श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जबाब अनेक (2 एवं  3)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का  एक प्रश्न के विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  दूसरा उत्तर लखनऊ से विख्यात व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक श्री अलंकार रस्तोगी जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

लखनऊ से श्री अलंकार रस्तोगी जी  ___2 

(श्री अलंकार रस्तोगी जी लखनऊ से प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक हैं।) 

इस सवाल पर मेरी यह नितांत व्यक्तिगत राय है और इससे सहमत होना कतई आवश्यक नही है। भाई मुझे तो ऐसा लगता है कि लेखक एक समाज के लिए लगाम की तरह नही बल्कि उस कसी हुई लगाम की तरह होता है जैसी लगाम राणा प्रताप के घोड़े के लगी हुई थी। बस पुतली फिरी नही कि  चेतक मुड़ जाता था। विशेषकर एक व्यंग्यकार के पास तो समाज मे विसंगतियां देखकर उसे सही दिशा देने की लगाम तो होती ही है। अगर वह लगाम बनता है तो उसे आंखे बनने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि आँखे भले ही गलत देखें लेकिन कसी हुई लगाम उसे अपने मार्ग से विचलित नही होने देती है। एक लेखक के पास वह शक्ति और ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शब्द से समाज के अंदर वह वांछित परिवर्तन ला सके जिससे समाज अपने अपने कुत्सित स्वरूप से अवगत भी हो और उसमें सुधार भी ला सके।

  • अलंकार रस्तोगी, व्यंग्यकार लखनऊ


सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

सवाल एक, जबाब अनेक : ब्रजेश कानूनगो __ 3 

(श्री ब्रजेश कानूनगो जी  25 सितंबर 1957 को  देवास  जन्मे सेवानिवृत्त बैंकर हैं। आपका साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों में  व्यंग्य संग्रह – पुनः पधारें, सूत्रों के हवाले से, मेथी की भाजी और लोकतंत्र। कविता संग्रह- धूल और धुंएँ के पर्दे में,इस गणराज्य में,चिड़िया का सितार, कोहरे में सुबह।  कहानी संग्रह – ‘रिंगटोन’। बाल कथाएं- ‘फूल शुभकामनाओं के।’ बाल गीत- ‘ चांद की सेहत’। उपन्यास- ‘डेबिट क्रेडिट’ एवं  आलोचना (साहित्यिक नोट्स) – ‘अनुगमन’ हैं ।

संप्रति: इंदौर से सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।)

प्रश्न – आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

उत्तर – –

जहां तक इस सवाल की बनावट की बात है वह कुछ इस तरह होना चाहिए कि ‘ क्या लेखक वर्तमान दौर में समाज की आंख है या लगाम?

मेरा मानना है कि समाज लोगों, प्रकृति,पर्यावरण,जीव जंतु,पशु पक्षी सबको शामिल करके बनता है। यदि इसमें मनुष्य शामिल है तो वहां केवल आंख और लगाम का जिक्र करके मुद्दे को सीमित नहीं किया जा सकता। पूरे समाज को हम मात्र एक घोड़ा नहीं मान सकते। समाज का एक व्यापक स्वरूप, रीति नीति और मस्तिष्क के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की क्षमता का होना भी स्वीकार करना होगा।

घोड़े की आंखों के आसपास यदि तांगा मालिक पट्टियां लगाकर केवल एक दिशा में देखने को बाध्य कर देता है तो ऐसा किसी सच्चे लेखक के साथ करना लगभग असंभव होगा। इसी तरह केवल लेखक के हाथ में ही समाज की लगाम नहीं होती।अनेक बल और घटक होते हैं जिससे समाज की रीति नीति तय होती है। सरकारों और सत्ताधारियों की लोक कल्याणकारी नीतियों और विचारधारा की भूमिका भी बहुत कुछ भविष्य की दिशा तय करती है। एक समय राष्ट्रीयकरण को विकास और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता है तो आगे ‘निजीकरण’ में विकास के रास्ते खोजे जाने लगते हैं।यह एक महज उदाहरण है। ऐसी अनेक बाते होती हैं जो समाज को दिशा देती हैं।

जहां तक इस काम में एक सजग लेखक की भूमिका का सवाल है उसका काम लोगों के  हित में समाज में मौजूद विषमताओं, असमानताओं, साधन,सुविधाओं के समान वितरण की विसंगतियों की ओर इशारा करना होता है ताकि उन पर नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन के जिम्मेदारों का ध्यान आकर्षित हो। मेरा यह भी मानना है कि लेखक की भूमिका सदैव सत्ता और सरकार के विपक्ष की तरह होना चाहिए चाहे सत्ता में उसके प्रिय और उसकी अपनी विचारधारा के लोग ही क्यों न बैठे हों।उसकी जिम्मेदारी सत्ता से ज्यादा जनता के दुख दर्दों के साथ होना चाहिए।

गंदे पानी में दो बूंद फिटकरी पानी को शुद्ध करने का काम करने का प्रयास करती है, समाज में सच्चे और ईमानदार लेखक की भी लगभग यही भूमिका होती है। वर्तमान समय में लेखक को तांगे में जुटे घोड़े में बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं उससे सचेत रहने की जरूरत है। किसी भी गणराज्य में समाज की लगाम तो अंततः संविधान और जनता के हाथों में होती है। इसमें विचलन तो कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

  • श्री ब्रजेश कानूनगो

(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

 

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