हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27 ☆ शेयर का चक्कर  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शेयर का चक्कर* ।  शेयर शब्द ही ऐसा है जिसमें  “अर्थ” जुड़ा है। किन्तु, शेयर का कुछ और भी अर्थ है जिसके लिए आपको यह रचना पढ़नी पड़ेगी। ।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27☆

☆ शेयर का चक्कर

शेयर बाजार में उथल – पुथल मची ही रहती है । मंदी की मार कब किस को प्रभावित कर देगी ये कोई नहीं कह सकता । फिर भी लोग शेयर खरीदते व बेचते रहते हैं,  जिससे शेयर मार्केट का अस्तिव बना हुआ है ।

ये तो था शेयर के धन का चक्कर जिसके फेर में न जाने कितने लोग आबाद व बर्बाद होते रहते हैं । अब एक और शेयर पर  भी नजर डाल ही लीजिए,  देखिए कितनी तेजी से फेसबुक पर पोस्ट की शेयरिंग होती है । बस पोस्ट में कुछ दम होना चाहिए । जब जनमानस के कल्याण की पोस्ट हो या कुछ विशेष चर्चा हो ; तो शेयर की बाढ़ लग जाती है । और देखते ही देखते पोस्ट वायरल हो जाती है ।

मजे की बात ये है,  कि इस शेयर ने चेयर को भी नहीं छोड़ा है । आये दिन चेयर के शेयर उछाल पकड़ ही लेते हैं। जितनी मजबूत चेयर उतने ही उसके दीवाने । बस हिस्सा- बाँट की बात हो तो शेयर के कदम बढ़ ही जाते हैं । चेयर को बचाये रखना कोई मामूली कार्य नहीं होता है । जोर आजमाइश से ही इसके साथ जिया जा सकता है । सभी लोग अपने – अपने पदों को शेयर करने में लगें । ये कार्य कोई जनहित  की भावना से नहीं होता, ये तो अपना रुतबा बढ़ाने की चाहत के जोर पकड़ने से शुरू होता है,  और हिस्सा – बाँट पर ही  पूर्ण होता है ।

पहले तो शेयर करो,  का अर्थ अपनी अच्छी व उपयोगी चीजों को बाँटना होता था , पर जब से मीडिया का प्रभाव बढ़ा तब से लोगों ने इसकी अलग ही परिभाषा गढ़ ली है । अब तो कुछ भी शेयर कर देते हैं, बस लाइक और कमेंट मिलते रहना चाहिए । इस दिशा में जन सेवक तो सबसे बड़े शेयर कर्ता सिद्ध हुए वे अपनी सत्ता तक शेयर कर देते हैं ; बस चेयर बची रहे । कर्म की  पूजा का महत्व तो घटता ही जा रहा है , अब  तो शेयर देव, चेयर देव यही  आपस में उलझते हुए इधर से उधर आवागमन कर रहें हैं । नयी जगह नया सम्मान मिलता है,  सो अपने जमीर को व जनता के विश्वास को भी शेयर करने से ये नहीं चूकते बस चेयर मजबूती से पकड़े रहते हैं ।

अरे भई इतना तो सोचिए कि,  वक्त से बड़ा समीक्षक कोई नहीं होता , ये सबका लेखा जोखा रखता है । अतः सोच समझ कर ही चेयर को शेयर करें, घनचक्कर न बनें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 10 ☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 10 ☆

☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद

नजर नजर का फेर है साहब. कुछ लोगों को देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या अभिशाप नजर आती है. मगर, डॉ. बनवारी तो इसे देख कर खुश ही होते हैं. ‘हार की जीत‘  कहानी के बाबा भारती जितने अपने घोडे़ सुल्तान को देखकर खुश होते थे, उतने ही डॉ. बनवारी देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या देख कर खुश होते हैं. उनके लिये देश में गरीबों की विशाल जनसंख्या किडनियों की एक लहलहाती फसल है. हर जिन्दा, सक्रिय, चलता फिरता, मजलूम इंसान लाख-पचास हजार रूपये का माल बदन में धरे धरे घूम रहा है. दीन हीन मानवों के शरीरों में पड़ी हैं दो-दो किडनियाँ, जिनमें से कम से कम एक को चुराया जा सकता है, बरगलाकर निकाला जा सकता है, बेचने पर मजबूर किया जा सकता है. जब भी किसी गरीब आदमी की नार्मल डेथ होती है वे कसक उठते हैं कि यार लाख रूपये का नुकसान हो गया. किसी मकान में सेंध लगाने से पहले ही जमींदोज हो जाये मकान तो कैसा लगता है! डॉ. बनवारी मानते हैं कि इस देश में गरीबी की रेखा के नीचे कम से कम पचास करोड़ किडनियाँ हैं जो बेची जा सकती हैं. लाख रूपये की एक किडनी भी समझो साहब तो पचास लाख करोड़ रूपये की संभावनाओं का बाजार है. अनटेप्ड. जिसका दोहन किया जाना बाकी है. अपने अस्पताल की अठारहवीं मंजिल से जब वे दूर तक फैली झोपड़पट्टी की ओर देखते हैं तो उन्हें अपनी मजबूरियों पर तरस आता है. किडनियों की फसल लहलहा रही है और मैं काट नहीं पा रहा. कब निकलवा कर बेच सकूंगा इनमें से हर एक की एक किडनी. एक टीस सी उठती है – ये साले गरीब दो-दो किडनियाँ रखने की विलासिता में जी रहे हैं और बेचारों धनिकों को जरूरत के समय माल नहीं मिल रहा.

डॉ. बनवारी हमारे शहर के सबसे नामी सर्जन है. ऑपरेशन करने में उनके हाथ का कोई सानी नहीं. अपने फन से उन्होने नाम के साथ अच्छा खासा रूतबा और धन भी कमाया है. कोठी बंगला, गाडियाँ, बैंक बेलेन्स. एक संतोष को छोड़कर सब कुछ है उनके पास. माल उनके लिये मंजिल नहीं, यात्रा है. सो अनथक दौड़ रहे हैं लक्ष्मी मार्ग पर. बचपन ऐसा नहीं था बनवारी का. गरीब थे. स्कूल जाने के अतिरिक्त वे कनछेदी उस्ताद के गैरेज पर काम किया करते थे. कनछेदी ने सिखाया उन्हें – “गाड़ी अच्छी कन्डीशन में हो तो उसका एकाध पार्ट मारकर जुगाड़ का पार्ट लगा भी दिया तो मालिक को पता नहीं चलता. इतनी बेईमानी गैरेज के धंधे में बेईमानी नहीं मानी जाती”. कनछेदी के सबक को बनवारी भूले नहीं. ऑपरेशन करते-करते मरीज के किसी बिक्री योग्य अंग पर दन्न से हाथ साफ कर ही देते हैं. मुद्रा मिलनी हो तो वे नॉन सेलेबल आर्गन्स भी मार देते हैं. जवान लड़कियों के यूट्रस तक रिमूव कर दिये उन्होंने कि माल मिल जाता है सरकार से. ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद हैं डॉ. बनवारी. कनछेदी गाडी का साउन्ड सुनकर पता कर लेता था कि इसका कौनसा पार्ट मार देने लायक है. डॉ. बनवारी की आंखों में स्कैनर लगा है. मरीज देखकर पहली बार में समझ जाते हैं कि इसका कौन सा आर्गन मार देना ठीक रहेगा. मार्केट कौन सा बेहतर है. उसे गल्फ के अमीर शेख को बेचा जाये या इंडिया के अपर क्लास रिच को. रेट अंकल सैम के देश में ज्यादा मिलेगा कि यूरो झोन में. वर्ल्ड वाइड नेटवर्क के पार्ट हैं डॉ. बनवारी. आर्गन माफिया के इकबाल मिर्ची.

एक बार की बात है साहब. कल्लू भर्ती हुआ डॉक्टर साहब के अस्पताल में. नामी चोर. सेंध मारी में उसका कोई भी सानी नहीं.

“कैसे तय करते हो चोरी का स्पॉट ?” डॉक्टर सा. ने नब्ज देखते देखते पूछ लिया.

“मौका देखकर स्पॉट लगाना पड़ता है. मकान में आठ दस दिनों से ताला पड़ा है.  घरवाले तीरथ गये हैं. अभी दस दिन और नहीं आयेंगे. दिन में गली सूनी पड़ी रहती है. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

डॉ. बनवारी को वहम हुआ कि कहीं मैं खुद की नब्ज तो नही देख रहा. “हम भी देख ही लेते हैं – मरीज गरीब है, कमजोर है, अनपढ़ है, मजबूर है, मालूम पड़ने पर शोर नहीं मचा पायेगा. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

जो डॉ. बनवारी ने लिखी होती शोले की स्क्रिप्ट तो गब्बर ठाकुर के हाथ नहीं उसकी किडनियाँ मांगता. डॉक्टर साहब के कन्डक्ट में समाती है कनछेदी, कल्लू और गब्बर की गंगा, जमना, सरस्वती. त्रिवेणी का अद्भुत संगम. अहा!

शहर में बीस मंजिल अस्पताल बनवाया है डॉ. बनवारी ने. अवैध ट्रांसप्लांट का आधुनिकतम प्लांट. शिकार के मचान के नीचे बंधा बकरा है गरीबों के लिये यहाँ की मुफ्त ओपीडी. एक जाल – भव्य, आकर्षक, सुनहरा . गरीबों का ऑपरेशन घटे दरों पर. आर्गन खोया तो दवा मुफ्त. खुराक मुफ्त. पोस्ट ऑपरेशन देखभाल मुफ्त. बस आर्गन छोड़ जाइये यहाँ. इस फाइव स्टार अस्पताल में पाँच सात तो ऑपरेशन थियेटर हैं. वर्कशॉप  ट्रांसप्लांट के. अलग अलग आर्गन्स के अलग – अलग मिस्त्री सर्जन. उनके उपर ओवरसियर सर्जन. उनके भी उपर सुपरवाइजर सर्जन. किडनी के टर्नर. लीवर के फिटर. लंग्स के फोरमैन. प्लांट, ट्रांसप्लांट का. विज्ञान जितने तरह के अंग बदलने की अनुमति देता है – ऑल अण्डर वन रूफ. सेल लगी है आर्गन्स की. फैक्ट्री रेट पर उपलब्ध. मंडी मानव अंगों की. बारीक अंग्रेजी अक्षरों में छपी सेल-डीड पर अंगूठा लगवाते मैच मेकर. दलाल घूमते हैं मुफलिसों की बस्तियों में. ढूंढकर लाते हैं बेचवाल किडनियों के. चेतना सुन्न, शरीर निढाल, ऑपरेशन टेबल के ऊपर जल रही तेज बत्ती के पीछे डॉक्टर साहब ने रोक कर रखा है भविष्य का अंधेरा. डॉक्टर साहब को अपने किये गये पर अपराध बोध नहीं होता. गर्व होता है. कहते हैं इससे ट्रांसप्लांट टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है. विदेशी मुद्रा आती है देश में. किडनियाँ तो डॉक्टर साहब के पास भी दो-दो हैं मगर उनसे पेशाब नहीं बहती, जमीर बहता है.

कल्लू, कनछेदी और बनवारी सक्रिय हैं शहर में अपनी हस्ती, हुनर और हैसियत के हिसाब से. डॉक्टर बनवारी हमारे समाज की सबसे सम्मानित और पूजनीय तबके की जमात में उभर कर आये बदनुमा दाग हैं. दाग जिसका आकार बढ़ता ही जा रहा है .

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?

हरिशंकर परसाई – 

हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।

लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।

किसी  भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 58 ☆ व्यंग्य – उनके वियोग में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उनके वियोग में ’।  आप ‘वियोग’ पर इस बेहतरीन व्यंग्य को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दिए बिना नहीं रह पाएंगे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 58 ☆

☆ व्यंग्य – उनके वियोग में 

शादी को प्राप्त होने के बाद वे पहली बार मायके जा रही थीं, यानी एक साल बाद। मैं उनके एक साल के निरन्तर संपर्क के बाद एकदम घरेलू प्राणी बन गया था। सींग और दाँत झड़ गये थे और शायद दुम निकल आयी थी।

स्टेशन पर मैं बहुत दुखी था। उनसे पहली बार विछोह हो रहा था। दिल कैसे कैसे तो हो रहा था। रेलगाड़ी बैरिन जैसी लग रही थी और उनकी बगल में डटा साला बैरी जैसा।

उन्हें विदा करके लौटा तो घर भाँय भाँय कर रहा था। यह पढ़ी हुई भाषा है, अन्यथा घर भाँय भाँय कैसे करता है, मुझे नहीं मालूम। मैंने किसी घर को भाँय भाँय करते नहीं सुना।

थोड़ी देर बिस्तर पर पड़ा रहा। हालत उस कुत्ते सी हो रही थी जिसका मालिक खो गया हो। जब चैन नहीं पड़ा तो स्कूटर लेकर मल्लू के घर पहुँच गया। मल्लू पालू के साथ रहता है। दोनों छड़े हैं। शादी के बाद से उनके साथ मेरा उठना बैठना कम हो गया था।

मल्लू ने मेरी शकल देखी तो कैफियत मांगी, और कारण जानते ही वह मुझ पर टूट पड़ा। बोला, ‘बीवी के जाने से अगर तुझे दुख हो रहा है तो तू गधेपन की इन्तहा को प्राप्त हो गया। भगवान ने यह मौका दिया है, कुछ दिन के लिए आदमी बन जा।’

वह मुझे पकड़कर सदर बाज़ार ले गया। हम लोग देर रात तक घूमते, खाते पीते रहे। मुझे लगा धीरे धीरे मेरे दिल की गिरह खुल रही है। थोड़ी देर में मेरा दिल गुब्बारा हो गया। हम लोग खूब मस्ती करते रहे।

दूसरे दिन वे दोनों सबेरे ही मेरे घर आ गये। आराम से चाय-नाश्ता हुआ, फिर हम ग्वारीघाट चले गये। शाम को सिनेमा देखा और फिर रात को सड़कों पर आवारागर्दी करते रहे।

मुझे लगा हे भगवान, मैं एक साल तक कहाँ दफन हो गया था और कैसे एकाएक कब्र में से उठ खड़ा हुआ? यों समझिए कि मेरा नया जन्म हो गया।

तीसरे दिन मैंने अपने घर पर ताला मार दिया और उन्हीं लोगों के साथ फिट हो गया। फिर तो जैसे दिनों को पंख लग गये। रात को बारह-एक बजे तक हुड़दंग मचाते, फिर सबेरे दस ग्यारह बजे तक सोते।

कभी कभी ज़रूर जब रात के सन्नाटे में आँख खुल जाती तो बीवी की याद आ जाती। मन कहता, ‘अरे कृतघ्न, वह उधर गयी और तू उसे भूल कर गुलछर्रे उड़ाने लगा? चुल्लू भर पानी में डूब मर बेशर्म।’ लेकिन सच कहूँ, ये विचार पानी में खींची लकीर जैसे होते थे।

उन दो महीनों में ही मालूम हुआ कि एक साल में हमारा शहर कितना सुन्दर हो गया है और मनोरंजन की सुविधाएं कितनी बढ़ गयी हैं। समझो कि शहर मेरे लिए नया हो गया। यह भी पहली बार मालूम हुआ कि हमारा शहर एक साल में कितना बड़ा हो गया है।

फिर एक दिन उनका फोन आ गया कि वे आ रही हैं। मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे स्वर्ग से लात मार दी हो। हम तीनों मित्र एक दूसरे से लिपट कर खूब रोये।

उदास मुख लिये मैं स्टेशन पहुँचा। वे उतरीं तो मेरा मुख देखकर द्रवित हो गयीं। बोलीं, ‘लो, मैं आ गयी। अब खुश हो जाओ।’ मैंने दाँत निकाल दिये। रेलगाड़ी मुझे उस दिन भी बैरिन लग रही थी जिस दिन वे गयी थीं, और आज भी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 26 ☆ प्रचार का विचार ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “प्रचार का विचार।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। यदि प्रचारक में विपणन क्षमता है तो वह कुछ भी बेच सकता है ।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 26 ☆

☆ प्रचार का विचार

कहते हैं विचार में बहुत ताकत होती है। एक क्रांतिकारी विचार समाज में उथल-पुथल मचा सकता है। ऐसे ही एक नए- नए बने ; विचारक ने समाज सेवा का प्रस्ताव रख ही दिया। अब तो बिना प्रोडक्ट के ही चर्चा ने तूल पकड़ लिया। बहुत सारी सभाएँ हुयीं। प्रचार में खूब पैसा खर्च किया गया। पर कोई इन्वेस्टर आया ही नहीं। लोग फूल- माला लेकर बैठे रह गए। अब सबके चेहरों पर उदासी साफ देखी जा सकती थी।

तभी टीम के मैनेजर ने कहा देखो,फिर से जोर आजमाइश करो, प्रचार  का प्रसार होना ही चाहिए। सब लोग फिर ; पूरी ताकत से जुट गए। कर्म का रंग तो निखरना ही था। सो धीरे – धीरे लोग आने लगे कि चलो कम से कम यहाँ बैठ कर चाय नाश्ता ही करेंगे। जो आता उसका खूब स्वागत सत्कार होता। उसे सैम्पल के रूप में स्लोगन लिखा हुआ पोस्टर मिलता। पोस्टर के अंत में लिखा था कि जो जितने पोस्टर दीवार पर चिपकायेगा उसे उतना ही कमीशन मिलेगा, अब तो जो पढ़ता वो और लेने के चक्कर में जी हजूरी करता।

देखते ही देखते सारे पोस्टर बँट गए। अगली सुबह पूरे शहर की दीवारें भरी हुई थीं। लोगों को भी समझ में आया कि बंदे में दम है। देखो हम लोगों ने अपनी तरफ से खूब रोड़े अटकाए पर सब बेकार गए।

अब तो सबकी जुबान पर उसी के चर्चे थे। जब- जब किसी की चर्चा जोर पर होती है;  तब – तब पर्चा बिगड़ता ही, शायद नज़र लग जाती है। ये नज़र भी नज़र नहीं आती किंतु प्रभावशील अवश्य होती है। इसका तोड़ तो बस नज़र बट्टू काला टीका ही होता है। सो अगले दिन कुछ विघ्नसंतोषियों ने ये कार्य कर ही डाला। अब पुनः एक बार उदासी छा गयी।

पर मैनेजर तो गुणवान था सो उसने फिर से तोड़ निकाला अब कि बार प्रोडक्ट की झलक ही दिखा दी, सो हारी हुई बाजी फिर से जीत की ओर चल पड़ी। कहते हैं सफल व्यक्ति जितनी बार  गिरता है, उतनी बार पुनः नयी ऊर्जा से लबरेज होकर उठ जाता है। और नए उत्साह व साहस के साथ पुनः जुट जाता है अपने विचार के प्रचार में, सो ऐसा ही खेल चलता रहता है, लोग अपनी – अपनी डफली पर अपना – अपना राग अलापते रह जाते हैं जबकि कर्मशील इतिहास रच देते हैं।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 9 ☆ व्यंग्य – रात जो रात नहीं रही ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “रात जो रात नहीं रही ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 8 ☆

☆ व्यंग्य – रात जो रात नहीं रही 

 

“वेलकम, यात्रा कैसी रही ?” मैंने केके को स्टेशन पर रिसीव करते हुए पूछा. केके यानी कपिल कुमार यानी कुम्भकरण हमारे होस्टल का. आज जब स्टेशन पर उतरा तो एक लम्बी सी जमुहाई लेते हुए बोला- “नींद नहीं हुई डियर ठीक से.”

“तुम्हारी नींद नहीं हुई. कमाल है ! छह-छह महिनों तक सोने का रिकार्ड है तुम्हारे नाम. आज तक कोई तोड़ नहीं पाया फिर ………”

“वो त्रेता युग की बात है डियर. उन दिनों मोबाईल नहीं हुआ करते थे ना. ”

“स्विच ऑफ करके सो जाना था.”

“मैंने अपना तो कर दिया था, सहयात्री का क्या करता ? हर थोड़ी देर में इनकमिंग. हर इनकमिंग पर ईश्क सूफियाना. सूफी संतों को ही क्या पता था प्रेम के उनके संदेशों की ये गत बनेगी.”

फियांसी रही होगी उसकी. रह-रह कर उसकी घंटी बजती और रह-रह कर नींद हमारी हराम होती जाती. पहले बोगी में, फिर ट्रेन में और रात के पौने एक बजते बजते सारी कायनात को पता चल गया कि इंदौर हावड़ा क्षिप्रा एक्सप्रेस की बोगी नं. एस-6 में तैंतीस नम्बर की बर्थ पर एक प्रेमी पसरा पड़ा है, विरह में व्याकुल जिसकी फियांसी न खुद सो पा रही है न डिब्बे में किसी और को ही सोने दे रही है. समय बदल गया है साहब. कभी प्रेमी जन प्रतीक्षा किया करते थे कि सो जाये सारा जमाना तो कर लें मन की बातें, इतनी धीमे कि दूसरा कान भी न सुन पाये. अब तो लव इतना लाउड कि न ईश्क की छुपम-छुपाई का आनंद रहा न सूफियाना पवित्रता. जमाना तो कबूतरों वाला ही बेहतर था. बांध दिया पुर्जा पंजों में और जा बैठे छज्जे में. उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते एक दो विरह गान लिख मारे. पंखिड़ा ने संदेश लाने में देरी की तो थोड़ा सूख साख लिये. वजन भी कम हो लिया साथ ही साथ. अब तो  घंटों लेटे लेटे बतियाते रहो कि आसानी रहे चर्बी को चढ़ने में. तुम ही बताओ डियर, जब तक एक भी प्रेमी जाग रहा हो डिब्बे में तब तक बाकी सब कैसे सो सकते थे ?”

“टोक देना था उसे.”

“किस-किस को टोकता डियर. मिडिल बर्थ वाले अंकलजी रात डेढ़ बजे तक अपनी वाइफ को सफाई देते रहे. मामला टसर सिल्क की साड़ी पर अटका था. उनकी बेटर-हॉफ उनके मेमेारी-लॉस के आर्ग्युमेंट को मानने के लिये तैयार नहीं थी. अंकलजी ने कंजूसी के तमाम आरेाप खारिज किये. आंटीजी के प्यार में पगे होने की कसमें खाई. हर बार वही ढाक के तीन पात. दलीलें उनकी खारिज होती जाती थी – नींद हमारी खराब होती जाती थी. फिर कहानी में एक टर्निंग पाईंट आया – किसी कामिनी मैडम के नाम पर. अंकलजी ने गले की सबसे निचली तह से, पूरे हाई पिच पर, घर पहुँचते ही चार जूते लगाने की घोषणा की. सहयात्री महिलायें डर गईं. ऐसे मरद का क्या भरोसा ! जोश में किसी को भी जूते मार सकता है. कुछ देर पहले कह ही रहे थे अंकलजी – औरतें सब एक जैसी होती हैं.”

“फिर”

“फिर क्या डियर, गॉड इज ग्रेट. बेलेन्स खत्म हो गया उनके मोबाईल में. तूफान के बाद की खामोशी छा गई. निस्तब्ध नीरव निशा में हम नींद के आगोश में समाने ही वाले थे कि साइड अपर का अलार्म बज उठा. शिर्डी वाले सांई बाबा, आया है तेरे दर पे…….”

“तुम्हें इन्हीं से दुआ करनी थी.”

“की मैंने. मन्नत मांगी कि आज की रात सारे नेटवर्क ठप्प हो जायें. कुबूल भी हो गई. मगर तब तक कुछ स्टूडेंटस्  कैलाशा-लाइव बजाने लगे.”  स्टेशन से घर तक केके अपनी आपबीती रातबीती सुनाता रहा.

हमारा मुल्क ऐसा ही है साहब-आप वोट देते हैं सरकार मिल जाती है, शासन नहीं मिल पाता. अधिकार मिल जाता है सूचना नहीं मिल पाती. एडमिशन मिल जाता है शिक्षा नहीं मिल पाती. आप पैसे देते हैं बर्थ मिल जाती है, नींद नहीं मिल पाती. कैसे-कैसे जतन करते हैं! भिनसारे आरक्षण की लाईन में लग जाते हैं. तत्काल में ज्यादा पैसे देते हैं. एजेन्ट से लेकर कुली तक की चिरौरी करते हैं. प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक काले कोट वाले के पीछे-पीछे घूमते हैं. उसकी घुड़कियों का बुरा नहीं मानते. मिन्नतें करते हैं, ऑन देने को सहमत होते हैं, बमुश्किल एक बर्थ का जुगाड़ जम पाता है. चलिये साहब, चेन-ताले से अटैची बांध के पसर जाइये. सुन्दर, सलोने सपनों के संसार में प्रवेश करने जा ही रहे हैं कि उपर की बर्थ वाला जगा कर पूछता है आपसे “भाई साहब कौन सा स्टेशन आया ?” उल्लू हैं आप जो धनघोर अंधेरे में डूबे स्टेशन का नाम पढ़कर बतायेंगे.

“होनोलुलु है. उतरेंगे आप ?”

“नहीं, बकानियाँ भौंरी जाना है. आये तो बताईयेगा.”

“अभी देर है. दो घंटे लेट चल रही है.” – साइड लोअर से आवाज आई.

“एक घंटा बावन मिनिट” – किसी ने एक्जेक्ट बताने की कोशिश की.

“राजधानी का क्रॉसिंग है.”

“अभी और पिटेगी ट्रेन. जयपुर निकालेंगे इसको रोककर.”

शब-ए-फुरकत का जागा हूँ फरिश्तों अब तो सोने दो. आप गाना चाहते हैं मगर गा नहीं पाते. बस बाल नोंच कर रह जाते हैं. अमजद खान भी नहीं रहे अब कि डरा सकें आप – सो जा, सो जा वरना गब्बर आ जायेगा.

निशांत की गहरी नींद में होते हैं आप तब पैसठ नम्बर की बर्थ से ओमऽऽऽऽ का ब्रम्हनाद गूंजता है. समूची सृष्टि में गुंजायमान होने की नीयत से निकला प्राणायाम का स्वर बोगी में सोये यात्रियों को हिलाकर रख देता है. कांप उठते हैं आप. ट्रेन पटरी से उतर तो नहीं गई ?  ऐसा कुछ नहीं हुआ है,  बस चादर बिछा ली है उन्होने, डिब्बे के फर्श पर भृस्त्रिका कर रहे हैं. अनुलोम विलोम करेंगे. आप दुआ करते हैं कि डेस्टिनेशन आने तक शवासन करते रहें. मगर आपका ऐसा नसीब कहाँ! नित्य नियम तो वे पूरा करेंगे ही. टिकट के पीछे लिखा है कहीं कि चलती ट्रेन में योगा करना मना है. महर्षि पतंजलि के जमाने से करते आ रहे हैं, आज क्यूं छोडें ? उनके फेफड़ों में समाती ऑक्सीजन के आरोह अवरोह आपके खर्राटों पर भारी पड़ते हैं. सो आप चद्दर से मुँह ढंके रहें. कान, आँख, मुँह, स्लीपिंग सेन्सेटिव इन्द्रियों को चद्दर में छुपाये रखें साहब. बेवफा नींद कभी तो आयेगी. जीरो से एक सौ अस्सी डिग्री तक करवटें बदलते रहें. हाथ पीछे ले जाकर पीठ खुजाते रहें. कुम्भकरण तक नहीं सो पाता, किसी और की क्या बिसात! जतन करते रहें.

रेल के सफर में आप अपने को सर्वाधिक भाग्यशाली उस रात समझते है जिस रात कोई बारात आपकी बोगी में नहीं फंसती. डिब्बे में पसरी खिजाओं को भी वे बहारें मानकर अनुरोध करते चलते हैं-फूल बरसाओ कि मेरा महबूब आया है. भोजन घर से पैक करा कर लाया है. स्टील की टंकियों में भरी पूरियाँ, आलू गोभी की सब्जी, अचार की तीखी गंध आपकी निद्रा ही नहीं क्षुधा को भी जगाये रखती है. आज की रात पूरा डिब्बा ही बारात है. पेपर प्लेट पर रखी मनुहार जगाये रखती है. सकुचाइये नहीं. शानदार खोपरा पाक कह रहा है सोया क्यूं है पट्ठे. उठ. सेंव कम है तो भुआजी से मांग. खाना निपटे तो अंत्याक्षरी शुरू करें. बड़ी मामी कब से ढोलक तैयार किये बैठी है. महोबावाली मौसी पहले दो भजन गायेंगी. फिर युवा मंडली के हवाले पूरा एस-6. पप्पा तो ट्रेन में ही डीजे लगवाने को कह रहे थे. सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती. न चांदनी न सुहानापन, बस कुछ फटे बांस हैं. कुछ दूसरों के कान फोड़ने की कवायदें और एक रात है जो रात नहीं रही. ‘ती’ पर खत्म हुआ है तो ‘ती’ से ही गाइये. नाऽऽऽ नाऽऽऽ नईऽऽ नईऽऽ ये ‘आ’ से शुरू होता है आपको ‘ती’ से गाना है. चीटींग.. चीटींग.. तमाम सालियाँ चीख रहीं हैं. जिज्जाजी मान नहीं रहे. चीटींग तो आज रात आपके साथ घट रही है. आपके पगला जाने में कुछ ही क्षण बाकी है. तभी पिछले जन्म के  कुछ कुछ पुण्यकर्मों का उदय होता है. आपको नींद आती ही है कि ‘थ्री सिक्स थर्टी-सिक्स.‘ घबराईये नहीं. आपकी बर्थ कोई और क्लेम नहीं कर रहा. तम्बोला निकाल लिया है छोटी मामी ने. बोगी… बोगी. पूरी की पूरी बोगी कांप उठी है उनकी चीखों से जिनके कार्नर्स अभी तक कटे नहीं हैं. पहले बॉटम लाईन, फिर मिडिल, फिर अपर. सम्भल कर सोइये आपकी  लाईन खतरे में हैं ? लुक फॉर फुल हाउस डियर. हर वो आनंद जो कहीं नहीं लिया जा सकता एस-6 में है. सोना मना है यहाँ कि अभी कुछ देर में चाय की फेरी शुरू होने वाली है.

ऐसी रातों से केके का वास्ता अक्सर पड़ता ही है. उसकी परेशानी का अंदाजा बहुत से लोगों को नहीं है. उसे आज ही मेरे शहर में तीन प्रजेन्टेशन्स करना है. क्लाइंटस को सेट करना है. आर्डर्स बुक करने है. टारगेट्स का दैत्य सामने खड़ा है. व्यक्तित्व को खुशनुमा रखना उसकी मजबूरी है. क्लाइंट्स से मिलते समय जॉली, जोवियल, हंसमुख, सजग दिखना कम्पलसरी है. कॉम्बीफ्लेम लें आप, सिंकारा पियें, बार-बार आँखों पर गीला रूमाल रखें. वाट एवर इट टेक्स. मार्केटिंग की क्लास में कहा गया है पसनैलिटी प्लीजंट होना. नींद युवा पीढ़ी की जरूरत नहीं विवशता है. ‘करवटें बदलते रहें सारी रात हम, आपकी कसम’ आप अपनी प्रियतमा से तो कह सकते हैं अपने बॉस को कैसे कहें. वो तुरन्त एक पिंक स्लिप पकड़ा देगा आपको, गुडबॉय कर देगा.

आपा धापी भरी जीवन शैली में चैन की नींद कुम्भकरण को भी मयस्सर नहीं है.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ 

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रुप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है।आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित करती है ?

हरिशंकर परसाई – 

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं।कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा।कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं।जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे,, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा-‘उनके लिए,जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।ये समर्पण है मेरी एक किताब में। लेकिन वास्तव में यह है वो- उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपए है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं, उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं अपनी पुस्तक। जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तकें मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 57 ☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘सब मर्ज़ों की एक दवा’।  यह जीवन का सत्य है कि सब मर्ज़ों की एक ही दवा  है और यह एक गरीबदास है जो मानने को तैयार ही नहीं है।  इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

गुरु पूर्णिमा पर्व पर परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी को सादर चरण स्पर्श।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 57 ☆

☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा

 

भाई जी, यह बहुत अच्छा हुआ कि संसार के सब मर्ज़ों की एक दवा मिल गयी। अब इस बात में कोई शक नहीं रहा कि ज़िन्दगी की सब व्याधियों की एक दवा पैसा है, अक्सीर दवा।

पैसा है तो रोग-दोष आपके पास नहीं फटकते। पैसा है तो आपके लिए सब कुछ मुहैया है। बोलो,क्या ख़रीदना चाहोगे? मोटर ख़रीदोगे या हवाई जहाज़? फाइल ख़रीदोगे या बाबू? अफसर ख़रीदोगे या विधायक?

पैसा पास है तो कला, सभ्यता, संस्कृति भी मिल सकती है। यहाँ तो हर चीज़ बिकती है, कहो जी तुम क्या क्या ख़रीदोगे? आप बस ज़ुबान भर हिलाओ बबुआ, संसार की सब विभूतियाँ आपके चरणों में लोटेंगीं। हाँ, बस थोड़ा नावाँ दिखाते जाओ।

पैसा है तो सुपुत्रों को पढ़ने के लिए जर्मनी जापान भेजो और फिर आसानी से अच्छी नौकरी या व्यापार में जमा दो। नौकरी की आपाधापी और हताशा सिर्फ अभागों के लिए है। पैसा है तो ज़ुकाम का इलाज जसलोक में कराओ। या अगर घर के डॉक्टर पसन्द न हों तो अमेरिका चले जाओ। कोई असाध्य रोग पकड़ ले तो पैसा आपको बचा भले ही न पाए, पर चार छः साल आपकी ज़िन्दगी को खींच तो सकता ही है। जिस दिन विज्ञान मृत्यु पर विजय पा लेगा उस दिन सब पैसे वाले अमर हो जाएंगे, क्योंकि अमरत्व के मंहगे उपकरण ख़रीदने की शक्ति उन्हीं में होगी। तब वे देवताओं की श्रेणी में आ जाएंगे और आदमी के नाम पर वही बचेंगे जिनकी जेब में नावाँ नहीं होगा।

पैसा पास है तो आदमी को कोई पाप, दोष नहीं छूते। हज़ार पाप करके भी वह पवित्र, निर्मल रह सकता है।  ‘विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। ‘ गोस्वामी जी भी कह गये हैं, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं। ‘

लेकिन यह गरीबदास बड़ी देर से मेरी बगल में भुनभुनाकर कुछ कह रहा है। पूछता है, इस पैसे वाली दुनिया में उसका क्या होगा? तो सुनो गरीबदास, तुम्हारी जो हालत है वह तुम्हारा प्रारब्ध और पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। लेकिन गरीबदास मानता नहीं। कहता है बड़े लोग कह गये हैं ‘बड़े भाग मानुस तन पावा’।  मनुष्य का जन्म बड़े पुण्यों के बाद मिलता है, तब ये पुराने पाप कहाँ से आ गये? है न सिरफिरा?

लो गरीबदास, तुम्हारे हित के लिए कुछ सूक्तियाँ देता हूँ। इन्हें जतन से गठिया लो। ये तुम्हारी तकलीफ को दूर भले ही न करें, लेकिन तुम्हारा ध्यान उस पर से हटा देंगीं। सुनो—‘हानि लाभ ,जीवन मरण,यश अपयश विधि हाथ’, ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुईहै वहि जो राम रचि राखा’, ‘संतोषी सदा सुखी’, ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। ‘ इसलिए अपनी ज़िन्दगी धूरि समान, बच्चों की पढ़ाई लिखाई और नौकरी धूरि समान,अपने बुढ़ापे और बीमारी का इंतज़ाम भी धूरि समान।

एक और सूक्ति देता हूँ गरीबदास। इसे कई समझदार लोग दुहराते हैं—-‘पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। ‘ समझे गरीबदास? लेकिन गरीबदास मूड़ हिलाता है, कहता है, ‘पाँचों उँगलियाँ बराबर भले ही न हों, लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि बड़ी उँगली हमेशा गुलाब पर रखी रहे और छोटी हमेशा काँटों में घुसी रहे। ‘ गरीबदास  का कहना है कि यह गोरखधंधा उसकी समझ में नहीं आता। सच्ची बात तो यह है गरीबदास, कि यह सब मेरी समझ में भी नहीं आता।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य  मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. । इस व्यंग्य के सन्दर्भ में आदरणीय श्री कमलेश जी के ही शब्दों में “लीजिए मित्रो । लाॅकडाउन के दौरान पुरानी फाइलों में से व्यंग्य मिला । दैनिक ट्रिब्यून में 27 अक्तूबर , 1987 के रविवारीय में प्रकाशित । यह भी आकाशवाणी , जालंधर, की कार्यक्रम अधिकारी डाॅ रश्मि खुराना की सीरीज मिलते हैं कैसे कैसे लोग के लिए लिखा गया था । बहुत आभार रश्मि जी ।। नवांशहर रहता तो आप पूरा व्यंग्यकार बना कर छोड़तीं पर भाग्य चंडीगढ़  ले गया और कुछ का कुछ बनता गया ,,,,पर कोई खेद नहीं ……।”  कृपया आत्मसात करें।

☆ व्यंग्य  : मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक ….   

कहावत है : जो सुख छज्जू दे चौबारे,  वो वल्ख न बुखारे। पर अपने राम जब से नौकरी में आए हैं तब से अपने चौबारे का सुख भूल गये हैं। अब तो किसी प्यारे गीत के टुकड़े की तरह यह कहावत याद रह गयी है।

अपने घर, अपने चौबारे और अपने शहर को छोड़कर हमने कितनों के बोल सहे, कितने मकान मालिकों के नखरे उठाये, मीठे कड़वे ताने सहे ,,,,भगवान् मुंह न खुलवाये। वैसे भी मकान मालिक की बात करते ही उनका रौब से भरा चेहरा जब याद आता है तब बोलती वैसे ही बंद हो जाती है।

अजीब इत्तेफाक कि जब नौकरी शुरू की थी तब भी मकान लेने में दिक्कत आती थी क्योंकि तब हम कुंवारे थे। तब से एक ज़माना गुजर गया। हम बीबी बच्चों वाले हुए और अब भी मकान मालिक हमें मकान किराये पर  मकान देने में बहुत तकलीफ महसूस करते हैं। तब हमारे कुंवारे होने से परहेज था , अब शादीशुदा होने पर ऐतराज। जब शादी नहीं हुई थी और हम मकान किराये पर लेने जाते थे तब मकान मालिक किसी तेज़ गेंदबाज की तरह पहली ही गेंद पर आउट कर देते थे -हम तो शादीशुदा को ही मकान किराये पर देते हैं। आप शादीशुदा हो क्या ?

हम किसी अपराधी की तरह जैसे ही मुंह लटकाते उसी समय घर के दरवाजे ज़ोर से बंद हो जाते। हम क्लीन बोल्ड हुए बल्लेबाज की तरह पैविलियन लौट आते। ज़माना काफी तरक्की कर गया है। अब मकान मालिक शादीशुदा लोगों को मकान किराये पर देने से कतराने लगे हैं। वे साफ कह देते हैं कि मियां बीबी की तो कोई बात नहीं। आपके बच्चों की फौज की परेड से हमें डर लगता है। हम बेबस होकर कभी अपने बच्चों को देखते हैं तो कभी परिवार नियोजन के पोस्टर याद करते हैं। काश , हमने सरकार की बात पर ध्यान दिया होता तो यूं सरेआम मकान मालिकों की निगाहें हमें बेइज्जत न कर डालतीं।

जिसे देश घूमने का शौक हो , उसे अलग अलग मकानों में रह कर अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए। इसीलिए तो इस शेर से छेड़छाड़ करने का मन बन गया है :

सैर कर दुनिया की गाफिल

मकान बदल बदल के ,,,,,

अपने राम ने जितने मकान बदले होंगे उतने ही मकान मालिकों के नियम सामने आते गये। अब तो मकान मालिकों के नियमों की लम्बी चौड़ी सूची भी याद हो गयी है। बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में पहाड़े याद करने पड़े थे।

अपने राम को एक मकान मालिक के कुत्ते की इज्जत न करने पर मकान खाली करने का हुक्म भी सुनना पड़ा था। तब हमें इस मुहावरे पर ईमान करना पड़ा था कि उनसे प्यार करना है तो उनके कुत्ते से भी प्यार करो। हमें मालूम था कि हमें यह मकान बड़ी तलाश के बाद किराये पर मिला था। इसलिए कुत्ता हमें जब जब घूर घूर कर देखता था तब तब हम उसे उतने ही प्यार से पुकारते थे परंतु इस महंगाई के ज़माना में हम खुद ग्लुकोज के बिस्कुट न खाकर उनके कुत्ते को बिस्कुट कब तक खिला सकते थे ? हमारी मकान मालकिन हमें उत्साहित करते कहती -आपसे पहले वाले किरायेदार से तो पूरी तरह हिल मिल गया था पर क्या करें आपसे तो हमारे रोमी की दोस्ती हो ही नहीं रही। शायद आप इसे इसकी पसंद के बिस्कुट खिलाना भूल जाते हो।

अब आप लोग ही बताइए कि आदमी को रोटी नसीब नहीं और मकान मालिकों के कुत्ते किरायेदारों के बिस्कुटों पर पलते रहेंगे ?

हमारी एक मकान मालकिन ने सारा घर हमें सौंप दिया जैसे देश तेरे हवाले। छोटी मोटी मरम्मत का काम भी हमारे विश्वास पर छोड़ गयीं। हम कहें कि घोर कलयुग में  ऐसी मकान मालकिन ? जरूर हमने पूर्व जन्म में मोती दान किए होंगे। पर कहते हैं न कि बुरे को नहीं उसकी मां को मारो।

आंगन में लगे पेड़ को कटवाने का आदेश जारी किया तो मजबूरी जाहिर करने पर सलाह दी कि आपके दफ्तर के चपरासी किस काम आयेंगे ?

-वे तो दफ्तर के काम के लिए हैं मां जी। घर के काम काज के लिए थोड़े हैं।

-हमारे काका को देखो। फलाने शहर में अफसर है। घर का हर काम दफ्तर के चपरासी करते हैं और एक तुम हो पेड़ भी नहीं कटवा सकते ? तेरा इतना कहा भी न मानेंगे ? कह कर तो देख।

-न मांजी। मुझसे यह भ्रष्टाचार नहीं होता।

-बड़ा आया हरिश्चंद्र,,,,भूखा मरेगा। मेरा मकान खाली कर दे।

मरता क्या न करता ? मकान खाली कर दिया। नये मकान मालिक के किराये के रेट ही बांटा कम्पनी की तरह ऊंचे थे। यानी नब्बे रुपये , नब्बे पैसे जैसे। वे मकान मालिक एक सप्ताह पहले से ही हमारा हालचाल पूछने आने लगते और विदा होते होते किराये के पैसों की याद दिला देते यह कहते हुए -बेटा। फिर आना पड़ेगा। किराया आज ही दे देते तो अच्छा होता। हम उन्हें सौ का नोट पकड़ाते और वे किसी चालाक बस कंडक्टर की तरह छुट्टे रुपये न होने का बहाना लगा सौ का नोट ही उड़ा ले जाते। हम सोचते कि अगले महीने एडजस्ट कर लेंगे पर वे हमारे पांव ही न लगने देते और कहते कि हमने तो दूसरे दिन ही बच्चों के साथ दस का नोट भिजवा दिया था। फिर हम उनसे किराये की रसीद मांगते तो वे कहते बेटा रसीद तो लिखी गयी।

-कब और कहां ?

-हमारे दिल में।

-पर हम आपका दिल निकाल कर तो सरकार को नहीं दिखा सकते न।

-फिर आप मकान बदल लो।

और लीजिए नये मकान मालिक ने तो ऐसा समां बांधा कि पूछो मत। हमारे लोकतंत्र ने हर छोटे बड़े को वोट डालने का अधिकार दिया है लेकिन हमारे मकान मालिक ने यह हक छीनने की कोशिश भी की। जब कमेटी वाले वोट बनाने आए तब हमने फाॅर्म भर कर जैसे ही उनको सौंपने चाहा तो किसी फिल्म के खलनायक की तरह वे अवतरित हुए और फाॅर्म के टुकड़े टुकड़े कर दिये। कमेटी वालों को भगा दिया। कारण पूछने पर बताया कि आपको वोट की पड़ी है और हमें हाउस टैक्स बचाने की। हमने कमेटी में लिखवा रखा है कि हमारे कोई किरायेदार नहीं रहता और अगर तुम्हारी वोट हमारे पते पर बन गयी तो हमारी पोल खुल जायेगी और साबित हो जायेगा कि किरायेदार तो है। फिर बरखुरदार हमारे ऊपर हाउस टैक्स लग जायेगा। वोट बनवाने का इतना ही शौक है तो कोई और मकान ढूंढ लो।

अब आप बताइए कि ऐसे उसूलों वाले मकान मालिकों के सामने बिजली कम जलाना , बल्ब कम वोल्टेज के लगाना , बच्चों के कूदने से छत कमज़ोर न हो जाये , पानी की बूथद बूंद बचाना , फूल न तोड़ना, घर आने का ठीक वक्त याद रखना , आंगन की सफाई और जमादार के पैसे देना आदि इतनी लम्बी लिस्ट है कि इन उसूलों का पालन करने वाली शख्सियत को कैलाश मानसरोवर जाकर तपस्या करने वाले योगी से भी ज्यादा मुश्किल टाॅस्क मिल गया। वैसे भी इस महंगाई के दौर में अपने मकान की चाह तो पूरी हो या न ,,,,,किरायेदार रहना पड़ेगा तो मकान मालिकों की उंगलियों पर नाचना पड़ेगा। भगवान् उन्हें सुदबुद्धि दे। सबको सन्मति दे भगवान्।

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 60 ☆ व्यंग्य – बकवास काम की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य “बकवास काम की । श्री विवेक जी का यह व्यंग्य सोशल मीडिया  के सामाजिक विसंगतियों पर पड़ रहे  प्रभावों पर एक सार्थक विमर्श है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 60 ☆

☆ व्यंग्य  – बकवास काम की  ☆

गूगल ने हम सबको ज्ञानी बना दिया है. हर कोई इतना तो जानने समझने ही लगा है कि गूगल की सर्च बार पर उसके बोलते ही संबंधित जानकारी मोबाईल स्क्रीन पर सुलभ है. हर किसी के पास मोबाईल है ही, मतलब सारी जानकारी सबकी जेब में है . इसके चलते भले ही लोगों के भेजे में कुछ न हो, भेजा खुद घुटने में हो, पर हर अदना आदमी भी महा ज्ञानी बन बैठा है. दूसरे की सलाह हर किसी को बकवास ही लगती है. इतनी बकवास कि यदि फोन रखते ही तुरंत कहे गये सद्वाक्य, सामने वाला वह व्यक्ति जिससे फोन पर महा ज्ञान की चर्चायें चल रही थीं,  सुन ले तो हमेशा के लिये रिश्ते ही समाप्त हो जावें.

व्यंग्य पढ़ना सबको पसंद है, ऐसा इसलिये लिख रहा हूं क्योकि हर अखबार व्यंग्य छाप रहा है. संपादकीय पन्नों पर प्रमुखता से छप रहा है. व्यंग्य पढ़ कर उसके कटाक्ष पर सब मुस्कराते भी हैं, पर वह विसंगति जिस पर व्यंग्य लिखा जा रहा है, कोई सुधारना नही चाहता. उसे हम सब हास्य में उड़ा देना चाहते हैं. सब शुतुरमुर्ग की तरह समाज के उस कमजोर पक्ष को महज व्यंग्य में मजे लेने का विषय बने रहने देना चाहते हैं. रिश्वत हो, भ्रष्टाचार हो, भाई भतीजावाद हो, हार्स ट्रेडिंग हो, व्यवहार का बनावटीपन हो, ऐसी सारी विसंगतियो के प्रति समाज निरपेक्ष भाव से चुप लगाकर बैठने में ही भला समझ रहा है. ऐसे माहौल में देशप्रेम, चरित्र, धर्म, नैसर्गिक मूल्य, सम्मान जैसे सारे आदर्श उपेक्षित हैं. ट्वीट की असंपादित त्वरित संक्षेपिकायें सारे बंधन तोड़ रही हैं. एक क्लिक पर वर्जनायें स्वतः निर्वसन हो रही हैं. इसे फैशन कहा जा रहा है. ऐसे दुष्कर समय में हमारे जैसे व्यंग्यकार बकवास किये जा रहे हैं.

हर वह रोक टोक, वह हिदायत जो कभी उम्र के बहाव में या कथित प्रगतिशीलता के प्रभाव में बकवास लगती रही हैं, परिपक्वता की उम्र में किसी न किसी पड़ाव पर समझ आती हैं, और तब वह बड़ों की सारी बकवास काम की समझ आने लगने लगती है.नई पीढ़ी को पुनः वही बकवास इस या उस तरीके से दोहराकर बतलाई जाती है. कोरोना काल में तो दादी नानी की साफ सफाई की सारी पुरातन बकवास, बड़े काम की सिद्ध हो रही दिखती हैं.

हर कबीर को कभी उसके समय में लोगों ने सही नही समझा. बाद में जब किसी ने उसकी काम की बकवास को पढ़ा, समझा, गुना तो ढ़ाई आखर पर पी एच डी की उपाधियां बंटी. कबीरों के नाम पर प्रशस्तियां बांटी गईं. आज कोई पढ़े न पढ़े, समझे न समझे, समाज के पहरुये व्यंग्य साधक, हर पीढ़ी के कबीर यह काम की बकवास लिख ही रहे हैं. समय कभी मूल्यांकन अवश्य करेगा. इस  प्रत्याशा में कि यह बकवास काम की है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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