्रतिभाताई के घर रुकते हैं। उन्हें पूर्ण आराम और निःशुल्क सेवा प्रदान की व्यवस्था चितळे दंपति स्वयं करते हैं। संपूर्ण समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं चितळे दंपति। नर्मदा मैया का श्रद्धालुओं के प्रति सेवा भाव और स्नेह का दर्शन आप यहाँ कर सकते हैं। वरना गृहस्थ जीवन उत्सर्गित करके कोई इस तरह सेवा कैसे भला कर सकता है!!

अब तक हमारी यात्रा के बारह दिन निकल चुके थे। हम एक रात हरदा में रहे। पट्टभिराम मंदिर का दर्शन किया जो अपने आप में एक अद्भुत सुंदर पुरातन मंदिर है। पदयात्री यहाँ भी अमरकंटक से लौटते समय रुकते हैं और निःशुल्क आवास, भोजन, स्नान आदि की सुविधाएँ पाते हैं।

हमारी यात्रा अब समाप्ति की ओर थी। हम लौटकर ओंकारेश्वर आए, इस बार हमें गजानन महाराज के आश्रम में एक कमरा मिल ही गया। यह नर्मदा नदी के तट से थोड़ी दूरी पर स्थित है। स्वच्छ तथा सुलभ व्यवस्था जिसके लिए एक छोटी -सी रकम ली जाती है। परंतु जो पदयात्री होते हैं उन्हें प्राथमिकता दी जाती है और उनके लिए सभी सुविधाएँ निःशुल्क हैं।

फिर एक बार मैया के जल में स्नान करने का हम सबको स्वर्णिम अवसर मिला। स्नान के बाद वस्त्र बदलने के लिए हर घाट पर छोटे -छोटे अस्थायी कमरे जैसा बना हुआ होता है जहाँ सभी जाकर गीले वस्त्र बदल सकते हैं। अबकी बार हम सब चलकर ऊँचे पुल पर चलकर ओंकारेश्वर मंदिर में दर्शन करने गए। अपनी भक्ति और आस्था से भोलेनाथ का उत्तम दर्शन हम सबने पाया। अभिषेक का भी अवसर मिला।

अगले दिन हम उज्जैन के लिए निकले। दो दिन दो ज्योतिर्लिंग के दर्शन को हमने अपना अहो भाग्य माना।

हमारी यह संपूर्ण यात्रा न केवल सुखद रही बल्कि विश्वास दृढ़ हो गया कि चाहे कोई कितना भी प्रयास कर ले, गुलाम बना लिया अत्याचार कर लिया, तलवारें चला लीं, मंदिरों को क्षति पहुँचाई पर सनातन धर्म न डिगा।

देश की हर नदी पूजनीय है। वह जीवन दान देती है। वह माता है। हम सबका पोषण करती है। यही कारण है कि भारत आज भी हिंदुत्व को जीवित रखने में सक्षम है।

दुनिया में हर जगह नदियाँ बहती हैं, उसके किनारे ही दुनिया बसती है पर भारतीय संस्कृति ने नदियों को, पेड़ों को जंगलों को जीवित माना है। उनकी पूजा की जाती है और आज भी करते हैं। कर्नाटक में विशाल मंदिर है जहाँ बनशंकरी की पूजा होती है। इसी माता बनशंकरी ने हनुमान जी का मार्ग दर्शन किया था और वे लंका तक जा पहुँचे थे। यह आस्था ही तो है जो हमारे धर्म को जीवित रखती है।

दुनिया हेवन माँगती है, जन्नत माँगती है ताकि मरने के पश्चात भी आनंद लिया जा सके परंतु सनातन धर्म कर्मों के बल पर मोक्ष का मार्गदर्शन करता है।

जीवन के अंत में जिसने जन्म दिया उसीमें एकाकार हो जाने की उत्कट इच्छा ही सनातन धर्म है। ।

नर्मदे हर, नर्मदे हर, नर्मदे हर!

अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्। देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे परमेश्वरम् ॥

© सुश्री ऋता सिंह

28/3/2022

फोन नं 9822188517, ईमेल – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #140 – “यात्रा वृतांत – दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”

मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”

मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।

मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”

“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।

मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।

मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।

यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।

इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”

मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।

इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।

चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।

मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।

इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”

मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।

चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।

किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।

मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”

तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।

वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।

अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”

समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए। 

जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।

“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”

“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।

इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।

चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।

मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।

यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-05-2023 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ५ – आनंदपुर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग पाँच – आनंदपुर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग पाँच – आनंदपुर ?

(वर्ष 1994)

चंडीगढ़ में रहते हुए एक बात समझ में आई कि बड़े – बड़े बंगलों में रहनेवाले लोग आसानी से किसी नए पड़ोसी से मित्रता नहीं करते। पर नए पड़ोसी के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य ही बहुत ज्यादा होती है उनमें। हम फ्लैटों में रहनेवालों की प्रकृति इससे अलग होती है।हम लोग तुरंत नए पड़ोसी की सहायता में जुट जाते हैं। हमें चंडीगढ़  जाने के बाद शुरू-शुरू में दिक्कत तो हुई पर समय के साथ कुछ लोगों से परिचय हो ही गया।

हमारे मोहल्ले में एक क्लब था जहाँ स्त्री , पुरुष सभी रमी खेलने आते थे। हम वहाँ जाने लगे तो कुछ मित्र बने। एक बैडमिंटन कोर्ट था तो दोस्त बनाने के लिए हमने सुबह बैडमिंटन खेलना प्रारंभ किया। अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कई हमउम्र महिलाएँ बैडमिंटन खेलने आती थीं। सच में उत्कंठित पड़ोसन अब खेल के बहाने हमारे मित्र बनने लगीं।

एक रविवार उन्होंने मुझे अपने साथ गुरुद्वारे जाने के लिए आमंत्रित किया,  मैंने भी सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार किया।पंजाब का हर शहर गुरुद्वारों का विशाल गढ़ है। गुरुद्वारों के प्रति जितनी लोगों में आस्था है उतना ही करसेवा का जुनून भी है। इसे वे एक अनुष्ठान के रूप में करते हैं।

चंडीगढ़ शहर ,पंजाब और हरियाणा के बीच स्थित है। दोनों राज्यों की यह  राजधानी भी है इसलिए महत्वपूर्ण शहर बन गया है और यूनियन टेरीटरी भी है।बहुत ही सिस्टमैटिक रूप से शहर का निर्माण किया गया है। हर एक क्रॉस रोड पर गोल चक्कर है जो मौसमी फूलों ,पौधों से सजा रहता है।यहाँ ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था नहीं थी। (अब भीड़ बढ़ने के कारण ट्रैफिक लाइट है।)

चंडीगढ़ से बीस किलोमीटर की दूरी पर पंचकुला नामक शहर पड़ता है। यह शहर हरियाणा का हिस्सा है।यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसे नाडासाहेब कहा जाता है।

इसका प्रांगण विशाल है। गुरु गोविंद सिंह जी भंगनी में मुगल सेना को हराकर आगे बढ़ते हुए इस स्थान पर आ पहुँचे थे। नाडा शाह  नामक एक सज्जन ने उनका स्वागत किया था। इसीलिए इस स्थान का नाम नाडासाहेब पड़ गया। यहाँ कुछ समय रुकने के बाद वे अपनी सेना के साथ आनंदपुर  के लिए रवाना हो गए थे।

इस विशाल गुरुद्वारे में हर महीने पूर्णिमा के दिन भारी भीड़ होती है। उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं।

इसके बगल में ही बड़ी इमारत है जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं। पूर्णिमा का दिन विशाल उत्सव का दिन होता है।

उस दिन मुझे आनंद के सागर में हिलोरें लेने का अद्भुत आनंद मिला।करसेवा का वह आनंदमय सामुहिक कृति की स्मृतियाँ मुझे आज भी रोमांचित करती है।

पंजाबी भाषा तो ससुराल में रहते ही मैंने बोलना सीख लिया था पर लहजा तो चंडीगढ़ जाकर ही सीखने का अवसर मिला। बलबीर पंजाबी भाषा से कोसों दूर रहे हैं। नाम के आगे सिंह लिखा होने के कारण हर कोई उनसे पंजाबी में बातें करता  और वे मुस्कराकर रह जाते क्योंकि समझ न पाते तो उत्तर क्या देते भला!

बलबीर अपनी कंपनी के चीफ इन्टरनल  ऑडिटर थे। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीनों राज्य के दौरे पर जाया करते थे। एकबार उन्हें  रोपड़  जाना था, यह पंजाब का एक महत्वपूर्ण शहर है। मुझे साथ ले जाना चाहते थे क्योंकि ग्रामीण पंजाबी समझना उनके बस की बात न थी। मैं तुरंत साथ चलने को तैयार हो गई। नेकी और पूछ -पूछ! चंडीगढ़ की पड़ोसियों से आनंदपुर गुरुद्वारे का बखान सुना था।बस मुझे तो गुरुद्वारे का दर्शन करना था।साथ चलने का निवेदन मानो नानकसाहब का बुलावा था।

आनंदपुर साहिब का निर्माण सन 1665 में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी ने किया था। वे कीरतपुर से आए थे। इस गाँव का नाम मखोवल था। गुरु तेगबहादुर ने इसे चक्की नानकी नाम दिया जो उनकी माता का नाम था।

सन 1675 में गुरु तेगबहादुर पर औरंगज़ेब ने भीषण अत्याचार किए ।वे चाहते थे कि गुरु तेगबहादुर मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लें।उनके बार – बार इन्कार करने पर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इस शहीद गुरु के बेटे गोविंद दास को दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। आज हम उन्हें गुरु गोविंद सिंह  के नाम से संबोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। गुरुगोविंद सिंह जी ने ही इस गाँव का नाम चक्की नानकी  से बदलकर आनंदपुर रखा।

वह छोटा – सा गाँव अब शहर बनने लगा। सिक्ख समुदाय के लोग गुरुगोविंद सिंह जी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी संख्या में लोग दसवें गुरु की ओर आकर्षित होते रहे। आनंदपुर सिक्ख समुदाय का महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने लगा। पास पड़ोस के पहाड़ी रियासतों और मुगलों की चिंता बढ़ने लगी। गुरुगोविंद सिंह जी के साहस, शौर्य की बात प्रसिद्धी पाने लगी। मुगल शासक औरंगज़ेब ने बैसाखी के दौरान होनेवाली भीड़ पर पाबंदी लगा दी। सन 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की और विशाल सैन्य बल एकत्रित कर ली। बड़ी मात्रा में हथियार भी एकत्रित कर लिए  गए। औरंगज़ेब और उसके मातहत जितने हिंदू राजा थे वे व्यग्र हो उठे। वे आनंदपुर को घेरना चाहते थे। इस कारण कई  युद्ध हुए।

सन 1700 से 1704 तक मुगलों के साथ कई बार भारी युद्ध हुए। मुगल सेना को मुँह की खानी पड़ी, कभी धूल चाटने की नौबत भी आई।1704 में आनंदपुर को जानेवाली सभी प्रकार की सुविधाओं पर मुगलों ने अंकुश लगा दिए। मई माह से दिसंबर तक भोजन आदि का मार्ग बंद कर दिए गए।कई सिक्ख सैनिक प्राण बचाकर अपने घर भाग गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय नारी युद्ध मैदान से भागे हुए सैनिक की पत्नी बनकर जीने से विधवा होकर जीने को  अधिक श्रेष्ठ  मानती थीं।आवश्यकता पड़ने पर वे भी विरांगनाएँ तलवार लेकर निकल पड़ती थीं। जो सैनिक भागकर लौट आए थे उन्हें उनकी पत्नियों ने प्रताड़ित किया, धिक्कारा और वे सब लौटकर आए और युद्ध मैदान पर शहीद हो गए।

 युद्ध के अंत में आखिर औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह को सपरिवार अपने अनुयायियों के साथ वहाँ से निकलने का मार्ग दिया। दो समूहों में बँटकर वे आनंदपुर से निकले। धोखा देने के स्वभाव से मजबूर मुगलों ने एक समूह पर आक्रमण किया और गुरु गोविंद सिंह के दोनों छोटे बच्चे और  माता गुजारी को घेर लिया। उनका बड़ा बेटा जोरावर सिंह जो आठ वर्षीय था  और फतेह सिंह  जो पाँच वर्ष का था उन्हें बंदी बना लिया गया। उन दोनों को बदले की भावना से जलनेवाले औरंगज़ेब ने ज़िंदा चुनवा दिया। माता गुजारी सदमें को न सह सकीं और उनका देहांत हो गया।

आज आनंदपुर एक विशाल और महत्वपूर्ण गुरुद्वारा है। देश के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। विशाल ,भव्य इमारत है। संग्रहालय है। लंगर के लिए विशेष स्थान है। पास में ही छोटा सरोवर है। आज भी विभिन्न पर्वों के अवसर पर देश -विदेश से सिक्ख संप्रदाय के लोग यहाँ उपस्थित होते हैं। खासकर खालसा समुदाय के लोग बड़ी आस्था के साथ यहाँ आते हैं।

हमारा अहो भाग्य ही है कि चंडीगढ़ में रहते हुए हमें ऐसे विशेष स्थानों पर दर्शन का लाभ मिला।

इन सभी गुरुद्वारों की एक विशेषता है कि यहाँ स्वच्छता को बहुत महत्त्व दिया जाता है।यहाँ शोर नहीं होता। दिनरात पाठ की धुन जारी रहती है।अलग – अलग स्थान पर लोग इच्छानुसार कर सेवा करते रहते हैं। सभी शांति से दर्शन करते हैं। ठेलमठेल कभी दिखाई नहीं देती। लोग कतारों में खड़े होकर नामस्मरण करते दिखते हैं।

सभी लंगर में श्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारे में फूल,माला, नारियल आदि नहीं चढ़ाए जाते। गरम काढ़ा परसाद दिन भर सभी को बाँटा जाता है। हमें यहीं आकर ज्ञात हुआ कि काढ़ा परसाद का अर्थ है कढ़ाही में बनाया गया प्रसाद। हर घर में आटा, घी, गुड़ और पानी ये चारों वस्तुएँ उपलब्ध होती ही थीं। बाद में गुड़ की जगह खंड (शक्कर) का प्रयोग होने लगा। इस तरह भोग चढ़ाकर प्रसाद बाँटने की प्रथा बनी।

आज भी बड़ी मात्रा में काढ़ा प्रसाद ही बाँटते हैं। एक बार आप इस शांतिमय परिसर, आनंदमय वातावरण और स्वादिष्ट प्रसाद, सामूहिक लंगर का आनंद लेने गुरुद्वारे  में दर्शन हेतु अवश्य अवश्य जाएँ।

वाहे गुरु दा खालसा

वाहे गुरु दी फतेह।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ पौंटा साहब  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग चार – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ – पौंटा साहब  ?

(वर्ष 1994)

अपने जीवन के कुछ वर्ष चंडीगढ़ शहर में रहने को मिले। यह हमारे परिवार के लिए सौभाग्य की बात थी क्योंकि यह न केवल एक सुंदर,सजा हुआ शहर है बल्कि हमें कंपनी की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

बर्फ पड़ने की खबर मिलते ही हम सपरिवार ड्राइवर को साथ लेकर शिमला के लिए निकल पड़ते थे। चूँकि हिमाचल की सड़कें पहाड़ी हैं हम जैसे लोगों के लिए वहाँ गाड़ी चला पाना संभव ही नहीं होता। कई होटल भी हैं तो रहने की भी अच्छी व्यवस्था हमेशा ही होती रही। संभवतः यही कारण है कि हिमाचल का अधिकांश दर्शननीय स्थान देखने का हमें सौभाग्य मिला।

अब स्पिति हमारे बकेटलिस्ट में है!

हम सभी को श्वेतिमा से लगाव है अतः श्वेत बर्फ से ढकी चोटियाँ हमें मानो पुकारती थीं और हम अवसर मिलते ही रवाना हो जाते थे।

चंडीगढ़ के निवासी ऐसे ट्रिप को अक्सर शिवालिक ट्रिप नाम देते हैं क्योंकि यह शिवालिक रेंज के अंतर्गत पड़ता है।

शिमला, कसौली, कुफ्री,चैल, तत्तापानी कालका,सोलन, परवानु आदि सभी स्थानों के दर्शन का भरपूर हमने आनंद लिया।

इस वर्ष हम कुल्लू मनाली के लिए रवाना हुए। चंडीगढ़ से 120 कि.मी. की दूरी पर डिस्ट्रिक्ट सिरमौर है। यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसका नाम है पौंटासाहब। हमने सबसे पहले यहीं अपना पहला पड़ाव डाला। यद्यपि दूरी 120 किलोमीटर की ही थी पर फरवरी के महीने में अभी भी कड़ाके की ठंडी थी, सुबह ओस और धुँध के कारण गाड़ी शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। रास्ते भी घुमावदार थे। अँधेरा भी जल्दी ही हो जाने के कारण हमने उस रात वहीं रुकने का मन बनाया।

पौंटा साहब का असली नाम था पाँव टिका। गुरु गोविन्द सिंह जी एक समय इस स्थान पर अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ यहाँ उतरे थे। उन दिनों वे सिक्ख धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुगलों द्वारा भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन ने ज़ोर भी पकड़ रखा था। ऐसे समय अपने देशवासियों को एकत्रित करना और समाज की सुरक्षा के लिए तैयार रहना उस समय के देशवासियों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी। गुरु गोविंद सिंह जी जो सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें गुरु थे, इस तरह घूम-घूमकर लोगों को जागरूक करने और सिक्ख धर्म का प्रचार करने निकलते थे।

गुरु गोविंद सिंह जी कहीं भी अधिक समय तक नहीं रुकते थे। पर इस स्थान पर वे चार वर्ष से अधिक समय तक रुके रहे। जिस कारण इस स्थान को पाँव टिका कहा गया। अर्थात गुरु के पाँव अधिक समय तक टिक गए। इसका रूप बदला और यह पौंटिका कहलाया। फिर समय के चलते इसका नामकरण हुआ और यह पौंटासाहब कहलाया।

उन दिनों सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश थे। वे सिक्ख समुदाय के साथ एक मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने ही गुरुगोविंद सिंह जी को सिरमौर में आने का आमंत्रण दिया था।

गुरुगोविंद सिंह के साथ उनकी बड़ी फौज भी हमेशा साथ चलती थी। सभी के रहने के लिए एक उत्तम स्थान आवश्यक था। राजा मेदिनी प्रकाश ने विशाल स्थान घेरकर एक सुरक्षित किले की तरह इस स्थान का निर्माण कराया, साथ ही भीतर एक विशाल गुरुद्वारा भी बनवाया। यमुना के तट पर बसा यह गुरुद्वारा आज जग प्रसिद्ध है।

यह स्थान न केवल सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है बल्कि इस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहीं पर लंबे अंतराल तक रहते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ की रचना की थी। उनका पुत्र अजीत सिंह का जन्म भी यहीं हुआ था।

यहाँ सोने की एक पालकी है जिसे भक्तों ने गुरुद्वारे को उपहार स्वरूप में दिया था।

गुरुद्वारे के भीतर दो मुख्य स्थान हैं जिन्हें तलब असथान और दस्तर असथान कहते हैं। असथान का अर्थ है स्थान। तलब असथान में कार्यकर्ताओं को तनख्वाह बाँटी जाती थी। दस्तर असथान में पगड़ी बाँधने की रस्म अदा की जाती थी।

गुरुद्वारे के पास ही माता यमुना का मंदिर स्थापित है। यहाँ एक बड़ा हॉल है जहाँ कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। इसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह जी के रहते हुए कविता लेखन की स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था। यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसमें कई पुरातन वस्तुएँ रखी गई हैं। गुरुगोविंद सिंह जी की कलम भी यहाँ देख सकते हैं। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई कई वस्तुएँ यहाँ देखने को मिलेंगी।

 यहाँ बड़ी संख्या में न केवल सिक्ख आते हैं बल्कि अन्य पर्यटक भी दर्शन के लिए आते रहते हैं। यहाँ आकर एक बात बहुत स्पष्ट समझ में आती है कि ईश्वर एक है, एक ओंकार। बड़ी मात्रा में लंगर की यहाँ सदा व्यवस्था रहती है। सब प्रकार के लोग,सब जाति के,वर्ग के लोग एक साथ बैठकर लंगर में प्रसाद का आनंद लेते हैं। यहाँ दिन भर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ रहती है।

यमुना के तट पर होने के कारण प्रकृति का सुंदर दृश्य सब तरफ देखने को मिलता है।

आज इस शहर में कई प्रकार के उद्योग प्रारंभ किए गए हैं। रहने के लिए कई बजेट होटल भी उपलब्ध है।

पौंटासाहब कुल्लू से 360 किमी की दूरी पर है। रास्ते में अगर आप रुकते हुए ढाबों के भोजन का आनंद लेते चलें तो दर्शन करने के लिए भी पर्यटक यहाँ रुकते जाते हैं। रास्ते में आपको शॉल बनने के छोटे- छोटे कुटीर उद्योग करते लोग मिल जाएँगे।

यहाँ के लोगों का स्वभाव मिलनसार है। वे पर्यटकों की अच्छी देखभाल और आतिथ्य करते हैं। उनका स्वभाव भी सरल ही होता है। आपको यहाँ अधिकतर लोग रास्ते के किनारे उकड़ूँ बैठकर बतियाते दिखाई देंगे। सभी फुर्सत में दिखते हैं। शहरों – सी भागदौड़ यहाँ नहीं दिखती। इनके छोटे- बड़े पत्थर के घर आकर्षक दिखाई देते हैं। हर घर में खूब लकड़ियाँ स्टॉक करके रखी जाती हैं। इसका उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ठंडी का मौसम लंबे समय तक चलने के कारण वे लकड़ियाँ जमा करते रहते हैं।

यहाँ के लोग भात तो खाते ही हैं साथ में कमलगट्टे का यहाँ प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। आप जैसे – जैसे गाँवों की पतली सड़को से गुजरेंगे आपको हींग के पौधों की खेती दिखाई देगी। जो हाल ही में प्रारंभ की गई है।

पौंटासाहब का दर्शन करके हम रोहतांग पास तक पहुँचे। वहाँ एक खास बात देखने को मिली कि ऊपर चलने से पहले ही वे पर्यटकों के हाथ में कपड़े की थैली पकड़ाते हैं ताकि उनके पर्यावरण की रक्षा हो सके और कचरा न फेंके जाएँ। यह एक बहुत बड़ी बात थी जो समय से बहुत पहले ही देखने को मिली। यह सतर्कता अभी चंडीगढ़ में भी नहीं थी।

हमारे परिवार का यह सौभाग्य ही रहा कि हमें दूसरी बार पौंटासाहब गुरुद्वारे का दर्शन करने का अवसर मिला। इस बार हम देहरादून से वहाँ पहुँचे थे। देहरादून से पौंटासाहब पचास कि.मी की दूरी पर स्थित है।

यह नानक साहब की असीम कृपा है कि हमें भारत के मुख्य गुरुद्वारों के दर्शन का सौभाग्य मिलता ही रहा है।

वाहे गुरु, वाहे गुरु बोल खालसा

तेरा हीरा जन्म अनमोल खालसा

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीन – पत्थर साहब लदाख ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग तीन – पत्थर साहब लदाख)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीनपत्थर साहब लदाख ?

(सितम्बर 2015)

2015 इस वर्ष हम रिटायर्ड शिक्षकों का यायावर दल ने लेह लदाख जाने का निर्णय लिया। सितंबर का महीना था। लेह-लदाख जाने के लिए यही समय सबसे उत्तम होता है।

चूँकि हम सभी साठ पार कर चुकीं थी तो यही निर्णय लिया कि मुंबई से डायरेक्ट लेह न जाकर हम श्रीनगर तक फ्लाइट से जाएँ और वहाँ से हम बाय रोड लेह-लदाख तक की यात्रा करें।

 इस निर्णय के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण था। लेह -लदाख समुद्री तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिस कारण ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। अगर सीधे लेह जाकर उतरते तो दो दिन ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल में पड़े रहते। श्रीनगर से आगे बाय रोड जाने पर घटते ऑक्सीजन की मात्रा का अहसास ही नहीं होता। शरीर बाहरी जलवायु के अनुकूल होता जाता है।

श्रीनगर में हम दो रात रहे। तीसरे दिन हम कारगिल के लिए रवाना हुए। श्रीनगर से अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर नौवीं शताब्दी में निर्मित अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर को देखने के लिए हम लोग रुके।

 विशाल पत्थरों पर सुंदर और अद्भुत आकर्षक नक्काशी देखने को मिला। विशाल परिसर में फैला विष्णुजी और शिवजी के यहाँ कभी भव्य मंदिर हुआ करते थे। सुल्तानों ने इसे न केवल लूटा बल्कि तोड़- फोड़कर इसका विनाश भी किया। अब केवल खंडहर शेष है। यह खंडहर ही उसकी भव्यता का दर्शन कराता है।

 हम आगे सेबों से लदे बगीचों का आनंद उठाते हुए कारगिल पहुँचे। श्रीनगर से कारगिल 202 किलोमीटर के अंतर पर है। पाँच -छह घंटे पहुँचने में लगे।

हम कुछ दो बजे कारगिल पहुँचे। यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे द्रास घाटी कहा जाता है। यहीं पर पाकिस्तान के साथ 26 जुलाई 1999 को युद्ध छिड़ा था।

आज यहाँ एक विशाल मेमोरियल बनाया गया है। यहाँ शहीद सैनिकों का बड़ा सा सूची फलक है। यहाँ युद्ध संबंधी डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी देखने का मौका मिला। हम आम नागरिक अपने घर में सुरक्षित होते हैं जबकि हमारी सेना दिन रात ठंडी-गर्मी में हमारी सुरक्षा में तैनात रहती है। इस बात का अहसास तब होता है जब वहाँ की शीतलहर को थोड़ी देर झेलकर हम काँप उठते हैं।

1999 के युद्ध में देश ने जीत हासिल की इस बात का न केवल हमें गर्व है बल्कि हमें खुशी भी है पर शहीद हुए जवानों की सूची देखकर तथा किन हालातों का हमारी सेना ने सामना किया था यह जानकर दिल दहल भी उठा। उन सबके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम सबका मस्तक झुक जाता है।

हमने दो रातें कारगिल में बिताई और वहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल देखकर हम लोग नुब्रा वैली के लिए रवाना हुए।

पुणे से रवाना होने से पूर्व हरेक को एक – एक छोटी-सी पोटली दी गई थी। इन पोटलियों में विशेष औषधीय गुण युक्त कपूर थे। रास्ते भर हम कपूर सूँघते हुए श्वास-कष्ट से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे। कपूर में ऑक्सीजन लेवल को नियंत्रण में रखने का गुण होता है। हम में से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।

रास्ते अच्छे थे और लोकल चालक भी सतर्क और जानकार। घुमावदार सड़कें और दूर-दूर तक बर्फीली चोटियाँ आकर्षक दिखाई दे रही थीं। हमारी गाड़ी भी बीहड़ पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। हर पहाड़ का रंग ऐसा मानो किसीने तूलिका फिरा दी हो। 

नुब्रा वैली जाने से पहले हम दुनिया के सर्वोच्च मोटरेबल रोड खारडुंगला पास पहुँचे। इसका असली नाम खारडूंगज़ा ला है। यह 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर जवानों के लिए एक सुंदर शिव मंदिर है। हमें कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में बीस मिनट ही गाड़ी से बाहर रहने की इज़ाज़त थी। ऑक्सीजन लेवेल कम होने के कारण तबीयत बिगड़ने की संभावना होती है। हम सभी सहेलियाँ यहाँ लगे बोर्ड के सामने तस्वीरें खींचकर , शिव मंदिर में बाहर से ही दर्शन करके तुरंत गाड़ी में लौट आए।

खारडुंगला के बाद हम चांग ला पास से गुज़रे। यह 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

खारडुंगला पास से 38 की.मी की दूरी पर पत्थर साहिब गुरुद्वारा है। यहाँ दूर -दूर तक रहने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही खाने -पीने के लिए कोई रेस्तराँ ही है बस एक सुंदर गुरुद्वारा है। हर आने-जाने वाली गाड़ी यहाँ अवश्य रुकती है। दर्शन करके ही आगे बढ़ती है।

गुरु नानक अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हुए तिब्बत, भूटान, नेपाल होते हुए लदाख पहुँचे। लौटते समय वे इसी स्थान पर रुके थे।

वहाँ के लोग एक कथा सुनाते हैं कि एक राक्षस था जो वहाँ के लोगों को सताया करता था। लोकल लोग नानक जी को नानक लामा कहते हैं। तिब्बत के लोग उन्हें गुरु गोमका महाराज कहा करते हैं। यद्यपि लदाख के अधिकांश लोग बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं पर वे गुरु नानक का भी सम्मान करते हैं।

एक दिन वे साधना में लीन थे कि पीछे से उस राक्षस ने एक विशाल और भारी पत्थर नानक जी को मारने के लिए ऊपर से लुढ़का दिया। पत्थर लुढ़ककर नानक जी की पीठ पर धँस गया। पर पत्थर मोम की तरह पिघल चुका था। पत्थर पर आज भी उनकी पीठ की निशानी है। नानक जी को चोट नहीं लगी यह देखकर राक्षस ने नीचे उतरकर पत्थर की दूसरी छोर पर लात मारी तो उसका पैर मोम जैसे पत्थर पर चिपक गया।

उसे समझ में आ गया कि नानक जी साधारण मनुष्य नहीं थे। वह वहाँ से चला गया और फिर उसने गाँववालों को कभी नहीं सताया।

वहाँ के निवासी उस पत्थर को बहुत महत्व देते थे। समय के साथ -साथ घटना पुरानी भी हो गई और भूली भी गई।

सन 1970 में जब लेह -नीमू सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो वह पत्थर रोड़ा बन गया। आर्मी ने उसे हटाने का बहुत प्रयास किया। पर पत्थर टस से मस न हुआ। जब उस पत्थर को बम विस्फोटक द्वारा उड़ा देने का निर्णय लिया गया तो वहाँ के निवासी और कुछ लामाओं ने आकर ऐसा करने से उन्हें रोका। गुरु नानक लामा की कथा आर्मी चीफ को सुनाई गई और सबने मिलकर वहाँ पत्थर साहिब गुरुद्वारा का निर्माण किया।

आज इस गुरुद्वारे की देखरेख वहाँ की आर्मी ही करती है। साफ -सुंदर परिसर। विशाल ठंडे बर्फीले पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह गुरुद्वारा पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

जिस दिन हम दर्शन के लिए गुरुद्वारा पहुँचे तो वहाँ अखंड पाठ समाप्त ही हुआ था। किसी कर्नल की पल्टन अपनी अवधि पूरी करके लदाख से शिफ्ट हो रही थी। इसलिए अखंड पाठ रखा गया था। साथ ही बहुत ही उम्दा लंगर का आयोजन भी था। उस दिन गुरुद्वारे में पल्टन के सभी लोग उपस्थित थे। उत्सव का वातावरण था। आने-जानेवाले पर्यटक भी लंगर में शामिल हुए थे। हम भी लंगर में शामिल हो गए।

हम सभी ने इस दर्शन को अपना सौभाग्य ही माना कि इतने दूर दराज स्थान पर हमें नानक जी के उस रूप का दर्शन मिला जो एक पवित्र पाषाण के रूप में है। वैसे गुरुद्वारों में सिवाए गुरु ग्रंथसाहब के किसी मूर्ति को रखने की प्रथा नहीं है। पर यहाँ यह पत्थर मौजूद है और यात्री पास जाकर दर्शन कर सकते हैं।

हम वहाँ से नुब्रा पहुँचे। हमारे रहने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। नुब्रा में एक रात रहने बाद इसके आगे हमारी यात्रा बहुत लंबी थी। हम पैंगोंग त्सो देखने के लिए निकले। रास्ते में कहीं कहीं बायसन चरते हुए दिखाई देते। यहाँ के निवासी ज़मीन के नीचे गुफा जैसी जगह बनाकर रहते हैं ताकि सर्द हवा और बर्फ से बचे रहें। गाड़ी के चालक ने बताया कि बायसन पालनेवाले उनके दूध से चीज़ बनाने की कला सीख गए हैं। यहाँ लेह लदाख के सुदूर इलाकों में जीवन बहुत कठिन है। उद्योग के खास ज़रिए भी नहीं है।

हम सब पैंगोंग त्सो या लेक देखने पहुँचे। यहाँ पर भी प्रियंवदा के नेतृत्व में हमें आर्मी मोटर बोट में बैठकर विहार करने का 112 मौका मिला। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों से वहाँ पर्यटकों के लिए नौका विहार की मनाही थी। पर प्रियंवदा के किसी परिचित आर्मी चीफ की सहायता से हम शिक्षकों को इजाज़त मिल गई और हम सबने इस विहार का आनंद भी लिया।

लेक के किनारे ही गणपति जी का छोटा-सा मंदिर है। उस दिन सुदैव से संकष्टी चतुर्थी का दिन था। हम सबने आरती की और टेन्ट की ओर बढ़े जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था थी। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कदम – कदम पर ईश्वर इस यात्रा में हमारे साथ उपस्थित थे। जो कुछ देखना चाहा,करना चाहा बस वह जादू की तरह तुरंत सामने उपस्थित हो जाता। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे न!

पैगोंग त्सो या लेक 134 कि.मी लंबा है। यह

समुद्री तल से 4350 मी.की ऊँचाई पर है। यह संसार का सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे जल का स्रोत है।

इसके एक छोर पर चीन का कब्ज़ा है। इस लेक का पानी स्वच्छ ,पारदर्शी और आकर्षक है। लेक के किनारे स्थित पहाड़ों का प्रतिबिंब लेक के जल में इतना स्पष्ट दिखाई देता है कि आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। यहाँ भयंकर सर्द हवा चलती है। ठंड के दिनों में लेक पर बर्फ की मोटी परत चढ़ जाती है। सारा पानी जम जाता है। इस लेक में किसी प्रकार के कोई जीव,मत्स्य आदि नहीं पाए जाते। यह खारे जल का स्रोत है।

अनेकों कमियों और अभावों के चलते भी हमारे रहने तथा भोजन आदि की व्यवस्था अति उत्तम थी। पर्यटकों के आने पर कई लोगों को रोज़गार भी मिल जाता है।

दूसरे दिन हम लदाख से लेह की ओर लौटने लगे। रास्ते में थ्री इडियट नामक सिनेमा में दर्शाए गए फुनसुख वांगडू की पाठशाला भी देखने गए। लोकल लोगों के नृत्य का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। उनके साथ हमारी सखियाँ नाच भी लीं। आनंदमय वातावरण था। सन ड्यू रेगिस्तान में दो कूबड़ वाले और लंबे बालवाले ऊँट की सवारी की गई। थोड़ी देर के लिए हम सब अपनी उम्र भूल ही चुके थे।

धीरे -धीरे लेह की ओर लौटते हुए कई बौद्ध विहार के हमने दर्शन किए। कुछ पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित हैं तो कुछ पहाड़ों की तराई में। हर एक मंदिर /विहार अपनी सुंदरता,शांति और भव्यता के कारण पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।

वहाँ के निवासी सीधे -सरल और मिलनसार हैं। वे पर्यटकों की बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। मृदुभाषी हैं। सभी बड़ी सरलता से हिंदी बोलते हैं।

गाड़ी के चालक से ही ज्ञात हुआ कि जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है और पर्यटक भी नहीं होते तब वे हमारी सेना की सहायता के लिए सियाचिन की ओर निकल जाते हैं और तीन माह वे वहीं अच्छी रकम पाकर सामान ढोने का काम करते हैं। सियाचिन में भी एक निश्चित स्थान के बाद सेना की ट्रकें आगे नहीं बढ़ सकती हैं वहीं ये लदाखी काम आते हैं।

हमारे लौटने का समय आ गया था। दस – बारह दिन अत्यंत आनंद के साथ गुज़ारे गए। हम जिस भीड़भाड़ में रहते हैं,जहाँ सभी दौड़ते – से लगते हैं उस भीड़ से बिल्कुल हटकर एक अलग दुनिया की हम सैर कर आए थे। शांति, संतोष, सौंदर्य और सरलता का अगर दर्शन करना चाहते हैं तो लेह लदाख अवश्य जाएँ।

यह मेरा सौभाग्य ही है कि 2022 सितंबर के महीने में मैं अपने पति बलबीर को साथ लेकर फिर लेह- लदाख के लिए निकली। इस बार पत्थर साहब में बाबाजी का दर्शन साथमें किया।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस तरह दूर -दराज़ स्थानों के पवित्र मंदिर और गुरुद्वारों के दर्शन का मुझे निरंतर सौभाग्य मिलता आ रहा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग दो – नांदेड़

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ?

(अगस्त 2014)

बीड़ जिले का एक छोटा सा शहर है, नाम है परलीवैजनाथ (परळीवैजनाथ)। इस शहर में BHEL का एक बड़ा विद्यालय है। मुझे इस विद्यालय में खेलों द्वारा भाषा सिखाने की विधि इस विषय से संबंधित वर्कशॉप लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पाँच दिन का था। एक अधिक दिन हाथ में रखकर रात की बस से मुझे छठवें दिन पुणे लौट आना था।

जाते समय रात के 7.30 बजे मैं स्लीपिंग वोल्वो बस में सवार हुई। रात भर का सफ़र था। सुबह 5.30 बजे बस परलीवैजनाथ पहुँचनेवाली थी। पुणे से परलीवैजनाथ का अंतर 372 कि.मी है। मैं आराम से ड्राइवर के पीछेवाली स्लीपिंग सीट में बैठ गई। बस चल पड़ी। यह जुलाई का अंतिम सप्ताह था। बाहर वर्षा हो रही थी।

हम कुछ पचास कि.मी. ही सफ़र कर पाए थे कि ज़ोर से एक झटका लगा। बस में सोए कुछ बच्चे झटका खाकर धम्म से बस की फ़र्श पर गिरे और ज़ोर से रोने लगे। बस डिवाइडर पर चढ़ गई थी। बस के दोनों ओर के ऑटोमेटिक दरवाज़े लॉक हो गए थे। खूब प्रयास के बाद जब दरवाजे नहीं खुले तो पीछे के एमरजेंसी द्वार से सबको नीचे उतारा गया।

मेरे लिए छलाँग मारकर नीचे उतरना किसी सर्कस से कम न था। वह दृश्य आज भी याद करने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे हाथ पैर छिल गए पर अब पीछे मुड़कर देखना न था तो अन्य यात्रियों के साथ तेज़ बारिश में भीगती हुई अपना सामान लेकर मैं भी रास्ते के किनारे खड़ी रही। कहीं कोई शेड न था, हाई वे पर रोशनी तो होती नहीं तो अंधकार में ही ईश्वर को स्मरण करते हुए खड़ी रही।

थोड़ी देर में कुछ और वोल्वो बस आईं तो किसी को कहीं तो किसी को कहीं बिठा दिया गया। मुझे एक लालवाली एस.टी में बिठाया और कन्डक्टर ने कहा कि नगर में आपको स्लीपिंग कोच मिल जाएगी। इस बस की भी सारी सीटें भरी थीं।

कुछ घंटे दरवाज़े के पास वाली सीट पर बैठकर रात के कोई ग्यारह बजे नगर पहुँची तो वहाँ से फिर एक दूसरे वोल्वो में मुझे बिठा दिया गया और कहा कि शिरडी से फिर बस बदलनी पड़ेगी।

अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई चारा न था। रात के एक बजे के करीब शिर्डी पहुँची तो वहाँ से परलीवैजनाथ जाने के लिए शेयरिंग में स्लीपिंग सीट मिली। मरता क्या न करता। एक बूढ़ी महिला के साथ कभी बैठकर तो कभी ढुलकी लेती हुई सुबह साढ़े सात बजे हम परलीवैजनाथ पहुँचे।

मुझे लेने के लिए एक शिक्षिका और दो शिक्षक आए हुए थे। शहर में एक छोटा रेल्वे स्टेशन है। रेल्वे स्टेशन के बाहर ही एक होटल में रहने की व्यवस्था थी। थोड़ा फ्रेश होकर दस बजे से वर्कशॉप प्रारंभ हुआ। न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी जो सारे दर्द भूल गई और जोश के साथ काम प्रारंभ किया।

छोटे शहर के सीधे -साधे सरल लोग, आनंद आया उन सबके साथ पाँच दिन वर्कशॉप लेते हुए। सबके साथ नीचे फर्श पर बैठकर महाराष्ट्रीय भोजन करते हुए आनंद आया। सत्तर शिक्षक थे। उन सबमें आत्मीयता थी, कोई दिखावा नहीं। मैं भी सबके साथ घुलमिल गई।

पाँचवे दिन कार्यक्रम समाप्त हुआ। विद्यालय ने धनराशि के चेक के साथ अनपेक्षित कई प्रकार के अन्य उपहार भी दिए, यह उनका बड़प्पन था। वे वर्कशॉप से अत्यंत प्रसन्न थे तथा छह माह बाद पुनः आने का लिखित आमंत्रण भी दिया।

वर्कशॉप के दौरान ही मैंने यों ही कहा था कि मुझे नांदेड जाने की बड़ी इच्छा है और लो! उसी दिन शाम को एक इनोवा गाड़ी और दो शिक्षक नांदेड जाने के लिए तैयारी करके आए।

हमें 105 कि.मी का फासला तय करना था। रास्ता भी खराब था। हम शाम को साढ़े चार बजे रवाना हुए और तीन घंटे में नांदेड पहुँचे।

यहाँ का परिसर अमृतसर के गुरुद्वारे से भी बड़ा है। स्वच्छ तथा आकर्षक गुरुद्वारा! सब कुछ सफेद संगमरमर का बना हुआ। परिसर में प्रवेश करते ही साथ एक अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव हुआ।

इस गुरुद्वारे को हज़ूर साहब सचखंड कहा जाता है। यह भारत के मुख्य पाँच गुरुद्वारों में से एक है। यह गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है।

1708 में सिक्खों के अंतिम तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजाब से नांदेड सिक्ख धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए आए थे। वे यहीं पर कुछ काल तक रहे। कहा जाता है कि कुछ धार्मिक कारणों से नवाब वजीर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की हत्या करवाने के लिए हमला करने दो आदमियों को भेजा था। एक हमलावर की गर्दन तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने ही अपनी तलवार से छाँट दी और दूसरे को अनुयायियों ने मारा। 7 अक्टूबर 1708 गुरुगोविंद सिंह जी ने देह त्याग किया था। उनके साथ उनके प्रिय घोड़े ने भी अपनी जान दे दी थी। घोड़े का नाम दिलबाग था।

अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे अब किसी उत्तराधिकार को गुरु चुनने के बजाए अपने पवित्र धर्म ग्रंथ को ही गुरु मानें। तब से ग्रंथ साहिब को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाने लगा। आपने ही इस शहर को अवचल नगर नाम दिया था।

आज जिस स्थान पर गुरुद्वारा बनाया गया है उस स्थान को सच खंड कहा जाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी की आत्मा पवित्र ज्योत में विलीन हो गई थी।

गुरुद्वारे का भीतरी कमरा अंगीठा साहिब कहलाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था। सौ साल से भी अधिक समय बीतने के बाद 1830 में पंजाब के प्रसिद्ध राजा रणजीत सिंह जी ने इस गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।

यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं अपितु हर भारतीय के लिए एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी है।

मराठी भाषा के तीन प्रसिद्ध कवि विष्णुपंत सेसा, रघुनाथ सेसा और वामन पंडित का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।

महाराष्ट्र पंजाब से बहुत दूर है, इसलिए अपनी मृत्यु से पूर्व गुरुगोविंद सिंह जी ने एक अनुयायी संतोक सिंह को छोड़कर बाकी सभी को पंजाब लौट जाने के लिए कहा था और संतोक सिंह को लंगर चलाते रहने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। पर उनके अनुयायी पंजाब न लौटे और नांदेड़ में ही बस गए।

अनुयायियों ने अपने गुरु की याद में एक छोटा- सा मंदिर बनाया था जो सच खंड कहलाया। आज यहाँ बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग इस शहर में रहते हैं। प्रति वर्ष गुरु गोविन्द सिंह की जयंती मनाई जाती है। लाखों की संख्या में सभी भक्त आते हैं। यह शहर सिक्ख संप्रदायों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।

गुरुगोविंद सिंह जी अपने घावों के ठीक न हो पाने की वजह से मृत्यु के ग्रास बनें थे।

1666 में जन्में इस महान गुरु ने 41 वर्ष की आयु तक मुगलों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का सामना किया। उनके पिता गुरु तेगबहादुर सिंह (जो नौवें गुरु भी थे) और उनके चार पुत्र भी औरंगज़ेब के हाथों कष्ट पाकर शहीद हो गए थे। यही कारण था कि उन्होंने खालसा पंथ का निर्माण किया। इनका काम था मुग़लों के विरुद्ध हथियार उठाना। सभी सिक्ख संप्रदाय जो खालसापंथी थे वे कट् टरता से सभी धार्मिक नियमों का पालन करते थे। यहाँ आज भी भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाए जाने की प्रथा है।

मंदिर के भीतरी भाग के एक कमरे में गुरुगोविंद सिंह जी के अस्त्र -शस्त्र तथा उनके द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं। यहाँ किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है।

हम मंदिर के परिसर में पहुँचे तो जब अपने जूते चप्पल रखने एक निर्धारित स्टैंड पर गए तो एक सिक्ख सज्जन ने न, न कहने पर भी हमारे जूते -चप्पलों को अपने हाथ से उठाकर शेल्फ पर रखा और हमें टोकन दिया।

हम मंदिर में माथा टेककर जब लौट रहे थे तो उस समय रात के कुछ दस बजे होंगे। वे सज्जन जो जूते रख रहे थे अब मंदिर की ओर जा रहे थे। हमें देखकर सतश्रीआकाल कहा और मुस्कराहट के साथ आगे बढ़ गए। साथियों से पूछने पर पता चला कि वे नांदेड़ शहर के जाने-माने व्यापारी थे, जिनकी शहर में कई दुकानें थीं। वे प्रतिदिन सुबह सात से दस और शाम को सात से दस कार सेवा के लिए आते हैं। शायद यही सेवा की भावना उन्हें अहंकार से दूर रखती है। मिट्टी से जोड़े रखती है।

यहाँ रोज़ लंगर चलता है। रोटी, सब्जी,चावल कढ़ी, छोले ,राजमा आदि नियमित बनाए जाते हैं। लोग अपने समयानुसार आकर कार सेवा करते हैं। कोई सब्जी काटता है तो कोई रोटियाँ सेंक देता है। हज़ारों लोग रोज भोजन करने आते हैं। हज़ारों हाथ सेवाजुट भी रहते हैं।

यहाँ तस्वीर खींचने की मनाही है।

गुरुद्वारा एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ हर जाति धर्म, वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए तथा लंगर का प्रसाद पाने के लिए जा सकता है।

रात के समय संगमरमर से बना विशाल मंदिर बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहा था।

मैं भावविभोर हो उठी। अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उस पवित्र भूमि पर खड़ी थी जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी का पार्थिव शरीर कभी रखा गया था। यह मेरा सौभाग्य ही था जो मैंने चाहा और मुझे मिला। शायद यही कारण था कि बस से उतरते समय जो चोटें लगी थीं वे सब ठीक हो गईं और सफल कार्यक्रम के बाद मैं दर्शन के लिए भी पहुँच गई।

रात को डेढ़ बजे हम वहाँ से रवाना हुए और प्रातः पाँच बजे होटल पहुँच गई।

आज जब अपनी इस अद्भुत यात्रा की बात सोचती हूँ तो यह विश्वास करने को विवश होती हूँ कि हमें ऐसी जगहों से बुलावा आता है और पहुँचने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं जहाँ जाने का कभी ख्याल भी नहीं करते हैं हम। पर प्रभु के बुलावे की महिमा ही अद्भुत है।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का प्रथम भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ?

(दिसंबर 2017)

पंजाबी संस्कृति  से मेरा परिचय विवाहोपरांत ही हुआ। इस क्षेत्र की  भाषा , खान-पान , तीज -त्योहार आदि से मेरा नज़दीक से  साक्षात्कार हुआ। इससे पूर्व बाँग्ला संस्कृति,साहित्य और भाषा के बीज हमारे माता-पिता द्वारा  हृदय की बड़ी गहराई में बो दिए गए थे।

ससुराल में सभी से भरपूर स्नेह मिला साथ ही ससुर जी जिन्हें हम सब बावजी (बाबूजी शब्द का अपभ्रंश) कहते थे,पंजाब की जानकारी और नानक साहब के जीवन की लघु कथाओं से मुझे परिचित करवाते रहे।

धीरे – धीरे गुरुद्वारे के वातावरण को देख मेरे मन में विश्वास और आस्था घर करती गई ।साथ ही विभिन्न गुरुद्वारों के दर्शन की इच्छा मन में पनपती रही। यह  स्वर्णिम अवसर भी अपने जीवन में मुझे समय – समय पर मिलता रहा।

अपने इस संस्मरण में विभिन्न गुरुद्वारों की यात्रा का विवरण उपस्थित कर रही हूँ।

हम कुछ सहेलियाँ  रान ऑफ कच्छ फेस्टिवल  देखने के लिए रवाना हुए। कच्छ के कई दर्शनीय स्थल जैसे विजय विलास महल, मांडवी, कालोडुंगर, सफेद रेगिस्तान, प्राग महल  और कुछ छोटे- गाँव देखने के बाद तथा फेस्टिवल के चार दिन तक भरपूर  आनंद लेने के बाद हम भुज पहुँचे। दूसरे दिन सुबह हम सब लखपत  के लिए रवाना हुए।

लखपत भुज से 134 कि. मी के अंतर पर है।यह कच्छ का अंतिम छोर है।

आज लखपत में  एकांत है। दूर तक एक लंबी चौड़ी दीवार फैली है जो किसी समय किला का हिस्सा थी। भीषण भूंकप के कारण सब कुछ नष्ट हो गया। किले की दीवार भी दरारों से पटी पड़ी है।वहाँ से जब हवा गुज़रती है तो डरावनी आवाज़ आती है इसलिए इस गाँव को उजड़ा भूतिया गाँव कहा जाता है।

जिस लखपत में एक समय 10,000 लोग रहते थे , बारंबार भूकंप के बाद धीरे -धीरे आबादी घटती गई और आज यहाँ गिनकर शायद सौ लोग रहते हैं।

आज यहाँ संपूर्ण वीरानगी है। गुरुनानक के समय इसे बस्ता बंदर कहा जाता था क्योंकि यह व्यापार का एक बड़ा बंदरगाह था। खूब व्यस्त जगह हुआ करती थी ।समुद्री मार्ग से कई देशों से माल आता था और फिर ऊँटों की सहायता से गुजरात , सौराष्ट्र तथा कच्छ तक व्यापारी माल ले जाते थे। व्यापारी  वर्ग बड़ी संख्या में यहाँ रहा करते थे। बंदरगाह में हलचल रहती थी। काफी लोग यहाँ व्यापार करके धनी लखपति  बन गए थे इसीलिए बस्ता बंदर आगे चलकर लखपत  के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यहाँ आकर भारत की सीमा समाप्त होती है। इसके बाद आपको विशाल अरब सागर दिखाई देगा। किले की दीवार पर चढ़कर अगर आप समुद्र की ओर देखें तो यहाँ चलती साँए -साँए करती हुई हवा और किले की दीवारों से टकराती -लौटती लहरें संपूर्ण एकांतवास की कथा सुनाती हैं। आज यहाँ शायद ही कोई  पर्यटक आता है। आज यहाँ कुछ नहीं है पर फिर भी सिक्ख समुदाय के लिए यह एक पुण्य भूमि है।

सन 1506 -1513 और  1519-1521 –  यह उस समय की बात है जब नानक साहब विश्व भ्रमण करने और अपने सिद्धांतों से संसार को परिचित करवाने निकले थे।

 उनकी इस यात्रा को उदासी कहा जाता है। जिसका अर्थ है संपूर्ण रूप से संन्यास ग्रहण करना। यद्यपि नानक साहब का परिवार था,संतानें थीं  पर वे भीतर ही भीतर समाज में एक अलग प्रकार से जागरूकता लाना चाहते थे। उस समय हमारा समाज न केवल मुगलों को झेल रहा था,बल्कि लोगों का  धर्म परिवर्तन भी बड़ी संख्या में  किया जा रहा था। शूद्र जाति के साथ छुआछूत के तहत समाज में उथल -पुथल भी मची हुई थी।

नानक साहब अपने जीवन के बीस वर्ष  पैदल ही चलकर यात्रा करते रहे। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी थे।

लखपत वही स्थान है जहाँ से गुरु नानक अपनी दूसरी और चौथी उदासी यात्रा  के दौरान यहाँ पर कुछ दिन रहे थे फिर यहीं से वे मक्का के लिए रवाना हुए थे। उन दिनों मक्का में आज की तरह इतनी सुरक्षा की तीव्रता नहीं थी।

आज यहाँ एक सुंदर साफ़ -सुथरा सफेद रंग से पुता हुआ गुरुद्वारा है।साथ में छोटा सा बगीचा भी है। गुरुद्वारे में दो छोटे कमरे हैं। एक कमरे में ,कमरे के बीचोबीच  ग्रंथसाहब चौकी पर है। इस कमरे के द्वार की ऊँचाई  बहुत कम है। झुककर ही कमरे में प्रवेश कर सकते हैं।संभवतः यात्रियों को स्मरण दिलाने के लिए कि ईश्वर के दरबार में सिर झुकाकर ही प्रवेश करना है।

हम सभी सखियों ने सिर ढाँककर कमरे में प्रवेश कर ग्रंथ साहिब को नमन किया।इसी कमरे से बाहर निकलने पर बाईं ओर और एक छोटा कमरा है जहाँ नानक साहब की पादुका और पालकी रखी गई  है। सोलह सौ शताब्दी की पूजनीय वस्तुओं के दर्शन से हम सभी भावविभोर हो उठीं। कमरे के बाहर एक छोटा सा लकड़ी के नक्काशीदार खंभों का बरामदा है, हम सब थोड़ी देर वहीं पर बैठे।मन को बहुत सुकून का अहसास हुआ।

मुझे एक अलग प्रकार का रोमांच प्रतीत हुआ। मैं अपने इस पंजाबी सिक्ख मिड्डा  परिवार की प्रथम सदस्य थी  जिसे नानक साहब की पादुका का और उनकी यात्रा का साधन  पालकी के दर्शन करने का सुअवसर मिला।

हम महिलाओं को देखकर वहाँ के पाठी सामने आए, सतश्रीकाल कहकर हमारा अभिवादन किया और कहा कि हम लंगर में शामिल हों।

स्वच्छ परिसर , सब तरफ लाल टाट के बने गलीचे लगे हुए थे।एक सिक्ख पाठी, एक सहायक और एक मुसलमान स्त्री ये ही गुरुद्वारे की सेवा में रहते हैं। हमने धुली  हुई थाली ,चम्मच उठा ली और हमें बहुत स्नेह और आतिथ्य के साथ दाल रोटी और सब्जी का प्रसाद मिला। हमने भोजन के बाद बर्तन नल के  बहते पानी से माँजकर रखे। हर गुरुद्वारे का यही नियम है।

आज यह स्थान स्थानीय सिक्ख समुदाय तथा गुरुद्वारा श्री गुरु नानक सिंह सभा गाँधीधाम की देखरेख में है। भीषण भूंकप के बाद भी इस गुरुद्वारे को सुरक्षित रखे जाने की वजह से  सन 2004 में UNESCO Asia-Pacific Award भी इस स्थान को मिला है।।

नानक साहब सिमरन, अरदास और समुदाय में बैठकर भोजन अर्थात लंगर इनका महत्त्व समझा गए हैं। जाति, धर्म ,वर्ण आदि में किसी प्रकार का कोई  भेद न रखते हुए सबको अपना समझ सबके साथ भोजन करने की शिक्षा दे गए थे।

नानक जी ने करतारपुर गाँव में प्रथम गुरुद्वारे की स्थापना की थी। अपने जीवन के अठारह वर्ष वे यहीं रहे। सत्तर वर्षीय की अयु में उन्होंने इसी गाँव में देह त्याग दी।

एक ओंकार, शबद अर्थात ग्रंथसाहब में लिखी गुरुवाणी ही उनकी सबसे बड़ी देन है। किसी पंडित या पूजा की आवश्यकता नहीं।हर व्यक्ति अपनी तरह से ईश्वर का स्मरण कर सकता है, ईश्वर एक है। उसकी स्तुति में गीत गा सकता है।समाज में कारसेवा और सबके साथ बाँटकर साँझे चूल्हे पर भोजन पकाकर मिलकर खाना ताकि कोई भूखा न सोए यही आज तक चलती आई नानक साहब की सीख है।

 करतारपुर जाना तो एक सपना ही रहेगा पर लखपत की यात्रा अविस्मरणीय है।

 क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆ स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का अगला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ?

(2015 अक्टोबर – इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया। पिछले भाग में आपने पुर्तगाल यात्रा वृत्तांत पढ़ा। )

यात्रा वृत्तांत (स्पेन से जिबरॉल्टर) – भाग तीन 

मलागा में चार दिन बिताने के बाद हम तीन दिन के लिए मोरक्को जानेवाले थे परंतु वहाँ उन दिनों राजनैतिक उथल-पुथल प्रारंभ हो गई थी। कुछ बम विस्फोट की भी खबरें मिली, इसलिए हमने वहाँ जाने का कार्यक्रम स्थगित किया। हमारी सारी बुकिंग कैंसल की गई,आर्थिक नुकसान हुआ पर कहते हैं न जान बची लाखों पाए -हमारे लिए उस समय यह निर्णय आवश्यक था। यह मुस्लिम बाहुल्य देश है। यहाँ ईसाई भी हैं पर माइनॉरिटी में और दो धर्मों के बीच कुछ विवाद छिड़े हुए थे।अतः इस उथल -पुथल में हमने मोरक्को न जाने का फैसला लिया। हमने रिसोर्ट में तीन दिन अधिक रहने के लिए व्यवस्था की। सौभाग्य से हमें जगह मिल गई ।अब हमारे पास तीन दिन हाथ में अधिक आ गए थे। हमने मलागा में रहकर कुछ और जगहें देखने का मन बना लिया।

कनाडा की शिक्षिकाओं ने दूसरे दिन जिबरॉल्टर जाने का कार्यक्रम बनाया था। इस स्थान की जानकारी मुझे उन दिनों हुई थी जब मैं अपने नाती को  इतिहास पढ़ाते समय  द्वितीय विश्वयुद्ध की जानकारी दे  रही थी। इससे पूर्व मुझे इस स्थान की कोई जानकारी न थी। हमारा नाती तो जिबरॉल्टर जाने की बात सुनकर उछल पड़ा। हमने अपने रिसोर्ट के ग्रंथालय से जिबरॉल्टर की और अधिक ऐतिहासिक जानकारी हासिल की और ट्रैवेल डेस्क पर बैठे एजेंट से जाने की व्यवस्था भी की।

हमारे पास शैंगेन वीज़ा थी। जिबरॉल्टर यू.के. के अधीन आता है। वहाँ शैंगेन वीज़ा नहीं चलता। पर हमारी तकदीर अच्छी थी कि ट्रैवेल एजेंट ने बताया कि हमारी यात्रा के छह दिन पूर्व ही यह घोषणा की गई थी कि भारतीय जिबरॉल्टर पहुँचकर वीज़ा प्राप्त कर सकते हैं।

अठारह लोगों की बस में तीन सीटें मिल ही गईं और दूसरे दिन सुबह हम सात बजे जिबरॉल्टर के लिए रवाना हुए।

गाड़ी में हम तीन ही एशियाई और वह भी भारतीय थे। इससे पूर्व सभी एशियाई देशों को पहले से वीज़ा लेने की आवश्यकता होती रही है। अब यह बाध्यता का समाप्त होना अर्थात भारत के साथ स्पेन के सुदृढ़ आपसी संबंधों पर प्रकाश डालता है।

मलागा से जिबरॉल्टर की दूरी 135 किलोमीटर है। जिबरॉल्टर समुद्री तट पर बसा छोटा सा शहर है। जिबरॉल्टर छोटा सा शहर तो  है पर साथ ही, यह ब्रिटेन के सशस्त्र सैनिकों और नौसेना का एक सशक्त आधार भी है। यह चट्टानी प्रायद्वीप से घिरा इलाका है साथ ही यहाँ कई गुफाएँ भी हैं।

यह पृथ्वी का एक ऐसा एयरप्लेन रनवे है जहाँ गाड़ियाँ और विमान दोनों  ही चलते हुए दिखाई देते हैं। यात्रा के दौरान अचानक हमारी बस रुक गई और सामने ही विमान चलता दिखाई दिया। कुछ समय बाद विमान हमारे सिर के ऊपर से उड़ता दिखाई दिया। हमारे लिए यह एक अद्भुत अनुभव था!

हम अपनी छोटी-सी बस से जिबरॉल्टर पहुँचे। फिर वहाँ से आगे गुफाओं में जाने के लिए वहाँ की निर्धारित बसों में बैठकर हम ऊपरी गुफाओं में पहुँचे। ये संकरी और घुमावदार पहाड़ी रास्तों से गुजरती सड़कों पर की गई  अद्भुत यात्रा थी। बस में लगी काँच की खिड़कियाँ बहुत बड़े आकार थीं जिस कारण मार्ग के आगे, पीछे, ऊपर ,नीचे की सड़कें स्पष्ट नज़र आ रही थी।

जैसे बस ऊपर चढ़ती सड़क संकरी महसूस होने लगती। एक भय भी मन में घर करता रहा। हम सबकी हालत देख गाइड ने तुरंत कहा कि सड़क घुमावदार,संकरी और चढ़ाईवाली  होने के कारण ही विशेष प्रशिक्षित चालकों के साथ यात्रियों को वहाँ ले जाया जाता है। वहाँ गाड़ी या बस चलाना सबके बस की बात नहीं। एकबार में एक ही बस ऊपर जाती है। दो घंटे गाइड के साथ गुफाएँ देखकर बस नीचे उतरती है और तब दूसरी बस रवाना होती है।बस चालक ही गाइड के रूप में काम करता है। इस कारण प्रत्येक ट्रिप में अलग चालक होते हैं। चालक का गाइड होना अर्थात  उस स्थान के प्रति लगाव, समर्पण की भावना भी जुड़ी रहती है।

बसें ऑटोमोटिक होती हैं और समय का पूरा ध्यान रखा जाता है। दूसरी बस प्रस्थान के लिए नीचे यात्रियों के साथ तैयार रहती है। इतना परफेक्ट समय की पाबंदी और अनुशासन देखकर यात्री होने के नाते हमारा मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा।

ऊपर गुफाओं में हमें घुमाया गया।यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध के समय तकरीबन बीस हज़ार लोग रहते थे।बच्चों के लिए छोटा सा स्कूल बनाया गया था ताकि उन्हें युद्ध के भय से दूर रखा जाए तथा वे व्यस्त रहें। बेकरी थी। सैनिकों के सोने के लिए लोहे के बेड रखे गए थे। दिन में कुछ युद्ध करते तो कुछ सोते और रात को कुछ तैनात रहते तो दिन में ड्यूटी करनेवाली सेना आराम करती। गुफाएँ काफी गहरी थीं। कुछ  गुफाओं में आज भी सैनिक रहते हैं।

गाइड ने हमें यह भी बताया कि जिबरॉल्टर में बड़ी संख्या में सिंधी भाषी रहते हैं।ये लोग आज के पाकिस्तान के सिंध इलाका से व्यापार करने के लिए गए थे तब भारत का विभाजन नहीं हुआ था। और आज भी वे वहीं बसे हैं।वहाँ हिंदू मंदिर भी है।

कई अच्छी जानकारी और ऐतिहासिक स्थान देखकर हम मलागा लौट आए।

आज स्पेन के विभिन्न शहरों  में भी बड़ी संख्या में सिंधी व्यापारी वर्ग रहता है।

सभी स्थानों पर भारतीयों का बोलबाला और सम्मान देखकर मन गदगद हो उठा।

हमारी यह यात्रा सुखद, जानकारी पूर्ण और आनंददायी रही। ढेर सारे अनुभवों के साथ हम अपने नाती के साथ स्वदेश लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 03 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का अगला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 03 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 2 ?

(2015 अक्टोबर – इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया। पिछले भाग में आपने पुर्तगाल यात्रा वृत्तांत पढ़ा। )

यात्रा वृत्तांत (स्पेन) – भाग दो

एक सप्ताह पुर्तगाल में रहने के बाद हम यूरोरेल द्वारा अल्बूफेरिया से मैड्रिड आए। यह दूरी 328 किमी की है, यात्रा के लिए साढ़े तीन घंटे लगते हैं। यूरोरेल की यात्रा आनंददायी रही। समुद्र तट से होते हुए जंगलों के बीच से गुज़रती रेलगाड़ी सुंदर दृश्य उपस्थित करती जाती है और समय का पता ही नहीं चलता। मैड्रिड शहर से पहले विशाल काले साँड की मूर्ति दिखाई दी, जिसे देखकर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह नकली साँड है। साँड का खेल इस देश का राष्ट्रीय खेल रहा है। इसे बुल फाइट कहते हैं।

रेल द्वारा यात्रा करते समय हम तीनों को एक बात का अहसास हुआ कि रेलगाड़ी में कितने ही लोग थे पर शोर कहीं नहीं था। फोन पर बात करनेवाला हर व्यक्ति अत्यंत धीमी आवाज में बातचीत करता दिखाई दिया। यह उनकी संस्कृति का एक अहम पहलु है। इसकी तुलना में एशियाई बहुत ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। उन्हें देखकर तो हम तीनों भी फुसफुसाहट का सहारा लेकर बातें करने लगे।

मैड्रिड योरोप का सबसे हराभरा शहर है। यह स्पेन की राजधानी होने के कारण सदा अपनी सुंदरता और सजावट के लिए प्रसिद्ध है। प्लाजा मेयर एक विशाल इमारत है जहाँ कला, चित्रकारी, इतिहास, संग्रहालय आदि सभी के दर्शन संभव हैं। इस स्थान को देखने के लिए दो दिन तो लगते ही हैं। हम सबसे पहले उस मैदान का दर्शन करने गए जहाँ से बुल फाइट का राष्ट्रीय खेल प्रारंभ होता था। आज उस पर प्रतिबंध लगाया गया है। पर सारी व्यवस्थाएँ अब भी वैसी ही हैं।

इतिहास में झाँकें तो यह शहर पाषाण युग से अपने अस्तित्व में रहा है। यहाँ मनुष्य की विभिन्न जातियाँ झुंड में रहा करती थीं। आधुनिक युग में यह एक खूबसूरत शहर है। फुटबॉल का मुख्य केंद्र मैड्रिड ही था, आगे चलकर अब बार्सेलोना बन गया। आमेर मोहम्मद के आने पर 9वीं शताब्दी में यहाँ अरब निवासियों की अधिकता थी और लंबे समय तक शासक भी रहा। ईसाई राज्य स्थापना के बाद यहाँ योरोपियन स्टाइल का विकास हुआ।

यहाँ ही संसार का सबसे पुराना रेस्तराँ आपको देखने के लिए मिलेगा। कई दर्शनीय संग्रहालय भी हैं यहाँ। प्रैडो संग्रहालय है जहाँ कई नामवंत चित्रकारों की कलाकृतियाँ देखने को मिलती हैं। शहर स्वच्छ तथा नई-पुरानी इमारतों से पटा हुआ है।

शहर भर घूमने के लिए हॉप ऑन हॉप ऑफ बस की सुविधा उपलब्ध है। लाल, हरी, पीली बसें सुबह 8 से शाम 8 तक शहर भर घूमती हैं। लाल बस सभी संग्रहालयों का दर्शन कराती हैं, हरी बस ऐतिहासिक स्थलों की और पीली बस इंडस्ट्रियल बेल्ट की। सैलानी अपनी इच्छानुसार दो दिन या तीन दिन के लिए बस की टिकट खरीदकर सुबह से शाम तक घूमने का आनंद ले सकते हैं। जिस स्थान को देखना चाहते हैं वहाँ उतर जाएँ फिर किसी भी बस में बैठ जाएँ। यह अत्यंत सुविधाजनक व्यवस्था है। दो या तीन दिन के लिए टिकट खरीदने पर वह सस्ता भी पड़ता है। बसें चढ़ते ही साथ बस चालक इयरफोन देता है, बस में इयरफोन कनेक्ट करने की सुविधा होती है जिस कारण हर स्थान की जानकारी कई भाषाओं में निरंतर मिलती रहती है। हमने तीन दिन के लिए टिकट ले लिए और अपनी उत्सुकता, रुचि और जिज्ञासा के अनुसार दर्शनीय स्थानों को देखते रहे।

अब यहाँ ठंडी हवा चलने लगी थी और हमें होटल में वार्मर लगाने की आवश्यकता पड़ी।

तापमान 9° पर उतर आया था और हमारे लिए शाम के समय घूमना कठिन हो रहा था।

हमारा अगला पड़ाव था ग्रैनाडा।

यह यात्रा हमने यूरोरेल द्वारा पूरी की। मैड्रिड से ग्रैनाडा 360 कि.मी. की दूरी है। हमें ग्रैनाडा पहुँचने में साढ़े तीन घंटे लगे।

यहाँ एक बात बताना चाहूँगी कि आप भारत से निकलने से पूर्व योरोरेल की टिकट खरीद सकते हैं, इससे आपको यात्रा करने में आसानी होती है।

हम ग्रानाडा पहुँचे यह नवाडा पहाड़ी की तराई में बसा शहर है। यह शहर स्पेन के अंडालूसिया रिजन में छोटा शहर है। खूबसूरत शहर। बाग -बगीचे और फव्वारों से सजे पुराने किले, महल देखने को मिलते हैं। यह शहर सुंदर विशाल चर्च और अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लोकल की संख्या से अधिक सैलानियों की भीड़ साल भर देखने को मिलती है। अलहम्ब्रा और नासिर्द पैलेस, कैथेड्रिल, रॉयल चैपल ऑफ ग्रानाडा आदि दर्शनीय स्थल हैं। सभी जगहों पर दो से तीन हज़ार भारतीय मुद्राओं के टिकट खरीदने पड़ते हैं जिसकी भुगतान यूरो में करने की बाध्यता होती है। यहाँ सभी महल, बाग-बगीचे, चर्च आदि के लिए प्रवेश शुल्क देने की आवश्यकता होती है। इसलिए पहले से ही तय कर लेना चाहिए कि क्या -क्या देखना है। हम यहाँ तीन दिन रहे। और चौथे दिन हम मलागा के लिए रवाना हुए।

हमने ग्रानाडा से मलागा तक का सफर बस द्वारा तय किया क्योंकि हमें रोड ट्रिप का भी आनंद लेना था।। अत्यंत आरामदायक बस की यात्रा रही। रास्ते भी बहुत अच्छे। बस एक -दो बार रुकी। चाय -कॉफी और शौचालयों की सुविधा मिली। शौचालय के लिए दो यूरो देना अनिवार्य है। जो यात्रा करते हैं वे इस बात से सहमत भी होंगे कि अगर साफ सफाई रखनी हो, टॉयलेट पेपर, हैंड वॉश, हैंड ड्रायर की सुविधा हो तो उसकी कीमत भी ली जानी चाहिए।

इस यात्रा के दौरान हमारा परिचय दो रिटायर्ड शिक्षिकाओं से हुआ जो केनाडा से स्पेन घूमने आए थे। बातों ही बातों में पता चला कि वे भी उसी मलागा गॉल्फ रिसोर्ट में रहने जा रहे थे जहाँ हमने अपने रहने की व्यवस्था की थी। हमने साथ में दो टैक्सी की रिसोर्ट पहुँचे।

रिसोर्ट एक विशाल फैली हुई जगह पर स्थित था। सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। मौसम अब धीरे -धीरे बदल रहा था। अब यहाँ गर्म कपड़ों की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई क्योंकि यह शहर समुद्री तट पर बसा है।

हम दूसरे ही दिन नेरहा केव्स देखने के लिए रवाना हुए। इस गुफा की खोज 1959 में पाँच बच्चों ने की थी, ये बच्चे चिड़ीमार थे और इस गुफा के पास पहुँचे तो कुआँ जैसी जगह दिखाई दी, जिसमें नरकंकाल, बर्तन, दीवारों पर चित्रकारी और चमगादड़ों की भरमार मिली। बच्चे डरकर भाग खड़े हुए। बच्चों ने माता-पिता, शिक्षक, मित्र आदि से इस विषय की चर्चा की और बात ऊपर तक पहुँची। छान बीन प्रारंभ हुई तो पता चला कि यह बयालीस हज़ार पुरानी आदिमानवों की रहने की जगह थी। भीतर विशाल स्टैलेकटाइट के दर्शन हुए। ये कैल्शियम डिपोजिशन हैं। इन्हें बनने के लिए हज़ारों वर्ष लगते हैं। ऊपर से टपकती जल की बूँदें ज़मीन पर गिरकर खनिज पदार्थों की परतें निर्माण करती हैं और हजारों वर्ष में एक खम्भे का रूप ले लेती हैं। पूरी गुफा में ऐसे हज़ारों प्राकृतिक खंभे दिखाई दिए।

यह गुफा बहुत विशाल है। अपने समय में इसने एक पूरे शहर के निवासियों को आश्रय दिया होगा। भीतर कई स्तर (लेवल)बने हुए हैं और आज उन्हें नाम भी दिया गया है। भीतर ठंडक है। आज यहाँ बिजली के हल्के प्रकाश में गुफा के कई स्तरों का दर्शन संभव है जिनकी सुंदरता देख सच में आँखें चमक उठती हैं। आज भी इस केव के कुछ हिस्से बंद हैं जहाँ रिसर्च चल रहा है। उनकी तस्वीरें खींचने की भी मनाही है।

दूसरे दिन हम शहर की सुंदरता और मेडिटेरेनियन समुद्र पर सैर करने निकले। साथ में दोनों शिक्षिकाएँ भी हो लीं। यात्रा के दौरान कहते हैं कंपनी मैटर्स और इस बात का हमें अच्छा अनुभव भी मिला। समुद्री सैर के दौरान हमने अपने अपने देश की विशेषताओं और संस्कृतियों पर चर्चा की। कनाडा में नेटिव अमेरिकन्स के साथ जो दुर्व्यवहार और ज्यादती हो रही है उसकी भी जानकारी उन दोनों शिक्षिकाओं से मिली। अब हम तीन शिक्षिकाएँ थीं तो ज़ाहिर है इस विषय पर गहन चर्चा भी प्रारंभ हुई। समुद्र के किनारे कई रेस्तराँ थे हमने साथ में भोजन का आनंद लिया और देर रात साथ ही रिसोर्ट लौट आए।

तीसरे दिन हमने दिन के समय आराम किया और शाम को फ्लैमिन्को नृत्य प्रदर्शन का आनंद लेने गए। यह स्पेन का पारंपरिक नृत्य प्रदर्शन होता है। आधुनिक युग में यह परंपरा समाप्त होती जा रही है। स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ इस नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। लकड़ी की फर्श पर पैर चलाकर संगीत के साथ ताल देकर अपने जूते से ध्वनि उत्पन्न कर यह नृत्य किया जाता हैं। एक प्रकार से टैप डान्स जैसा होता है। हमारे देश के कत्थक नृत्य की तरह यहाँ पैर निरंतर चलाना पड़ता है। साथ ही चेहरे पर कई हाव-भाव अभिव्यक्त करते हैं। यह नृत्य थाकानेवाला नृत्य है।

यह विभिन्न उत्सवों और परंपराओं की शृंखलाबद्ध प्रस्तुति होती है। उनके देश में भी विवाह उत्सव पर, फसल काटे जाने के अवसर पर गीत और नृत्य होते रहे हैं अब आधुनिक युग में यह उत्सव मृतप्राय है। कुछ मध्यम वयस्क कलाकार इस नृत्य के प्रदर्शन द्वारा अपनी कला और परंपरा को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।

दो घंटे का कार्यक्रम होता है, बीच में पंद्रह मिनिट के लिए विराम भी होता है। उस दौरान दर्शकों को शराब, ड्राय फ्रूट का पैकेट दिया जाता है। इसकी कीमत टिकट के साथ वसूली जाती है। इसलिए ऐसे प्रदर्शनों की कीमत बहुत ऊँची होती है। शराब न पीनेवालों को नींबू पानी दिया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों को देखकर ही किसी देश की परंपराओं का परिचय मिलता है।

हमारा परिवार एक मात्र भारतीय परिवार था जो वहाँ कार्यक्रम देखने के लिए उपस्थित था। कार्यक्रम की समाप्ति पर कलाकारों के साथ तस्वीरें खींचने की इजाजत होती है।

उत्साहवश हम भी उनके साथ तस्वीरें खींचने के लिए मंच के पास उपस्थित हुए। मुझे साड़ी और बड़ी बिंदी में देखकर उन्होंने तुरंत पूछा कि क्या हम भारतीय हैं ?और यह जानने के बाद कलाकारों की एक बड़ी भीड़ हमारे इर्द-गिर्द उपस्थित हो गई। पहले तो कलाकारों ने हम से हाथ मिलाया फिर उन्होंने हमें एक ऐतिहासिक तथ्य बताया। उन्होंने हमसे कहा कि यह जो फ्लैमिंको नृत्य है यह मूल रूप से हमारे देश के राजस्थान के जिप्सी जिसे हम बंजारा कहते हैं उनका नृत्य है। यह जाति भारत से स्पेन में नौवीं शताब्दी के आस -पास पहुँची थी। अपनी यात्रा के द्वारा इस नृत्य को वहाँ पर वे ले गए और उसे प्रस्थापित किया था। धीरे -धीरे उसमें कई विभिन्न देशों के खास करके बंजारों की परंपरागत नृत्य उत्सव आदि सम्मिलित होते गए। वहाँ के बंजारों को रोमा कहा जाता था। यह जाति अंडालूसिया हिस्से में बस गई थी। आज भी हर कलाकार अपने इस नृत्य का मूल भारत को ही मानता है और गर्व महसूस करता है। इस नृत्य में लहराते हुए वस्त्र पहने जाते हैं और गिटार के साथ कभी अकेले या समूह में नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। हमारे प्रति कलाकारों का यह सम्मान देखकर हमें बहुत खुशी हुई। एक कलाकार तो मेरा हाथ पकड़ कर मंच पर ही अपने घुटने पर बैठ गया और उसने मेरे हाथ को चूमकर कहा “मैं भाग्यशाली हूँ कि भारत देश के व्यक्ति के साथ हमारी मुलाकात हुई” हमें भी बहुत आनंद आया और गर्व महसूस हुआ कि हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं के लिए आज विदेशों में भारत कितना प्रसिद्ध है।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का पहला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ?

 2015 अक्टोबर इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया।

इस बार हम तीन सप्ताह हाथ में लेकर निकले थे।यात्रा के आने – जाने के दो दिन अलग ताकि पूरे इक्कीस दिनों का पूरा आनंद लिया जा सके। हमने  बहुत सोच-समझकर तीनों देशों की भौगोलिक  सुंदरता और ऐतिहासिक  विशेषताओं को ध्यान में रखकर देखने योग्य स्थानों का चयन किया।

सच पूछिए तो किसी भी देश में अगर हम अच्छी तरह से घूमना चाहें तो दो महीने तो  अवश्य ही लग जाएँगे पर यह हमेशा संभव नहीं होता। अगर हमारे देश के समान या उससे भी बड़ा देश हो तो और अधिक समय लग जाएगा। इसलिए विदेशों में घूमते समय सबसे पहले अपनी खर्च करने की आर्थिक क्षमता को जाँचना आवश्यक होता है फिर रुचि अनुसार शहरों का चयन किया जाना चाहिए। चूँकि हमारे पास इक्कीस दिन थे तो हमने भी अपनी रुचि अनुसार दर्शनीय स्थानों की सूचि बना ली थी और उसी के आधार पर सभी जगह रहने की सुविधानुसार व्यवस्था भी कर रखी थी। विदेश यात्रा के दौरान सुनियोजित बजट बना लेना उपयोगी और आवश्यक होता है क्योंकि हम विदेशी मुद्रा पर निर्भर करते हैं।

हमारी पहली मंजिल थी पुर्तगाल या पोर्त्युगल। हम पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन पहुँचे। हम यहाँ तीन दिन रहे। हमारा अधिक उत्साह उस पोर्ट को देखने का था जहाँ से 1497 में  वास्को डगामा चार जहाजों के साथ भारत के लिए रवाना हुए थे और पहली बार योरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग खुल गए थे। साथ ही हमारे देश में योरपीय दासता का इतिहास का अध्याय भी प्रारंभ हुआ था।

हम दोपहर तक उस विशाल पोर्ट पर रहे, पत्थरों से बने पुराने ज़माने के लाइट हाउस पर चढ़कर दूर तक समुद्र को निहारने का आनंद लिया। आस पास कई छोटी -छोटी जगहें हैं उन्हें देखने का आनंद उठाया।

लिस्बन शहर समुद्री तट पर बसा है। यहाँ के कई  संग्रहालयों से हमें काफी जानकारी मिली। यहाँ पर अधिकतर दर्शनीय स्थल विभिन्न क्रूज़ द्वारा ही किए जाते हैं। कुछ प्रसिद्ध किले भी हैं । इस शहर के अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण कर हम उनके बाज़ार देखने गए।

कई अलग प्रकार के फल, शाक और सब्ज़ियाँ देखी जो हमारे देश से अलग हैं। छोटी -छोटी लाल तेज़ गुच्छों में मिर्ची देखने को मिली।इसे यहाँ पिरिपिरि कहते हैं।

इस पिरिपिरि के साथ हमारे देश का एक पुराना इतिहास भी जुड़ा है।हमारे देश में पुर्तगालियों के आने से पूर्व केवल कालीमिर्च की पैदावार होती थी ,हरीमिर्च जिसका उपयोग  नित्य अपने भोजन में आज हम करते हैं वह पुत्रगालियों की ही देन है। वे मिर्च पहले गोवा में ले आए और 17वीं शताब्दी में शिवाजी की सेना इसे देश के  बाकी हिस्सों में ले जाने में सफल हुई।आज हमारे देश में कई प्रकार की मिर्चियाँ उगाई जाती हैं।

लिस्बिन देखकर हम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण शहर अल्बूफेरिया देखने के लिए रवाना हुए। यह यात्रा हमने यूरोरेल द्वारा की क्योंकि इन दोनों शहरों के बीच का अंतर 255 कि.मी.है और अढ़ाई घंटे का समय लगता है।यहाँ बसें भी चलती हैं पर समय अधिक लग सकता है।

हम अल्बूफेरिया में हम चार दिन रहे। यह सुंदर शहर समुद्र और पहाड़ों के बीच बसा है।

यहाँ हमने कई किले देखे जो अपने समय का इतिहास बयान करते हैं। पुरानी छोटी-बड़ी तोपें अब भी किले की शोभा बनी हुई हैं। यह ऐतिहासिक शहर है।पहाड़ी इलाका होने के कारण सड़कें संकरी और टाइल्स लगी हुई हैं। छोटी -छोटी बसें इन सड़कों पर चलती हैं पर किले तक जाने वाली  चढ़ाई चलकर ही चढ़नी पड़ती है।

किले के  प्रारंभ में सोवेनियर की दुकानें हैं।चाय-नाश्ता कॉफी की छोटी -छोटी सुसज्जित टपरियाँ हैं। यहीं पर पहली बार क्रॉसें खाने का स्वाद मिला।

दूसरे दिन हमने  एक बड़े जहाज़ द्वारा समुद्र पर सैर करने का आनंद लिया।इस बड़े जहाज से उतरकर समुद्र के बीच हमें छोटे लाइफबोट में बिठाया गया और समुद्र में स्थित गुफाओं का दर्शन कराया गया। यह एक अनूठा अनुभव था। छोटे मोटर बोट या लाइफबोट आसानी से  गुफाओं के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। यहाँ की गुफाएँ ऊपर से खुली -सी हैं जहाँ से सूरज का प्रकाश स्वच्छ जल पर आ गिरता है।मोटर बोट से जहाज़ पर चढ़ना एक भारी कठिन काम था। विशेषकर जब जल से मन में भय हो! इन गुफाओं के पास हमें ऊदबिलाव के अनेक परिवार दिखे।ये बहुत शर्मीले प्राणी हैं तथा झुंड में ही रहते हैं।इन्हें तकलीफ न हो या वे डिस्टर्ब न हों इसलिए लाइफबोट का उपयोग किया जाता है जो चप्पू द्वारा चलाया जाता है।

इस शहर का  एक पहाड़ी हिस्सा भी है  जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है,हम तीसरे दिन यहाँ के बहुत खूबसूरत जंगल देखने के लिए निकले। यह पहाड़ी इलाका है और यहाँ बड़ी तादाद में वे वृक्ष उगते हैं जिनसे कॉर्क बनाया जाता है। हमें कॉर्क बनाने की फैक्ट्री, शराब बनाई जाने वाली फैक्ट्री आदि देखने का यहाँ मौका भी मिला। हमारे स्वदेश लौटने के कुछ माह बाद इस विशाल सुंदर जंगल में भीषण आग लगी और जंगल के राख हो जाने का समाचार मिला।हम इस बात से बहुत आहत भी  हुए।

इस शहर में कई  संग्रहालय भी हैं जहाँ अनेक प्रकार की मूर्तियाँ और पेंटिंग्स देखने को मिले। निरामिष भोजन के लिए हमें थोड़ी तकलीफ अवश्य हुई अन्यथा यह खूबसूरत देश है। सुंदर चर्च हैं।लोग देर से उठना और देर रात तक खाने -पीने में विश्वास करते हैं, जिस कारण यहाँ के लोगों की सुबह देर से प्रारंभ होती है। पुर्तगाल के पुराने शहरों को देखकर आपको हमारे देश का खूबसूरत गोवा अवश्य स्मरण हो आएगा।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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