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हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा

(हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती समारोह के अंतर्गत सम्पन्न हुआ आयोजन)

हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई और महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी पुणे में आयोजित की गई थी। इसका विषय था, *हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा*।

संगोष्ठी का उद्घाटन सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सदानंद भोसले ने किया। डॉ. भोसले ने कहा कि गाँव की मंडी से लेकर संसद तक की भाषा हिंदी है तो हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं हो सकती? हिंदी चारों भाषाकुलों के बीच सेतु का काम करती है। आज़ादी की लड़ाई में भी हिंदी ही सेतु बनी। उन्होंने लिपि के प्रचार और अधुनातन तकनीक को अपनाने पर बल दिया।

हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे के अध्यक्ष श्री संजय भारद्वाज ने कहा कि राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा भी एक ही हो सकती है।अपनी भाषा में शिक्षा न होने के कारण प्रतिभाओं के दमन और शोध के क्षेत्र में मौलिकता के अभाव की ओर उन्होंने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि यही उपयुक्त समय है कि हम संकल्प को सिद्धि की ओर ले जाने की यात्रा आरम्भ करें।

हिंदी आंदोलन परिवार की  सहसंस्थापक सुधा भारद्वाज ने प्रस्तावना रखी। उन्होंने हिंदी की भाषागत वैज्ञानिकता और संवैधानिक स्थिति की चर्चा करते हुए विषय के विभिन्न पहलुओं पर मंथन का आह्वान किया।

महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे के संचालक श्री ज. गं. फगरे ने अपने वक्तव्य में कहा कि हिंदी उपेक्षित नहीं है। राजनीतिक विरोध का मुकाबला भाषा के प्रचार से करना चाहिए।

राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई की उपाध्यक्ष डॉ. सुशीला गुप्ता ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि भाषा अस्मिता से जुड़ी होती है। हिंदी की उपेक्षा अपनी पहचान को लुप्त करने जैसा है। इस सत्र का संचालन- स्वरांगी साने ने किया।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. दामोदर खडसे ने की। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा थी, है और रहेगी। आम नागरिक अँग्रेज़ी के खौफ़ से दबा है। निष्ठा और समर्पण से हिंदी के पक्ष में वातावरण तैयार करना होगा।

आबासाहेब गरवारे महाविद्यालय के हिंदी विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. नीला बोर्वणकर ने कहा कि हिंदी के कारण प्रांतीय भाषाओं की अस्मिता पर खतरे की आशंकाओं का निर्मूलन किया जाना चाहिए। स्वाधीनता के समय ही हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता तो भाषा को लेकर होनेवाले विवाद खड़े नहीं होते। हिंदी विभाग, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शशिकला राय ने कहा कि यह मानना पड़ेगा कि भारतीय भाषाएँ दम तोड़ रही हैं। बड़े अख़बार समूह व्यापार के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्होंने भाषा के क्रियोलीकरण पर  आपत्ति जताई। बैंक ऑफ महाराष्ट्र के सहायक महाप्रबंधक (हिंदी) डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव ने राजभाषा और राष्ट्रभाषा के तकनीकी अंतर को परिभाषित किया। राजभाषा के क्षेत्र में हुए कार्यों से स्थितियों में आए सकारात्मक बदलाव की उन्होंने विशद जानकारी दी। राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई के ट्रस्टी एवं संरक्षक श्री महेश अग्रवाल ने कहा कि हिंदी के राजनीतिक विरोध पर हिंदी के हितैषियों का मौन पीड़ादायक है।इस सत्र का संचालन डॉ. अनंत श्रीमाली ने किया।

द्वितीय सत्र में ‘क्षितिज’ द्वारा भाषा पर आधारित साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति की गई।  *मेरी भाषा के लोग* नामक इस सांस्कृतिक आयोजन के लेखक-निर्देशक संजय भारद्वाज थे। उनके अलावा विजया टेकसिंगानी, आशु गुप्ता, अपर्णा कडसकर, रेखा सिंह, अनिता दुबे और समीक्षा तैलंग ने भी रचनाओं को स्वर दिया।

समापन सत्र में प्रतिक्रियाएँ एवं प्रश्नोत्तर हुए। इस सत्र का संचालन डॉ. ओमप्रकाश शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन अरविंद तिवारी ने किया।

कार्यक्रम की सफलता के लिए सुशील तिवारी, डॉ. लतिका जाधव, डॉ. पुष्पा गुजराथी ने विशेष परिश्रम किया। बेहद कसे हुए इस विचारोत्तेजक कार्यक्रम में बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित थे। प्रमुख उपस्थितों में माया मीरपुरी, उषाराजे सक्सेना, सत्येंद्र सिंह, डॉ. अहिरे, राजीव नौटियाल, डॉ. मेघा श्रीमाली, मीरा गिडवानी, डॉ. लखनलाल आरोही, माधुरी वाजपेयी, संध्या यादव, नीलम छाबरिया, महेंद्र मिश्र, माधव नायडू, सतीश दुबे, महेश बजाज, बीरेंद्र साह, दिवाकर सिंह आदि सम्मिलित थे।

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