☆ पुस्तक चर्चा ☆ “काँच के घर” (उपन्यास)– डॉ हंसा दीप ☆ चर्चाकार – श्री मुकेश दुबे ☆
पुस्तक : काँच के घर (उपन्यास)
लेखिका : डॉ हंसा दीप
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
मूल्य : 260/
☆ “साहित्यिक बदसूरती का खूबसूरत दस्तावेज है यह उपन्यास” – मुकेश दुबे ☆
जीव विज्ञान और आयुर्विज्ञान की एक शाखा है ‘शारीरिकी’ या ‘शरीररचना-विज्ञान’ जिसे अंग्रेजी में Anatomy कहा जाता है । इस विज्ञान के अंतर्गत किसी जीवित (चल या अचल) वस्तु का विच्छेदन कर, उसके अंग प्रत्यंग की रचना का अध्ययन किया जाता है। हंसा दीप ने अपने सद्य प्रकाशित उपन्यास काँच के घर में हिन्दी साहित्य की बजबजाती और सड़ांध मारती देह का सूक्ष्मता से विच्छेदन किया है। यह उनकी लेखनी का कौशल है कि वर्तमान साहित्यिक कुरूपता भी लच्छेदार तंज और भाषायी सौंदर्य से संवर कर मनभावन हो उठी है। लेखिका रह भले ही विदेशी धरती पर रही हैं किन्तु इनकी लेखनी आज भी स्वदेशी सरोकारों को केन्द्र में रखकर सृजन कर रही है।
समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में लेखन से महत्वपूर्ण है लेखक का कद और वो बढ़ता है पुरस्कार से, सम्मान से। इस धारणा को कुछ लोग व संस्थाओं ने अपनी कर्मभूमि बनाकर नवीन व्यवसाय बना लिया है। मुद्दा यह नहीं क्या लिखा है, महत्वपूर्ण है किसने लिखा है… लिखे गए को कितने पुरस्कार मिले हैं और उनमें अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कितने हैं। जाहिर है कि इस ट्रेंड में साहित्य दोयम दर्जे का और सम्मान मुख्य हो गया है। एक जगह हंसा दीप जी लिखती हैं इसी किताब में “सम्मान के लिए साहित्य की क्या जरूरत है”, सटीक व धारदार व्यंग्य है आज की भाषाई सेवा व सृजनशीलता पर। सम्मान की जुगाड़ और बंदरबांट में लगे तथाकथित बुद्धिजीवियों व साहित्यकारों और उनकी इस कमजोरी को पोषित कर फायदा उठाने वाली संस्थाओं के क्रियाकलापों को जमीन बनाकर लिखा गया यह उपन्यास सत्य के इतना करीब लगता है कि इसके मुख्य पात्र मोहिनी देववंशी व नंदन पुरी अपने आसपास के अनगिनत साहित्यकारों में नज़र आने लगते हैं। दरअसल ये फकत नाम नहीं हैं, ये जाति विशेष के प्रतिनिधि चेहरे हैं, स्वयंभू हिमालय हैं। ये अपने आप को आसमान में दमकता सितारा समझते हैं भले ही अपनी झूठी शान की आँच में इनका रोम-रोम झुलसता रहे लेकिन प्रतिद्वंदिता की पाशविक प्रवृत्ति इन्हें इंसान रहने ही नहीं देती और ये स्वयं को शीर्ष का साहित्यकार मानते हैं। साहित्य इनके लिए शतरंज की बिसात से अधिक कुछ नहीं है। शह और मात की लत में ये इतना नीचे गिर गये हैं कि मानवता भी शर्मसार है इन पर बस इनको शर्म नहीं आती है।
डॉ. हंसा दीप
स्वनामधन्य इन साहित्यकारों की कुकुरमुत्ते सी उगी साहित्यिक संस्थाएँ हिन्दी भाषा की सेवा की ओट में तरह-तरह का शिकार कर रही हैं। लेखिका के अनुसार “बहुत कुछ बदला था। सब अपनी सुविधाओं के अनुसार चीजें बदल रहे थे। लोग सिर्फ़ समूहों में ही नहीं बँटे थे, उनके दिल भी बँट गये थे।” कितना सही आकलन किया गया है लेखिका द्वारा। दिल बँट गये हैं और आत्मा शायद मृतप्राय है। वैचारिक मतभेद अब मनभेद बन गये हैं जिन्हें समयकाल व परिस्थितियों के अनुकूल कर सही साबित करने के लिए बाकायदा किलाबंदी कर सुनियोजित चालें चली जाती हैं। इन शतरंजी नबावों के वजीर, हाथी-घोड़े व पैदल भी होते हैं जो अपनी कूवत अनुसार खाने बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो बड़ी शय पर छोटे मोहरे भी बाजी पलट देते हैं। कथानक में एक दृश्य खासा प्रभावित करता है। मोहिनी देववंशी की बेटी का विवाह और विवाह की मजबूरी पढ़ते हुए सामान्य भले लगे परन्तु हंसा जी ने इस ढेले से कई चिड़िया मार गिराई हैं। यही वो भाषाई अभिभावक बन रहे हैं जिनसे अपनी संतान का पालन ठीक से नहीं हो सका और चले हैं हिन्दी का पोषण करने। ऐसे अनेक दृश्य व उदाहरण हैं कथानक में जो गहरा प्रभाव छोड़ते हैं मन-मस्तिष्क पर।
लोकोक्तियों व मुहावरों के प्रयोग से भाषाई पंच और अधिक पैना हो गया है। संवाद जब समाप्त होता है, होठों की कमान पर व्यंग्य का तीर कस जाता है और लक्ष्य भेदन के साथ बरबस ही मुस्कान बिखर जाती है। शायद ही कोई पहलू शेष रहा हो हंसा जी की दृष्टि से। लेखन, सम्पादन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार पर भी गहरे प्रहार किए हैं आपने। विदेशी मुद्रा के बदले लिए जाने वाले फायदों को भी समाहित कर लिया है। ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की असलियत भी जान जायेगा पाठक और हो सकता है शीघ्र ही ऐसे किसीकिसी आयोजन की भूमिका बनाने लगे। छद्म वाहवाही और सम्मान के आढ़तियों को भी नहीं बख्शा है हंसा जी ने। अंत में बड़े सम्मान की आस में भारत आए प्रवासी साहित्यकारों को खाली हाथ लौटाकर यह संदेश भी दिया है कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। रचना ही मूल है रचयिता की पहचान का, सप्रयास बढ़ाया कद ढलते सूरज की धूप है जो परछाईं को बड़ा तो कर सकती है लेकिन स्थाई नहीं बना सकती। क्षणिक सुख केवल मरीचिका है।
लेखिका – डॉ. हंसा दीप
संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada Phone – 001 647 213 1817 Email – [email protected]
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना आज शनिवार दि. 4 फरवरी से महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।
💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।बहुत कुछ करके जाना है बस चार दिन की कहानी जिंदगानी में।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 53 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।।बहुत कुछ करके जाना है बस चार दिन की कहानी जिंदगानी में।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #118 ☆ ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।
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कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।।
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अर्थ-
श्री हनुमान आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं, आपके अंग वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है। सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।
भावार्थ:-
अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा। श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं। महावीर हनुमान जी दया त्याग विद्या की खान हैं। हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है। अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं। प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं।
इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है। उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय ध्वज है। उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है। यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं।
संदेश-
अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।
इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:
1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से बुरी संगत से छुटकारा और अच्छे लोगो का साथ मिलता है।
2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से आर्थिक समृद्धि अच्छा खान-पान, संस्कार और पहनावा प्राप्त होता है
विवेचना:-
इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है। हनुमान जी को महावीर विक्रम बजरंगी, कंचन वर्ण वाले अच्छे कपड़े पहनने वाले कानों में कुंडल वाले और घुंघराले केश वाले बताया गया है परंतु सबसे पहले उनको महावीर कहा गया है। सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं। उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है। अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो, जिसको नापा ना जा सके, जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि। हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है। महावीर वह होता है जो सभी तरह से सभी दुखों और कष्टों से रक्षा कर सकें और रक्षा करता हो। क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है। कवि उनके विक्रम बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहते है जिससे सभी की रक्षा हो सके।
हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड का तीसरा श्लोक पर्याप्त है :-
श्री हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।
हनुमान जी महावीर है इस बात को श्री रामचंद्र जी, अगस्त मुनि, सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है। हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है, जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था। हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था।
अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है “कुमति निवार सुमति के संगी”।
हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति का अर्थ है नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है लिखा है:-
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥
व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है। हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं। इसके कारण आप कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है।
कुमति के मार्ग से हटाकर सुमति के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है। सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए थे। इसके उपरांत वे अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे। कुमति पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी। अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को पूरी तरह से भूल गए थे। हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा तथा संभाषण के उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी ने उचित अवसर जानकर उपयुक्त परामर्श देते हुए वानर राज सुग्रीव से कहा हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी) का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए।
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।
हनुमान्जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवन सुत! जहाँ-तहाँ वानरों के समूह रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो।
इस प्रकार हनुमान जी सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है। इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा होना दोनों बातें बिल्कुल अलग है। हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं। जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है। यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोना महत्वपूर्ण है उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है। सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी चमकता है। शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है। सोने का रंग पीला होता है और भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं। कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है। और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग की। अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए। यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो।
श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब “मेरी हनुमान चालीसा” जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि “सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं। लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं। क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं।” हनुमान जी के वानर या मानव होने के विवाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं। उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है। उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभूषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।
परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी बंदर समूह के थे। परंतु कोई भी बंदर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है। कानों में कुंडल, सज-धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बुंदा किसी भी बंदर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि मानव थे। फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी। आइए इस पर विचार करते हैं।
अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है?
बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्याधर,, आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था।
देवता गण कश्यप ऋषि और अदिति की संतान हैं और ये सभी हिमालय के नंदन कानन वन में रहते थे। गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी।
असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की कश्यप और इनकी दूसरी पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई थी। इसी प्रकार ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई।
इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियां प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम ‘कपि’ था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।
ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में ‘टिग्गा’ एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको ‘कुरुख’ नाम से वर्णित करता है।
उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएँ हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, श्री गेट ने १९०१ की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरतचंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक ‘दि ओराँव’ और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑव इडिया’ में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।
अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् (पूंछ) होता था परंतु स्त्रियों के पास नहीं।
वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है। अतः यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे। अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं। हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं।
जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े। उन्होंने अपना रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया। तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
(वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८ )
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अनुश्रवण नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश िदतम्।।
(-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९ )
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
अर्थ:- बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे । उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।
क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद, व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
अर्थ- हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।
इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है। जब हनुमान जी लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए,तब वह सोचने लगे :-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
(वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग )
मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।
वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने।
हनुमान चालीसा में भी कहा गया है :-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे
कांधे मूंज जनेऊ साजे
किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते कि जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा।
वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है। इससे यह स्पष्ट है की बाली और बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे। तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९ )
– ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई।
आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग, सिंह, गिरी, हाथी, मोर उपनाम के लोग मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का उपनाम वानर रहा होगा।
आगे तुलसीदास जी कहते हैं “विराज सुवेशा।” इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं। हनुमान जी के सर पर मुकुट है कंधे पर जनेऊ है और गदा है। लंगोट बांधे हुए हैं। एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं। किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होता है। यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।
वर्तमान में जितने भी प्रमाण उपलब्ध हैं उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे। वे मानव थे और उनका कुल वानर था। पूंछ संभवतः अलग से जुड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का अस्त्र था जिससे वानर कुल के लोग अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।
एखादी व्यक्ती घडते तेव्हा ती घडतांना अनेक नानाविध गोष्टींचा, व्यक्तीमत्वांचा तिच्यावर कळत नकळत प्रभाव पडतो आणि मग तिच्या व्यक्तीमत्वाची जडणघडण होते. ह्यालाच आपण संस्कार असही म्हणतो. ह्यामधूनच त्या व्यक्तीचे कर्तृत्व बहरते,तिचा विकास होतो आणि काही वेळा तिच्याकडून अतुलनीय कामगिरी घडून एक अद्भुत, अद्वितीय व्यक्तिमत्त्व आकारास येतं आणि पुढे वर्षानुवर्षे आपण कित्येक पिढ्यानपिढ्या त्या व्यक्तीचा आदर्श डोळ्यासमोर ठेवतो.
ह्याचप्रकारे आपल्यासगळ्यांच्या माऊली म्हणवल्या गेलेल्या अद्वितीय अविष्कार म्हणून घडलेल्या ज्ञानेश्वर माऊलींना घडविण्यात मोलाचा वाटा असणाऱ्या निवृत्तीनाथांची आज प्रकर्षाने आठवण होते. संपूर्ण वारकरी मंडळींची साक्षात माऊली असलेल्या ज्ञानोबांना घडविण्याची किमया वा ताकद ही निवृत्तीनाथां कडे होती. माणसाच्या जडणघडणीत अनेक गोष्टींचा सहभाग असतो.त्यात जर ती व्यक्ती आपल्या सगळ्यांसाठी आदर्श व्यक्ती असेल तर आपण नकळत तीला घडविणा-या गोष्टींचा अभ्यास करतो.त्या गोष्टी लक्षात आल्यावर आपापल्या परीने त्याचे अनुकरण करायचा प्रयत्न करतो. अशा अनेक श्रध्दास्थानी आदरणीय व्यक्तींपैकी प्रामुख्याने निवृत्तीनाथांचे नाव अ्ग्रक्रमी राहील. नुकतीच निवृत्तीनाथांची जयंती झाली.त्यांना कोटी कोटी प्रणाम.
भारतभूमी ही अनेक संताच्या सहवासाने पावन झाल्यामुळे खूप पवित्र, वैविध्यपूर्ण आणि संस्कृती ने परिपूर्ण झालेली आहे.अनेक संत,महात्मे येथे जन्मले आणि त्यांनी आपल्या सगळ्यांना घडविले सुद्धा.त्यांच्या शिकवणी पैकी काही अंश जरी आपल्या कडून आचरणात आणल्या गेले तर जीवन धन्य होईल.
निवृत्तीनाथांचं अवघं 23 वर्षांचं आयुर्मान. पण ह्या अवघ्या 23 वर्षात अख्ख ब्रम्हांडाचं ज्ञान त्यांनी जगाला दिलं. त्यांची सगळ्यात मोठी कामगिरी म्हणजे त्यांनी आपल्या ज्ञानोबारायांना घडविलं,वाढविलं. ज्ञानेश्वर माऊलींचे पालक,थोरले बंधू,गुरू, मार्गदर्शक, असं सर्व काही म्हणजे निवृत्तीनाथ जणू.त्यांनी आपलं मोठेपणं,वडीलपणं ह्या लहान भावंडांना आदर्श घडवून सार्थक केलं.
निवृत्तीनाथ,ज्ञानेश्वर, सोपानदेव आणि मुक्ताई ह्या भावंडांमध्ये निवृत्तीनाथ हे सगळ्यात थोरले.जणू ह्या कुटूंबाचे पालकच.आईवडीलां- च्या पश्चात पालकांच्या जबाबदारीची भुमिका निवृत्तीनाथांच्या वाट्याला आली.
भागवत संप्रदायाचे आद्यपीठ ज्ञानेश्वर माऊलींचे सकलतीर्थ,विश्वकल्याणासाठी पसायदानातील श्री विश्वेश्वरावो,आद्यगुरू, आदिनाथ ह्या उपाध्या लागलेल्या निवृत्तीनाथां च्या शिकवणींची आज परत ह्या निमीत्ताने मनोमन उजळणी होते.आईवडीलांबरोबर निवृत्तीनाथ एका जंगलात गेले होते.तेव्हा एका वाघाने त्यांना उचलून एका गुहेत नेले.त्या गुहेत त्यांना एका तेजःपुंज साधूने बहुमोल ज्ञान दिले. हेच ते त्यांचे गुरू, नाथपंथातील गहिनीनाथ होत अशी आख्यायिका आहे.
निवृत्तीनाथांनी एक हरीपाठ व तिनचारशे अभंग रचले आहेत.त्यांनी ज्ञानेश्वरांना सामान्य लोकांना समजेल, उमजेल अशा भाषेत गीता लिहावयास सांगितली, तीच ही भावार्थ दिपीका ज्ञानेश्वरी होय.
ज्ञानेश्वर, सोपानदेव ह्यांनी समाधी घेतल्यानंतर मुक्ताबाईंनी अन्नपाणी त्यागून देह ठेवला.त्यानंतरच निवृत्तीनाथांनी त्र्यंबकेश्वर येथे देह ठेवला. खरचं ज्ञानेश्वर माऊलींसारख्या व्यक्ती घडविणारे निवृत्तीनाथ अलौकिक शक्ती चे प्रतीक. त्यांना परत एकदा कोटीकोटी प्रणाम
☆ अनुवादित दीर्घकथा – द्वारकाधीश… भाग 2 – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
(मी नकळत गप्प झालो. मग राजारामच बोलायला लागला…) इथून पुढे —–
‘‘ मनोहर, आत्ता मी जिची लग्नपत्रिका द्यायला आलोय् ना, ती माझी तीन नंबरची मुलगी… सुधा… म्हणजे माझी शेवटची जबाबदारी…”
‘‘ अरे पण तुला तर चार मुली आहेत ना?”
‘‘ हो. पण चौथ्या मुलीचं लग्न दोन वर्षांपूर्वीच झालं. मी आमंत्रण पाठवलं होतं की तुला. अर्थात् तुला ते मिळालं की नाही कोण जाणे. असो. काय आहे… सुधाचा डावा हात लहान आणि कमजोर आहे. या अपंगत्वामुळे तिचं लग्न जमत नव्हतं. त्यामुळे धाकटीचं लग्न आधी करून टाकलं. मुलाने तर पाच वर्षांपूर्वीच प्रेम विवाह केलाय्… स्वास्थ्य केंद्रातल्या एका नर्सशी… आणि तेव्हापासून तो वेगळाच रहातोय्. या सुधासाठी स्थळ शोधणं फारच अवघड झालं होतं रे…”
‘‘ तिचा हा होणारा नवरा काय करतो?”
‘‘ मी टायपिस्ट म्हणून मँगेनीजच्या खाणीत काम करायचो ना, तिथे विष्णू नावाचा एक चपराशी होता. मी रिटायर होण्याच्या सहा महिने आधी एका दुर्घटनेत त्याचा मृत्यू झाला. त्याच्या जागी अनुकंपा-तत्त्वावर त्याच्या या मुलाला नोकरी मिळाली. त्याचाही डावा पाय पोलिओमुळे निरूपयोगी झालाय्… डाव्या पायाने लंगडाच झालाय् म्हण ना. दहावी पास आहे.”
‘‘ थोडा भात घे ना अजून…” काय बोलावं हे खरंच सुचत नव्हतं मला.
श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
‘‘ नको नको… खूप जेवलो आज… किती दिवसांनी इतकं चांगलं जेवण झालंय् ते काय सांगू तुला?… या लग्नात हुंडा म्हणून साठ हजार रूपये द्यायचे ठरलेत. इकडून-तिकडून चाळीस हजारांची सोय झालीये. तरी अजून वीस हजारांची सोय करायला हवी. त्यासाठी ठोठावता येईल असं एकही दार उरलेलं नाहीये आता. लग्न अठ्ठावीस तारखेला आहे… आणि आज अठरा तारीख… असो… तू आता रिटायर झाला आहेस ना… आत्तापर्यंत एकाही लग्नाला आला नाहीस… पण या लग्नाला नक्कीच येऊ शकतोस. रेणुका… माझी बायको… म्हणत होती की, ‘‘ तुमचा हा मित्र म्हणजे मोठी आसामी आहे… स्वत: जाऊन निमंत्रण दिलंत तरच येतील ते. म्हणून आलो आहे…” ‘अन्न दाता सुखी भव’… असं म्हणत राजाराम हात धुवायला गेला.
तो उठून गेल्यावर मला खरंच जरा हायसं वाटलं. माझ्या मनातल्या मनात विचाराचा जणू एक दिवा लागला, ज्याच्या प्रकाशात, राजारामने स्वत: मला निमंत्रण पत्रिका द्यायला येण्यामागचं ‘रहस्य’ मला उलगडल्यासारखं मला वाटलं… आणि माझ्या मनातल्या आमच्या मित्रत्वाच्या सरोवरात आजपर्यंत ज्या निर्मळ मैत्रीचे तरंग सतत उठत होते, त्या जागी आता जणू वाळूच्या लाटा उमटू लागल्या आहेत असं मला वाटून गेलं. मी डायनिंग टेबल आवरलं. राजाराम हात पुसत परत माझ्या जवळ येऊन उभा राहिला…
‘‘ साडेपाचच्या बसचं रिझर्वेशन आहे बरं का रे माझं… पाच वाजता तरी निघावं लागेल मला…” राजाराम मोकळेपणाने म्हणाला… मनावरचं कुठलं तरी ओझं उतरल्यावर जाणवतो तो मोकळेपणा मला त्याच्या बोलण्यात जाणवला.
‘‘अरे आजच्या दिवस थांब की. उद्या सकाळी जा. साडे-सहा सात वाजेपर्यंत रत्ना येईलच ऑफिसमधून… मग मस्त गप्पा मारू तिघं जण. अजून पुरेशा गप्पा तरी कुठे मारल्यात आपण…” असं म्हणतांना मला मनापासून सारखं जाणवत होतं हे की ते सगळं मी अगदी वरवरचं… औपचारिकपणे बोलत होतो… माझ्या मनातले मैत्रीचे धागे कमकुवत झाल्याचं माझं मलाच जाणवत होतं.
‘‘ नको रे… आणि रत्नावहिनींशी सकाळीच चांगल्या दोन तास गप्पा मारल्या आहेत मी. त्यांनी हे ही मला सांगितलंय् की त्यांच्या भावाच्या मुलाचं लग्नही नेमकं २८ तारखेलाच आहे. त्यामुळे सुधाच्या लग्नाला तुम्ही दोघं येऊ शकणार नाही, हे समजलंय् मला. आणि अरे मलाही तर खूप गप्पा मारायच्या आहेत की तुझ्याशी… आता हे लग्न एकदा पार पडलं की खास तेवढ्यासाठीच येईन तुझ्याकडे आणि चांगला आठवडाभर राहीन बघ… त्यावेळी मग मला जे जे माहिती नाहीये ते तू मला सांग… आणि तुला जे माहिती नाही, ते सगळं मी तुला सांगेन… काय?”
‘‘ पण आता थोडावेळ तरी आराम कर बाबा. मी तुला स्टँडवर पोहोचवायला येईन.”… आणि राजाराम जरासा म्हणून आडवा झाला आणि घोरायलाही लागला. मीही आडवा झालो.
पण काही केल्या मला झोप लागेना… माझं मन तर माझ्याही नकळत थेट रामटेकात पोहोचलं होतं… राजाराम हा तिथला माझा सगळ्यात जवळचा मित्र होता. म्हणजे तसा तीन वर्षं पुढे होता तो माझ्या… मॅट्रिक झाल्यावर त्याने टायपिंगच्या परिक्षा दिल्या. आणि त्यानंतर रामटेकपासून दहा कि.मी. लांब असलेल्या मँगेनीजच्या खाणीत नोकरीला लागला… आधी रोजंदारीवर टाइम-कीपर म्हणून लागला होता, आणि सहा महिन्यांनी तिथेच टायपिस्ट म्हणून काम करायला लागला. मी मॅट्रिक झाल्यावर जेव्हा नोकरी शोधायला लागलो, तेव्हा राजाराम हा त्याबाबतीतला एकमेव मार्गदर्शक होता माझा … तोच माझ्या सगळ्या सर्टिफिकेटसच्या टाइप करून कॉपीज् काढायचा… खाणीतल्याच सरकारी लेबर ऑफिसरकडून वेळोवेळी त्या प्रमाणित करून घेऊन मला द्यायचा… त्या सगळ्या कामाची जबाबदारी त्याचीच आहे, असं मानणारा राजाराम… ‘With due respect and humble submission, I beg to state’’… अशासारखी सुरूवात करत मोठे मोठे अर्ज माझ्यासाठी स्वत: लिहूनही काढणारा…. पाठवायची घाई असेल तर स्वत:चे पैसे खर्च करून, पोस्टाची तिकिटं आणून लावून, अर्जांची ती पाकिटं कितीतरी ठिकाणी स्वत: पाठवणारा राजाराम… मला पहिली नोकरी मिळाल्याचं कळताच आनंदाने वेडा झालेला… स्वत:च्या खर्चाने पेढे वाटणारा राजाराम…. आई-वडील… बहिण…भाऊ… यांच्या प्रेमाखातर, गावाच्या जवळच असणा-या त्या खाणीत, तसली ती साधारण नोकरी करतच आयुष्य घालवलेला राजाराम… साहजिकच… कुठल्याही प्रगती विना, जसा होता तसाच राहिला. मी मात्र नोक-या बदलत राहिलो… त्या अनुषंगाने गावं बदलत राहिलो… राज्यही बदलत राहिलो. पण माझा हा बालमित्र राजाराम… त्याला मात्र मी कधीच विसरू शकलो नाही. त्यामुळेच त्याच्याबरोबर लहानपणी काढलेले, आणि माझ्या मॅट्रिकच्या सर्टिफिकेटसोबत कपाटात अगदी जपून ठेवलेले आमच्या दोघांचे फोटो, म्हणजे माझ्या मुलांसाठी मोठाच कुतूहलाचा विषय असायचा . त्याच्याबद्दल मी सतत इतका बोलायचो ना… त्या ‘टेपस्’… मी रत्नाला कितीवेळा ऐकवल्या असतील कोण जाणे ! आता तर जेव्हा जेव्हा राजारामचा विषय निघतो, तेव्हा तेव्हा… ‘अख्ख्या गावात हा एकच मित्र होता का तुम्हाला… राजाराम नावाचा?’ असा टोमणा मारल्याशिवाय रहात नाही ती आणि मला कळत नाही आता कसा सांगू तिला की ‘अगं… आयुष्याच्या सुरूवातीपासूनच्या ते आत्तापर्यंतच्या या प्रवासात, वादळवा-याच्या तडाख्याने मातीच्या किती छोट्या-मोठ्या टेकड्या-डोंगर आपलं अस्तित्वच गमावून बसतात ते… त्यातला एखादाच डोंगर असा असतो की जो स्वत:च्या उंचीमुळे, या वादळांमध्येही आपली ओळख टिकवून ठेवण्यात यशस्वी होतो…’
– क्रमशः भाग दुसरा.
मूळ हिंदी कथा – ‘ द्वारकाधीश’ – कथाकार – श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर’
अनुवाद : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
९८२२८४६७६२.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈