श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 ☆

☆ यात्रा वृत्तांत पहुंच गया दिल्ली ☆ 

मैं ने जिंदगी में कभी हवाई यात्रा नहीं की थी. पहली बार हवाई जहाज में जा रहा था. डर लगना स्वाभाविक था. राहुल को फोन लगाया, ”राहुल ! मुझे बताता रहना. पहली बार दिल्ली जा रहा हूं. हवाई जहाज में भी पहली बार बैठ रहा हूं. इसलिए समयसमय पर जानकारी देते रहना.”

” डरने की कोई बात नहीं है  पापाजी , ” राहुल ने मेरा हौंसला बढ़ाया, ” सुबह के 6 बज रहे हैं. इस वक्त आप कहां है ?” उस ने मुझ से पूछा.

” देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डे के मुख्य प्रवेशद्वार पर, जहां सुरक्षाकर्मी जांच के बाद अंदर जाने देते हैं, वहां खड़ा हूं.”

” यहीं से आप अंदर जाएंगे. यहां पर आप का टिकट व पहचान पत्र देख कर अंदर जाने दिया जाएगा,” राहुल ने जैसा बताया था, वैसा ही हुआ.

इस सुरक्षाचक्र से मैं अंदर पहुंच गया. वहां सामने एक सामान चैंकिंग खिड़की थी. जिस में एक रोलर लगा हुआ था. उस में सामान रखने पर वह सीधा रोलर पर घुमता हुआ आगे चला गया. वह सीधा एक खिड़की से हो कर दूसरी ओर निकल गया.

मैं ने सामान उठाया. कुछ आगे जाने पर एक टिकट का काउंटर दिखाई दिया. जहां लंबी लाइन लगी हुई थी. वहां से मैं ने टिकट प्राप्त किया. इस के बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब कहां जाना है ?”

उस ने कहा, ”  दाएं  मुड़ जाइए. सामने सीढ़िया लगी होगी. उस पर चढ़ कर ऊपर चले जाइए.”

मैं ने ऐसा ही किया. वहां पर पहले से ही लाइन लगी हुई थी. यहां पर सभी यात्री अपने सामान को निकाल कर एक ट्रे में रख रहे थे. मैं ने भी मोबाइल और रूपए पैसे सब निकाल कर उस में रख दिए. दोबारा बैग को खिड़की में डाला. मैं एक दरवाजे से अपने शरीर की जांच कराते हुए आगे निकल गया.

दूसरी ओर मेरा सामान आ चुका था. मैं ने मोबाइल और पर्स लिया. शर्ट में रखा. सीधे आगे जाने पर कई कुर्सियां लगी हुई थी. जहां कई लोग वहां बैठे हुए प्रतिक्षा कर रहे थे. मैं भी कुर्सी पर बैठ कर प्रतिक्षा करने लगा.

कुछ देर बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब क्या होगा ?”

” यहां से 6:30 पर विमान में जाने के लिए रास्ता खुल जाएगा ,” राहुल ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. प्रतिक्षालय के  एक ओर बना हुआ बड़े से दरवाज़ा की ओर का रास्ता खुल गया. जहां पर बहुत सी परिचारिका खड़ी थी. वे बारी बारी से सीट नंबर बोल बोल कर यात्रियों को अंदर बुला रही थी.

मेरा सीट नंबर 16 एफ था. मुझे भी अंदर बुला लिया गया. मुझे लगा था कि मैं हवाई अड्डे के नीचे उतर कर सीढ़ियों से विमान में चढ़ूंगा. मगर, ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं एक सुरंग रूपी रास्ते से होता हुआ सीधा हवाईजहाज में पहुँच गया. मेरा बैग मेरे साथ था.

हवाईजहाज में एक परिचारिका हाथ जोड़ कर अभिावादन कर रही थी. चुंकि मैं पहली बार इस में गया था. मुझे पता नहीं था कि कौन सी सीट कहाँ है ? इसलिए पूछ लिया, ” यह 16 एफ सीट किधर है ?”

परिचारिका ने अपनी बाई ओर इशारा कर के कहा, “ वह 16 वी पंक्ति वाली खिड़की वाली सीट आप की है.”

मैं यात्रियों के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ते हुए चल रहा था. हवाईजहाज में बहुत कम जगह थी. इस में बस की तरह हम एक साथ कई व्यक्ति सीट की तरफ नहीं जा सकते हैं. मैं अहिस्ताअहिस्ता चलते हुए लोगों के साथ अपनी सीट के पास गया. वहां एक समय में एक ही व्यक्ति अंदर जा सकता था. मैं पहले अंदर जा कर खिड़की वाली सीट पर बैठ गया. उस के बाद मेरे साथ वाले दो व्यक्ति भी सीट पर बैठ गए.

इस हवाईजहाज में यात्रा करने का यह मौका मुझे मेरे पुत्र राहुल की वजह से मिला था. वह अपनी कंपनी के काम से कई बार दिल्ली गया था. उस से मैं ने कई बार कहा था कि हवाईजहाज में बैठना कैसा लगता है ?

तब उस ने हवाईजहाज में बैठने का अपना पूरा ब्यौरा सुना कर कहा था, ” पापाजी ! इस बार आप विश्व पुस्तक मेले में हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जाना.” बस उसी की बदौलत मुझे हवाई जहाज का टिकट मिला था.

मैंने गौर से विमान के छत को देखा. वहां पर कुछ लिखा हुआ था. पास में एक खिड़की थी. जो हवाई जहाज के विंग के उपर का हिस्सा दिखा रही थी. यानी मुझे पंखों के उपर वाली सीट मिली थी.

हवाई जहाज चालू हुआ. परिचारिका ने कई जानकारी दी. सीट बेल्ट कैसे बांधना है. यदि आक्सीजन की कमी हो जाए या जी घबराने लगे तो छत पर लगे आक्सीजन मास्क को कैसे मुंह पर लगा कर आक्सीजन प्राप्त करना है. परिचारिका यह बता रही थी कि हवाईजहाज रनवे पर चलने लगा.

कुछ निर्धारित दूरी तय करने के बाद वह रूका. अचानक उस की आवाज तेज हो गई. यात्रियों ने अनाउंसमेन्ट के अनुसार अपनेअपने सीट बेल्ट को बांध लिया. हवाई जहाज ने तेज आवाज की. रनवे पर दौड़ लगा दी.

वह तेज गति से दौड़ने लगा. मेरी निगाहें खिड़की के बाहर थी. विंडो सीट से पंख स्पष्ट नजर आ रहे थे. कुछ तेज गति से चलने के बाद हवाई जहाज जमीन से उंचा उठने लगा. पेट में हल्की से गुदगुदी हुई. धीरेधीरे जमीन दूर जाने लगी. मकान छोटे होते गए.

कुछ देर में हवाई जहाज बहुत उंचाई पर था. ऊपर जाने पर ऐसा लग रहा था कि हवाई जहाज स्थिर हो गया है. केवल वह किसी बादल पर टिका हुआ है. आसमान में बादल दिखाई दे रहे थे. नीचे का कोई हिस्सा दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ समय बाद धूप निकल आई. नीचे की जमीन दिखाई देने लगी. तब अहसास हुआ कि हवाईजहाज बहुत ऊचाई पर है.

एक घंटे तक उड़ने के बाद हवाईजहाज दिल्ली के इंदिरागांधी अंतराराष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऊपर उड़ रहा था. 7 जनवरी 2018 की सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था. धुंध की वजह से नीचे दिखाई देना बंद हो गया था. हवाई जहाज धीरेधीरे नीचे आया.

वह करीब आधा घंटे तक हवाई अड्डे की रनवे पर चलता रहा. तब जा कर वह रनवे पर रूका. मुझे यह पता नहीं था कि यहां किस तरह उतरने पड़ेगा. जैसे ही मैं अपना बैग ले कर दरवाजे के बाहर निकला वैसे ही मुझे सीढ़िया नजर आई. मैं उस से उतरते हुए हवाई अड्डे की धरती पर उतर चुका था.

हवाई अड्डे को नजदीक से देखना मेरा पहला रोमांचकारी अनुभव था. मैं इसे कैसे जाने देता. मैं ने अपना मोबाइल निकाला. उस से कुछ सेल्फी लीं. यह काम मैं ने हवाई जहाज के अंदर भी किया था. ताकि मैं सगर्व यह बता सकूं कि मैं ने पहली बार हवाई जहाज की रोमांचकारी यात्रा कीं.

यहां से बस में बैठ कर मैं हवाई अड्डे के निकासी द्वार पर पहुंच गया. फिर हवाई अड्डे से बाहर निकल गया. यहां के उत्तरी निकासी द्वार पर बस खड़ी थी. उस के द्वारा मैं ने ऐरोसिटी मैट्रो स्टेशन का टिकट लिया. मैट्रो स्टेशन पर जाने के बाद वहां से ओरेज लाइन की मैट्रो में सफर किया.

दिल्ली की मैट्रो अपनेआप में एक मिसाल है. इस की साफसफाई और व्यवस्था उच्च स्तर की है. यहां से धोला कुआ होते हुए मैं नई दिल्ली स्टेशन पर उतर गया. जहां से मुझे पीली लाइन मैट्रो पकड़ कर चांदनी चौक जाना था.

मैं नईदिल्ली से मेट्रो पकड़ कर चांदनी चौक गया. वहां से मेट्रो से उतर कर सीधा बाई ओर जाते हुए शीशमहल गुरूद्वारा पहुंच गया.

इस तरह शीशमहल से बस पकड़ कर प्रगति मैदान गया. विश्व पुस्तक मेले में  घूम घूम कर पुस्तकें खरीदी ओर दूसरे दिन बस द्वारा वापस आ गया. इस तरह दिल्ली विश्वपुस्तक मेले की मेरी रोमांचकारी यात्रा पूरी हुई. यह यात्रा मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. क्यों कि इस यात्रा में पहली बार मैं हवाई जहाज में बैठा था.

इस तरह मेरी छोटी सी रोचक यात्रा पूरी हुई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०३/२०१८

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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