श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  100वीं  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

? चरैवेति-चरैवेति ? 

‘संजय उवाच’ ने जब मानसपटल से काग़ज़ पर उतरना आरम्भ किया तो कब सोचा था कि यात्रा पग-पग चलते शतकीय कड़ी तक आ पहुँचेगी। आज वेब पोर्टल ‘ई-अभिव्यक्ति’ में संजय उवाच की यह 100वीं कड़ी है

किसी भी स्तंभकार के लिए यह विनम्र उपलब्धि है। इस उपलब्धि का बड़ा श्रेय आपको है। आपके सहयोग एवं आत्मीय भाव ने उवाच की निरंतरता बनाये रखी। हृदय से आपको धन्यवाद।

साथ ही धन्यवाद अपने पाठकों का जिन्होंने स्तंभ को अपना स्नेह दिया। पाठकों से निरंतर प्राप्त होती प्रतिक्रियाओं ने लेखनी को सदा प्रवहमान रखा।

आप सबके प्रेम के प्रति नतमस्तक रहते हुए प्रयास रहेगा कि ‘संजय उवाच’ सुधी पाठकों की आकांक्षाओं पर इसी तरह खरा उतरता रहे।

(विशेष- संगम-सा त्रिगुणी योग यह कि आज ही बंगलूरू और चेन्नई के प्रमुख हिंदी दैनिक ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’ में उवाच की 65वीं और भिवानी, हरियाणा के लोकप्रिय दैनिक ‘चेतना’ में 50वीं कड़ी प्रकाशित हुई है।)

संजय भारद्वाज

☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, “धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?”

इस प्रश्न के उत्तर से आरम्भ हुआ संजय उवाच ! वस्तुत: धृतराष्ट्र द्वारा पूछे इस प्रश्न से पूर्व भी महाभारत था, धृतराष्ट्र और संजय भी थे। जिज्ञासुओं को लगता होगा कि महाभारत तो एक बार ही हुआ था, धृतराष्ट्र एक ही था और संजय भी एक ही। चिंतन कहता है, भीतर जब कभी महाभारत उठा है, अनादि काल से मनुष्य के अंदर बसा धृतराष्ट्र, भीतर के संजय से यही प्रश्न करता रहा है।

वस्तुत: अनादि से लेकर संप्रति, स्थूल और सूक्ष्म जगत में जो कुछ घट रहा है, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भर है संजय उवाच।

महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र रूपी स्वार्थांधता को उसके कर्मों का परिणाम दिखाने हेतु संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। संजय की आँखों की दिव्यता, विपरीत ध्रुवों के एक स्थान पर स्थित होने की अद्भुत बानगी है। उसकी दिव्यता में जब जिसे अपना पक्ष उजला दिखता है, वह कुछ समय उसका मित्र हो जाता है। दिव्यता में जिसका स्याह पक्ष उजाले में आता है, वह शत्रु हो जाता है। उसकी दिव्यता उसका वरदान है, उसकी दिव्यता उसका अभिशाप है। उसका वरदान उसे अर्जुन के बाद ऐसा महामानव बनाता है जिसने साक्षात योगेश्वर से गीताज्ञान का श्रवण किया। मनुज देह में संजय ऐसा सौभाग्यशाली हुआ, जो पार्थ के अलावा पार्थसारथी के विराट रूप का दर्शन कर सका। उसका अभिशाप उसे अभिमन्यु के निर्मम वध का परोक्ष साक्षी बनाता है और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या देखने को विवश करता है। दिव्य दृष्टि के शिकार संजय की स्थिति कुछ वर्ष पूर्व कविता में अवतरित हुई थी..,

 

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

गुणातीत वरद अवध्य हूँ

कालातीत अभिशप्त हूँ!

 

संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे सरल है, संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे जटिल है। असत्य के झंझावात में सत्य का तिनका थामे रहना, सत्य कहना, सत्य का होना, सत्य पर टिके रहना सबसे कठिन और जटिल है। बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है, सर्वस्व होम करना पड़ता है। संजय सारथी है। समय के रथ पर आसीन सत्य का सारथी।

आँखों दिखते सत्य से दूर नहीं भाग सकता संजय। जैसा घटता है, वैसा दिखाता है संजय। जो दिखता है, वही लिखता है संजय। निरपेक्षता उसकी नीति है और नियति भी।

महर्षि वेदव्यास ने समय को प्रकाशित करने हेतु शाश्वत आलोकित सत्य को चुना, संजय को चुना। संकेत स्पष्ट है। अंतस में वेदव्यास जागृत करो, दृष्टि में ‘संजय’ जन्म लेगा। तब तुम्हें किसी संजय और ‘संजय उवाच’ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यही संजय उवाच का उद्देश्य है और निर्दिष्ट भी।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Sudha Bhardwaj

अंतस में वेदव्यास जागृत करो, दृष्टि में ‘संजय’ जन्म लेगा।
अद्भुत कल्पना।

Sanjay k Bhardwaj

धन्यवाद आदरणीय।

अलका अग्रवाल

सच है, आज के संजय जी ने महाभारत काल के वेदव्यास को अपने में जागृत कर संजय दृष्टि पायी है तभी तो इतनी सुंदर, सार्थक व गागर में सागर का परिचय देतीं ‘संजय उवाच’ की सौवीं कड़ी जन मानस को जागृत करती सबके समक्ष आयी हैं। बहुत बहुत हार्दिक बधाई व शुभ कामनायें संजय जी।

Sanjay k Bhardwaj

धन्यवाद आदरणीय।

वीनु जमुआर

‘अंतस में वेदव्यास जागृत करो….’
संजय उवाच अक्षयी भवः