काव्य संग्रह  – द्वीप अपने अपने – डॉ. मुक्ता 

  • आत्मकथ्य – डॉ.मुक्ता
  • विवेचना – डॉ. सुभाष रस्तोगी 

 

☆ आत्मकथ्य  – संवेदनाओं का झरोखा ☆

– डॉ. मुक्ता

‘द्वीप अपने अपने’ विभिन्न मनःस्थितियों को उकेरता रंग-बिरंगे पुष्पों का गुलदस्ता है, जो उपवन की शोभा में चार चांद लगाते हैं। उपवन में कहीं महकते पुष्पों पर गुंजार करते भंवरे मन को आह्लादित, प्रफुल्लित व आनंदित करते हैं, तो कहीं कैक्टस के सुंदर रूप भी मन को आकर्षित करते हैं। मलय वायु पूरे वातावरण को महका देती है और मानव मदमस्त होकर प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है।

परन्तु प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। ऋतु परिवर्तन अंतर्मन को ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है क्योंकि मानव थोड़े समय तक किसी विशेष स्थिति में रहने से ऊब जाता है। मानव नवीनता का क़ायल है और लम्बे समय तक उसी स्थिति में रहना उसे मंज़ूर नहीं क्योंकि एकरसता जीवन में नीरसता लाती है। सो! वह उस स्थिति से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाना चाहता है। मानव बनी बनाई लीक पर चलना पसंद नहीं करता बल्कि उसे सदैव नवीन रास्तों की तलाश रहती है।

इस संग्रह की लघु कविताएं /क्षणिकाएं आपके हृदय को आंदोलित कर नवचेतना औ सुवास से भर देंगी क्योंकि इसमें कहीं मन प्रकृति में रमता है, तो कहीं प्रकृति उसे आंसू बहाती भासती है,जिसे देख मानव हैरान परेशान-सा हो जाता है। वैसे तो ‘द्वीप अपने अपने’नाम से स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के दौर में अधिकाधिक धन संग्रह की बलवती भावना से प्रेरित होकर मानव आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। पति-पत्नी में व्याप्त प्रतिस्पर्द्धा की भावना उन्हें एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बना देती है, जिसका परिणाम एक-दूसरे को नीचा दिखाने के रूप में परिलक्षित होता है। इसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। पति-पत्नी के मध्य सुरसा के मुख की भांति बढ़ता अजनबीपन का अहसास,परिवार की खुशियों को लील जाता है। सो! एकांत की त्रासदी झेलते बच्चे माता-पिता के स्नेह व सुरक्षा दायरे से  महरूम हो जाते हैं और वे दिन-रात टी•वी, मीडिया व मोबाइल में आंखें गड़ाए रहते हैं…नशे के शिकार हो जाते हैं। लाख कोशिश करने पर भी वे स्वयं को अंधी गलियों से मुक्त नहीं कर पाते।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, हत्या, लूटपाट व दुष्कर्म की समस्याएं विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। युवा-वर्ग रोज़गार के अभाव में गलत राहों पर चल निकलता है और फ़िरौती, हत्या व मासूमों की इज़्ज़त लूटना उनके शौक बन जाते हैं जिन्हें वे धड़ल्ले से अंजाम देते है, जिससे समाज में विसंगतियों- विषमताओं का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। रिश्तों की अहमियत-गरिमा को नकार वह समाज में अप्रत्याशित घटनाओं को अंजाम देता है। अहंनिष्ठता का भाव उसे निपट स्वार्थी व एकांगी बना देता है।

सामाजिक विषमताओं व विसंगतियों के कारण  रिश्ते रेत हो रहे हैं और आदमी स्वयं को बंटा हुआ अथवा असामान्य स्थिति में पाता है। हर इंसान स्वयं को  अधूरा अनुभव करता है और पति-पत्नी में अलगाव के कारण चारों और अव्यवस्था का दौर व्याप्त है, जिसका मुख्य कारण है… अधिकारों के प्रति सजगता व कर्तव्यनिष्ठता का अभाव। सो! जहां समाज में  अमीर-गरीब की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है,वहीं वर्षों से प्रताड़ित स्त्री अब आधी ज़मीन ही नहीं,आधा आसमान भी चाहती है,जिस पर पुरुष वर्ग आज तक काबिज़ था। आज वह हर क्षेत्र में मील के पत्थर साबित कर रही है…उसे अब किसी संबल-आश्रय की दरक़ार नहीं ।

बच्चे भी बड़े होने पर पक्षियों की भांति पंख  फैलाकर निःसीम गगन में उड़ जाते हैं अर्थात् अपनी नई दुनिया बसा लेते हैं और उनके माता-पिता को अक्सर वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ती है। वे शून्य नेत्रों से बंद दरवाज़ों को ताकते रहते हैं तथा हर आहट पर चौंक उठते हैं। उन्हें इंतज़ार रहता है आत्मजों का, जो लौट कर कभी नहीं आते।

इस संग्रह की अधिकांश लघु कविताएं/क्षणिकाएं एकांत की त्रासदी व असुरक्षा की भावना को उजागर करती हैं, जिससे हर इंसान जूझ रहा है क्योंकि वह अपने अपने द्वीप में कैद है और स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है…जो एक विरोधाभास है। मन चंचल है तथा हर पल उसे नवीनता की चाहत रहती है। वह  जीवन में आनंद पाने की  कामना करता है, जो उसे पारस्परिक स्नेह,सौहार्द व त्याग से ही प्राप्त हो सकता है। उसके लिए आवश्यकता है समन्वय की,समर्पण की,समझौते की…जो सामजंस्यता का मूल है। काश! मानव इस राह को अपना लेता तो स्व-पर,राग-द्वेष की भावनाओं का स्वतःअंत हो जाता। ग्लोबल विलेज जहां दूरियों को समाप्त कर एक-दूसरे के निकट ले आया है,वहां संवेदनाओं की बहुलता, निःस्वार्थ सेवा व त्याग के जज़्बे से घर-आंगन में खुशियों का बरसना अवश्यंभावी है।

इसी आशा और विश्वास के साथ—

डा• मुक्ता

डॉ. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

☆ पुस्तक विवेचना –  द्वीप अपने अपने ☆

– डा•सुभाष रस्तोगी

बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉक्टर मुक्ता एक सिद्धहस्त कवयित्री, कथाकार,लघु कथाकार,आलोचक,शोधक और चिंतक के रूप में मानी जाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि कविता ही उनका मुख्य रचना कर्म है। उनकी अब तक की कविता यात्रा इस बात की तसदीक करती है कि उन्होंने अब अपना एक स्वतंत्र कविता मुहावरा विकसित किया है और यह कविता मुहावरा है -अपनी कविता की मार्फ़त स्त्री की यात्रा,संघर्ष और स्त्री चिंतना पर प्रकाशवृत्त केंद्रित करना।यह स्त्री विमर्श की कविताएं हैं लेकिन बीती सदी के आठवें दशक में केंद्र में आए तथाकथित स्त्री विमर्श की देहमुक्ति की अवधारणा अथवा लिव इन रिलेशनशिप से इनका कोई वास्ता नहीं है।यह कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए जद्दोजहद करती कविताएं हैं, जो पुरुष के अधिनायकवादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। कवयित्री का मानना हैकि स्त्री और पुरुष दोनों समाज की दो धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धूप और छांव,आधी ज़मीन व आधा आसमान मिलना ही चाहिए। इस प्रकार डा•मुक्ता की कविताएं अपनी मुकम्मल कविता मुहावरे में स्त्री चेतना का एक नया मुहावरा रचती प्रतीत होती हैं।

डा•मुक्ता कविता की सभी विधाओं में साधिकार सृजन रत हैं। मुक्त छंद कविता, छंदबद्ध कविता यथा ग़ज़ल, गीत, मुक्तक और लघु कविता उन की अब तक की कविता यात्रा के अलग-अलग पड़ाव हैं।अध्यात्म की चेतना भी उनके कविता स्वभाव का एक मुख्य अंग है,तो व्यवस्था के पाखण्ड और राजनीति के राजनीति के विद्रूप की सत्शक्तता से निशानदेही करती है।उनके नव्यतम कविता संग्रह ‘अपने अपने द्वीप’ की कविताएं अपने समवेत पाठ में जीवन का व्यापक परिदृश्य उपस्थित करती हैं। इस संग्रह की कविताएं भावनाओं के रूप में सामने आई हैं।आकार  में छोटी दिखती इन कविताओं के अर्थ बहुत गहरे हैं औरज़्यादातर जीवन के उच्चाशयों को समर्पित यह क्षणिकाएं जीवन सूक्तियों का सा आभास देती हैं यथा’जीवन की सरहदों को पार करना संभव है/ परंतु दिलों की दूरी को पाटना असंभव…असंभव…असंभव। ’संबंधों के व्यर्थता बोध  को उजागर करती यह पंक्तियां भी तो अपने स्थान में एक जीवन सूक्ति ही प्रतीत होती हैं –’जुस्तज़ु के इस खेल में तुम्हें पाने की /ज़माने की गुफ्तग़ु के कारण/यह हो न सका/हम अपने अपने द्वीप में सिमटते गए/और खुद से अजनबी हो गए।’

स्त्री अब मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु नहीं है।पुरुष की इसी एकाधिकारवादी सत्ता को सीधे चुनौती देते हुए कवयित्री कहती है–-’मुझे नहीं दरक़ार तुम्हारे साथ की /संबल की,आश्रय की/ मैं बढ़ सकती हूं अकेली/ ज़िन्दगी/ की राहों पर/ मुझ में साहस है ,सुनामी की लहरों से टकराने का।’

भूमंडलीकरण की नई अवधारणा के चलते भले ही दुनिया अब तक एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है ।लेकिन यह भी सच है कि भूमंडलीकरण की इस अंधी दौड़ ने सबसे अधिक असुरक्षित माता-पिता को ही किया है। जो माता-पिता अपने दिन-रात के सुखचैन को तज कर इस उम्मीद से अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं कि जब वे वृद्ध हो जाएंगे तो वे उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।लेकिन वृद्ध होने पर उन्हें हासिल क्या होता है, इसी सच्चाई को रेखांकित करती यह पंक्तियां काबिले-ग़ौर हैं–’बच्चे पंख लगा कर उड़ जाते/निःसीम गगन में अपना आशियां बनाते/ रह जातेवे दोनों अकेले। ’उनके हिस्से में आता है केवल अकेलापन,असुरक्षा और निपट अकेलापन।    सहजानुभूति की इन कविताओं की कहन सादा है।वास्तव में यह कविताएं संवेदना के लघु द्वीप रचती प्रतीत होती हैं। ’सुनामी’ और ’कुकुरमुत्ता’ डा•मुक्ता के प्रिय उपमान हैं। लेकिन उनका प्रयोग मुस्लिफ़ है और पाठक को जीवन की एक नई सच्चाई के रू-ब-रू लाकर खड़ा कर देता है।

 

– डा•सुभाष रस्तोगी, मो•न•-8968987259

 

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments