हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 43 – देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 43 ☆ देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र में जल सप्लाई के लिए एक पत्थर (बाधा/ व्यवधान) को दूर किए बिना थोड़ा अतिरिक्त पाइप लगा कर कार्य किया गया हैं। आप कह सकते हैं, कि पत्थर हटाने का कार्य तो पाइप लाइन बिछाने वाले का था ही नहीं वो क्यों हटाता। सरकारी कार्य है, ऐसा ही होता है, जी नहीं हम सब निजी जीवन में भी ये ही सब कर रहे हैं। लकीर के फकीर बन जाते हैं, हम लोग जब भी कहीं समाज या सार्वजनिक व्यवधान होता है, हम उसे दूर करने के स्थान पर येन-केन अपना कार्य कर लेते हैं, दूसरे भले ही परेशान या मुश्किल में पड़ जाएं।

हमारे समाज में और धर्म में भी तो “सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय” का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।

अधिकतर राह में कोई छोटी बाधा को दूर करने के बजाय हम लंबे मार्ग से जाकर अपना कार्य कर लेते हैं। छोटी छोटी कमियों को दूर करने में सक्षम होते हुए भी हम सार्वजनिक कार्य में हाथ नहीं लगाते हैं। लेकिन जब निजी समस्या हो तो दिन भर शारीरिक श्रम से कार्य को अंजाम देने में सकुचाते नहीं हैं। क्या हुआ हमारी संस्कृति और सामाजिक मूल्यों का? इतना पतन हो चुका है, हमारी मान्यताओं का शायद शिक्षा और विशेष रूप से नैतिक मूल्य गिर कर पाताल में जा चुके है।

सामाजिक परिवर्तन, संयुक्त परिवार नीति का समापन, धर्म से दूरी और विशेष कर पश्चिम का अनुसरण हम सब को अपने प्राचीन रीति रिवाज से दूर कर चुका है।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 101 ⇒ सीमा पार का खेल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीमा पार का खेल।)  

? अभी अभी # 101 ⇒ सीमा पार का खेल? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

प्यार कोई खेल नहीं ! लेकिन जब खेल खेल में प्यार हो जाए, तो फिर उसे उम्र की सीमाओं और सरहदों में नहीं बांधा जा सकता। शर्मिला इतनी भी शर्मीली नहीं थी कि नवाब पटौदी की कप्तानी कुबूल ना कर ले। अगर उम्र की सीमा होती तो क्या दिलीप सायरा की जोड़ी बन पाती। हमारे शरद भाई ने भी इरफाना आपा को कुबूल किया कि नहीं।

प्यार की कोई हद नहीं होती, कोई सरहद नहीं होती। फिल्म के रुपहले पर्दे पर अपने जलवे बिखेरने वाली अभिनेत्री रीना रॉय सीमा पार क्रिकेट खिलाड़ी मोहसिन खान को दिल दे बैठी, जब कि वह जानती थी, शीशा हो या दिल हो, आखिर टूट जाता है। कभी जमाना दुश्मन हो जाता है, तो कभी सनम बेवफ़ा। आज दोनों जुदा जुदा हैं, खफा खफा।।

टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा ने शायद ही कभी मिर्जा ग़ालिब को पढ़ा हो, लेकिन उर्दू का, ढाई आखर इश्क का, उसने जरूर पढ़ लिया होगा और शायद इसीलिए उसके टेनिस के रैकेट को पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक के बल्ले से प्यार हो गया। बस दोनों की बल्ले बल्ले हो गई। दुश्मन है जमाना ठेंगे से।

ऊंची ऊंची दुनिया की दीवारें और सभी बाधाएं, प्यार में अक्सर तोड़ दी जाती हैं, लेकिन हद तो तब होती है, जब प्यार में पागल कोई २७ साल की लड़की चार चार बच्चों के साथ बिना कागजात और पासपोर्ट वीजा के, दुश्मन देश से हमारे देश में प्रवेश कर जाती है। ।

यह प्रेम कहानी नोएडा के सचिन और कराची की सीमा हैदर की है, जो लॉक डाउन में PUBG खेलते खेलते आपस में ऐसे लॉक हुए, कि समाज के सभी बंधन बेकार साबित हुए, दोनों देशों का कानून देखता ही रह गया, और ये दोनों सदा के लिए एक दूसरे के हो गए।

मीडिया ने उसकी छवि एक फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली, और अन्य कई भाषाओं की जानकार, एक सुशील और संस्कारी हिंदू महिला की बना दी है।

घोषित रूप से दोनों हिंदू हैं, सीमा हैदर तलाकशुदा है, मियां बीवी राजी तो क्या करे काजी तो ठीक, लेकिन हमारी देश की सरकार अब क्या करे। दिल में घुसपैठ कोई जुर्म नहीं, अपराध नहीं लेकिन देश कायदे कानून से चलता है, महज भावना से नहीं। इस तरह के घुसपैठियों को दुश्मन का जासूस कहा जाता है और उनकी जगह सिर्फ जेल की सलाखें होती हैं। बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए।।

यहां संकट और धर्मसंकट दोनों ने हाथ मिला लिया है। सीमा पार सीमा हैदर और इस पार सचिन का प्यार एक तरफ, और दोनों देशों का इस बारे में रवैया और नजरिया एक तरफ। इसे हिम्मत नहीं, दुस्साहस कहते हैं। मूल रूप से, सबसे पहले वह एक अपराधी है।

फिलहाल तो सीमा सचिन की कहानी रंग ला रही है। देखना है, रंग में भंग होता है, या फिर पूरे कुएं में ही भांग पड़ी है। हम तो फुर्सत में हैं ही, अच्छी खासी राष्ट्रीय बहस चल रही है, इन दोनों को लेकर आजकल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 199 – तुम कब लौटोगे मनुज..? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 199 तुम कब लौटोगे मनुज..? ?

किसी विवाह के सिलसिले में एक बैंक्वेट हॉल में जाना था। हॉल के सामने के भाग की ओर रेस्टोरेंट है। दोनों के लिए स्वतंत्र दरवाज़ा है पर  कैब ने मुझे रेस्टोरेंट के सामने उतारा। मैं रेस्टोरेंट से होता हुआ बैंक्वेट की ओर बढ़ चला। सुंदर सजा हुआ रेस्टोरेंट है। देखता हूँ कि कृत्रिम तालाब बना हुआ है। तालाब में स्वच्छ पानी है और बड़ी-बड़ी, लंबी और चपटी मछलियाँ तैर रही हैं। मछलियाँ गहरे नारंगी और काले रंग की हैं। ग़ौर से देखने पर समझ में आता है कि इस उथले कृत्रिम तालाब में मुश्किल से  एक से सवा फीट तक ही पानी है। मछलियाँ थोड़ा-सा ऊपर उठ जाएँ तो सतह से ऊपर आ जाएँगी और ज़रा सा नीचे उतर जाएँ तो तल से लग जाएँगी। लगा जैसे  वे तैरने के बजाय पेट के बल रेंग रही हों।

सोचा कि बीज के रूप में नन्ही-नन्ही मछलियाँ कभी इस तालाब में उतारी गई होंगी। तब से वे जीवन के लिए संघर्ष कर रही हैं। जीने का उनका हौसला है, बढ़ने का उनका संकल्प है। ये मछलियाँ निरंतर जी रही हैं, निरंतर आगे बढ़ रही हैं। उनकी दुनिया इस नाम मात्र के कृत्रिम सरोवर तक सीमित है पर इस सीमा में ही असीम भाव से जीवन और सृजन चल रहे हैं।

फल के भीतर पलने वाले कीट का जीवन फल तक ही सीमित रहता है। फल कटा तो कीट के जीवन के भी परखच्चे उड़ जाते हैं। तथापि सारी विसंगतियों के बीच सृजन अविराम है, निरंतर है।

कोई छोटा-बड़ा जलचर, कुआँ, तालाब, ताल, तलैया, पोखर, बावड़ी, नदी, समुद्र इनमें से जहाँ भी है, वहीं जी रहा होता है। जल यदि सूखने लगे तब भी अंतिम बूंद तक संघर्ष करता है, सृजन जारी रखता है।

नभचर पक्षी तीव्र धूप, मूसलाधार बारिश, तूफान, सब सहते हैं पर जुटे रहते हैं जीवन में, सृजन में।

इन सब की तुलना में मनुष्य सबसे बुद्धिमान है, उसका विस्तार बहुत अधिक है। मनुष्य यूँ तो थलचर है पर अपने बनाए साधनों से जल और नभ दोनों में विचरण कर सकता है। उसने थल, जल, थल, नभ सब पर एक तरह से आधिपत्य कर लिया है पर सृजन की तुलना में विध्वंस अधिक किया है।

समुद्र के गर्भ में न्यूक्लियर हथियार लिए पनडुब्बियाँ घूम रही है। अंतरिक्ष, विनाशकारी शस्त्रास्त्रों से भरा पड़ा है। तोप और मिसाइलों के मुँह एक दूसरे के विरुद्ध खोलकर मनुष्य तैयार है युद्ध के लिए। मनुष्य जानता है कि युद्ध में अकल्पनीय हानि होती है तब भी युद्ध जारी हैं।

एक और अपनी क्षमता से निरंतर निर्माण में जुटे ये सारे जीव हैं जिन्हें हम बुद्धिहीन मानते हैं। दूसरी और हम मनुष्य हैं जो बुद्धि का वरदान लिए हैं पर विध्वंस बो रहे हैं।

एक और अखंड सृजन, दूसरी ओर अखंड विखंडन। असमय बरसात, बदलता मौसमचक्र, ग्लोबल वॉर्मिंग इसी विध्वंसक वृत्ति का परिणाम हैं। आश्चर्य है कि विध्वंसक वृत्ति के परिणाम निरंतर भोगने के बाद भी मनुष्य रुकने या लौटने के लिए तैयार नहीं है।

इस चिंतन के लगभग समानांतर चलती अपनी एक कविता स्मरण हो आई है,

अंजुरि में भरकर बूँदें / उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं / अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी की ओर..,

मुट्ठी में धरकर दाने/ उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे/ उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के/ पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को/ ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

तुम कब लौटोगे मनुज..?

स्मरण रहे, विखंडन से सृजन की ओर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।.. तुम कब लौटोगे मनुज?

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 100 ⇒ मानदेय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मानदेय।)  

? अभी अभी # 100 ⇒ मानदेय? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बुद्धि और परिश्रम का जीवन में एक अपना अलग ही स्थान है, लेकिन मान सम्मान एक ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। जब तक पद है, तब तक प्रतिष्ठा है। बिना बौद्धिक कुशलता के किसी पद की प्राप्ति नहीं होती जिसमें परीक्षा, प्रतियोगिता और पुरुषार्थ भी शामिल होते हैं।

जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि पैसा और भौतिक सुख नहीं, काबिलियत है। यह काबिलियत उम्र, पद और प्रतिष्ठा की मोहताज नहीं होती। किसी पद पर ना रहते हुए भी जो ख्याति, प्रतिष्ठा और मान हासिल किया जाता है, वही किसी व्यक्ति की वास्तविक उपलब्धि होती है। ।

जब ऐसे किसी व्यक्ति की किसी विशिष्ट कार्य के लिए सेवाएं ली जाती हैं, तो उसे मानदेय का प्रावधान होता है, जो उसकी वास्तविक योग्यता से बहुत कम होता है। लेकिन मान की कभी कीमत नहीं आंकी जाती। शॉल, श्रीफल और पत्रं पुष्पं के साथ जो भी भेंट किया जाता है, वह सहर्ष स्वीकार्य होता है।

जो लोग जीवन में सफल होकर उच्च पदों पर आसीन हो जाते हैं, उनकी बौद्धिक कुशलता और प्रशासनिक क्षमता सेवा निवृत्त होने के बाद भी कायम रहती है। समाज उनकी क्षमता, अनुभव और कार्य कुशलता का लाभ उठाना चाहता है। एक अकिंचन की भांति उनसे निवेदन किया जाता है, और वे उदारतापूर्वक इस आग्रह को स्वीकार कर अपने जीवन भर के अनुभव के निचोड़ को यहां लगाने के लिए, एक तुच्छ से मानदेय पर, तत्पर हो जाते हैं। ।

आज कई सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाएं इन माननीयों के कुशल प्रबंधन और देखरेख में फल फूल रही हैं। कहीं कहीं तो इनका अमूल्य स्वैच्छिक सहयोग और आशीर्वाद बिना किसी मानदेय के ही उपलब्ध हो जाता है। जीवन का सच्चा सुख समाज को कुछ देने में है, समाज से लेने में नहीं।

जो साहित्य, संगीत और कला के सच्चे उपासक हैं, उनका तो पूरा जीवन ही निष्काम कर्म और कला की साधना में गुजर जाता है। समाज इन्हें यथोचित मान दे, सम्मान दे, बस यही इनका वास्तविक मानदेय है। ।

कल की पारमार्थिक संस्थाएं आज एनजीओ कहलाने लग गई हैं। कहीं पूरा परिवार ही एनजीओ है तो कहीं एनजीओ पर किसी परिवार ने ही कब्जा कर लिया है। सेवा में मेवा और परमार्थ में भी स्वार्थ ढूंढा जाने लगा है।

राजनीति का वायरस पूरे समाज में फैल चुका है।

धर्म और राजनीति एक दूसरे के पूरक बन गए हैं।

इन सबके बावजूद कुछ लोगों में अभी निष्ठा नैतिकता और समाज के प्रति निःस्वार्थ सेवा की भावना कायम है। वे ही हमारी हरी भरी बगिया के ऐसे बागवान हैं, जो कभी चमन को उजड़ने नहीं देंगे। आप उन्हें मान दें, अथवा ना दें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी #99 ⇒ कयामत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कयामत “।)  

? अभी अभी # 99 ⇒ कयामत? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप इसे प्राकृतिक आपदा कहें,विपत्ति कहें,ईश्वर का प्रकोप कहें,लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस बार बारिश, बाढ़, और भू -स्खलन ने जो कहर बरपाया है,और उससे जो जान माल की हानि हुई है,वह किसी तबाही से कम नहीं। इसके पहले कि आदमी के सब्र का बांध टूटे, नदियों के रौद्र रूप को देखकर,प्रशासन को कई बांधों के गेट खोलने पड़े।

बस फिर तो कयामत आनी ही थी।

पूरा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश तो इस तबाही की चपेट में आया ही,धार्मिक स्थान और पर्यटन स्थल सभी इस बार मूसलाधार बारिश और बाढ़ के पानी का निशाना बने। हरिद्वार हो या जोशीमठ, गंगोत्री हो या अमरनाथ,सोलन,मंडी और मनाली,सब तरफ पानी ही पानी,तबाही ही तबाही।।  

इस बार दिल्ली भी डूबने से नहीं बची। विकास की राह में जब प्रकृति का प्रकोप अपना रौद्र रूप दर्शाता है, तो सारे मंसूबे धरे रह जाते हैं। सरकार कितना खर्च करती है इन प्राकृतिक स्थलों के विकास के लिए। यह सब धार्मिक श्रद्धालुओं और पर्यटकों की सुविधा के लिए ही तो किया जाता है। लेकिन जब प्रकृति ही विपक्ष का रोल अदा करने लगे, तो कोई भी क्या करे।

यह एक गंभीर समस्या है, कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं। आपदा प्रबंधन तो सक्रिय है ही, जो पीड़ित हैं, और वहां जाम में फंसे हुए हैं, वे भी अपने मोबाइल कैमरे से तस्वीरें खींच खींच कर भेज रहे हैं। सरकार भी चिंतित है और मीडिया भी सक्रिय। हेलीकॉप्टर से बचाव कार्य भी होंगे, और माननीयों द्वारा भी परिस्थिति का जायजा लिया जाएगा। राहत कार्य जारी हैं, आर्थिक सहायता की भी घोषणा होगी ही।।  

इस बार कोई सरकार को दोष नहीं दे रहा। सड़कें और पूल जो क्षतिग्रस्त हुए हैं, उन्हें पुनः ठीक किया जाएगा। विकास की राह हमेशा कठिन ही होती है, लेकिन कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानी जाती।

फिर भी हर त्रासदी हमें कुछ सबक सिखला कर ही जाती है। दुष्यंतकुमार ने आसमान में सूराख करने को कहा था, यहां तो मानो आसमान ही टूट पड़ा।

मौसम की चेतावनी के साथ रेड अलर्ट ही नहीं, आजकल ऑरेंज अलर्ट और पर्पल अलर्ट भी जारी होने लग गए हैं। जब धरती दुखी होती है, फट जाती है, आसमान से भी दुख सहा नहीं जाता, बादल फट जाते हैं।।  

जब प्रकृति हंसती है, इंसान हंसता है, लेकिन जिस दिन प्रकृति रोने लगती है, ग्लेशियर पिघलने लगते हैं, पहाड़ खिसकने लगते हैं, उसका खामियाजा इंसान को भी भुगतना पड़ता है। अनुशासन और शिष्टाचार और विकास और भ्रष्टाचार कभी साथ नहीं चल सकते। जब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन जाए तो बेचारे बिकास बाबू भी क्या करे।

बहुत पहले फिल्म उपकार के एक पात्र लंगड़ ने एक बात कही थी, आसमान में उड़ने वाले, मिट्टी में मिल जाएगा। ईश्वर ने हमें पंख तो दिए नहीं, लेकिन हमें भी पंछियों की तरह उड़ने का शौक चर्राया। जल, थल और नभ तीनों लोकों पर इंसान ने कब्जा कर लिया और उसका मनमाना दुरुपयोग शुरू कर दिया।।  

आज आम नागरिक हो या सरकार, सबकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जन कल्याण का स्थान स्वार्थ और खुदगर्जी ने ले लिया है। एक समय था, जब इस तरह की आपदाओं पर समाज में थोड़ी गंभीरता, संजीदगी और चिंता नजर आती थी। क्या यह आपातकाल नहीं।

हमने अपने नेताओं को भगवान का दर्जा दे दिया है। बस उनका आव्हान हो, और हम नींद से जाग जाएं। वाकई बड़ी गंभीर परिस्थिति है, लेकिन हम कर भी क्या कर सकते हैं, ईश्वर की मर्जी के आगे। जो करेगी सरकार ही करेगी, हमारे नेता ही करेंगे, हमें प्रशासन पर भरोसा है। कपड़े, दवाई और खाद्य सामग्री का भी इंतजाम करना है। नुकसान के आंकड़े तो अभी आना बाकी है। महंगाई को भी अभी और बढ़ना ही है।।  

झूठे प्रचार तंत्र और विज्ञापन बाजी से कभी सच छुपाया नहीं जा सकता। जब दिव्यता पर भव्यता हावी हो जाती है, तो दिव्य शक्तियां रुष्ट हो जाती हैं। बड़ी मुश्किल से हम कोरोना के प्रकोप से उबरे थे, अब और अब यह प्राकृतिक आपदा। कड़वे सच का सामना तो हमें करना ही होगा।

बहुत तारीफ हो गई अपने आपकी, अब अपनी गलतियों को भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना होगा। दोषी हम ही हैं, हमारी सरकार नहीं, क्योंकि आखिर सरकार भी तो हमारी ही चुनी हुई होती है। हमें टूटना नहीं मजबूत होना है, एकजुट होना है, तभी हम इस संकट का सामना कर पाएंगे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #191 ☆ शक़, प्यार, विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शक़, प्यार, विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 191 ☆

☆ शक़, प्यार, विश्वास 

‘मन के दरवाज़े से जब शक़ प्रवेश करता है; प्यार व विश्वास निकल जाते हैं, यह अकाट्य सत्य है। शक़ दोस्ती का दुश्मन है और उसके दस्तक देते ही जीवन में तहलक़ा मच जाता है; शांति व सुक़ून नष्ट हो जाता है।’ पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दूसरे दरवाज़े से रफ़ूचक्कर हो जाते हैं और उनके स्थान पर काम,क्रोध व ईर्ष्या-द्वेष अपनी सल्तनत क़ायम कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में विश्वास वहां से कोसों दूर चला जाता है। जीवन में जब विश्वास नहीं रह जाता तो वहां पर शून्यता पसर जाती है; शत्रुता का भाव काबिज़ हो जाता है और मानव ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाता है। आजकल रिश्तों में अविश्वास की भावना हावी है,जिसके कारण अजनबीपन का एहसास सुरसा के मुख की भांति पांव पसार रहा है और संबंधों को दीमक की भांति चाट रहा है। संदेह,संशय व शक़ ऐसा ज़हर है,जो स्नेह व विश्वास को लील जाता है। वह दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देता है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जब तक मानव इस सत्य से अवगत होता है; बहुत देर हो चुकी होती है। वह प्रायश्चित करना चाहता है, परंतु ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है।

रिश्तों की माला जब टूटती है तो जोड़ने से छोटी हो जाती है,क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं। ‘रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाय/ टूटे ते पुनि न जुरे,जुरे ते गांठ परि जाय,’ क्योंकि एक बार संशय रूपी गांठ के मन में पड़ने से स्नेह, प्रेम व विश्वास दिलों से नदारद हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्तों का क्षेत्रफल कितना अजीब है/ लोग लंबाई-चौड़ाई तो नापते हैं/ गहराई कोई नहीं आँकता। आजकल के रिश्ते मात्र दिखावे के होते हैं,जो ज़रा की ठोकर लगते टूट जाते हैं भुने हुए पापड़ की मानिंद और कांच के विभिन्न टुकड़ों की भांति इत-उत बिखर जाते हैं। वैसे भी आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं; यहां तक कि खून के रिश्ते भी बेमानी भासते हैं। सो! इस स्थिति में मानव किस पर विश्वास करे?

छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान की ओर इंगित करती है। सो! सुनना सीख लो,सहना आ जाएगा। सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। इसलिए मानव का हृदय विशाल व सोच सकारात्मक होनी चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता मानव को अवसाद के व्यूह में लाकर खड़ा कर देती है। मानव को दूसरों की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखनी चाहिए,क्योंकि दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है और ख़ुद से उम्मीद रखना जीवन को प्रेरित करता है; निर्धारित मुक़ाम पर पहुंचाता है। वैसे संसार में सबसे मुश्किल काम है आत्मावलोकन करना अर्थात् स्वयं से साक्षात्कार कर,स्वयं को खोजना,क्योंकि आजकल मानव के पास समयाभाव है। सो! ख़ुद से मुलाकात कैसे संभव है? इससे भी बढ़कर कठिन है– अपनों में अपनों को तलाशना, क्योंकि चहुंओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। हमारे अपने क़रीबी व राज़दार ही सबसे अधिक दुश्मनी निभाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव तनाव-ग्रस्त होकर सोचने लगता है ‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें हज़ार और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ जीवन में इच्छाओं के मकड़जाल में फंसा इंसान लाख चाहने पर भी उनके शिकंजे से बाहर नहीं आ सकता। वक्त व ख़्वाहिशें हाथ में बंधी घड़ी की तरह होती हैं,जिसे हम विषम परिस्थिति में उतार कर रख भी दें,तो भी चलती रहती है। इसलिए कहा जाता है कि ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल नहीं,परंतु असीमित आकांक्षाओं व लालसाओं को पूरा करना असंभव व नामुमक़िन है/ कुछ ख़्वाहिशों को ख़ामोशी से पालना चाहिए अर्थात् उनके पीछे नहीं भागना चाहिए,क्योंकि वे तो माया जाल है; जिसमें मानव फंसकर रह जाता है।

‘जीवन एक यात्रा है/ रो-रोकर जीने से लम्बी लगेगी/ और हंसकर जीने से कब पूरी हो जाएगी/ पता भी न चलेगा।’ सो! मानव को सदैव प्रसन्न रहना चाहिए तथा किसी से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए,क्योंकि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक हैं। वे मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती हैं,जहां वह स्वयं को असहाय अनुभव करता है। किसी से उम्मीद रखना और उसकी पूर्ति न होना; उपेक्षा का कारण बनती है। यह दोनों स्थितियां भयावह हैं। ‘उम्र भर ग़ालिब यह भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी/ और आईना साफ करता रहा।’ मानव जीवन में यही ग़लती करता है कि वह सत्य का सामना नहीं करता और माया के आवरण में उलझ कर रह जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अंदाज़ में न नापिए/ किसी की हस्ती को/ ठहरे हुए दरिया/ अक्सर गहरे हुआ करते हैं।’ परंतु मानव दूसरों को पहचानने की ग़लती करता है और चापलूस लोगों के घेरे से बाहर नहीं आ सकता। दूसरों को खुश करने के लिए मानव को तनाव,चिन्ता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। ‘खुश होना है/ तो तारीफ़ सुनिए/ बेहतर होना है तो निंदा/ क्योंकि लोग आपसे नहीं/ आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं।’ यह जीवन का कड़वा सच है। पद-प्रतिष्ठा तो रिवाल्विंग चेयर की भांति हैं,जिसके घूमते ही लोग नज़रें फेर लेते हैं।

वास्तव में सम्मान व्यक्ति का नहीं; उसके पद,स्थिति व रुतबे का होता है। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं,जो आपके सामने कहे जाते हैं,बल्कि उन शब्दों का होता है; जो आपकी अनुपस्थिति में कहे जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति की सोच व व्यवहार उसके जाने से पहले पहुंच जाते हैं। सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है– उपहास,विरोध व अंतत: स्वीकृति। सत्य को सबसे पहले उपहास का पात्र बनना पड़ता है; फिर विरोध सहना पड़ता है और अंत में उसे मान्यता प्राप्त होती है। परंतु सत्य तो सात परदों के पीछे से भी प्रकट हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सत्य ही शिव है; शिव ही सुंदर है। जीवन में सत्य की राह पर चलना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसका परिणाम सदैव कल्याणकारी होता है और वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। व्यवहार ज्ञान से बड़ा होता है और हम अपने विनम्र व्यवहार द्वारा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से विचार। इसलिए विचार ऐसे रखो कि किसी को तुम्हारे विचारों पर भी विचार करना पड़े अर्थात् सार्थक विचार और सार्थक कार्य-व्यवहार को जीवन में धरोहर-सम संजोकर रखें। ‘जीवन में हमेशा कर्मशील रहें; थककर निराशा का दामन मत थामें,क्योंकि सफल व्यक्ति कुर्सी पर भी विश्राम नहीं करते। उन्हें काम करने में आनंद आता है। वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं। वे लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और वही उनके जीने का अंदाज़ होता है।’ यही सोच थी कलाम जी की–आत्मविश्वास रखो और निरंतर परिश्रम करो। कबीरदास जी के मतानुसार ‘आंखिन देखी पर विश्वास करें; कानों-सुनी पर नहीं’,क्योंकि लोग किसी को खुश नहीं देख सकते। उन्हें तो दूसरों के जीवन में आग लगाने के पश्चात् आनंदानुभूति होती है। इसलिए वे ऊल-ज़लूल बातें कर उनका विश्वास जीत लेते हैं। उस स्थिति में उनके परिवार की खुशियों को ग्रहण लग जाता है। स्नेह व प्रेम भाव उस आशियाने से मुख मोड़ लेते हैं और विश्वास भी सदा के लिए वहां से नदारद हो जाता है। उस घर में मरघट-सा सन्नाटा पसर जाता है। घर-परिवार टूट जाते हैं। संदेह व संशय के जीवन में दस्तक देते ही खुशियाँ अलविदा कह बहुत दूर चली जाती हैं। सो! एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास भाव होना आवश्यक है ताकि जीवन में समन्वय व सामंजस्य बना रहे। वैसे भी मानव को सब कुछ लुट जाने के पश्चात् ही होश जाता है। जब उसे किसी वस्तु का अभाव खलता है तो ज़िंदगी की अहमियत नज़र आती है। इसलिए शीघ्रता से कोई निर्णय न लें,क्योंकि जो दिखाई देता है,सदा सत्य नहीं होता। मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हों; हौसलों से छोटी रहती हैं। इसलिए संकट की घड़ी में अपना आपा मत खोएं; सुक़ून बना रहेगा और जीवन सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 98 ⇒ गं ध… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गं ध।)  

? अभी अभी # 98 ⇒ || गं ध ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप सुगंध कहें या खुशबू, किसे महकता वातावरण पसंद नहीं। बात चाहे वादियों और फिज़ाओं की हो, अथवा गंधमादन पर्वत की, सुंदरता और मादकता को न तो आप परिभाषित कर सकते हैं, और न ही उसे किसी तस्वीर में उतार सकते हैं। किसी बदन की खुशबू और किसी गुलाब की महक किसी नुमाइश की मोहताज नहीं। कब ‘आंख ‘ सूंघ ले, और कब ” नाक ‘ देख ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक सस्ता सा शेर भी शायद यही बात दोहरा रहा है ;

सच्चाई छुप नहीं सकती

बनावट के उसूलों से।

कि खुशबू आ नहीं सकती

कभी काग़ज़ के फूलों से।।

सभी प्राणियों में सूंघने की शक्ति होती है, किसी में कम, किसी में ज्यादा। जिस तरह लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, उसी तरह कई लोग खुशबू के भी शौकीन होते हैं। कजरा अगर सुंदरता का प्रतीक है तो गजरा खुशबू का। रसिकों का क्या है, वे तो सुनने के भी शौकीन होते हैं ;

पायल वाली देखना,

यहीं तो कहीं दिल है ;

पग तले आए ना।।

रस और गंध का गुण धर्म राजसी है। स्वर्ग में राजसी सुख है, वैभव है, नृत्य और संगीत है। हम मंदिर में अपने इष्ट को पुष्प और गंध दोनों अर्पित करते हैं। धूप बत्ती और कर्पूर आरती का भी प्रावधान है। गंध से आसुरी शक्तियां पास नहीं फटकती। सुगंधित पदार्थों और जड़ी बूटियों से ही यज्ञ और हवन संपन्न होते हैं।

पुष्प समर्पयामि। गंधं समर्पयामि ! चित्त का शांत होना ही शांति का प्रतीक है।

सूंघने का विभाग नाक का है। एक विभाग के भी दो भाग हैं, जिनमें वेंटिलेटर्स लगे हैं। हमारे फेफड़ों में प्राणवायु का प्रवेश और कार्बन डाइऑक्साइड की निकासी भी तो इसी नाक से होती है। नस नाड़ियों का जाल हमारे शरीर का नेटवर्क है। सूर्य चंद्र नाड़ी का अनुपात शरीर को गर्म ठंडा रखता है। संत कबीर तो इड़ा पिंगला की बात करते करते सीधे सुषुम्ना यानी सहज समाधि तक पहुंच जाते हैं। ।

यह हमारा शरीर भले ही हाड़ मांस का पुतला हो, लेकिन अगर किसी के बदन में खुशबू है तो किसी के शरीर में बदबू भी हो सकती है, क्योंकि हमारी प्रवृत्ति भी सात्विक, राजसी और तामसिक होती है तामसी पदार्थों के सेवन से बदन में खुशबू नहीं, बदबू ही आती है। जैसा अन्न वैसा मन ;

फूल सब बगिया खिले हैं

मन मेरा खिलता नहीं क्यों।

फूल तो खुशबू बिखेरें

मैं रहा बदबूऍं क्यों।।

हमारे ही शरीर में आभा भी है और ओज भी, जिसे विज्ञान की भाषा में aura कहते हैं। किसी के आने पर सजना, धजना, संवरना भी प्रसन्नता का ही द्योतक होता है। बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है। खुशी से हमारा चेहरा खिलता क्यों है, जब उदास होते हैं, तो मुरझाता क्यों है।

चमन में बहार है तो खुशबू है। जिस घर में महक और खुशबू जैसी बहनें हों, वहां तो बहार ही बहार है। किसी के पड़ोसी अगर मिस्टर गंधे हैं तो किसी के समधी श्री सुगंधी हैं। एक सुगंधा मिश्रा है, जो आज तक यह तय नहीं कर पा रही, कि वह एक अच्छी गायिका है या मिमिक्री आर्टिस्ट। ।

अक्सर, जब सर्दी जुकाम हो जाता है, तो हमारी सूंघने की शक्ति काम नहीं करती। हम समझते हैं, रसोई में अभी दाल ही नहीं गली, जब कि दाल जलकर खाक हो चुकी होती है। पेट में जब चूहे कूदने लगते हैं, तो दूर किसी झोपड़ी से चूल्हे की आग में सिक रही रोटी की महक, छप्पन भोग को मात कर देती है।

हमारी माटी की गंध का भी जवाब नहीं। तपती गर्मी के बाद, जब बारिश की कुछ बूंदें, धरती पर पड़ती है, तो वह सौंधी सौंधी खुशबू, बड़ी प्यारी लगती है। नेकी ही खुशबू का झोंका है और बदी, असह्य बदबू।

षडयंत्र की बू सभी को आ जाती है लेकिन अच्छाई कभी अपना प्रचार नहीं करती। फूल कभी नहीं कहता, मुझे सूंघो, उसकी खुशबू चलकर आपके पास आती है। हमारा स्वभाव ही हमारी असली पहचान है, डियोड्रेंट और आर्टिफिशियल फ्रेगरेंस ( कृत्रिम सुगंध ) नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 221 ☆ आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेखउपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆  

? आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक?

कल मेरा बैंक जाना हुआ। एक बुजुर्ग अम्मा अपनी पास बुक में एंट्री करवाना चाहती थीं। काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उन्हें हिकारत की नजरों से देखते हुये कहा कि कल आना। इस संवेदनशील दृश्य ने मुझे यह लेख लिखने को विवश किया है। बैंको में निश्चित ही ढ़ेर सारी कथित जन कल्याणकारी वोट बटोरू योजनाओ के कारण काम की अधिकता है। प्रायः माह के पहले सप्ताह में बैंक कर्मी एंट्री या अन्य कार्यों को टालने के लिये प्रिंटर खराब होने, स्टाफ न होने, या अन्य बहाने बनाते आपको भी मिले होंगे, मुझे भी मिलते हैं।

बुजुर्गो के लिये बैंक आपके द्वार जैसी योजनायें इंटरनेट पर बड़ी लुभावन लगती हैं किन्तु वास्तविकता से कोसों दूर हैं। म प्र में तो सीनियर सिटिजन कार्ड्स तक नहीं बनाये गये हैं, उनके लाभों की बात तो बेमानी ही है। स्वयंभू मामा को वरिष्ठ नागरिको में वोट बैंक नही दिखना हास्यास्पद है। वे कुछ बुजुर्गों को तीर्थाटन में भेजते फोटो खिंचवाते प्रसन्न हैं। श्रीलंका की यात्रा से लौटकर यथा नियम वर्षो पहले विधिवत कलेक्टोरेट जबलपुर में आवेदन करने, सी एम हेल्पलाइन पर शिकायत करने पर भी यात्रा के किंचित व्यय की पूर्ति योजना अनुसार देयता होने पर भी आज तक न मिलने के उदाहरण मेरे सम्मुख हैं।

वरिष्ठ नागरिक समाज की जबाबदारी हैं एक दिन सबको वृद्ध होना ही है। सरकारों को अति वरिष्ठ नागरिकों की विशेष चिंता करनी होगी। देश के उच्च तथा मध्य वर्ग के बड़े समूह ने अपने बच्चो को सुशिक्षित करके विदेश भेज रखा है। अब एकाकी बुजुर्गो की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। अति वरिष्ठ बुजुर्गो के लिए कोई इंश्योरेंस नही है। अकेले धक्के खाने वाली चिकित्सा व्यवस्था से बुजुर्ग घबराते हैं, समाज में बुजुर्गो को सुरक्षा की कमी है, बैंक तथा शासकीय अधिकारी सही सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते, बच्चों के पास ये वरिष्ठ नागरिक विदेश जाना चाहते हैं किंतु वीजा तथा वहां मंहगी चिकित्सा की समस्याएं हैं। सरकार को देश में और विदेशी सरकारों से समझौते कर इन अति वरिष्ठ नागरिकों को सहज सरल जीवन व्यवस्था देनी चाहिए। यह समय की मांग है। किसी भी राजनैतिक पार्टी का ध्यान इस ओर अभी तक नही गया है।

अपने विदेश तथा अमेरिका प्रवास में मैंने देखा कि वहां बुजुर्गो के मनोरंजन हेतु, उनके दैनंदिनी जीवन में सहयोग, कार पार्किंग, आदि आदि ढ़ेरो सुविधायें निशुल्क सहज सुलभ हैं। भारत सरकार के पोर्टल के अनुसार बुजुर्गों को आयकर संबंधी कुछ छूट, बैंको के कुछ अधिक ब्याज के सिवा यहां कोई लाभ बुजुर्गों तक नहीं पहुंच रहे। कार्पोरेशन प्रापर्टी टैक्स में छूट, दोपहर और रात में जब मेट्रो खाली चलती हैं तब बुजुर्गों को सहज किराये में छूट दी जा सकती है . निजि क्षेत्रो के अस्पताल, एम्यूजमेंट पार्कस, सिनेमा आदि भी अंततोगत्वा सरकारी प्रावधानो के अंतर्गत स्थानीय प्रशासन में ही होते हैं, उन्हें भी बुजुर्गो के लिये सरल सस्ती व्यवस्थाये बनाने के लिये प्रेरित और बाध्य भी किया जा सकता है।

जेरियेट्रिक्स पर सरकारो को विश्व स्तर पर ध्यान देने की जरुरत है। जिनके बच्चे जिस देश में हैं उन्हें वहां के वीजा सहजता से मिलें, उन देशों की सरकारें वहां पहुंच रहे बुजुर्गो को मुफ्त स्वास्थ्य सेवायें, कैश लेस बीमा सेवायें सुलभ करवायें इस आशय के समझौते परस्पर सरकारों में किये जाने की पहल भारत को करनी जरूरी है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और …… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्याऊ और … ।)  

? अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

यह तब की बात है, जब मिल्टन के वॉटर कंटेनर और बिसलेरी की बॉटल का आविष्कार नहीं हुआ था, क्योंकि हमारे प्रदेश में कुएं, बावड़ी, नदी तालाब, ताल तलैया और सार्वजनिक प्याऊ की कोई कमी नहीं थी। शायद आपने भी सुना हो ;

मालव धरती गहन गंभीर,

डग डग रोटी, पग पग नीर

हम बचपन में, सरकारी स्कूल में कभी टिफिन बॉक्स और वॉटर बॉटल नहीं ले गए। कोई मध्यान्ह भोजन नहीं, बस बीच में पानी पेशाब की छुट्टी मिलती थी, जिसे बाद में इंटरवल कहा जाने लगा।

इतने बच्चे, कहां का पब्लिक टॉयलेट, मैदान की हरी घास में, किसी छायादार पेड़ की आड़ में, तो कहीं आसपास की किसी दीवार को ही निशाना बनाया जाता था। हर क्लास के बाहर, एक पानी का मटका भरा रहता था, तो कहीं कहीं, पीने के पानी की टंकी की भी व्यवस्था रहती थी। कुछ पैसे जेब खर्च के मिलते थे, चना चबैना, गोली बिस्किट से काम चल जाता था।

शहर में दानवीर सेठ साहूकारों ने कई धर्मशालाएं बनवाई और सार्वजनिक प्याऊ खुलवाई। हो सकता है, कई ने कुएं बावड़ी भी खुदवाए हों, लेकिन सार्वजनिक पेशाबघर की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन अथवा नगर पालिका की ही रहती थी। हो सकता है, नगरपाल से ही नगर पालिका शब्द अस्तित्व में आया हो। ।

आज भी शहर में आपको कई ऐसी धर्मशालाएं और सार्वजनिक प्याऊ नजर आ जाएंगी, जिनके साथ दानवीर सेठ साहूकार का नाम जुड़ा हो, लेकिन इनमें से किसी के भी नाम पर, शहर में कोई सार्वजनिक पेशाब घर अथवा शौचालय नजर नहीं आता। इतिहास गवाह है, केवल एक व्यक्ति की इन पर निगाह गई, और परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति, घर घर शौचालय, और सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर के निर्माण ने देश का कायाकल्प ही कर दिया।

इसके पूर्व सुलभ इंटरनेशनल ने पूरे देश में सुलभ शौचालयों का जाल जरूर बिछाया, लेकिन उसमें जन चेतना का अभाव ही नज़र आया।

पानी तो एक आम आदमी कहीं भी पी लेगा, लेकिन पेशाब या तो घर में ही की जा सकती है अथवा किसी पेशाब घर में। भाषा की अपनी एक सीमा होती है, और शर्म और हया की अपनी अपनी परिभाषा होती है। कुछ लोग इसे लघुशंका कहते हैं तो कुछ को टॉयलेट लग जाती है।

मौन की भाषा सर्वश्रेष्ठ है, बस हमारी छोटी उंगली कनिष्ठा का संकेत ही काफी होता है, अभिव्यक्ति के लिए। जिन्हें अधिक अंग्रेजी आती है वे इस हेतु पी (pee) शब्द का प्रयोग करते हैं। बच्चे तो आज भी सु सु ही करते हैं। खग ही जाने खग की भाषा। ।

एक समग्र शब्द प्रसाधन सभी को अपने आपमें समेट लेता है। बोलचाल की भाषा में आज भी इन्हें पब्लिक टॉयलेट कहा जाता है, पुरुष और महिला के भेद के साथ। प्रशासन ऐप द्वारा भी आजकल आपको सूचित करने लगा है, यह सुविधा आपसे कितनी दूरी पर है।

हर समस्या का हल सुविधा से ही होता है, लेकिन कुछ आदिम प्रवृत्ति आज भी पुरुष को स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और उच्छृंखल बनाए रखती है। सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान और मल मूत्र का विसर्जन वर्जित और दंडनीय अपराध है लेकिन उद्दंडता सदैव कानून कायदे और अनुशासन का उल्लंघन ही करती आ रही है। हद तो तब होती है, जब इनके कुछ शर्मनाक कृत्य लोक लाज और मान मर्यादा की सभी हदें पार कर जाते हैं, और कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आम भाषा में कांड की श्रेणी में शामिल हो जाता है, कभी तेजाब कांड तो कभी पेशाब कांड ! एक जानवर कभी अपनी कौम को शर्मिंदा नहीं करता, लेकिन एक इंसान ही अक्सर इंसानियत को शर्मिंदा करते देखा गया है। हम कब सुधरेंगे। 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव।)  

? अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।

सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।

हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।

सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।

एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।

पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।

आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है।।

बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।

आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है।।

आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।

वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा।

भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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