हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ श्री राघवेंद्र दुबे

श्री राघवेंद्र दुबे

(ई- अभिव्यक्ति पर श्री राघवेंद्र दुबे जी का हार्दिक स्वागत है।  विजयादशमी पर्व पर आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा  “और रावण रह गया .)

☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ 

एक बड़े नगर के बड़े भारी दशहरा मैदान में काफी भीड़ थी. लोगों के रेले के रेले चले आ रहे थे. आज रावण दहन होने वाला था. रावण भी काफी विशाल बनाया गया था.

ठीक रावण जलाने के वक्त पुतले में से एक आवाज आयी  ” मुझे वही आदमी जलाये जिस में राम का कम से कम एक गुण अवश्य हो। भीड़ में खलबली मच गई। तरह-तरह की आवाजें उभरने लगी। लेकिन थोड़ी देर बाद वातावरण पूर्ण शांत हो गया। कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।

रावण ने आश्चर्य से नजरें झुका कर नीचे देखा तो मैदान में कोई नहीं था।

©  श्री राघवेंद्र दुबे

इंदौर

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  का विजयादशमी पर्व पर एक विशेष लघुकथा  ” रावण दहन “। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆

दशहरे के दूसरे दिन सुबह चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक बडे शहर में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकडे गये । इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर रावण दहन की अनेक तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ सोचने लगे कि कल हमने किसे जलाया ????

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 – 

शेरू का प्यार—–
आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य ‌की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-

बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना‌ ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक‌ हो जाता और जब  मुझ से मिलने वाले कभी‌ हंसी मजाक में भी‌ मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण ‌प्रस्तुत करता। जब कभी ‌मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती ‌पहले गोद में चढ़ने की।

वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार ‌समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।

इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी‌ पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।

अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी‌ जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी ‌याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी।  मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।

उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने  खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता।  उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।

मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता  तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।

आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।

—– क्रमशः भाग 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 68 – नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 68 ☆

☆ नक्शे का मंदिर ☆

 नक्शे पर बना मंदिर। जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह  सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आलू कैसे छीलें? ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

( आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी की  मानवीय संबंधों  और मशीनों पर निर्भर होती आने वाली पीढ़ी पर आधारित एक विचारणीय कहानी   – “आलू कैसे छीलें?”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

☆ आलू कैसे छीलें? ☆

लॉक डाउन में समय काटने के लिए किचन में पुरुषों में आमद रफ़त बढ़ गई है. स्वादिष्ट खाना बनाने के नुस्खे आजमा रहे हैं. उनकी देखा देखी बच्चे भी माँओं  के काम में अड़ंगा डाल रहे हैं. अभी कल परसों की बात होगी.मेरा पौत्र आयुष अपनी माँ के पास किचन में खड़ा होकर सवाल पर सवाल पूछे जा रहा था. सामने उबले आलू रखे थे. आलुओं को देख वह बोला-“मम्मी पोटाटो का क्या बनेगा?

–आलू बण्डे. माँ ने कहा

— तो बनाओ! कैसे बनते हैं

–आलू को छीलना पड़ेगा.

–मैं छील दूं?

–ये बहुत गरम हैं. आपसे नहीं बनेंगे. जल जाओगे.

आयुष नहीं माना. तब आयुष ने आलुओं को उठाया. वे बहुत गर्म थे.वह सी सी करने लगा. फिर दौड़ा दौड़ा अपने कमरे में गया, और स्मार्ट डिजीटल डिवाइस अलेक्सा ले आया. उसको आन किया और पूछा .

–आंटी!गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—“आलू कच्चे हैं या पके”? फोन से आवाज आयी.

— मम्मी!आंटी पूछ रही हैं, आलू कच्चे हैं या पके?

—“पके”- मम्मी ने बताया

–आंटी पके! -बच्चे ने माँ की बात दुहरा दी

—“छोटे हैं या बड़े?”- फिर आवाज आई.

—मम्मी! छोटे हैं या बड़े ?

—मँझले!- माँ ने कहा.

—आँटी! मँझले.

—“तय करके बताओ! कैसे हैं ?.”

—मम्मी !आँटी पूछ रहीं हैं कि कैसे हैं?

मम्मी ने भुनभुनाकर कहा, कह दे-“छोटे हैं, पर छोटे से थोड़े बड़े हैं.”

—-आँटी! मम्मी कह रही हैं -” छोटे से थोड़े बड़े.”

—-ठीक है,अभी आलू ठण्डे हैं या बहुत गरम?

—“-बहुत गरम.” बच्चे ने तुरंत जबाब दिया.

—-आलू को हाथ से मत उठाना. हर गरम चीज को उठाने से हाथ जल जाते हैं. आवाज ने आगाह किया.

—-जलने से क्या होता हैआंटी.? बच्चे ने सवाल किया.

—-जलने से फफोले पड़ जाते हैं.. फिर उसका इलाज लम्बे समय तक चलता है.

—- मासूम बच्चे ने पूछा, “आंटी! पड़ोस वाली सौम्या दीदी कह रही थी उनका दिल जल रहा है पर कहीं पर फफोले नहीं दिख रहे हैं. दिल कहाँ पर होता है ?

—-अभी तुम दिल के चक्कर में मत पड़ो. अपने टास्क पर ध्यान दो. बस तुम्हें गरम आलू छीलना है.

— ठीक है आंटी! मुझे भी दिल से क्या लेना है. जो दिखता नहीं. तो बताओ आलू कैसे छीलें?

—अच्छा बताओ, किचन में छोटी, बड़ी चिमटी,फोर्क हैं?

—मम्मी! चिमटी या फोर्क है? बच्चे ने माँ की ओर देखते हुए कहा.

—रैक में रखे हैं. मम्मी ने सामने की ओर इशारा किया.

— आयुष रैक से फोर्क ले आया. बोला, ‘बताओ.आंटी, अब क्या करना है?’

—पहले बाउल में रखे आलुओं में से एक में फोर्क को घुसाकर उठाओ.

—आंटी! घुसाया पर वह टूटकर टुकड़े टुकड़े हो गया.

—दूसरे आलू में घुसाओ.

—पल भर के बाद बच्चे ने बताया,’आंटी वह भी टुकड़े टुकड़े हो गया.

—‘एक बार और कोशिश करो’ आवाज आई.

—आंटी! फोर्क घुसाने से आलू टूट रहे हैं.

— चिंता मत करो.

–आंटी!अब मैं क्या करुं? मैं आलू छीलना चाहता हूँ.

—मुझे विश्वास है तुम आलू छील लोगे.

— मम्मी हैं?

—हाँ! पर वह फोन पर बात कर रही हैं.

—और पापा ?

—वे भी मोबाइल पर चैट कर रहे हैं.आंटी, मैं परेशान हो गया. मुझे आलू छीलना है. यह मेरा आज का टास्क है.

—धैर्य रखो! तुमनें धैर्य नहीं रखा, इसलिए आलू टुकड़े हो गए.

—आंटी! धैर्य किसे कहते हैं?

— धैर्य मीन्स पेशेन्स.

—ओह! समझ गया.

—अच्छा! अपनी दादी को बुलाओ.

—दादी मीन्स.

— ग्रैंड  मॉम .

—ओह! आंटी, पर ग्रैंड मॉम हमारे साथ नहीं रहती हैं. वे अलग अकेली रहती हैं.

— ‘अच्छा ! अब समझ गई. तभी आलू छीलने वाली मुसीबत साल्व नहीं हो रही है.’ फिर आवाज आईं.

—हाँ! प्लीज़ जल्दी से साल्यूशन बताइए.

—‘अच्छा ऐसा करो. तुम पापा से कहो. वे ग्रैंड मॉम को घर ले आएं.’आवाज ने सुझाया

—-आंटी! ग्रेंड माम को पता है. कि गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—हाँ ! उन्हें ठण्डे, गरम, छोटे, बड़े आलू छीलने का अनुभव है. उनके पास आपके सभी प्रॉब्लम  का सोल्युशन है.

—‘थैंक यू,वेरी मच आंटी.’

आयुष चिल्लाते चिल्लाते पापा के पास गया – पापा ! आज हम ग्रैंड मॉम घर लाएंगे.

—क्यों? पापा ने पूछा.

—-बच्चे ने बताया,’अलेक्सा आंटी कह रही हैं कि – ग्रैंड मॉम के पास हर प्रोब्लेम्स का सोल्युशन है. आप लोगों के पास समय नहीं है कि मुझे बताएं कि आलू कैसे छीलें, कौन सा काम कैसे करें?

 

© श्री रमेश सैनी 

जबलपुर , मध्य प्रदेश 

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – आग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – आग

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उसपर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 8.16 बजे  04.08.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-1 

दो शब्द रचना कार के – यों  तो मानव जाति का जब से ‌जन्म हुआ और सभ्यता विकसित होने से पूर्व पाषाण‌काल से ही मानव तथा पशु पक्षियों के संबंधों पर‌ आधारित कथा कहानियां कही सुनी जाती रही‌ हैं। अनेक प्रसंग पौराणिक कथाओं मे कथा  के अंश रुप मे विद्यमान रहे  है तथा यह सिद्ध करने में कामयाब रहे हैं कि कभी मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं  की पूर्ति के लिए पशु पक्षियों पर निर्भर था। जिसके अनेक प्रसंग रामायण महाभारत तथा अन्य काव्यों में वर्णित है चाहे जटायु का अबला नारी की रक्षा का प्रसंग हो अथवा महाभारतकालीन कथा प्रसंग।हर प्रसंग अपनी वफादारी की चीख चीख कर दुहाई देता प्रतीत होता है।

इसी कड़ी में हम अपने पाठकों के लिए लाये हैं एक सत्य घटना पर आधारित पूर्व प्रकाशित रचना जो इंसान  एवम जानवरों के संबंधों के संवेदन शीलता के दर्शन कराती है। आपसे अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य‌ ही अवगत करायेंगे। आपकी निष्पक्ष समालोचना हमें साहित्य के क्षेत्र में निरंतर कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।

पूर्वांचल का एक ग्रामीण अंचल, बागों के पीछे झुरमुटों के ‌बीच बने मकबरे को शेरू बाबा के मकबरे के रुप में पहचानां जाता है। उस स्थान के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि संकट से जूझ रहे ‌हर प्राणी के जीवन की रक्षा शेरू बाबा‌ करते है और वे सबकी मुरादें पूरी करते हैं। हृदय में बैठा यही विश्वास व भरोसा आम जन मानस को प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन शेरू बाबा के मकबरे ‌की ‌ओर खींचे लिए चला जाता है और श्रावण पूर्णिमा को उस मकबरे पर बडा़ भारी मेला लगता है।

आज श्रावणी पर्व का त्योहार है।  गाँव जवार के सारे बूढ़े‌ बच्चे नौजवान क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सारे के सारे लोग अपने अपने दिल में अरमानों की माला संजोए मुरादों के ‍लिये‌ झोली फैलाए शेरू‌बाबा‌‌ के मुरीद बन उनके ‌दरबार मे हाजिरी लगाने को तत्पर दीखते रहे हैं। मकबरे की पैंसठवीं वर्षगांठ मनाई जा रही‌ है। मेला अपने पूरे शबाब ‌पर है। कहीं पर नातों कव्वालियों का ज़ोर है, तो कहीं भजनों कीर्तन का शोर। हर तरफ आज बाबा की शान में कसीदे पढ़ें जा रहें हैं।

आज कोई खातून‌ बुर्के के पीछे से झांकती दोनों आंखों में सारे ‌जहान का दर्द लिए दोनों हाथ ऊपर उठाये अपने लाचार एवम् बीमार शौहर के ‌जीवन की भीख‌ मांग रही है। तो वहीं कोई बुढ़िया माई‌ अपने‌ हाथ जोड़े, सिर को झुकाये इकलौते  सैनिक बेटे ‌की सलामती की दुआ मांग रही है। वहीं पर कई प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ डाले पूजा की थाली उठाये शेरू बाबा के नाम को साक्षी मान साथ साथ जीने मरने  कसमें ‌खाते दिख रहे हैं।

इन्ही चलने वाले क्रिया कलापों के ‌बीच सहसा अक्स्मात मेरे जेहन में शेरू बाबा की आकृति  सजीव हो उठती है। और उसके साथ बिताए ‌पल चलचित्र की तरह स्मृतियों में घूमने लगते है। मैं खो जाता हूं ‌उन बीते पलों में और तभी वे पल मेरी लेखनी से ‌कहानी‌ बन फूट पड़ते हैं तथा शेरू के त्याग एवम् ‌बलिदान की गाथा उसे अमरत्व प्रदान करती‌ हुई पुराणों में तथा पंच तंत्र में वर्णित पशु पक्षियों की ‌गौरव गाथा बन मानवेत्तर संबंधों का मूल आधार तय करती दिखाई देती है। मैं एक बार फिर लोगों को सत्य घटना पर आधारित ‌शेरू का जीवनवृत्त सुनाने पर विवश हो जाता हूँ।

वो जनवरी का महीना, जाड़े की सर्दरात का नीरव वातावरण,कुहरे की चादर से लिपटी घनी अंधेरी काली रात का प्रथम प्रहर, सन्न सन्न चलती शीतलहर, मेरे पांव गांव से बाहर सिवान में बने खेतों के बीच पाही पर बने कमरे की तरफ बढे़  चले जा रहे थे, कि सहसा मेरे कानों से किसी‌ श्वान शावक के दर्द में ‌डूबी कूं -कूं की‌ आवाज टकराई, जिसनें मेरे आगे बढ़ते क़दमों को‌ थाम‌ लिया। टार्च की पीली रोशनी में उसकी दोनों बिल्लौरी आंखें ‌चमक उठी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसे अभी अभी कोई उसे उस स्याह‌ रात में बीच सड़क पर ठंढ़ में मरनें के लिए छोड़ गया हो।

उस घनी काली रात में जब उसे आस-पास किसी मानव छाया के होने का एहसास हुआ तो वह मेरे पास आ गया और मेरे पांवों को चाटते हुए, अपने अगले पंजों को मेरे पांवों पर रख लोटनें पूंछ हिलाने तथा कूं कूं की आवाजें लगाया था ऐसा लगा जैसे वह मुझसे अपने स्नेहिल व्यवहार का प्रति दान मांग रहा हो। अब उसके पर्याय ने मेरे आगे बढ़ते कदमों को थाम लिया था।

मैं उस अबोध छोटे से श्वानशावक का प्रेम निवेदन ठुकरा न सका था। मैंने सारे संकोच त्यागकर उस अबोध बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया तथा उसे कंधे से चिपकाते पुनः घर को लौट पड़ा था। वह भी उस भयानक ठंढ़ में मानव तन की गर्मी एवम् पर्याय का प्रतिदान पा किसी अबोध बच्चे सा कंधे पर सिर चिपकाये टुकुर टुकुर ताक रहा था। यदि सच कहूं तो उस दिन मुझे उस बच्चे से अपने किसी सगे संबंधी जैसा लगाव हो गया था।

उस दिन घर-वापसी में मेरे घर के आगे अलाव तापते मुझे देखा तो उन्होने बिना मेरी भावनाओं को समझे मेरे उस कृत्रिम की हंसी‌ उड़ाई थी। उस समय मेरी दया करूणा तथा ममता उनके उपहास का शिष्य बन गई थी। लेकिन मैं तो मैं ठहरा बिना किसी की बात की परवाह किए सीधे रसोई घर में घुस गया और कटोरा भर दूध रोटी खिला उस शावक का पेट भर दिया।  उसे अपने साथ पाही पर टाट के बोरे में लपेट अपने पास‌ ही सुला दिया। वह तो गर्मी का एहसास होते ही सो गया।

उसके चेहरे का भोलापन तथा अपने पंजों से‌ मेरे पांवों को कुरेद कुरेद रोकना मेरे दिल में उतर चुका था। उस रात को मैं ठीक से पूरी तरह सो नहीं सका था। मैं जब भी उठ कर उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकता तो उस अपनी तरफ ही टुकुर टुकुर तकते पाता। मानों वह मौन होकर मुझे मूक धन्यवाद दे रहा हो।

मैं सारी ‌रात जागता रहा था। भोर में ही सो पाया था। मैं काफी देर से सो कर उठा था।  लेकिन जब उठा तो उसे दांतों से मेरा ओढ़ना खींचते खेलते पाया था।

मैं जैसे ही उठ कर खड़ा हुआ तो वह फिर मेरे पांव से लिपटने खेलने-कूदने लगा था। इस तरह उसका खेलना मुझे बड़ा भला लगा था। जब मैं घर की ओर चला तो वह भी पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया था। मात्र कुछ ही दिनों में वह घर के हर प्राणी का चहेता तथा दुलारा बनाया था ।बाल मंडली का तो वह खिलौना ही बन गया था। वह बड़ा ही आज्ञाकारी तेज दिमाग जीव था। वह लोगों के इशारे खूब समझता और मुझसे तो उसका बड़ा विशिष्ट प्रेम था। घर की बालमंडली ने उसे शेरू नाम दिया था।

—– क्रमशः भाग 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 48 ☆ लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 48 ☆

☆  लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆

फेसबुक पर उसकी पोस्ट देखी – ‘ कोरोना चला जाएगा, दूरियां रह जाएंगी’ यह क्यों लिखा इसने? मन में चिंता हुई, क्या बात हो गई? कोरोना का  दुष्प्रभाव लोगों के मानसिक स्वास्थ्य  पर भी पड़ रहा है। गलत क्या कहा उसने? समझ सब रहे हैं उसने लिख दिया।उसकी लिखी बात मेरे मन में गूँज रही थी कि व्हाटसअप पर उसका पत्र  दिखा –

यह पत्र आप सबके लिए है, कोई फेसबुक पर भी पोस्ट करना चाहे तो जरूर करे।मैं जानता हूँ कि कोरोना महामारी ने हमारा जीने का तरीका बदल दिया है।मास्क पहनना,बार–बार हाथ धोना, और सबसे जरूरी,दो गज की दूरी, जिससे वायरस एक से दूसरे तक नहीं पहुँचे।इन बातों को मैं  ठीक मानता हूँ और पूरी तरह इनका पालन भी करता हूँ।लेकिन इसके बाद भी कोरोना हो जाए तो कोई क्या कर सकता है?

मेरे साथ ऐसा ही हुआ, सारी सावधानियों के बावजूद मैं कोविड पॉजिटिव हो गया। मैं तुरंत अस्पताल में एडमिट हुआ और परिवार के सभी सदस्यों का कोविड  टेस्ट करवाया। भगवान की कृपा कि सभी की रिपोर्ट नेगेटिव आई, मैंने राहत की साँस ली, वरना क्या होता—- कहाँ से लाता इतने पैसे और  कौन करता हमारी मदद? लगभग पंद्रह दिन बाद मैं  अस्पताल  से घर आया। मेरे पूरे परिवार के लिए यह बहुत कठिन समय था। घर आने के बाद मैंने  महसूस किया कि सबके चेहरे पर उदासी  छाई है।ऐसा लगा जैसे कोई बात मुझसे छिपाई जा रही हो।बच्चे कहाँ हैं मैंने पूछा।पत्नी ने बडे उदास स्वर में कहा – बेटी खेल रही है, बेटे को नानी के पास भेज दिया है। उसे इस समय वहाँ क्यों भेजा? मैं पूरी तरह स्वस्थ नहीं था इसलिए वह मुझे सही बात बताना नहीं चाह रही थी, मेरे ज़्यादा पूछने पर वह रो पडी, उसने बताया – ‘ मेरे कोविड पॉजिटिव  होने का पता चलते ही आस –पडोसवालों का मेरे परिवार के सदस्यों के प्रति रवैया ही बदल गया। किसी प्रकार की मदद की बात तो दूर उन्होंने पूरे परिवार को उपेक्षित –सा कर दिया।स्कूल बंद थे, दोनों बच्चे मोहल्ले में अपने दोस्तों  के साथ खेला करते थे, अब सब जैसे थम गया।उनको हर समय घर में  रखना मुश्किल हो गया।बेटी तो छोटी है पर बेटे को यह सब सहन ही नहीं हो रहा था। किसी समय वह चुपचाप थोडी देर के निकला तो पडोसी ने टोक दिया – अरे, तेरे पापा को कोरोना हुआ है ना, जाकर घर में बैठ, घूम मत इधर –उधर, दूसरों को भी लगाएगा बीमारी। वह मुँह लटकाए घर वापस आ गया। घर में पडा, वह अकेले रोता रहता, धीरे- धीरे उसने सबसे बात करना, खाना -पीना छोड दिया।उसकी हालत इतनी बिगड गई  कि उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पडा। उसका किशोर मन यह स्वीकार  ही नहीं कर पाया कि जिन लोगों के साथ रहकर  बडा हुआ है आज वे सब उसके साथ अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

जिन आस पडोसवालों को हम सुख – दुख का साथी समझते हैं उनकी बेरुखी से मुझे भी बहुत चोट पहुँची। एक पल के लिए मुझे भी लगा कि फिर समाज में रहने का क्या फायदा? कोरोना महामारी से हम सब जूझ रहे हैं, हमें देह से दो गज की दूरी रखनी है, इंसानियत से नहीं। डॉक्टर्स, नर्स और अस्पताल के कर्मचारी यदि ऐसी ही अमानवीयता कोरोना के रोगी के साथ दिखाएं तो? वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी तो अपनी जान की फिक्र है, उनके भी परिवार हैं?

इतना ही कहना है मुझे कि मेरा बेटा और  मेरा परिवार जिस मानसिक कष्ट से गुजरा है वैसा किसी और के साथ ना होने दें। वैक्सीन बनेगी, दवाएं आएंगी, कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जाएगा। इंसानियत बचाकर  रखनी होगी हमें, कहीं भरोसा ही ना रहा एक-दूसरे पर तो?  ना खुशी में साथ मिलकर ठहाके लगा सकें, ना गम बाँट सकें, कितना नीरस होगा जीवन—  ।आज तक कोई ऐसी वैक्सीन बनी है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखे,  संवेदनशीलता ही मनुष्य की पहचान है, हाँ फिर भी वैक्सीन हो तो बताइयेगा जरूर।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 66 – चाक का प्रसाद ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा   “चाक का प्रसाद।  सुखान्त एवं प्रेरणास्पद / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 66 ☆

☆ लघुकथा – चाक का प्रसाद ☆

छोटा सा गाँव और गाँव के बाहर मैदान, जहाँ पर एक कुम्हार अपनी झोपड़ी बनाकर रहता था।

परिवार में छोटा बच्चा और पत्नी, आसपास थोड़ी पेड़ पौधे और बाहर आँगन पर उसकी चाक पड़ी रहती थी। बिल्कुल पास में ही छोटा सा मंदिर था। कुल मिलाकर बहुत ही दयनीय अवस्था। दिये, कुल्हड़, मटकी बनाया करता था। बिक जाते तो आटा दाल अच्छे से मिलता और कभी ना बिके तो जो मिले उसी से गुजारा होता।

गाँव बस्ती में एक फल वाली अम्मा जिसका कोई नहीं था अकेले रहती थी और फल लाकर  गाँव में बेचती थी। शहर से टोकरी लेकर वह बस से गाँव के बाहर उतरती थी। प्रतिदिन का काम था कि वह एक दो फल उस  मंदिर पर चढ़ा देती थी।

उस की टोकरी को हाथ लगा कर सिर चढ़ाने के लिए कुम्हार या उसकी पत्नी कोई भी खड़े रहते थे। कुम्हार की स्थिति देख फलवाली को बहुत दया आती पर स्वयं भी एक एक रुपए का सौदा करती थी।

इसलिए कभी ज्यादा नहीं दे पाती थी और जान बूझकर फल मंदिर में डाल जाती थी। मंदिर में जो फल मिलता था उसे कुम्हार की पत्नी अपने बच्चे को उठाकर दे देती थी।

सुभाष अपनी मां से और फल की मांग करता परंतु माँ कहती ‘चाक प्रसाद’ है बस एक ही खाया जाता है। जब दिवाली आएगी और बिक्री होगी तो खूब सारा प्रसाद चाक पर आयेगे और तब खा लेना।

बरसों बीत गए सुभाष पढ़ाई करने लगा। गरीबी कार्ड से उसे पढ़ने का अवसर मिल गया और पढ़ाई करने के बाद शहर के सरकारी अस्पताल में उसे परिचय पत्र बनाने का काम मिल गया।

सब कुछ भूल चुका था। अचानक एक दिन अस्पताल में कुछ काम से निकलकर वार्ड का चक्कर लगाते हुए देखा कि एक महिला गिरे केले के छिलके उठाकर खा रही थी। पाँव उसके वहीं ठिठक गए।

वह वहाँ से किसी को बताए बिना चुपचाप आकर नर्स और डॉक्टर से कहकर उस का इंतजाम करवाने लगा। अपने बिस्तर के पास टोकरी पर रखे ताजा फलों को देख अम्मा की आँखें भर आई। उसी समय नर्स ने हँसकर कहा…. “रोती क्यों हो अच्छे से खाओ और ठीक हो जाओ यह ‘चाक का प्रसाद’ है।”

‘चाक का प्रसाद’ बुढ़ी अम्मा सोचने लगी। दोपहर में गरम-गरम खाना लेकर सुभाष खड़ा था।

झलझलाती आंखों से उस बालक को पहचान लिया। और फिर भी रोते हुए लिपट पड़ी ।अस्पताल के कर्मचारी समझ न सके कि ‘चाक के प्रसाद’ का क्या मामला है। सभी को फल बांटा गया।

अब माँ खुश हो गई सभी ने समझा शायद किसी मंदिर से चाकदेव भगवान का प्रसाद आया है। सुभाष अपनी फल वाली माँ को पाकर बहुत खुश था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघु व्यंग्य कथा   “लाखों में एक”.  )

☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक

वे व्यंग्यात्मा हैं, वे व्यंग्य ओढ़ते, बिछाते हैं तथा दिन रात व्यंग्य की ही जुगाली करते हैं । वे  हमारे पास आये तो हमने उनसे सहज भाव से पूछ लिया कि ‘अब तक 75 ‘(व्यंग्य संकलन),  ‘सदी के 100  व्यंग्यकार’ (व्यंग्य संकलन)’ एवं ‘131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार ‘ (व्यंग्य संकलन) प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन इनमें आप शामिल नहीं हैं ऐसा क्यों ?

उन्होंने (मन ही मन खिसियाते हुए ) कहा -‘अभी तो संख्या 131 पर ही पहुंची है, और आपको तो मालूम ही है कि हम 100, पांच सौ, या हजार में एक नहीं हैं, हम तो लाखों में एक हैं ।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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