हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 143 ☆ मंजिल की तलाश में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 143 ☆

☆ मंजिल की तलाश में ☆

सलाहकार की फौज होने से कोई विजेता नहीं बन जाता, एक व्यक्ति हो पर सच्चा और समझदार हो तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। नासमझी के चलते लोग ऐसी टीम गठित कर लेते हैं, जहाँ हर सिक्का खोटा होता है, अब खोटे से कुछ होने से रहा, सो खींचतान करते हुए अपनी जगह पर मशीनी साइक्लिंग करते नज़र आते हैं। ऐसी दशा में वजन भले ही कम हो किन्तु दिशा बदलने से रही।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त द्वारा नए साम्रज्य की स्थापना कर दी किन्तु अविवेकपूर्ण व्यक्ति न तो स्वयं बढ़ेगा न दूसरों को बढ़ने देगा। केवल धक्का- मुक्की के बल पर भला शिखर पर विराजित हुआ जा सकता है।

यदि आपमें नेतृत्व की क्षमता न हो तो जरूरी नहीं कि मुखिया बनें आप ऐसी टीम के साथ जुड़कर कार्य कर सकते हैं जहाँ बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय लिए जा रहे हों। देश निर्माण में लगे रहना, विश्व बंधुत्व को बढ़ावा, तकनीकी विकास, आर्थिक उदारता के साथ अपने को विश्व का मुखिया बना लेना। कदम दर कदम चलते रहने का ही परिणाम है।

तेरा- मेरा छोड़कर मिल बाँट कर रहना सीखिए। सब कुछ केवल मेरा हो ये प्रवृत्ति जब तक मन से नहीं जायेगी तब तक मानसिक शांति नहीं मिल सकती।  जो लोग साथ रहने की आदत  रखते हैं वे हमेशा मुस्कुराते हुए हर परिस्थितियों का सामना करते जाते हैं।  कोई भी वस्तु या  क्षण स्थायी नहीं होता  इसमें बदलाव होना स्वाभाविक  है अतः किसी वस्तु के प्रति अनावश्यक मोह नहीं पालना चाहिए, कैसे योग्य बनें इस पर चिंतन करते हुए स्वयं को निखारते रहें। अनायास ही जब प्रकृति आपसे दी हुई सुविधाएँ वापस लेने लगे तो समझ जाइये की वक्त बदल रहा है सो अभी भी समय है बदलिए। पुरानी बातों का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा।

हर घटना कुछ न कुछ सिखाती है व हमें अवसर प्रदान करती है खुद को सिद्ध करने का। अतः किसी एक क्षेत्र में प्रयास करते रहें जब तक मंजिल न मिल जाए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 204 ☆ व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य जूम और मीट की बहार है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 204 ☆  

? व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ?

लोकतंत्र में बिना चर्चा कोई काम नहीं होता. सबकी सहभागिता जरूरी है. सहभागिता के लिये मीटिंग आवश्यक हैं. कोरोना जनित नया जमाना वर्चुएल मीटिंग्स का है. जूम और मीट की बहार है.वर्क फ्राम होम का कल्चर फल फूल पनप रहा है. विकास की चर्चाओ के लिये सरकारी और साहित्य की असरकारी मीटिंग्स पोस्ट कोरोना युग में मोबाईल और लैपटाप्स पर ही सुसंपन्न हो रही हैं. जूम पर या गूगल मीट पर मीटींग्स के लिये पहले दिन और समय तय होता है. संबंधितो को व्हाट्सअप ग्रुप्स पर मीटिंग का संदेश दिया जाता है. यदि मीटिंग सरकारी है तब तो बडे साहब के चैम्बर में उनकी सीट के सामने की दीवार पर एक बड़ा सा मानीटर होता है. एक युवा साफ्टवेयर इंजीनियर पहले ब्राडबैंड सिग्नल, बैकग्राउंड  दृश्य और साउंड क्वालिटी चैक करता है. फिर जिन अन्य मातहत कार्यालयों को मीटिंग में जोड़ना होता है, बारी बारी से उन्हें फोन करके उनसे संपर्क करता है जिससे जब साहबों की वास्तविक मीटिंग हो तो बेतार के तार निर्विघ्न जुड़े रहें. नियत समय से कुछ पहले से ही मातहत अपनी प्राग्रेस रिपोर्ट या प्रस्तावों के प्रतिवेदन तैयार करके, अपने कपड़े ठीक ठाक करके कैमरे के सम्मुख विराजमान हो जाते हैं. यदि मीटिंग बड़ी हुई यानी उसमें प्रदेश भर के कार्यालय जुड़ने वाले हुये तो आईडेंटीफिकेशन के लिये मातहत आफिसों के नाम की फलेक्स पट्टिकायें भी लगा दी जातीं है.  इस बीच यदि कोई फरियादी जरुरी से जरूरी काम लेकर भी साहब से मिलना चाहता है तो सफेद ड्रेस में सज्जित दरबान उसे बाहर ही रोक देता है, और थोड़े रोब से बताता है आज साहब हेड आफिस से वीसी मतलब वर्चुएल कांफ्रेंस में हैं. आगंतुक समझ जाता है कि आज साहब पास होकर भी दूर वालों के ज्यादा पास हैं. आज उन तक फरियाद पहुंचाना मुश्किल है.

वर्चुएल मीटिंग को साहित्यकारों ने भी बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया है. योग, नृत्य, ट्यूशन क्लासेज भी जूम और मीट प्लेटफार्म पर सक्सेजफुली चल रही हैं. अब साहित्य की गोष्ठियां मोबाईल से ही निपटा ली जाती है. इनवीटेशन, हाल बुकिंग, मंच माला माईक, चाय नाश्ता, सारी झंझटों से मुक्ति मिल गई है. वरचुएल मीट प्रारंभ होते ही जब अधिकाधिक लोग जुड़े होते हैं, अखबारी न्यूज के लिये स्क्रीन शाट ले लिये जाते हैं.  चतुर लोग धीरे से अपना वीडीयो और माईक बंद करके दूसरे काम निपटा लेते हैं. कुछ तो मीटिंग साउंड भी बंद करके मोबाईल जेब के हवाले कर देते हैं, पर वर्चुएली मीटिंग से जुड़े रहकर समूह के साथ अपनी सालीडेरिटी बनाये रखते हैं. ऐसे साफ्टवेयर फ्रेंडली रचनाकार वर्चुएल बैकग्राउंड में किताबों से भरी लाईब्रेरी का चित्र लगाकर अपना प्रोफाईल कुछ खास बना लेते हैं. जो थोड़ा बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के वरिष्ठ या गरिष्ट साहित्यकार होते हैं, यदि वे जूम फ्रेंडली नहीं होते कि मींटिंग के दौरान हैंण्ड रेज कर सकें, माईक चालू या बंद कर सकें और अपना कैमरा सेट कर सकें, तो मदद के लिये वे अपने साथ अपने नाती पोतों या युवा पीढ़ी से बेटे, बहू को पकड़ रखते हैं. यदि सब सैट करके बच्चे खिसक लिये तो ऐसे लोगों की प्रोफाईल पर सीलींग का पंखा देखने मिल सकता है. कभी कभी जब किचन की आवाजें जूम मीटिंग में सुनाई दें तो समझ लें किसी न किसी ऐसे ही व्यक्ति का माईक खुला हुआ है. प्रायः जब किसी ऐसे व्यक्ति के बोलने की बारी आती है तो माईक चालू करते ही वे शुरुवात करते हुये कहते हैं ” मेरी आवाज आ रही है न ! ” तब संचालक को बताना पड़ता है कि, जी हाँ आपकी पूरी आवाज आ रही है. सच तो यह है कि कभी कभार हुये आकस्मिक तकनीकी व्यवधान छोड़ दिये जायें तो फाईव जी के इस जमाने में आवाज तो सबकी पूरी ही आती है, ये और बात है कि सबकी आवाजें सुनी नहीं जातीं.जूम और मीट की बहार है.  वर्चुएल मीटिंग का बड़ा लाभ यही है कि कार्यालयों की मीटिंग में जब डांट पड़ने लगती है तो आवाजें डिस्टर्ब कर ली जातीं हैं, साहित्यिक मीटींग्स में आत्ममुग्धता से भरे व्याख्यान खुद बोलो खुद सुनो बनकर रह जाते हैं क्योंकि आवाज आती तो है पर सुनना न सुनना दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति के हाथ होता है. अच्छी से अच्छी बातें तो हमेशा से हैं आ रही हैं, उन्हें सुन भी लें तो उन्हें ग्रहण करना तो सदा से हम पर ही निर्भर है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 181 ☆ “वो बेचैन सा क्यूं है…?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – वो बेचैन सा क्यूं है…?”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 181 ☆ “वो बेचैन सा क्यूं है…?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

वो अक्सर व्याकुल बेचैन सा नजर आता है। उसकी इस बेचैनी को देखकर चिंता भी होती है। चिकित्सक कहते हैं कि अति आतुर या व्याकुल होना भी एक रोग ही है। इसका मतलब वो जरूर इस रोग से पीड़ित है।  दैनिक जीवन में प्रतिदिन वो व्याकुल सा परेशान रहता है। उससे जब पूछो कि- वो इतना आतुर क्यों दिखता है? तो झट से उसका जबाब होता है कि- लेखक भी तो लिख देते हैं कि उनके अंदर बेचैन आत्मा रहती है, और यह बेचैन आत्मा उनसे शानदार रचनाएं लिखवा देती है। 

पहले ऐसा कहा जाता था कि वृद्ध होने पर ही इंसान आतुर जैसा हो जाता हैं, पर ऐसा लगता है कि वर्तमान में बच्चे और युवा सभी इस रोग से पीड़ित हैं। सभी को शीघ्रता है। आज कल सभी हाथ मोबाइल लिए हुए  हैं। वो भी तीन चार मोबाइल साथ रखता है,  उसकी हर दम आदर के साथ झुकी हुई गर्दन, आंखे मोबाइल के स्क्रीन में अंदर तक घुसी हुई, मन बेचैन व्याकुल सा किसी नए मेसेज की प्रतीक्षा में ही रहता है। अल सुबह वो सर्वप्रथम मोबाइल को प्रणाम कर दिन का शुभारंभ करता है। जब शुरुआत ही बेचैनी से होगी तो पूरा दिन भी उसी प्रकार का होगा। 

क्या अतुरता बेचैनी ये सब हम सब के स्वभाव का हिस्सा तो नहीं बन गया है? उसको देखकर ऐसा लगता है, साधु संत तो कहते हैं कि संयम और धैर्य से काम लो फिर वो इतना व्याकुल और बेचैन क्यों रहता है। अभी उस दिन की बात है बैंक की लंबी लाइन में वो नियम विरुद्ध किनारे से आकर पूछता है, सिर्फ खाते में बैलेंस की जानकारी लेनी हैं। ये बात अलग है, कि वो बैलेंस के नाम से अपनी बैलेंस शीट में लगने वाली बैंक की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है। लाइन में इंतजार कर रहे अन्य व्यक्तियों के समय हानि को दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा करने में उसकी व्याकुलता और बेचैनी काम आती है। वो हर समय जल्दी में रहता है पर रोज खूब देर से सोकर भी उठता है।      

आज फिर जब मैं पपलू दवा की दुकान से अपने जीवित रहने की दवा खरीदने के लिए डॉक्टर का पर्चा वहां कार्यरत व्यक्ति को दे रहा था, तभी वो दूर खड़ी कार की खिड़की से कूकर के समान अपनी थूथनी बाहर निकाल कर डाक्टर पर्ची को उल्ट पलट कर दवा का नाम लेकर उसकी उपलब्धता, भाव,एक्सपायरी की तारीख, दो हज़ार के छूट आदि की पूरी जानकारी लेने लगा। उसके पास कार से बाहर आकर बातचीत करने का समय नहीं था। वो वहीं से बेचैनी से चिल्लाकर कहने लगा उसका टाइम खराब हो रहा है। उसको टीवी पर शाम को होने वाली कुत्तों की तरह होने वाली बहस देखना जरूरी है। उस हालात में उसकी बेचैनी और व्याकुलता देखने लायक थी। कहते हैं कि विश्व में सबसे ज्यादा युवा शक्ति भारत में है पर  जुकुरू बाबा ने फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम और तरह तरह के आनलाइन गेम में फंसाकर पूरी युवा शक्ति में बेचैनी और व्याकुलता भर दी है और डाक्टर लोग कह रहे हैं इस रोग का कोई इलाज नहीं है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #186 ☆ व्यंग्य – जानवरों की बेअदबी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  ‘जानवरों की बेअदबी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 186 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जानवरों की बेअदबी

कहीं पढ़ा कि एक राज्य में कुछ समझदार लोगों ने ‘हलाल मीट’ के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए माँग की कि बाज़ार में ‘हलाल मीट’ की जगह ‘झटका मीट’ ही बेचा जाना चाहिए। यानी जानवर को एक झटके में ही इस दुनिया से रुखसत किया जाए, वध के तरीके में कोई मज़हबी कर्मकांड न हो।

उल्लेखनीय है कि आदमी के जन्म से ही अनेक पशु-पक्षी और समुद्री-जीव उसके ज़ायके के लिए खुशी-खुशी अपनी जान की कुर्बानी देते रहे हैं। मनुष्य- जाति का इतिहास लिखते समय पशुओं की इस कुर्बानी को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।

सभी धर्मग्रंथ मानते हैं कि हर जीव का जन्म और मृत्यु पूर्वनियत है। शायद इसीलिए पशुओं का वध करते समय आदमी को हिचक नहीं होती। जब सब कुछ पूर्व निश्चित है तो आदमी को केवल ऊपर वाले की इच्छा की पूर्ति का निमित्त ही माना जा सकता है। इस हिसाब से देखें तो आदमी की हत्या पर मिलने वाला दंड भी अटपटा लगता है। कुछ लोग इतने ‘पशु-प्रेमी’ होते हैं कि, बिना माँस के, निवाला उनके हलक से नीचे नहीं उतरता।

ऊपर बताए गये वाकये में जब हल्ला- गुल्ला ज़्यादा बढ़ा तो अधिकारी हरकत में आये और हलाल और झटका के तरफदारों को अलग-अलग समझाइश देने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन बहुत मगजमारी के बाद भी पशु-वध के किसी एक तरीके पर दोनों पक्षों की सहमति नहीं बन सकी। तभी एक अधिकारी, जिन्हें उनकी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण सनकी माना जाता था, ने एक नूतन प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने सुझाव रखा कि बेहतर होगा कि इस मामले पर प्रभावित पक्ष यानी मुर्गो और बकरों की रायशुमारी करा ली जाए कि वे किस तरीके से स्वर्ग जाना पसन्द करेंगे।

अधिकारी के इस प्रस्ताव पर सभी पक्षों की सहमति बन गयी और प्रस्ताव पेश करने वाले अधिकारी को ही रायशुमारी की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी। अधिकारी ने तुरन्त वोटिंग-मशीन का इन्तज़ाम किया जिस पर पाँव से बटन दबाकर अपनी पसन्द अंकित की जा सकती थी। तीन विकल्प रखे गए— झटका, हलाल और नोटा, यानी ‘इनमें से कोई नहीं’।

नगर के बकरों-मुर्गों को इकट्ठा करके उनका वोट डलवाया गया। जब परिणाम सामने आया तो सभी पक्ष ठगे से रह गये क्योंकि सभी पशुओं ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था, यानी वे फिलहाल इस दुनिया से रुखसत नहीं होना चाहते थे।

देखकर अधिकारियों के मुँह का ज़ायका बिगड़ गया। ऐसी बेअदबी! दिस इज़ ओपिन डिफाएंस ऑफ अथॉरिटी। ‘हमने उन्हें अपनी बात रखने का मौका दिया और वे हमारा ज़ायका बिगाड़ने पर तुल गये! इतने दिन तक दाना-पानी देने का ये सिला!’ कुछ लोगों ने रायशुमारी कराने वाले अधिकारी की लानत-मलामत की क्योंकि उन्होंने ‘नोटा’ का विकल्प शामिल किया था।

अन्त में निष्कर्ष निकला कि अधिकारियों ने पशुओं को उनकी किस्मत का फैसला करने का मौका दिया, लेकिन उन्होंने उसका गलत फायदा उठाया। इसलिए इस मामले में आगे उनसे कोई राय न ली जाए। अब एक तीन-सदस्यीय समिति गठित की जाएगी जो दो महीने के भीतर मनुष्य-जाति के दोनों पक्षों से बात कर सहमति बनाने की कोशिश करेगी। तब तक पशुओं को रुखसत करने के लिए वर्तमान तरीके ही अपनाये  जाएंगे।

 © डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 142 ☆ उठा पटक के मुद्दे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 142 ☆

☆ उठा पटक के मुद्दे ☆

बे सिर पैर की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए, ये तो बड़े- बूढ़ों द्वारा बचपन से ही सिखाया जाता रहा है। पर क्या किया जाए आजकल एकल परिवारों का चलन आम बात हो चुकी है। और खास बात ये है कि माता- पिता अब स्वयं कुछ न बता कर गूगल से सीखने और समझने के लिए बच्चों को शिशुकाल से ही छोड़ने लगे हैं। पहले बच्चा मनोरंजन हेतु फनी चित्र देखता फिर अपने आयु के स्तर से आगे बढ़कर जानकारी एकत्रित करता है। शनिवार की शाम को आउटिंग के नाम पर होटलों में बीतती है, रविवार मनोरंजन करते हुए कैसे गुजरता है पता नहीं चलता। बस ऐसा ही सालों तक होता जाता है और तकनीकी से समृद्ध पीढ़ी आगे आकर अपने विचारों को बिना समझे सबके सामने रखती जाती है। अरे भई नैतिक व सामाजिक नियमों से ये संसार चल रहा है। हम लोग रोबोट नहीं हैं कि भावनाओं को शून्य करते हुए अनर्गल बातचीत करते रहें।

बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव- कितना सटीक मुहावरा है। बच्चे को सबसे पहले बोलने की कला अवश्य सिखानी चाहिए। पढ़ने- लिखने के साथ यदि वैदिक ज्ञान भी हो जाए तो संस्कार की पूँजी अपने आप हमारे विचारों से झलकने लगती है। भारतीय परिवेश में रहने के लिए, वो भी सामाजिक मुद्दों पर अपने को श्रेष्ठ साबित करने हेतु आपको जमीनी स्तर पर जीना सीखना होगा। पाश्चात्य मानसिकता के साथ शासन करना तो ठीक वैसे ही होता है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 200 वर्षों तक हमें गुलामी में जकड़े रखा। अब लोग सचेत हो चुके हैं वो केवल राष्ट्रवादी विचारों के पोषक व संवाहक बन अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपना परचम पहराने की क्षमता रखते हैं।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि यथार्थ के धरातल पर प्रयोग करते रहिए। जल, जंगल, जमीन, जनजीवन, जनचेतना, जनांदोलनों के जरिए हमें वैचारिक दृष्टिकोण को सबके सामने रखना सीखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका  एक  माइक्रो व्यंग्य – “उगलत लीलत पीर घनेरी...”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

कुछ दिनों से गंगू को कोई वामपंथी कहकर चिढ़ाता तो कोई दक्षिणपंथी कहता। गंगू जब तंग हो गया तो उसने अपने आप को टटोला, कुछ हरकतें वामपंथी जैसी दिखीं कुछ आदतें दक्षिणपंथी से मेल खाती मिलीं।

मां से पूछा -जब हम पैदा हुए थे तो वामपंथी जैसे पैदा हुए थे या दक्षिणपंथी जैसे ?

मां ने ज़बाब दिया- बेटा तुम्हारे पिता जी वामपंथी थे और मैं जन्म से दक्षिणपंथी थी जब तुम पैदा हुए थे तो तुम उल्टा पैदा हुए थे, ऊपर से दक्षिणपंथी और अंदर से वामपंथी।

मां की बातें सुनकर गंगू परेशान हो गया था, जंगल की तरफ भागकर गांव के पीपल के नीचे बैठकर चिंतन मनन करने लगा। थोड़ी देर बाद एक गांव वाला लोटा लिए कान में जनेऊ बांधे शौच को जाते दिखा।  गंगू ने रोककर पूछा – भाई ये बताओ कि इन दिनों मीडिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी ‌की खूब चर्चा हो रही है। गांव वाले को जोर की लगी थी जनेऊ कान में उमेठते हुए बोला – जो जनेऊ न पहनें और जनेऊ बिना कान में बांधे शौचालय जाए फिर बाहर निकलकर  हाथ न धोये  वो वामपंथी और जो कान में जनेऊ लपेटकर दक्षिण दिशा में बैठकर शौच करे वो दक्षिणपंथी…

गंगू सुनकर सोचने लगा आगे चिंतन मनन करूं कि नहीं।

“फासले ऐसे भी होंगे, 

ये कभी सोचा न था,”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 141 ☆ बेबसी का राग… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बेबसी का राग। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 141 ☆

बेबसी का राग ☆

जो चलना शुरू कर देगा वो अवश्य ही रास्ता बनाता जाएगा। राह और राही का गहरा नाता होता है। जिस रंग की तलाश आप अपने चारों ओर करते हैं कुदरत वही निर्मित करने लगती है। यही तो आकर्षण का प्रबल सिद्धांत है। इसे ससंजक बल भी कह सकते हैं जिससे तरल की बूंदे जुड़कर शक्तिशाली होती जाती हैं। बल कोई भी हो जोड़- तोड़ करने में प्रभावी होता है, अब देखिए न सारे लोग एक साथ चलने को आतुर हैं किंतु पहले कौन चलेगा ये तय नहीं कर पा रहे। जनता जनार्दन तो मूक दर्शक बनने की नाकाम कोशिश करते हुए, पोस्टरों को देख कर मुस्कुराते हुए कह देती है जब आपके पास कोई चेहरा ही नहीं है? तो मोहरा बनते रहिए। खेल और खिलाड़ी अपनी विजयी टीम के साथ मैदान में उतरेंगे और एक तरफा मैच खेलते हुए विजेता बनकर हिन्द और हिंदी का परचम विश्व में फैलाएंगे।

कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है। जब सभी आपकी ओर विश्वास भरी नजरों से देख रहें हों तो विश्वास फलदायकम का नारा बुलंद करते हुए सुखद अहसास होने लगता है। विचारों की शक्ति जिसके पास नहीं होगी, साथ ही कोई लिखित साझा कार्यक्रम भी तय नहीं होगा तो बस दिवा स्वप्न ही देखना पड़ेगा। पोस्टर में किसकी फोटो बड़ी होगी, कौन ज्यादा हाईलाइट होगा ये भी भविष्य पर छोड़ना, आपको कैसे ताकतवर बना सकता है।

जरूरत है अच्छी पुस्तकों की जिसे पढ़कर राह के साथी कैसे चुनें इसका अंदाजा लगाया जा सके। चयन हमेशा ही चौराहे की तरह होता है, यदि सही मार्गदर्शक मिला तो मंजिल तक पहुंच जायेंगे अन्यथा चौराहे के चक्कर लगाते हुए आजीवन घनचक्कर बनकर अपनी बेबसी का राग अलापना पड़ेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #184 ☆ व्यंग्य – नेताजी का स्मृति-लोप ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  व्यंग्य ‘नेताजी का स्मृति-लोप’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 184 ☆

☆ व्यंग्य ☆ नेताजी का स्मृति-लोप

नेताजी अब सत्तर के हुए। उम्र बढ़ने के साथ नेताजी को डर लगता है कि कहीं चुनाव में टिकट से वंचित न कर दिये जाएँ। उनका कहना है कि नेता को आखिरी साँस तक जनता की सेवा का मौका मिलना चाहिए। अन्त में तिरंगे में लिपट कर न गये तो जीने का क्या मतलब?

नेताजी पिछले पंद्रह सालों में पाँच पार्टियाँ बदल चुके हैं। अब छठवीं में हैं। लोग उन्हें मौसम- विशेषज्ञ कहते हैं। वे हवा सूँघते रहते हैं। जैसे ही किसी दूसरी पार्टी के पावर में आने की संभावना दिखती है, वे बेचैनी से कसमसाने लगते हैं। कदम खुद-ब-खुद उस पार्टी की तरफ बढ़ने लगते हैं। फिर अपनी पार्टी में हज़ार खामियाँ दिखने लगती हैं।

नेता जी का कहना है कि पार्टी के सिद्धान्तों, उद्देश्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं है। बस, जनता की सेवा का भरपूर मौका मिलना चाहिए। जिस पार्टी में जनता की सेवा का मौका न मिले उसे अविलंब छोड़ देना चाहिए। ‘तजिए ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही’। लेकिन उनसे ‘जनता की सेवा’ का अर्थ पूछने की हिम्मत किसी की नहीं होती क्योंकि ज़ाहिराना वे अपनी और अपने परिवार की ही सेवा करने के लिए बदनाम हैं।

फिलहाल नेताजी परेशानी में पड़ गये हैं। उनकी स्मरण-शक्ति कमज़ोर हो गयी है। भूल जाते हैं कि वे कितनी पार्टियों में और कब से कब तक रहे। एक डायरी में उन्होंने यह सारी जानकारी लिख रखी थी, लेकिन वे उस डायरी को रखने की जगह भी भूल गये हैं। पार्टी-परिवर्तन का इतिहास याद करने की कोशिश करते हैं तो सब गड्डमड्ड हो जाता है। नेताजी आतंकित हैं। कहीं उनकी वर्तमान पार्टी के हाई कमांड को उनकी हालत का पता चल गया तो क्या होगा? फिर कोई ऊँची कुर्सी या मलाईदार पद नहीं मिलेगा। आगे बेटों- बेटियों को पॉलिटिक्स में जमाने की कोशिश कर रहे हैं। बेटों को चालाकी, मिथ्या भाषण, पाखंड जैसे राजनीतिक गुण सिखा रहे हैं। लेकिन अगर उनकी अपनी स्थिति ही कमज़ोर हो गयी तो सन्तान को कौन पूछेगा?

हालत यह है कि कभी घर से निकलते हैं तो किसी पहले छोड़ी हुई पार्टी के दफ्तर में पहुँच जाते हैं और वहाँ बैठकर लोगों से प्रेमपूर्ण बातचीत और उस पार्टी की तारीफ करने लगते हैं। पार्टी के लोग उनका मुँह देखते रह जाते हैं। उन्हें लगने लगता है कि नेताजी शायद पुरानी पार्टी में वापस आना चाहते हैं। उनके बेटों को पता चलता है तो वे उनको वहाँ से उठा लाते हैं।

बेटे सलाह देते हैं कि उन्हें किसी मनोचिकित्सक को दिखाया जाए, लेकिन नेताजी हाथ उठा देते हैं। कहते हैं, ‘पार्टी हाई कमांड को यह बात मालूम हो गयी तो तुरन्त मुझे कचरेदान में डाल देंगे। मनोचिकित्सक के पास गया तो रिपोर्टर और कैमरेवाले सूँघते हुए पहुँच जाएँगे। न बाबा, मैं किसी डॉक्टर के पास नहीं जाऊँगा। पॉलिटिक्स में मनोचिकित्सक के पास जाने का मतलब खुदकुशी करना है।’

लाचार, बेटों ने उन्हें घर में ही रहने के लिए कह दिया है। उन पर चौबीस घंटे निगरानी रहती है। रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों से मिलने की मनाही है। बाहर जाएँ तो किसी बेटे के साथ ही जाएँ। बेटे खुद ही परेशान हैं क्योंकि पिताजी निर्बल हो गये तो पॉलिटिक्स में उनका कैरियर कैसे बनेगा?

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 140 ☆ सवाल पर बवाल… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सवाल पर बवाल…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 140 ☆

☆ सवाल पर बवाल ☆

डूबती नैया पर सवारी करने का फल यही होता है कि आपको अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कोई सही तर्क ही नहीं मिलता और आप कुतर्कों के सहारे जुबानी जंग जीतने की कोशिश करने लग जाते हैं। किंतु आजकल तो हर बात रिकॉर्डेड होती जा रही, जरा सी चूक होने पर आपका अगला- पिछला सब कारनामा सामने हाजिर हो जाता है। अब तो अपनी बात पर अड़िग रहें या शब्दों की वापसी की घोषणा करते हुए कह दें कि मेरा ये मतलब नहीं था, मीडिया ने तोड़-मरोड़  कर मेरी बात को प्रस्तुत किया है।

इन्हीं चर्चाओं के बीच बहुत से प्रश्न और खड़े हो जाते हैं जिनका स्पष्टीकरण किसी के पास नहीं होता क्योंकि यहाँ भी अक्ष पर घूमने का सिद्धांत कार्य कर रहा होता है जो आज यहाँ है वो कल कहाँ होगा ये वो भी नहीं जानता है बस चलते रहो का अनुसरण करते हुए स्वयं को लाभान्वित करना मुख्य लक्ष्य होता है।

कहते हैं जो कार्य करेगा उस पर सवाल होगा, सो सवालों से न बचते हुए उसे हल करने की ओर चलें। वैसे भी आप किसी भी विचारधारा के हों आपको अनुयायी मिल ही जाते हैं। किसी भी मुद्दे को पकड़ कर उस पर पाँच साल तो क्या पूरा जीवन गुजारा जा सकता है, बस उसके इर्द- गिर्द मायाजाल रचते रहिए, समस्याओं को हल करने की ओर यदि आप लगे तो निश्चित है कि कुचक्र का शिकार होंगे अतः ऐसा कार्य करें जो आपको व्यस्त तो रखे साथ ही रोज नए सवालों को भी पैदा करता रहे, जब सवाल होंगे तो वबाल होगा और दिन – रात की तरह आजीवन मनुष्य गतिशील रहकर विचारों का मंथन करते हुए अपने को उपयोगी बनाए रखेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 178 ☆ “फेंन्स के इधर और उधर…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक  व्यंग्य – फेंन्स के इधर और उधर…”।)

☆ व्यंग्य  # 178 ☆ “फेंन्स के इधर और उधर…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पाकिस्तानी सीमा से लगे हुए गांव का स्कूल है,स्कूल के नीचे बंकर बना हुआ है। सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं , फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं ,मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डाल के छींक मारते हैं फिर फटे झोले से स्लेट निकाल लेते हैं , ऐसा वे हर रोज करते हैं, कभी कभी पाकिस्तान सीमा से उस पार गोलीबारी की आवाज पर तुनक जाते हैं बड़े पंडित जी जैसई स्कूल में प्रवेश करते हैं सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं , सीमा पार पाक के गांव के बच्चे भी इस स्कूल में पढ़ना चाहते हैं पर मास्टर जी छड़ी उठा कर दिखा देते हैं। पाक के बच्चे फेंन्स के उधर से पढ़ते बच्चों को ललचाई नजर से देखते हैं।

मास्टर जी तम्बाकू मलने में मस्त हैं। वक़्त बहुत मज़बूत होता है उसे काटो तो नहीं कटता, पर मास्टर जी थोड़ा वक्त तम्बाकू मलने में काट लेते हैं, पता नहीं क्यों उनका मन पढ़ाने में लगता नहीं हैं, हर दम बोरियत महसूस होती है ,स्कूल की दीवार में लिखी इबारत पढ़ने लगते हैं,

गांव के प्रायमरी स्कूल की दीवार में लिखा है।

“विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्”

 मास्टर जी छड़ी उठाकर मेज में पटकते हैं  छकौड़ी से पूछते हैं ‘विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्’ का असली मतलब बताओ ? 

छड़ी के डर से छकौड़ी खड़ा होकर कहता है- “सर, इसका अर्थ हुआ विद्या के लिए आया सारा धन गांव के प्रधान के लिए होता है।”

मास्टर जी ने छकौड़ी को शाबाशी दी, नये जमाने के लड़के सब समझते हैं।

पुन्नू की घंटी बजी, बच्चों के खाने की छुट्टी हो गई …। पाक के बच्चे फेंन्स के उधर से रोटी खाते बच्चों को ललचाई नजर से देखते हैं, छकौड़ी आधी रोटी लेकर फेन्स के उधर खड़े बिलाल को दे देता है, बिलाल खुश होकर हाथ मिलाता है रोते हुए बताता है हमारे यहां आटा नहीं मिलता,आटे के चक्कर में बड़ी बड़ी लाइन लगतीं हैं, गोलियां चलतीं हैं हमारी अम्मी के पास स्कूल की फीस का पैसा नहीं था इसलिए हमारा नाम स्कूल से काट दिया गया। हमारे यहां का राजा कहता था हम लोग भूखे भले रह लेंगे पर परमाणु बम जरूर बनाएंगे। हमारे यहां पेट्रोल डीजल की बहुत किल्लत रहती है, हमारा राजा कटोरा लिए फिरता है पर देश का इम्प्रेशन खराब है तो कोई लिफ्ट नहीं देता। बिलाल कई दिनों का भूखा था आधी रोटी दो सेकेण्ड में गुटक गया और दूसरे बच्चों के टिफिन की तरफ ललचाई नज़रों से देखने लगा जब तक पुन्नू की घंटी बज गई, लंच टाइम खत्म हो गया।

मास्टर जी बिना मन के कक्षा में प्रवेश करते हैं, मेज में छड़ी पटक कर कुर्सी में बैठ जाते हैं टाइम पास करना है तो छकौड़ी को खड़ा करके पूछते हैं छकौड़ी सब बच्चों को सच सच बताओ कि आज तुमने सच में क्या सोचा।

छकौड़ी बताता है कि सर हमारे मास्टर साब का पढ़ाने लिखाने में मन नहीं लगता, बेचारे सोलह किलोमीटर से आते हैं थक जाते होंगे, घर में भी कोई होगी जो तंग करती होगी। हमारा राजा भी अजीब चमत्कारी राजा है मंहगे कपड़े पहनकर सच्ची क्वालिटी का झूठ बोलता है, हाथ मटका मटका कर अनोखे सपने दिखाता है, अपनी बात रेडियो से छुपकर बोलता है, सब जगह तालियां पिटवा कर विरोधियों की लाई लुटवाई देता है। अस्सी करोड़ लोगों को फ्री राशन पानी देकर वोट बटोर लेता है। हमारे देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है।

छकौड़ी धाराप्रवाह सच बोले जा रहा है बच्चे तालियां बजा रहे हैं तभी मास्टर जी छड़ी लेकर खड़े हो जाते हैं ताली बजाते हुए कहते हैं आज के बच्चे सब समझते हैं बात सही भी है कि अरबपतियों की बढ़ती संख्या अच्छी अर्थव्यवस्था का नहीं, खराब होती अर्थव्यवस्था का संकेत है। जो लोग कठिन परिश्रम करके देश के लिए भोजन उगा रहे हैं, इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर रहे हैं, फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं उन्हें अपने बच्चे की फीस भरने, दवा खरीदने और दो वक्त का खाना जुटाने में संघर्ष करना पड़ रहा है, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई लोकतंत्र को खोखला कर रही है।

फैन्स के उधर का अब्दुल 

1 किलो आटे के लिए 

रो रहा है, और

फैन्स के इधर का अब्दुल 

3 साल से फ्री का 

राशन खाकर 

राजा को कोस रहा है।

अचानक मेज में रखी छड़ी नीचे गिर गयी, फैन्स के उधर बच्चे की रोने की आवाज आ रही थी, बार्डर पर फैन्स के उधर के सैनिक बच्चे को बन्दूक की बट से मार रहे हैं, और फैन्स के इधर पुन्नू घंटी बजाने लगा है, स्कूल की छुट्टी हो गई।  इधर के बच्चे उधर के रोते बच्चों को देखकर भारत माता की जय के नारे लगाने लगते हैं फैन्स के उधर के सैनिक हंसते हुए आगे बढ़ जाते हैं, छकौड़ी दौड़कर बिलाल से हाथ मिला लेता है और कल दो रोटी देने का वायदा करता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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