हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ दक्षिण कोरिया – कोरिया के सांस्कृतिक उत्सव ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ संस्मरण ☆ दक्षिण कोरिया – कोरिया के सांस्कृतिक उत्सव ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆ 

भारत उत्सवों का देश है। जैसे ही श्रावण खतम हो जाता है.. पर्व एवं उत्सव शुरु हो जातें है.. लगभग हर माह कोई न कोई त्योहार होता ही है… कोरिया में रहते मैंने अपने देसी त्योहारों को मिस जरुर किया पर कोरिया के उत्सव पर्वों का आनंद भी उठाया… कोरिया में रहते कोरियाई संस्कृति को जानने समझने का एक अच्छा तरीका है कोरियाई लोंगों के साथ उठना बैठना… उनके साथ घूमना फिरना जिससे हम उनकी संस्कृति को उनके रहन सहन को समझ सकते हैं…. हम हुफ्स के प्रोफेसर्स.. अर्थात हांकुक युवर्सीटी के प्रोफेसर्स के लिए हमारे छात्र छात्राएँ ऐसा अवसर प्रदान करते थे… उनके साथ जाने में मज़ा भी आता था… कोरिया में हर जगह मेट्रों से पहुँचने में आसानी होती है.. मेट्रों का मैप हाथ में हो और उसे समझ लो तो आसानी से कहीं से भी आना जाना सहज संभव हो सकता है…।

हमारे घर के प्रमुख दो त्योहार गणेश चतुर्थी और दीपावली.. पर कोरिया में रहते वक्त तीन साल मैं इन त्योहारों पर घर नहीं आ सकी थी… क्योंकि आना संभव नहीं था…एम्बेसी में दीपावली का जश्न ज़रूर होता था… पटाखें फोडने के लिए कोरिया सरकार एक खास जगह मुहैया कर देती वहाँ जाकर पटाखें फोडे जा सकते हैं….. मतलब विदेश में रहकर… भले ही दीपाली मनायी हो पर वहाँ के त्योहार भी आनंद उत्सव से कम नहीं होते….

एक दिन मैं जब अपने युनिवर्सीटी गयी थी तो देखा… सारा युनिवर्सीटी सुसज्जित था… छात्र छात्राएँ…. अलग अलग तरह के वेश बनाकर विशेषकर कार्टुन को वेश धारण कर… जिसमें सबसे बढिया था. पांडा और दूसरा था  मिकी माउस.. जैसे ही मैं युनिवर्सीटी के आहाते में आयी तो.. हे केसोनिम…नमस्ते जी.. कहकर एक पांडा मेरी तरफ आया… और मैं पल भर के लिए पीछे हट गयी.. और दूसरे ही पल मैं हँस पड़ी…ये पल मैं केमेर में कैद न करूँ.. ऐसा हो ही नहीं सकता… फिर देखा जगह जगह पर छात्र मास्क लगाए है… जब क्लासेस खतम कर बाहर निकली तो  चौराहों पर भी कुछ लोग मास्क लगाए……खुश हो रहे थे…. समझ तो उस समय नहीं आया फिर बाद में पता चला कि  दक्षिण कोरिया में वसंत और पतझड़ जीवंत मौसम होते हैं, जहाँ लगभग हर सप्ताहांत देश में कहीं न कहीं कोई उत्सव होता ही रहता है। कुछ, जैसे एंडोंग इंटरनेशनल मास्क फेस्टिवल, बड़े आयोजन होते हैं जो पूरे दक्षिण कोरिया से लोगों को आकर्षित करते हैं।

दक्षिण कोरिया में सबसे प्रिय उत्सवों में से एक चंद्र नव वर्ष है, जो पारिवारिक पुनर्मिलन, पैतृक संस्कारों और उत्सवी परंपराओं का समय होता है। सियोलाल के नाम से जाना जाने वाला यह त्योहार चंद्र कैलेंडर के पहले दिन को चिह्नित करता है और दक्षिण कोरिया के सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है। लोग पारंपरिक हानबोक पहनते हैं, युत नोरी जैसे लोक खेल खेलते हैं, और समृद्धि और एक नई शुरुआत के प्रतीक, टेटोकगुक जैसे विशेष व्यंजनों का आनंद लेते हैं। कोरिया में रहते मैंने देखा था कि सियोल के बोकसुन घंटाघर के चौक में ठंडी रात के समय लोग धीरे-धीरे इकट्ठा होने लगते हैं। हर कोई रंग-बिरंगे हानबोक में सज-धज कर आया है। बच्चों की आँखों में उत्साह झलकता है, जबकि बुजुर्गों के चेहरे पर शांत आशीर्वाद का भाव है।

घंटाघर के विशाल दरवाजों के पीछे से, आधिकारिक स्वर में नववर्ष का स्वागत होने वाला है। लोग घड़ी की सुइयों को ध्यान से देखते हैं, और जैसे ही मध्यरात्रि का समय आता है, घंटा जोर से बजता है। इसकी गूँज पूरे चौक में फैलती है। भीड़ में लोग एक-दूसरे को “सेबे” करते हुए नववर्ष की शुभकामनाएँ देते हैं। बे का शाब्दिक अर्थ है “गहरी झुक कर सम्मान प्रकट करना”। यह मुख्य रूप से बुजुर्गों या परिवार के वरिष्ठ सदस्यों को नववर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए किया जाता है। बच्चे और युवा, हाथ जोड़कर और पूरी तरह झुककर बुजुर्गों के सामने खड़े होते हैं।  कुछ युवा पारंपरिक नृत्य करते हैं, तो कुछ हाथ में छोटे दीपक लेकर खड़े हैं। वातावरण में उत्सव की खुशबू है, हल्की ठंडी हवा के बीच बच्चे हँसी-खुशी दौड़ते हैं।

एक बार मेरी सहेली पढानेवाली कुलीग मोशा ने मुझे कहा उसके छात्र चुसक के लिए उसके घर निमंत्रित कर रहे हैं… तुम भी मेरे साथ चलो… मैं उसके छात्रों से परिचित थी तो मैं भी उसके साथ जाने के लिए राज़ी हो गयी। चुसक कोरियाई लोगों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है… यहाँ जाने के लिए बहुत पहले से ही अपने अपने गाँव शहर जाने के लिए बुकिंग की जाती है.. वरन् बुकिंग मिलना संभव नहीं होता…. हम कैब से चले गए इसलिए… बुकिंग की दिक्कत नहीं थी…यह त्योहार अक्तुबर महीने में आता है… और लगभग पूरे कोरिया में इस दौरान छुट्टी रहती है…मैं और मोशा हमारे छात्र के साथ उनके गाँव पहुँचे… कहने के लिए यह गाँव है… लेकिन हर सुविधा यहाँ मिलती है..यह त्योहार एक ‘थैंक्सगिविंग’ जैसा त्योहार है। परिवार इकट्ठा होकर पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और ‘सोंगप्योन’ नामक अर्धचंद्राकार चावल के केक खाते हैं। हम एक रात वहीं रुके थे… हमने परिवार वालों के साथ बैठकर सौंगप्योन बनाने में मदद की थी…मुझे दिवाली की याद आयी कि किस तरह हम भारतीय भी दिवाली के पहले रात में जागकर ढेर सारी मिठाई आदि बनाते हैं… कोरियाई लोग बहुत आत्मीय और विनम्र होते हैं…हम उस परिवार के साथ घुल मिल गए.. थोडी थोडी कोरियन और अंग्रेजी को मिलाकर हमारा संवाद चल रहा था… बीच बीच में उनको हिंदी के अभिवादन बता रही थी… नमस्ते, धन्यवाद, आप कैसे हैं? ठीक है.. कोई बात नहीं… अच्छा.. उन्हें बड़ा मज़ा आ रहा था।

दूसरे दिन हम सारे तैयार होकर फल, सोंगप्योन, वाईन, मांस आदि साथ लेकर एक छोटी सी पहाडी पर गए… वहाँ उस परिवार के पूर्वजों की कब्रे थी…तुक क पहले ही दिन घर के पुरषों ने वहाँ जाकर साफ सफाई की थी… हम गए थे तबतक वे कब्रे फूलों से शोभायमान थी…. वहाँ लायी हुई चीजें पूर्वजों के कब्र के सामने रख दी गई…शांति से प्रार्थना की गई… भोग चढ़ाया गया… अगरबत्ती औऱ कैंडल्स जलाए गए….श्रद्धा से सबने एक दूसरे को अभिबादन किया वहीं पर खा पीकर वापस लौटे… यह त्योहार मुझे अपने पितृपक्ष की पूजा जैसा लगा था..

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ दक्षिण कोरिया – स्वाद, स्मृति और संस्कृति ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ संस्मरण ☆ दक्षिण कोरिया – स्वाद, स्मृति और संस्कृति ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

दुनिया के हर कोने में भोजन केवल भूख मिटाने का साधन नहीं होता, वह मनुष्य की स्मृतियों, परंपराओं और संस्कृति की सबसे गहरी परतों को भी जोड़ता है। जब मैं दक्षिण कोरिया पहुँची, तो मेरे भीतर केवल नए देश की उत्सुकता नहीं थी — बल्कि यह जिज्ञासा भी थी कि वहाँ की जीवन शैली कैसी होगी.. वहाँ स्वाद मुझे कैसे लगेगा… मैं अडजस्ट कर पाऊँगी भी या नहीं… पर दक्षिण कोरिया ने मेरे मन में हमेशा  के लिए एक स्थान बना लिया है… एक विशिष्ट स्थान। यह तो सभी जानते हैं कि भोजन किसी भी संस्कृति की आत्मा होता है, और शायद इसीलिए कोरिया के स्वाद ने मुझे वहाँ के समाज, अनुशासन और आत्मीयता से गहराई से परिचित कराया।

मैं जब दक्षिण कोरिया पहुँची थी, तब मेरे मन में वहाँ के भोजन को लेकर एक अजीब-सी जिज्ञासा और थोड़ी झिझक भी थी। क्योंकि कोरिया आने से पूर्व वहाँ के खान पान के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। किसी भी देश की संस्कृति का सबसे जीवंत परिचय उसके भोजन से ही होता है। कोरिया का भी भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक संबंध और आत्मिक अनुशासन का हिस्सा है। मुझे आज भी याद है—सियोल की एक ठंडी सुबह थी, जब मेरे कोरियाई सहकर्मियों ने मुझे पारंपरिक खाने के लिए निमंत्रित किया था। हम कोरियाई रेस्टारेंट में पहूँचे और वहाँ एक छोटे बैठे मेज़ के आस पास हम सब बैठ गए… एक एक कर कई सारे व्यंजन आए.. जिनके नाम तक मैं नहीं जानती थी…सुंदर सिरेमिक के बर्तनों से गरम गरम बाफ वाले व्यंजन जैसे सूप, सुपिया नूडल्स, कितने ही साईड डिश रखी गयी थीं…वैसे मैं कट्टर मांसाहारी नहीं हूँ… अधिकतर तो शाकाहार ही पसंद करती हूँ….मुझे जो खाना था वह मैंने खुशी से खा लिया… उस दिन मैंने देखा था कि कोरियाई अपनी खाद्य संस्कृति को लेकर काफी सतर्क और गंभीर होते हैं।

दक्षिण कोरिया का खान-पान “हंसिक” (Hansik) कहलाता है। यह केवल व्यंजन का नाम नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक पद्धति है। कोरियाई मानते हैं कि “भोजन ही औषधि है”..उनका सिद्धांत यही कहता है कि प्रकृति के पाँच तत्व (लकड़ी, अग्नि, पृथ्वी, धातु और जल) और पाँच स्वाद (मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा और तीखा) के बीच संतुलन से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। जब मैंने पहली बार यह सिद्धांत जाना, तो मुझे भारतीय आयुर्वेद की याद आई जहाँ “सत्त्व, रज और तम” के संतुलन को भोजन से जोड़ा गया है। शायद पूर्वी सभ्यताओं में भोजन के प्रति यह गहरी आस्था ही साझा धरोहर रही होगी।

मेरे पहले कोरियाई भोजन में किम्ची (Kimchi) थी, पत्तागोभी, मूली या अन्य सब्जियों का किण्वित (fermented) रूप देखकर मुझे अचार की याद आई, पर जैसे ही मैंने पहला कौर लिया, तीखापन और खटास का एक ऐसा संगम मिला कि मेरी आँखें नम हो आईं। लेकिन कुछ दिनों बाद मैंने महसूस किया कि किम्ची कोरियाई जीवन की आत्मा है। यह हर घर की शान है, हर मौसम में परोसी जाती हैं। सर्दियों से पहले किमजंग (Kimjang) नामक त्योहार मनाया जाता है, जब पूरा परिवार मिलकर किम्ची तैयार करता है। उसमें मिलती है पारिवारिक निकटता की गरमाहट जैसे भारत में अचार डालते समय घरों में रौनक होती है। किम्ची उनके जीवन में इतनी घुल मिल गयी है कि जब फोटो लिया जाता है तो ‘ओ किम्ची’ कहकर मुस्कुराते हैं.. जैसे हम ‘चीज़…’ कहते हैं। मेरा सौभाग्य था कि हम भारतीय शिक्षकों को एक बार किम्ची तैयार करनेवाले कारखाने की सैर करने का मौका मिला था.. वहाँ बनाने की सारी विधि अत्याधुनिक, साफ सुथरी थी…बनानेवाले लोगों ने सफेद कपड़े पहने थे ओर उनके हाथों में ग्लोवज् थे और फूर्ति से पर शांति से अपना काम कर रहे थे.. हमें देखकर प्रसन्न होकर झुककर “अन्योंग हासियो” कहते…यह कोरियाई अभिवादन है.. जैसे हम नमस्ते कहते हैं।

कोरिया में भोजन अक्सर साझा थालियों में परोसा जाता है। बंचान (Banchan) कहलाने वाले छोटे-छोटे व्यंजन मेज़ पर एक साथ रखे जाते हैं, सबके लिए समान रूप से। जब मैंने पहली बार यह व्यवस्था देखी, तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।  भारत में जहाँ हर व्यक्ति की थाली अलग होती है, वहीं कोरिया में साझा करना आत्मीयता का प्रतीक है। उस क्षण मुझे लगा कि कोरियाई भोजन केवल स्वाद नहीं बाँटता, वह एकता का संदेश भी देता है कि परिवार, मित्र, सहकर्मी सब एक ही मेज़ के हिस्सेदार हैं।

कोरियाई लोग चावल को “भोजन का हृदय” मानते हैं। बाप (Bap) शब्द का अर्थ ही ‘भोजन’ और ‘जीवन’ दोनों होता है। मैंने देखा कि किसी का हाल पूछते समय वे कहते हैं, “क्या तुमने खाना खाया? “बाप मोगोस्योयो?” यह प्रश्न केवल स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि आत्मीयता का भी प्रतीक है। वहाँ के पारंपरिक रेस्तराँ में बिबिम्बाप (Bibimbap) परोसा जाता है, चावल के ऊपर सजी रंग-बिरंगी सब्जियाँ, मांस और लाल मिर्च की चटनी, वह थाली मुझे किसी रंगीन चित्र-फलक जैसी लगी।

द. कोरिया में भोजन का सौंदर्यबोध भी महत्वपूर्ण है। बर्तन, रंग-संयोजन और परोसने की विधि तक में सौंदर्य का अनुशासन झलकता है। वे चॉपस्टीक्स का उपयोग कर जितनी फूर्ती से और तरीके से खाते है.. वह देखते ही बनता है। मैंने देखा कि पारंपरिक रेस्तराँ में व्यंजन इस तरह सजाए जाते हैं कि मेज़ एक कला-कृति ही सजीव हो उठती है। भोजन शुरू करने से पहले “जल मोक्गेस्सुम्नीदा” (Jal meokgesseumnida) कहा जाता है अर्थात् “मैं विनम्रता से भोजन करूँगा या करूंगी।” यह वाक्य उस संस्कृति का दर्पण है, जहाँ भोजन को ‘कृतज्ञता’ से जोड़ा गया है, न कि उपभोग से। जैसे हमारे यहाँ खाने से पूर्व प्रार्थना की जाती है…स्कूल में अथवा किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में.. “वदनी कवळ घेता….अन्न हे पूर्णब्रह्म” मराठी में प्रार्थना की जाती है…।

कोरियाई संस्कृति में अकेले खाने को अच्छा नहीं माना जाता; मिल-बैठकर भोजन करना सामाजिक और आत्मिक संवाद का माध्यम है। इसलिए वे परिवारोंवालों के साथ, मित्रों के साथ मिलकर खाते हैं। वहाँ एक कहावत प्रचलित है “एक कटोरा चावल भी एक रिश्ता है।” यह कहावत कोरियाई जीवन-दर्शन को व्यक्त करती है — अगर किसी के साथ हमने एक कटोरा चावल भी साझा किया है, तो वह भी एक विशेष संबंध है। यह संबंधों की पवित्रता, भोजन के माध्यम से जुड़ाव, और साथ खाने के सांस्कृतिक मूल्य को दर्शाती है।उनके लिए भोजन केवल शरीर का नहीं, आत्मा का पोषण है — एक ऐसा दर्शन जो कहता है, “जैसे तुम खाते हो, वैसे ही तुम जीते हो।” जब मैं हमारे विश्वविद्यालय की अंग्रेजी के प्रोफेसर से बात कर रही थी.. जो लंबे समय से कोरिया में रह रही थी तो उन्होंने मुझे कहा था कि कोरियाई भोजन में होंग-सिओंग-सा’ (संतुलन, सामंजस्य और शुद्धता) की भावना प्रबल है। प्रत्येक थाली — हान-सिक’ — में पाँच रंगों (नीला, लाल, पीला, सफेद और काला) और पाँच स्वादों (मीठा, नमकीन, खट्टा, तीखा और कड़वा) का मेल होता है, जो पंचतत्वों और संतुलित दर्शन सिद्धांत (यिन-यांग सिद्धांत) का प्रतीक है। वैसे भारतीय शाकाहारी भोजन में भी यह संतुलन है।

कोरिया का खान-पान मौसम के अनुसार बदलता रहता है। सर्दियों में सामग्येतांग (Samgyetang) जिनसेंग और चिकन का सूप ऊर्जा देता है। गर्मियों में नैंगम्यन (Naengmyeon) ठंडी नूडल्स, शरीर को संतुलित रखती हैं। वसंत में ताजे फूलों और जड़ी-बूटियों से बने व्यंजन परोसे जाते हैं। यह लय मुझे भारतीय पर्वों की याद दिलाती है, जहाँ होली, मकर संक्रांति, पोंगल या ओणम के अवसर पर मौसम और भोजन का तालमेल देखने को मिलता है।

मुझे याद है एक रविवार के दिन मेरी एक अमेरिकन कुलिग मुझे अपने साथ एक चर्च लेकर गयी थी…वहाँ सुबह की प्रार्थना खतम होने के बाद भोजन का भी प्रबंध किया गया था… हम दोनों भोजन के लिए चली गयीं… वहाँ का वह देसी भोजन मुझे सबसे अच्छा लगा था… एक सुंदर बाऊल में स्टिकी चावल, एक प्लेट में किम्ची, एक प्लेट में सिरके वाले प्याज, गोल गोल काटी हुई मुली और बडे बडे से लहसून… और साथ में एक टोकरी नुमा प्लेट में ठेर सारे हरे हरे पत्ते थे… जो यहाँ के कद्दु के पत्तों की तरह थे… अब मेरी समझ के ये परे था इनका क्या करना है… फिर देखा हमारे साथ बैठे कोरियाई लोग उन हरे पत्तो को एक हाथ में लेते और उसमे एक कौर जितना स्टीकी चावल चॉपस्टीक से  उठाते उस पत्ते में रखते फिर उसमें किम्ची और एक लाल चटनी जिसे हम सिजवान चटणी कहते हैं… लगभग वैसी ही वह चटणी होती है… उस चावल पर रख देते..चावल पर पत्ता अच्छे से लपेटा जाता और फिर वह खाया जाता साथ में सिरके की मुली, लहसून, या  फिर प्याज…. वह इतना अच्छा शाकाहारी भोजन था कि मैं बहुत पसंद कर गयी… आज भी वह सारा दृश्य मेरी स्मृति में ज्यों का त्यों चित्रित है। वह सादा सा भोजने करने में भी कोरयाई लोगों का अनुशासन होता है… नज़ाकत होती है… हडबडी नहीं होती… हाँ.. जब वे चॉपस्टीक से गरम गरम नूडल्स सूडप सूडप कर खाते हैं… तो हम भारतीयों को अजीब ज़रूर लगता है। सियोल के आधुनिक रेस्टोरेंट्स में मैंने देखा कि पुराने स्वाद नए रूप में लौट आए हैं। कई युवा शेफ़ पारंपरिक व्यंजनों को आधुनिक प्रस्तुति में परोस रहे हैं, जैसे किम्ची टाको, गोचुजांग पास्ता या सोया सॉस आइसक्रीम। यहाँ का टोफू मुझे हमेशा पनीर की याद दिलाता था।

एक शाम हमने हान नदी किनारे बैठे हुए सड़क किनारे के ठेलों पर टॉकबोकी (Tteokbokki) खाई..मिर्चीदार चावल केक की वह सादी थाली मुझे किसी उत्सव जैसी लगी। साथ ही वहाँ एक युवा गायक गिटार बजा रहा था, भोजन और संगीत का वह संगम कोरियाई जीवन की आत्मा जैसा था।

कोरियाई भोजन में भावनाएँ बहती हैं। जब मैंने एक छात्रा की माँ के साथ घर पर खाना खाया, तो उसने बड़ी आत्मीयता से मेरे लिए किम्बाप (Kimbap) तैयार किया। किम्बाप यानि समुद्री शैवाल में लिपटा चावल, सब्जियाँ और अंडा — भारतीय रोल या सुशी जैसा। उसने कहा, “इसमें प्यार है, क्योंकि यह घर पर बना है।” मुझे लगा जैसे मुझे मेरी माँ के हाथ की रोटी मिली हो। भोजन का यह भावनात्मक रिश्ता हमें सिखाता है कि स्वाद केवल जीभ से नहीं, दिल से महसूस होता है।

कोरियाई भोजन के दौरान कुछ नियम हैं..वरिष्ठ व्यक्ति पहले खाना शुरू करते हैं, और सब उनका अनुसरण करते हैं। भोजन समाप्त होने पर सभी “जल मोगऑस्सुम्नीदा” कहते हैं, “धन्यवाद, मैंने अच्छा भोजन किया।” मुझे यह शिष्टाचार बहुत भाया, क्योंकि इसमें दूसरों के प्रति सम्मान का भाव है।

एक बार मैं विश्वविद्यालय के रात्रि-भोज में शामिल हुई थी, टेबल पर लगभग दसों प्रकार के व्यंजन थे, पर किसी ने हड़बड़ी नहीं की। हर कोई संयम और सामंजस्य के साथ खा रहा था। भोजन का यह अनुशासन मुझे भारतीय पारिवारिक संस्कारों की तरह ही लगा, जहाँ “सबके साथ खाना” ही सच्चा आनंद है। कोरियाई भोजन मुझे धीरे-धीरे समझ आया। उसमें  सादगी, संतुलन और सम्मान की त्रिवेणी धारा बहती है। हर व्यंजन के पार्श्व में अच्छे स्वास्थ्य का तत्व है और यह तत्व जीवन को सन्तुलन और साझा भावना का प्रतीक है। यह दर्शन शायद इसी कारण विकसित हुआ कि कोरिया सदियों तक प्रकृति के निकट रहा, और कठिन परिस्थितियों में भी सामूहिक जीवन को प्राथमिकता देता रहा।

भारत से आई हुई मैं जहाँ मसालों की विविधता और स्वाद का विस्फोट होता है कोरियाई भोजन की सूक्ष्मता देखकर चकित थी। भारतीय भोजन जहाँ “प्रकट भाव” है, वहीं कोरियाई भोजन “अंतर्यात्रा” जैसा है..धीरे-धीरे खुलने वाला, जैसे एक सुगंध जो समय के साथ गहराती जाती है।  कोरियाई भोजन का स्वाद लेने के लिए स्वाद को विकसित करना होता है… तभी उसका आनंद लिया जा सकता है।

यदि कोरिया के भोजन का दिल घरों और रेस्तराँ में है, तो उसकी आत्मा ग्रामों और गली कूचों में धड़कती है। सर्दियों की ठंडी शामों में जब मैं सियोल में मेट्रों के आसपास घूमती थी, तब स्टेशन के पास या नुक्कड़ से उठती भूने आलू, उबले मक्के और शक्करकंद की खुशबू मुझे अपने बचपन की स्मृतियों में ले जाती थी। सड़क किनारे लगे छोटे ठेले, लाल तंबुओं के नीचे बैठे लोग, और भाप उड़ाते तवे पर पकता भोजन वह दृश्य भारत की ‘खाऊ गली’ से कम नहीं लगता। एक हाथ में गर्म गुनगुना मक्का, दूसरे में हॉट्टोक (मीठी सिरप भरी रोटी) या भुना गोगुमा (शक्करकंद) लिए चलो तो वह स्वाद जैसे सर्दी की रात में किसी पुराने गीत की गर्माहट देता। इन गलियों में चलते हुए मैंने समझा कि भोजन साझा भाषा का माध्यम है जहाँ अनजान लोग भी एक-दूसरे के साथ मुस्कुराकर देखते हैं।

कोरियाई भोजन की दुनिया में शाकाहार और मांसाहार दोनों ही संतुलित रूप से उपस्थित हैं। भारत से आने के कारण मुझे मांसाहारी व्यंजनों को लेकर हिचक थी। कोरियाई लोग बार्बेक्यू शैली में भूना गया पोर्क बड़े चाव से खाते हैं। एक बार जब हम सारे टिचर्स छात्रों के साथ पिकनिक पर गए थे तो देखा की छात्रों ने अंगिठी जलायी और पोर्क का बार्बेक्यू करना शुरु हुआ… छात्र और शिक्षक मिलकर सोजू (कोरियन शराब) के साथ पोर्क का आनंद उठा रहे थे। तब मुझे लगा कि वहाँ मांसाहार का स्वाद वे कितने खुशी से लेते है। लोग मेज़ के चारों ओर बैठकर मांस को स्वयं ग्रिल करते हैं, फिर उसे पेरिला या लेट्ट्यूस के ताजे पत्तों में लपेटकर खाते हैं साथ में थोड़ा स्टीकी राइस (चिपचिपा चावल), किम्ची, और लहसुन-मिर्च की तीखी चटनी।

सर्दियों में सबका प्रिय किम्ची जिजिगे (Kimchi Jjigae),  यानी किम्ची का गरम सूप। कड़ाही में किम्ची, टोफू, हरे प्याज़ और मसाले उबलते हैं जिसकी एक सुगंध फैल जाती है। कोरियाई मित्र कहते थे, “यह सूप आत्मा को गरम कर देता है।” यह सूप केवल पेट नहीं भरता, बल्कि भावनाओं को सहेजता है जैसे भारत में माँ दाल का छौंक लगाकर कहती है, “थोड़ा और ले लो।”

कोरियाई खान-पान की यात्रा तब अधूरी रहती है जब तक मक्गोली (Makgeolli) की बात न की जाए। यह चावल से बनी हल्की, दूधिया रंग की पारंपरिक शराब है, जो प्राचीन काल से किसानों का पेय रही है। यहाँ एक शिष्टाचार है कि अगर कोई बुजुर्ग आपको मक्गोली के लिए पूछता है तो उसे नकारा नहीं जाता उसके सम्मान में उनके सामने ही उसका कम स कम एक घूँट तो पीना ही है। मैंने अक्सर छात्रों को अपने शिक्षक के सामने मक्गोली की घूँट लेते देखा पर वह लेने का तरीका अलग होता वे एक ओर चेहरा कर अपनी हथेली की आड में उसका घूँट लेना  है. मुझे अजीब लगता पर बाद में उनके इस शिष्टाचार का पता चला। जब सब लोग एक मेज़ पर बैठकर भोजन साझा करते हैं तब सूप के प्याले या चावल की मक्गोली की एक घूँट ऐसी सामूहिकता बनती है जो शब्दों से परे है।

दक्षिण कोरिया में भोजन केवल स्वाद नहीं, एक संस्कृति-संवाद है, जहाँ हर निवाला अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ता है। और शायद इसी कारण कोरियाई खाद्य संस्कृति मेरे भीतर एक गहरा भाव उठाती है कि स्वाद, स्मृति और संस्कृति ये तीनों जीवन के सबसे सुंदर रूप हैं, और मैंने उन्हें कोरिया में रहते गहरे तक अनुभूत किए हैं।

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Memoir ☆ दस्तावेज़ # 50 – Pulpgandha’s Invitation ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji Pulpgandha’s Invitation.“)

☆ दस्तावेज़ # 50 – 🍀Pulpgandha’s Invitation🌺 ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

Nearly thirty years ago I had the chance to look closely at a paper mill. The bank posted me to a township that had grown up around what was, at that time, the largest paper mill in Asia. I lived among those people, watched the mill’s life for three years with a careful, intimate eye, and kept close company with its folk.

Eucalyptus and bamboo are turned into pulp. From pulp comes paper. Pulp has a peculiar smell of its own. You may remember the tale of Matsyagandha from the Mahābhārata — a young woman who smelled of fish. This is the story of Pulpgandha. In truth, it is the autobiography of a paper mill. I composed it, in Hindi, while living there.

In those days we used to spend the hot season in Dehradun, and I well remember the celebrated satirist Ravindranath Tyagi reading this piece and saying, “I liked your ‘Pulpgandha’ very much. I regard it as an excellent creation in Hindi literature. If Jagat Singh Bisht can write Pulpgandha, why does he not write more such works?” Here, then, for you, is that composition:

🍀Pulpgandha’s Invitation🌺

My years have begun to show, yet my charm remains in full bloom. Oddly — or perhaps not so oddly — my allure grows rather than wanes. Prosperity, widening and unchecked, has gifted me with assurance and a certain dignity. My love of the chase has fashioned me in the public eye into a woman of comfortable luxury.

In my early youth, the immense promise of my looks drew to me the most capable, the most sturdy and the boldest young men into this dense forest of industry. With my magnetism I ensnared them so completely that even now they remain bound to me. For them I am paramount; later, their married wives come a distant second. At my slight command — even in the dead of night — they will leave everything and come running to me.

The dry sort think I am nothing but a paper-making concern. Poor souls! They do not know how expansive and generous I am. They labour and live like machines; their faces are as machine-like. Until they tell you their name and number themselves you cannot tell one from another.

Such arid contraptions have no business with the lavishness of my fleshy presence. They convince themselves they are ‘technical’ or ‘operations’ — important cogs — and waste their lives away in that delusion. To partake of my pleasures you must be a little ‘commercial’.

Those who have courage and initiative and have come forward to enjoy me know full well that I sit always ready to squander my everything; should a daring thief come along, I welcome him with open arms.

I do not ask whether your name is Tata, Birla, Dalmia, Singhania, Jain, Adani, or Ambani. I am not the sort to hide my wealth and beauty behind seven veils; I want it to go global. I want to be everywhere. For that I am prepared to make any bargain, to surrender myself in every fashion.

I do not care whether he is a babu or a sahib, an inspector or a bureaucrat; I recognise neither petty leader nor minister. I do not trouble to discern the worthy from the unworthy. Whoever is eager to take me, I have no hesitation in becoming his bedfellow.

I know that the more I indulge and play, the more I prosper and blossom. My appetite and my sheen grow ever larger; my mysterious, unfathomable self becomes more seductively enticing.

You may imagine me a lady of great indulgence, harbouring nothing but desires for endless and mysterious expansion. That is half-true. I am, at heart, a simple-hearted beauty — always available for free, open, and uninhibited dalliance.

I make no distinction of class or caste among those who desire me. That contest is yours, not mine. Why should I concern myself?

Often it has happened that those on whom I have lavished everything — my lovers — become my brokers. What’s so strange in that? Protectors have always turned into devourers.

I am not to blame for these perversions. If middlemen prosper while the artisan is exploited, what can I do? I consider it the result of the men’s own prowess.

Only the diligent and the brave enjoy the comforts of the earth. If you crave pleasure and luxury, you must combine labour with a certain sly cunning and a dash of wickedness. As love without fear does not exist, so wealth is not amassed without deceit and guile.

I watch with interest the poor wretches who, silently, from dawn to dusk, through every season, do the hard work for me. They are content enough that the roof gives them shade, that their children grow a little with each day, and that their wives now and then provide bodily comforts.

They never begged me for love; why should I shower my affection on them? I am not so shameless as to surrender myself without solicitation. I, too, have a few vanities; to win me one must sometimes roll out some little coquetries. It is not so easy to have me!

Instead of struggling to possess me, they prefer to trust the red-flag lads who mislead them into thinking that I am a deceiving beast called ‘capital’ and that I exploit the workers. Oh, where is the exploitation? I nurture you. When their bellies are half full they run to the shelter of saintly mendicants who tell them that I am a crafty enchantress who plots many deceptions with her beguiling form.

By their sweet tongues these worthless saints have woven hypocrisy through the ages. I, for my part, am ready to give my all for solid labour and earnest pleading. The nectar, the scent, the rapture you will find in me — where else is it to be sought?

Once this place was all forest — a dense wilderness. They say Lord Rāma once spent his exile here. He ate the fruits and roots and went on his way. My abundant riches kept me here. He is called Maryada Purushottam, the upholder of moral order; I am the exact reverse of such restraint.

Over the years, with the river’s water, countless stories of my love and sin have flowed past. The ignorant folk of neighbouring villages call me a witch and say I poison the holy river. Their fear isn’t without cause. I have laid waste house by house; whole villages have been displaced. I have not been stingy with temptations either. Scores of handsome young men came to me from nearby and slowly lost their vigour; for their villagers they became almost extinct.

I have defeated many a successor of Medha Patkar. With my wealth, influence and the power at my back I ordered as many trees cut down as I wished and exhaled as much poisonous smoke as I desired. Environmentalists brand me a destroyer and accuse me of belching thousands of tonnes of eucalyptus and bamboo every day.

They find the smoke from an Adivasi’s hearth endearing, but the smoke from my chimneys is poison. They do not know that I sustain thousands of families. I have no shortage of those who bless me; innumerable workers inwardly regard me as mother. On them I shower abundant affection and tenderness.

My regard is even for all. I disappoint no one. I welcome everyone with open arms. On one side are the greedy, the quarrelsome contractors, bureaucrats and politicians, all coveting my benevolence; on the other are energetic MBA youths willing to stake everything on me.

You cannot read my age from my skin. I am the same as I have always been. The sheen of Aishwarya and Sushmita fades within a year. They now descend and, like ordinary starlets, try every improbable and possibly unseemly angle to dangle and joggle their most private charms before you; yet the pull is no longer there.

My sheen never dulls; my admirers never turn away.

Still, occasionally I find myself helpless and despairing. I feel there are so many wicked scoundrels about me that I am powerless against them. They have taken me in, bound me; I feel like their maid. It seems I am experiencing the consequence of my own weaknesses and indulgence. My revenge stirs in me. I become restless. Whenever I make my move, I disturb their sleep. Then neither newly arrived beauties nor the timeworn charms soothe them. Double dosages of Valium or Compoz fail to lull them.

I am their kept woman, true — yet in their households I reign alone. I infuse my carelessness, luxury and liberality into their daughters and sit by to watch the spectacle. The shameful scenes of debauchery I have witnessed in those houses — you could hardly imagine them!

I still possess the power to flourish where I will and to ruin where I will. I can set anyone I choose upon a pedestal and kick away anyone I choose. I can put to rights the illusions of those who fancy themselves my protectors and suitors.

You have seen the wreckage of bodies spent by excess. I see the daily game of allotment and I turn away. I see the faces grown white with terror of wealth and power each evening, but I remain silent. What concern are their antics of me? Sort them out yourselves.

Tell me plainly what you want to gain. I prefer to speak openly, not in whispers. I dislike gossip.

Do not pass judgment on me from afar in a misconception. Come close! Closer!

I am not merely that sodden, fetid pulp — bamboo softened by heat and chemicals — that you imagine. Come near, become intimate. Such a delicate scent, such an enticing form, and the sap that pours from me — you will find these nowhere else. You need not be a rishi Parāshar to enjoy it.

From my womb have sprung countless progeny, who by their odious unions have bred innumerable mixed characters — Pandu, Dhritarāshtra, and Vidura by the thousand. Why do you make yourselves slaves to these hybrid descendants?

Rise, come to me! I will gratify you. This is no trivial invitation; this is Pulpgandha’s invitation. Accept it.

Your salvation will not be brought by a pen on my clean white paper, like Vyasa’s scripture. Your fulfilment will come from my muddy, filthy body. I am Ambikā, I am Ambālika, and I am that maid.

I am not the product of some rishi’s perverse fancy. I am reality — stark, dense, cruel reality. You will not win me with mere words. I will make you dance a crooked dance. If you are willing to dance, come. If not today, then tomorrow I will fulfil you.

The decision is yours. I sit with outstretched arms, ever ready.🔶

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

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The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # ४९ – पल्पगंधा का आमंत्रण – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। 

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं।

इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है।

इस श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है… एक रोचक और विचारणीय दस्तावेज – 🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺

☆  दस्तावेज़ # ४९ – 🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

लगभग तीस साल पहले, मुझे एक पेपर मिल को नज़दीक से देखने का मौका मिला। बैंक ने मेरी पोस्टिंग एक ऐसे टाउनशिप में की जो एशिया की सबसे बड़ी पेपर मिल के इर्दगिर्द बसा हुआ था।

मैं उन्हीं लोगों के बीच रहा। तीन साल तक वहां की गतिविधियां ध्यानपूर्वक देखीं और इस बीच वहां के लोगों से घुलमिल गया।

युक्लिप्टस और बांस से पल्प बनाया जाता है। पल्प से पेपर बनता है। पल्प की एक अलग ही गंध होती है।

महाभारत में आपने मत्स्यगंधा की कहानी सुनी होगी।

यह पल्पगंधा की कहानी है।

दरअसल, यह पेपर मिल की आत्मकथा है। मैंने इसकी रचना वहां की टाउनशिप में रहते हुए की थी।

उन दिनों, हम लोग गर्मियों में देहरादून जाते थे। वहां सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी से भेंट अवश्य होती थी।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि यह रचना पढ़कर, उन्होंने कहा था – “तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। इसे मैं हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना मानता हूं। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?”

आपके लिए यह रचना प्रस्तुत है:

🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺

मेरी उम्र अब ढलने लगी है लेकिन मेरा जादू आज भी अपने पूरे उरूज़ पर है। न जाने क्यों मेरा आकर्षण घटने की बजाय दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। निरंतर विस्तार पाती समृद्धि ने मुझे आत्मविश्वास और गरिमा प्रदान की है। आखेट-प्रियता के कारण मेरी छवि एक संपन्न विलासिनी की बन गयी है।

यौवन के प्रारंभिक काल में, मेरे रूप की असीम संभावनाओं ने योग्यतम, सुढृढ़तम और साहसी युवकों को इस घोर अरण्य में मेरी ओर खींचा। मैंने अपनी चुंबकीय शक्ति से उन्हें ऐसा लुभाया कि वे आज तक मुझसे उसी तरह बंधे हुए हैं। उनके लिए सर्वोपरि मैं हूं। उनकी अपनी रूपवती ब्याहता स्त्रियों का सम्मोहन भी बाद में आता है। आधी रात को भी, मेरे एक इशारे पर, उन्हें छोड़कर वे मेरी ओर भागे चले आते हैं।

शुष्क किस्म के लोग मुझे मात्र एक कागज़ निर्माणी मानते हैं। बेचारे! वे नहीं जानते कि मैं कितनी उन्मुक्त और उदार हूँ। वे यंत्र की तरह अपना काम करते हैं और यंत्र की तरह अपना जीवन-यापन करते हैं। उन सबकी शक्लें भी एक-जैसी यंत्रवत लगती हैं। जब तक वे स्वयं अपना नाम और नंबर न बताएं, आप उन्हें नहीं पहचान सकते।

ऐसे शुष्क यंत्रों के नसीब में मेरी भरपूर मांसल देह का जलवा कहाँ ! वे तो स्वयं को ‘टेक्निकल’ और ‘ऑपरेशन्स’ का महत्वपूर्ण पुर्जा मानकर अपना जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं। मेरा सुख पाने के लिए आपको थोड़ा ‘कमर्शियल’ होना पड़ेगा।

जिन्होंने थोड़ा साहस और पहल कर, आगे बढ़कर मुझे भोगा है, वे भलीभांति जानते हैं कि मैं अपना सबकुछ लुटाने के लिए हरदम तैयार बैठी हूँ, कोई हिम्मत वाला लुटेरा आये तो सामने !

मैं नहीं पूछती कि तुम्हारा नाम टाटा है या बिड़ला, डालमिया, सिंघानिया, या जैन, या फिर अडानी या अम्बानी। मैं अपने धन और लावण्य को सात पर्दों में छिपाकर रखने वाली नहीं हूँ, मैं चाहती हूँ उसका ‘ग्लोबल’ विस्तार। मैं सम्पूर्ण विश्व में छा जाना चाहती हूँ। इसके लिए मैं हर तरह के समझौतों और आत्म-समर्पण के लिए प्रस्तुत हूँ।

मैं नहीं देखती कि यह बाबू है या साहब, निरीक्षक है या नौकरशाह, मैं नहीं जानती कि यह छुटभैया नेता है या मंत्री, मैं नहीं समझना चाहती कि यह पात्र है, सुपात्र है अथवा कुपात्र। जो मेरा वरण करने को आतुर है, मैं उसकी अंकशायिनी बनने में कतई कोई संकोच नहीं करती।

मैं जानती हूँ कि जितना मैं खेलती-खाती हूँ, उतना ही फलती-फूलती जाती हूँ। मेरी क्षुधा और चमक निरंतर बढ़ती ही जाती है और मेरा मायावी स्वरुप और अनबूझ, अधिक लुभावना होता जाता है।

शायद आपको लगे कि मैं महाविलासिनी हूँ और अनंत मायावी विस्तार की आकांक्षा-मात्र रखती हूँ। यह अर्ध-सत्य है।  मैं एक शुद्ध-हृदय रमणी हूँ। स्वच्छंद, उन्मुक्त रमण के लिए सबको सदैव उपलब्ध।

मैं पाने और चाहने वालों में वर्ग और वर्ण का भेद नहीं करती। यह संघर्ष तो आपका आपसी है। मुझे इससे क्या लेना-देना !

अक्सर ऐसा हुआ है कि जिन पर मैंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, वे प्रेमी ही मेरे दलाल बन गए। इसमें अनहोनी बात भी क्या है? रक्षक तो सदा से भक्षक होते आए !

इन विकृतियों के लिए दोषी मैं नहीं। बिचौलिये फलें-फूलें और सर्जक शोषित हों, तो मैं क्या करूँ? इसे मैं संबंधित पुरुषों के पुरुषार्थ का परिणाम मानती हूँ।

कर्मठ और वीर ही वसुंधरा में सुख-सुविधा का आनंद पाते हैं। यदि आपको भोग-विलास की कामना है, तो श्रम के साथ चातुर्य और दुष्टता का  भी उचित सम्मिश्रण करना होगा। जैसे भय  बिन प्रीत नहीं होती, वैसे ही छल-कपट बिन धन-दौलत इकठ्ठा नहीं होती।

मैं देखती हूँ उन बेचारों को जो चुपचाप सुबह से शाम तक, हर मौसम में, मेरे लिए कठोर परिश्रम करते हैं। वो इतने में ही संतुष्ट हैं कि उन्हें छत की छाया मिली है, बच्चे पल-बढ़ रहे हैं, और पत्नी यदाकदा शारीरिक सुविधा प्रदान करती है।

उन्होंने कभी मुझसे प्रणय-निवेदन किया ही नहीं, मैं भला क्यों लुटाऊँ उन पर अपना प्यार? मैं इतनी बेहया भी नहीं कि बिना निवेदन के ही समर्पण कर दूँ। थोड़े नखरे मेरे भी हैं, मुझे रिझाने के लिए भी थोड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। इतना आसान नहीं है मुझे पा लेना !

ये मुझे पाने के लिए उद्यम करने की बजाय, लाल झंडे वालों की बातों पर विश्वास करते हैं, जो इन्हें गुमराह करते हैं कि मैं छलिनी ‘पूँजी’ हूँ और कामगारों का शोषण करती हूँ। अरे, मैं शोषण कहाँ करती हूँ, मैं तो तुम्हारा पोषण करती हूँ।

इनका जब थोड़ा-बहुत पेट भर जाता है, तो ये साधु-संतों की शरण में जाने लगते हैं, जो इन्हें समझते हैं कि मैं महाठगिनी माया हूँ और अपने मोहिनी रूप से अनेक प्रपंच रचती हूँ। 

अरे, अपनी मीठी वाणी से इन निकम्मे साधु-संतों ने युगों-युगों से पाखण्ड ही रचा है।  मैं तो थोड़े से श्रम और याचना पर अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर बैठी हूँ। जो रस-गंध-उन्माद मुझमें पाओगे, वो अन्यत्र कहाँ !

पहले यहां वन ही वन था। घनघोर अरण्य। मान्यता है कि राम यहाँ वनवास के लिए आए थे।  वे बेर और कंद-मूल फल खाकर चले गए। मुझे यहां की अपार सम्पदा ने रोक लिया। वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं और मैं हूँ मर्यादा की ठीक विलोम !

कालान्तर में, इस नदी के पानी के साथ मेरे प्रणय और पाप की अनगिनत कहानियां बह चुकी हैं। आसपास के गावों  के नासमझ लोग मुझे जादूगरनी कहते हैं और मानते हैं कि मैं पवित्र नदी में विष घोलती हूँ।

उनका भय निर्मूल भी नहीं है।  मैंने उनके घर के घर उजाड़ दिए। पूरे के पूरे गांव ही विस्थापित हो गए।  मैंने उन्हें प्रलोभन भी कम नहीं दिए। आसपास के असंख्य बांके नौजवान यहां आये और शनैः शनैः निस्तेज होते गए। अपने गाँव के लोगों के लिए तो वे लुप्तप्राय से हो गए।

मैंने मेधा पाटकर जैसों के अनेक वंशजों का विरोध नाकाम किया है। अपने धन-धान्य और रसूख के बूते पर, जितने वृक्ष चाहे कटवाए और जितना विषैला धुआं उगलना चाहा उतना उगला। पर्यावरणविद् मुझे विनाशिनी कहते हैं और प्रतिदिन हजारों टन यूक्लिप्टस और बाँस डकारने का आरोप लगते हैं। 

उन्हें आदिवासियों के चूल्हे से उठता हुआ धुआं तो प्यारा लगता है लेकिन मेरी चिमनियों से उठता धुआं ज़हर लगता है। वे नहीं जानते कि मैं हज़ारों परिवारों का पालन-पोषण करती हूँ। मुझे दुआ देने वालों की कमी नहीं है। अनेकानेक कामगार ऐसे हैं जो मन ही मन मुझे मां-समान मानते हैं। उन पर मैं भरपूर स्नेह और वात्सल्य की वर्षा करती हूँ।

मेरी दृष्टि सबके प्रति एक जैसी है। मैं किसी को मायूस नहीं करती। सबका खुली बाहों से स्वागत करती हूँ।  एक ओर लोभी, घाघ और खूसट ठेकेदार, नौकरशाह और नेता, मेरी नज़र-ए-इनायत के आकांक्षी हैं  दूसरी ओर ऊर्जावान एम बी ए नवयुवक मुझ पर अपना सबकुछ वारने को लालायित हैं।

मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता ! मैं वैसी की वैसी हूँ बरसों से। ऐश्वर्या और सुष्मिता की चमक साल-भर में फीकी पड़ गयी। अब वे भी नीचे उतर कर, सामान्य तारिकाओं की तरह, हर संभव-असंभव कोणों से अपने नितांत निजी और गोपनीय अंगों को लटके-झटके देकर, आपको लुभाने का प्रयास करती हैं लेकिन उनमें अब वो आकर्षण कहाँ रहा !

मेरी चमक कभी घटती नहीं, मेरे चाहने वाले मुझसे कभी विमुख होते नहीं। 

फिर भी, कभी-कभी मैं स्वयं को हताश और असहाय पाती हूँ। मुझे लगता है कि जितने दुष्ट-कमीने मुझे घेरे हुए हैं, उनका मैं कुछ बिगाड़ नहीं सकती, उनके समक्ष मैं विवश हूँ। उन्होंने मुझे काबू में कर रक्खा है, जकड़ लिया है और मैं उनकी दासी-समान हूँ।

लगने लगता है कि मैं अपनी कमजोरियों और विलासिता का अंजाम भुगत रही हूँ। मेरा प्रतिशोध  जाग्रत हो उठता है। मैं बेचैन होने लगती हूँ। जब-जब मेरा दांव लगता है, मैं उनकी नींद हराम कर देती हूँ। तब नई से नई बाला और पुरानी  से पुरानी हाला भी उन्हें सुकून नहीं दे पाती। ‘वेलियम’ और ‘काम्पोज़’ के डबल डोज़ भी उन्हें सुला नहीं पाते।

मैं उनकी रखैल सही, परन्तु उनके घर-परिवारों में मेरा ही एकछत्र राज चलता है। मैं अपनी उन्मुक्तता, विलासिता और स्वच्छंदता, उनकी बहु-बेटियों को अंतरित कर देती हूँ, और किनारे बैठ तमाशा देखती हूँ। अय्याशी के जो शर्मनाक नज़ारे, मैंने इन घरों में, अपनी नज़रों से देखे हैं, उनकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते !

मुझमें आज भी वो ताकत है कि जिसे चाहूँ आबाद कर दूँ और जिसे न चाहूँ उसे बर्बाद कर दूँ। जिसे चाहूँ उसे अपने माथे का मुकुट बना लूँ और जिसे न चाहूँ उसे ठोकर मार दूँ। जिन्हें मेरे खसम और संरक्षक होने का भ्रम है, उनके होश ठिकाने लगाना भी मुझे आता है।

अति-विलास से थकी-टूटी देहों के कबाड़ तुमने देखे होंगे। मैं देखती हूँ हर दिन बंदरबाँट के खेल और मुँह फेर लेती हूँ। मैं देखती हूँ हर शाम धन-बल के भय से आतंकित, सफ़ेद पड़ गए चेहरे लेकिन खामोश रहती हूँ। मुझे इन तमाशों से क्या मतलब? इन्हें तुम सुलझाओ।

तुम जो पाना चाहते हो, मुझे साफ बतलाओ। मैं खुलकर और खोलकर बात करने में यकीन करती हूँ। खुसर-पुसर मुझे पसंद नहीं।

दूर से ही मेरे बारे में निर्णय लेकर ग़लतफहमी में मत पड़ जाना।  मेरे करीब आओ ! और करीब !

मैं सिर्फ युक्लिप्टस और बांस को ताप और रासायनिक पदार्थों से गलाकर बना गंदला, गंधाता पल्प नहीं  हूँ।

मेरे नज़दीक आओ, मेरे अंतरंग बनो। ऐसी भीनी गंध, ऐसा मोहक रूप, और बरसते रस तुम्हें अन्यत्र नहीं मिलेंगे। इसके लिए तुम्हें ऋषि पाराशर होने की आवश्यकता नहीं।

मेरी कोख से न जाने कितने व्यास उत्पन्न हो चुके हैं जिन्होंने घृणित नियोग विधि से असंख्य वर्णसंकर पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर पैदा  कर दिए हैं। तुम इन वर्णसंकरों के दास क्यों बनते हो?

उठो, आओ मेरे पास ! मैं तुम्हें निहाल कर दूंगी। यह मामूली आमंत्रण नहीं है, यह पल्पगंधा का आमंत्रण है ! इसे स्वीकार करो।

तुम्हारा उद्धार मेरे झक्क सफ़ेद कागज़ पर, व्यास की तरह कलम चलने से नहीं होने वाला। तुम्हें तृप्ति मेरी गंदली काया से ही मिलेगी। मैं ही अम्बिका हूँ, मैं ही अम्बालिका, और मैं ही वो दासी ! मैं किसी ऋषि के विकृत मस्तिष्क की फंतासी नहीं हूँ।

मैं यथार्थ हूँ। घोर, घनघोर, क्रूर यथार्थ। मुझे तुम बातों से नहीं जीत पाओगे। मैं तुम्हें टेढ़े नाच नचाऊँगी।

अगर नाचने को तैयार हो, तो आओ। आज नहीं तो कल तुम्हें अवश्य कृतार्थ करुँगी।

निर्णय तुम्हें करना है। मैं तो बाहें फैलाए हरदम तैयार बैठी हूँ !

♦️

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ चाय: कोरिया की आत्मा ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ संस्मरण ☆ चाय: कोरिया की आत्मा ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

कहते हैं चाय सिर्फ पेय नहीं, एक भाव है। भारत में यह भाव कई बार अपनत्व और संवाद का प्रतीक बनता है, वहीं दक्षिण कोरिया में चाय एक अनुष्ठान है a tea ceremony संयम, शांति और सौंदर्य की साधना! कोरिया में रहते हुए मुझे यह अनुभव बहुत गहराई से हुआ कि वहाँ चाय केवल स्वाद का नहीं, बल्कि संस्कृति का, इतिहास का और आत्मसंयम का प्रतीक है।

आजकल इंस्टाग्राम पर चाय प्रेमी तरह-तरह के मज़ेदार रील्स बनाते हैं, कोई कप में झाग उठाता है, कोई कहता है “पहले चाय, फिर बात।” उनकी क्रिएटिविटी देखकर मज़ा आ जाता है। इन रील्स को देखते-सुनते मुझे बड़ा मज़ा भी आता है और अजीब भी लगता है। वैसे, मैं खुद बहुत बड़ी चाय-प्रेमी नहीं हूँ…दिन में दो बार अच्छी चाय मेरे लिए काफी है। पर कभी-कभी दिन में सारे काम निपटाकर करीब बारह बजे हल्की सी चाय मन को भाती है। यह भी मेरे युनीवर्सिटी के कलिग्ज की बदौलत! मुझे याद है, युनीवर्सिटी में मेरे कुछ करीबी कलीग्स जब सुबह का एकाध घंटा खाली मिल जाता तो कहते, “चलो चाय पीकर आते हैं।” कैंटीन के पास की छोटी-सी टपरी पर हम चाय लेते थे। मेरे लिए आधा कप भी बहुत होता था। पर चाय प्रेमियों के लिए चाय अमृततुल्य होती है यह मैंने अपने दोस्तों और छात्रों को देखकर ही जाना था… हाँ.. चाय की अपेक्षा आधी कप नेस कॉफी मैं ज्यादा एंजाय करती हूँ… मुझे याद है… एकबार जब मैं एक अधिकारी से मिलने उनके ऑफिस में गयी थी तो भरी दोपहरी में चाय के लिए पूछा और मैंने मना किया… तो उन्होंने कोल्ड ड्रींक के लिए पूछा.. तो मैंने हाँ कह दिया… मेरे साथ आए कुलिग ने उस ऑफिसर के सामने ही कहा था.. बच्ची है अभी… चाय नहीं पीती… मैं झेंप गयी थी… पर मुझे कहाँ पता था कि किसी दिन इसी चाय की एक नयी परिभाषा जाननी थी। दक्षिण कोरिया जाकर मुझे समझ में आया कि चाय पीना और चाय का रसास्वादन करना दो बिल्कुल अलग बातें हैं।

कोरिया में रहते एक दिन फैकल्टी रूम में क्लास खत्म कर बैठी थी कि चेक रिपब्लिक की एक प्रोफेसर मिशेल ने मुस्कराकर कहा “Would you like to have some tea?” मैंने शिष्टाचारवश मना नहीं किया। कप हाथ में आया तो देखा…गरम पानी में कुछ पत्ते उबाले गए थे, शायद जौ या जड़ी-बूटी की तरह। चाय के नाम पर यह कुछ अलग ही था! पीते भी नहीं बन रही थी, उगलते भी नहीं… ठंड के मौसम में ‘काढ़ा’ समझकर किसी तरह पी गई। धीरे-धीरे समझ में आया कि दक्षिण कोरिया में चाय का अर्थ केवल tea leaves से बना पेय नहीं, बल्कि प्रकृति, संयम और ध्यान का अभ्यास भी है।

वहाँ मैंने देखा कि शहर में जगह जगह पर “टी हाउस” होते हैं, जहाँ केवल कोरियाई चाय ही परोसी जाती है। प्रत्येक टी हाउस अपने तरीके से विशेष होता है…कहीं बाँस की चाय, कहीं कमल की जड़ की, कहीं ग्रीन टी के साथ चावल की सुगंध। चाय का तापमान, कप की बनावट, केतली पकडने में नज़ाकत, चाय डालने की गति…हर चीज़ के अपने नियम हैं, जिन्हें वे Tea Etiquette कहते हैं।

इस विधि में चाय परोसने, कप पकडने, पीने और कप रखने तक का हर चरण एक नाट्याभिनय-सा लगता है। वहाँ बैठने का ढंग, हाथों की गति, कप का उठाना और रख देना…सबका एक निश्चित सौंदर्यशास्त्र है। चाय परोसने वाला व्यक्ति पारंपरिक हनबोक में सुसज्जित होता है…उसके वस्त्रों की कोमल तहें और संयत मुद्राएँ वातावरण को गरिमा से भर देती हैं। जब वह केतली उठाता है, तो उसकी हर हलचल में एक सधा हुआ भाव झलकता है…न तेज़, न धीमी, बस संतुलित, जैसे किसी संगीत की लय! उस क्षण में न कोई कोलाहल होता है, न बातचीत…केवल केतली से गिरती गर्म चाय की महीन ध्वनि, जो जैसे कहती हो…“शांति भी स्वाद होती है।”

एक बार हमारे फैकल्टी के वरिष्ठ प्रोफेसर ली जंग-हो ने भारत से पधारे कवि दिविक रमेश जी के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया था। वहाँ भोजन तो उत्तम था ही, पर जिसने सबका मन मोह लिया, वह था…चाय परोसने का अंदाज़! चाय परोसने वाला युवक पारंपरिक पोशाक में था। एक लंबी, नलिका-सी सुराही जैसी केतली से वह कपों में चाय डाल रहा था। वह हल्का सा झुकता, एक हाथ पीठे पीछे सधे हुए अंदाज़ में रखता, दूसरे हाथ में सुराही धीरे-धीरे आगे बढ़ाता। उसके चेहरे पर एक गंभीर शालीनता थी…जैसे वह कह रहा हो कि “चाय केवल परोसी नहीं जाती, प्रस्तुत की जाती है।” चाय परोसने की उसकी वह कला देखनेलायक थी। ऐसा तो होता नहीं कि हमने वह क्षण अपने कैमरे में कैद न किया हो। वह क्षण मानो किसी सांस्कृतिक नाट्याभिनय का जीवंत दृश्य बन गया था।

कोरिया में चाय का इतिहास पाँचवीं शताब्दी तक जाता है। बौद्ध भिक्षुओं ने चाय को केवल पेय नहीं, बल्कि ध्यान का माध्यम भी बनाया है। धीरे-धीरे यह परंपरा राजघरानों से लेकर आम जन तक पहुँची। चाय वहाँ ‘कन्फ्यूशियस नैतिकता’ का प्रतीक है…संयम, आदर और सादगी का। कोरियाई भाषा में ‘चा’ शब्द में वही गरिमा है जो शायद भारत में ‘प्रसाद’ शब्द में है.. जो आत्मीय भाव के साथ दी जाती है।

मई 2007 की बात है। कोरियाई कवयित्री और भारत-प्रेमी किम हैंग- शिक ने मुझे और कुछ भारतीयों को दक्षिण कोरिया के जेजू द्वीप पर आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया। जेजू.. कोरिया का वह द्वीप है जहाँ नीला सागर, हरे पहाड़ और हवा में घुली चाय की सौंधी महक, सब मिलकर किसी कविता का रूप ले लेते हैं। जेजु द्वीप Wind, Women और Rocks के लिए प्रसिद्ध है। जेजु द्वीप समुद्र के बीच स्थित होने के कारण तेज़ और निरंतर समुद्री हवाओं के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लगभग पूरे साल ठंडी और साफ़ हवा चलती रहती है। जेजु द्वीप की एक अनोखी परंपरा है Haenyeo” (हैन्यो) अर्थात् समुद्री महिलाएँ। ये महिलाएँ बिना किसी उपकरण के गहरे समुद्र में गोता लगाकर सीप, शंख, ऑक्टोपस जैसी समुद्री चीज़ें निकालती हैं। वे दक्षिण कोरिया की साहसी, स्वावलंबी और श्रमशील स्त्रियों का प्रतीक मानी जाती हैं। जेजु एक ज्वालामुखीय द्वीप है। इसलिए यहाँ हर जगह काले लावा पत्थर (basalt rocks) दिखाई देते हैं। इन्हीं पत्थरों से पारंपरिक Dol Hareubang (पत्थर के दादाजी) मूर्तियाँ बनती हैं, जिन्हें सुरक्षा और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। लेकिन आधुनिक प्रचार और वाइन उद्योग के प्रभाव से कभी-कभी लोग जेजु की पहचान Three W“Wind, Women, and Wine” से भी करने लगे हैं।

उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में हमने ..हमारा एक छोटा सा स्टॉल लगाया… स्टॉल क सामने रंगोली बनायी…..बाक़ायदा भारतीय चाय बनाई…अदरक, इलायची और दूध के साथ। कोरियाई लोगों ने पहले झिझक से चखा, फिर मानो रस की दुनिया में उतर गए। बार-…बार कहते…More! More Indian Tea!” वे बार-बार कप बढ़ाकर कहते,माशीसोयो! (स्वादिष्ट है)। हम हँसते रहे…क्योंकि एक कप से शुरू हुई बात चार कप तक जा पहुँची। चाय के ज़रिए वहाँ भारत और कोरिया जैसे दो दिलों के बीच पुल बन गया।

एक बार मेरे घर एक कोरियाई सज्जन आए। मैंने ससम्मान कहा—“आप चाय लीजिएगा।” उन्होंने आनंद से पी, फिर थोड़ी देर बाद बोले Can I have one more?” मैंने मुस्कराकर फिर बना दी। कुछ देर में तीसरी बार मांग ली। तब मैंने हँसते हुए कहा—“भारतीय चाय इतनी बार नहीं पी जाती। कोरिया में लोग अपनी चाय बात करते करते दसों बार पी जाते हैं, पर भारतीय चाय…” उन्होंने कहा—Yes, Indian tea has soul.” उस दिन लगा, शायद हमारी चाय में सिर्फ दूध और पत्ती नहीं, अपनापन भी उबलता है।

दक्षिण कोरिया का बोसेओंग (Boseong) प्रांत अपने ग्रीन टी (हरी चाय) की खेती और प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ हर साल Boseong Green Tea Festival” बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह कोरिया का सबसे प्रसिद्ध चाय उत्सव (Tea Festival) है। सामान्यतः हर साल मई के अंतिम सप्ताह से जून के आरंभ तक यह उत्सव मनाया जाता है जब चाय की पत्तियाँ ताज़ी होती हैं और मौसम सुहावना होता है। लोग खुद चाय की कोमल पत्तियाँ तोड़ने का अनुभव करते हैं…पारंपरिक तरीके से पत्तियों को भूनना, मसलना और सुखाना सीखते हैं। इससे उन्हें कोरियाई चाय की सुगंध और प्रक्रिया का अनुभव मिलता है। यहाँ चाय के अलावा ग्रीन टी से बने आइसक्रीम, साबुन, मिठाई, और कॉस्मेटिक उत्पाद भी लोकप्रिय हैं।

कोरियाई लोग भेंट स्वरूप अच्छी से अच्छी और मंहगी चाय के पैकटे देते हैं हैं। कहते हैं कि कोरियाई चाय को चीनी दरबार में भेंट के रूप में भेजा जाता था, जो इसके उच्च मूल्य और महत्व का प्रतीक था। इस प्रथा ने न केवल कोरियाई चाय की गुणवत्ता और विशिष्टता को दर्शाया, बल्कि कोरिया और चीन के बीच राजनयिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी मजबूत किया।

मुझे याद है, कुछ कोरियाई युवा वर्ग..जो मेरे विद्यार्थी नहीं थे पर हिंदी सीखना चाहते थे..रविवार को हम साथ बैठते थे…कभी किसी पारंपरिक रेस्टोरेंट में, तो कभी Starbucks में। वे सब अपने साथ कोरियाई मोकचा (ग्रीन टी) लेकर आते। क्लास शुरू होती, और वे चाय की घूँटों के बीच शब्दों का अभ्यास करते। वे कप को दोनों हाथों से पकड़ते, आँखों में हल्की चमक, और एक शांत ध्यान की मुद्रा। पहले मुझे यह अजीब लगा.. “इतनी गंभीरता से चाय?” पर धीरे-धीरे इसकी लय भी मन में बस गई। चाय का हर घूँट वहाँ किसी संवाद का हिस्सा था, जैसे वे कह रहे हों,“हर शब्द के साथ एक स्वाद भी होता है।”

कोरिया में चाय के कई प्रकार हैं, मोग्वा-चा (क्विंस चाय), योंग्जो-चा (जौ की चाय), ओमिजा-चा (पाँच स्वादों वाली चाय), संगह्वा-चा (औषधीय चाय)। हर चाय का अपना मौसम, अपना अवसर और अपना अर्थ होता है। उदाहरण के लिए, ओमिजा-चा में मिठास, खट्टापन, कड़वाहट, तीखापन और नमकीनपन..पाँचों रस होते हैं; कहते हैं, यह जीवन के पाँच भावों की प्रतीक है। इसलिए वहाँ चाय केवल स्वाद नहीं, जीवन-दर्शन है।

कई बार लगता है कि चाय के एक कप में दो संस्कृतियों की आत्माएँ मिल जाती हैं। भारत की चाय जहाँ अपनत्व और गर्मजोशी से भरी है, वहीं कोरियाई चाय संयम और मौन की भाषा है। पर दोनों का सार एक ही है…मनुष्य को जोड़ना, संवाद बनाना। शायद इसलिए, जब कोरियाई मित्र कहते थे, Let’s have tea” तो वह आमंत्रण केवल पेय के लिए नहीं, एक सच्चे संवाद के लिए होता था।

आज जब मैं इंस्टाग्राम पर चाय की रील्स देखती हूँ..लोग कप उठाते हैं, बातें करते हैं, मुस्कराते हैं, तो लगता है, दुनिया चाहे जितनी बदल जाए, चाय की आत्मा वही है। वह किसी देश, भाषा या संस्कृति की सीमाओं में नहीं बँधती। वह हर उस क्षण में उपस्थित है, जब कोई व्यक्ति दूसरे से कहता है.. “थोड़ी चाय हो जाए?” तो वह मात्र चाय नहीं है.. वह एक सुसंवाद का माध्यम है। मित्रता का कंफर्ट झोन!!

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ कोरिया के पहाड़ — जीवन का उत्सव ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ संस्मरण ☆ कोरिया के पहाड़ — जीवन का उत्सव ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

 प्रिय…

कभी-कभी जीवन में कुछ अनुभव ऐसे आते हैं, जो हमारी आत्मा में स्थायी रूप से बस जाते हैं। दक्षिण कोरिया में बिताए मेरे वे दिन आज भी मेरे भीतर किसी शांत संगीत की तरह गूँजते हैं — खासकर वे रविवार, जब पूरा देश मानो पहाड़ों की गोद में समा जाता था।

दक्षिण कोरिया में पहाड़ों पर सैर के लिए जाना एक अत्यंत सामान्य, बल्कि कहें तो जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। यहाँ हर व्यक्ति — चाहे वह बुज़ुर्ग हो या बालक — अपने पीठ पर सैक टाँगे छुट्टी के दिन पहाड़ों की ओर निकल पड़ता है। जब मैं वहाँ अध्यापन करती थी, तो अक्सर अपने विद्यार्थियों को गृहकार्य देती “रविवार के दिन आपने क्या किया, इस पर दस पंक्तियाँ लिखिए।”

अगले दिन जब उनकी कॉपियाँ देखती, तो कम से कम पाँच विद्यार्थी “मैं अपनी माँ के साथ पहाड़ पर गया या गयी थी।” यह बात अवश्य लिखते। मुझे यह बहुत अजीब लगता, आखिर यह “पहाड़ पर जाना” क्या होता है? यही जिज्ञासा एक दिन मुझे भी पहाड़ की ओर ले गई।

कोरिया के इन पर्वतों की चढ़ाई केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभव भी है। अधिकतर पहाड़ों की चोटी पर एक छोटा-सा बुद्ध विहार होता है, जहाँ पहुँचकर लोग प्रार्थना करते हैं, ध्यान लगाते हैं और फिर हँसते-खेलते नीचे लौट आते हैं। रास्ते भर प्रकृति का अनुपम सौंदर्य साथ चलता है — शीतल हवा, पथरीली ढलानों के बीच झरनों की नीरव सरगम, और हरियाली की अनगिनत छायाएँ। कोरियाई लोग इन झरनों के स्वच्छ जल को बोतलों में भरकर घर ले जाते हैं, मानो किसी पवित्र आशीर्वाद को साथ ले जा रहे हों। यहाँ के लोग प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं। वैसे, कोरियाई भाषा में ‘पहाड़’ को ‘सान’ कहा जाता है — और सच में, वहाँ का हर ‘सान’ मनुष्य और प्रकृति के मधुर संबंध का सजीव प्रतीक है।  कुछ नाम याद हैं, जैसे सोरोक्सान, तैबैक्सान, नामसान, दोबांग्सान।

नवंबर का महीना था — कोरिया में यह माह अपने पूरे रंग में था। पेड़ों पर हल्की-सी नर्मी, हवा में फूलों की गंध, और आसमान में नीली शांति पसरी थी। नए देश में, नई संस्कृति के बीच, मैं हर दिन कुछ न कुछ नया देख रही थी। इस समय कोरिया रंगबिरंगी पत्तों से भर जाता है। मानो पूरी धरती रंगों की प्रदर्शनी में बदल गई हो। इस समय बाकायदा सूचित किया जाता है कि किन पर्वों और उद्यानों में जाने से आप रंग बदलते पत्तों का दृश्य देख सकते हैं। कोरिया के सभी लोग इन दृश्यों का आनंद लेने के लिए पहुँच जाते हैं। इस समय पेड़ों के पत्ते अपने जीवन का अंतिम, सबसे सुंदर रूप धारण करते हैं। हर पत्ता जैसे जाने से पहले एक आख़िरी गीत गाना चाहता हो। क्यों कि इसके बाद पतझड शुरु होता है।

मेपल (Maple) के पत्ते गाढ़े लाल, सुर्ख़, और कहीं-कहीं बैंगनी रंग में रंग जाते हैं। वे हवा में झूमते हुए अंगारों जैसे लगते हैं — हल्की हवा चले तो लगता है कि लाल चिंगारियाँ उड़ी जा रही हों। गिन्को (Ginkgo) के पत्ते पीले से सुनहरे होते हैं। जब वे झरते हैं तो धरती पर पीले रेशम-सा कालीन बिछ जाता है। धूप पड़ने पर ये पत्ते झिलमिलाते हैं और रास्ते सोने की परत से ढके प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है मानो प्रकृति खुद अपनी विदाई के लिए एक उत्सव मना रही हो, और हर पेड़, हर पत्ता, उस अंतिम क्षण तक अपना सम्पूर्ण सौंदर्य बिखेर देना चाहता हो। कोरिया में प्रकृति के इस दृश्य का सभी आनंद उठाते हैं। इसलिए तो प्रो. किम ने मुझे इसी दौरान सान के लिए निमंत्रण दिया था।

एक रविवार को प्रोफेसर किम, मुस्कुराते हुए बोलीं, “आप भी हमारे साथ चलिए — सान पर।” “सान?” मैंने पूछा। वह हँसीं — “सान मतलब पर्वत। कोरियाई लोग उसे ऐसे ही पुकारते हैं।” और इस तरह मेरे जीवन का पहला कोरियाई सान मेरे सामने था। पर जिस दिन मैंने पहाड़ की ओर कदम बढ़ाए, उस दिन मैंने कोरिया की इस संस्कृति को शिद्दत से महसूस किया।

सुबह-सुबह हम निकले। मेट्रो से थोड़ी दूरी तक, फिर पैदल। शहर धीरे-धीरे पीछे छूटता गया और हवा में हरियाली घुलने लगी। रास्ते के दोनों ओर छोटे-छोटे जंगली फूल थे, और लोगों के चेहरों पर सहज उल्लास। कोई परिवार संग आया था, कोई अकेला — पर सभी में एक अद्भुत ऊर्जा थी, मानो हर कोई किसी पवित्र तीर्थ की ओर बढ़ रहा हो।

पहाड़ ऊँचा था। चढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ — यह यात्रा केवल पैरों की तो है ही है, पर मन की भी परीक्षा है। प्रोफेसर किम सहज गति से ऊपर जा रही थीं, और मैं धीरे-धीरे पीछे रह जाती। आधे रास्ते तक पहुँचते-पहुँचते साँस फूलने लगी। वहाँ एक जगह बैठकर मैंने नीचे झाँका — शहर अब किसी चित्र की तरह दिखाई दे रहा था। दूर-दूर तक फैलती पहाड़ियों की श्रृंखलाएँ, उनके बीच से बहती धूप, और कहीं-कहीं झरनों की रजत रेखाएँ — मानो प्रकृति अपनी शांत लिपि में प्रार्थना लिख रही हो। मैंने वहीं रुकने का निश्चय किया। किम आगे बढ़ गईं, और मैं वहीं बैठी रही — पेड़ों के बीच, हवा के संगीत में, अपने भीतर कुछ सुनती हुई। शायद यही पहाड़ का जादू था  वह हमें भीतर की शांति से मिला देता है। फिर साहस बटोरकर एक एक सीढ़ि चढती आखरी मुकाम पर पहँच ही गयी… वहाँ हर पहाड़ की चोटी पर एक बुद्ध विहार होता है। इन बुद्ध मंदिर को कोरियाई भाषा में ‘सा’ कहा जाता है। जैसे ‘मोगोक्सा’, ‘जोग्योक्सा’, ‘बुलुग्सा’। कोरियाई लोककथाओं और शमन धर्म (Shamanism) में पर्वतों को देवता का निवास माना जाता है। कई पर्वतों पर “सानशिन” नामक पर्वत देवता की पूजा होती है।

पर्वतारोहण यहाँ केवल व्यायाम नहीं, बल्कि ध्यान, संवाद और आत्मानुभूति का माध्यम है।  वहाँ पहुँचकर लोग कुछ क्षण मौन रहते हैं, घंटियाँ बजती हैं, और हवा में शांति की तरंगें फैल जाती हैं। रास्ते में लकड़ी के छोटे विश्रामगृह हैं, जहाँ बैठकर चाय पीते हुए कोई भी पर्वत की गहरी साँसों को महसूस कर सकता है। फिर धीरे-धीरे वे नीचे उतरते हैं — हँसते, बातें करते, जीवन से भरे हुए। मानो उन्होंने ऊपर से कुछ पाया हो — कोई अदृश्य संतुलन, कोई नई ऊर्जा। ऊपर जाने के बाद देखा एक बहुत बड़ी पहाडी चट्टान में बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा खोदी गयी थी… लोग बाग उसके सामने श्रद्धा से, विनित होकर झुक रहे थे। वहाँ सिवा उस प्रतिमा के और कुछ था नहीं…. पर प्रकृति के मध्य वह प्रतिमा अपनी सादगी में भी खूबसुरत लग रही थी। काफी सारे फोटों खींचने के बाद हम धीरे धीरे उतर कर आए… उसका प्रभाव आज तक है।

उसके बाद मैं मोशा के साथ नाम्सान पहाड पर गयी थीं। यह पहाड सियोल के मध्य स्थित है.. और सबके दिल के करीब है। इसे “सियोल का रक्षक पर्वत” माना जाता था। इस पर्वत में टॉवर के पास की रेलिंगों पर हज़ारों रंग-बिरंगे “लव लॉक्स” लटके हैं — प्रेमी युगल यहाँ अपने नाम के ताले लगाकर प्रेम की अनंतता की कामना करते हैं।

मुझे लगा — यही तो जीवन का सार है। पहाड़ हमें सिखाते हैं कि ऊँचाई पर पहुँचने से अधिक महत्त्वपूर्ण है चढ़ाई का अनुभव — हर साँस, हर पसीने की बूँद में विकास की कहानी छिपी होती है। 

कोरियाई समाज में पहाड़ केवल भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि आत्मिक जीवन का अंग हैं। वे हर पर्वत को एक जीवित अस्तित्व की तरह देखते हैं — जिसके पास देने के लिए कुछ है। यह भावना मुझे गहराई से छू गई। हम भारतीय भी तो अपने पर्वतों को देवता के रूप में पूजते हैं — हिमालय, गिरनार, अरावली — हर एक में एक कथा, एक आत्मा है। शायद इसी से मैं उन कोरियाई लोगों से एक अदृश्य सांस्कृतिक डोर से जुड़ गई थी।

उस दिन जब मैं नीचे लौटी, मेरे कदम थके थे, पर मन हल्का था। मैंने महसूस किया कि कोरिया के पहाड़ केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी नया आकार देते हैं। वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, न कोई दिखावा — बस शांति, सहजता और प्रकृति से संवाद। मैंने अपने छात्रों की बात तब समझी — वो “पहाड़ पर जाना” दरअसल एक साधना थी, एक सैर नहीं। एक ऐसा अवसर जिसमें मनुष्य खुद से मिलने निकल पड़ता है। 

कोरिया में जीवन अनुशासित है, पर उसमें प्रकृति की सादगी भी बसी है। लोग अपने हर रविवार को पहाड़ों की गोद में बिताते हैं, जैसे कोई वादा निभा रहे हों — धरती से, हवा से, और अपने भीतर से। उनके लिए यह सैर नहीं, एक प्रार्थना है।

जब मैं भारत लौटी, तो अक्सर रविवार की सुबह कोरिया के उन पहाड़ों की याद आती — सीढ़ियों वाले रास्ते, झरनों का जल, और उस हवा का स्पर्श जो मन के भीतर तक उतर जाती थी। मुझे अब समझ में आता है — हर संस्कृति का अपना पर्वत होता है, जहाँ पहुँचकर मनुष्य अपने छोटेपन को महसूस करता है और उसी में उसकी महानता जन्म लेती है।

आज इतने वर्षों बाद भी, जब कभी जीवन की चढ़ाई कठिन लगती है, मैं मन ही मन उस कोरियाई पहाड़ को याद कर लेती हूँ। उसके सीढ़ीदार पथ, उसकी शीतल हवा, और वह मौन क्षण — जब मैंने स्वयं से कहा था —“आधी चढ़ाई भी पूरी यात्रा है, यदि दिल ने उसे जी लिया हो।”

तुम्हारी….

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५८ – “शिक्षा जगत के एक प्रेरक व्यक्तित्व –  स्व. रामचन्द्र जी तिवारी” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “शिक्षा जगत के एक प्रेरक व्यक्तित्व –  स्व. रामचन्द्र जी तिवारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. रामचन्द्र जी तिवारी

☆ कहाँ गए वे लोग # ५७  ☆

☆ “शिक्षा जगत के एक प्रेरक व्यक्तित्व –  स्व. रामचन्द्र जी तिवारी” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

आगे बढ़ते चलो, सफलता पीछे आयेगी,

कर्म करो वह आकर तुम्हें स्वयं रिझायेगी।

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि श्री श्रीकृष्ण सरल की उपरोक्त काव्य पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध करने वाले संस्कारधानी के  प्रतिष्ठित शिक्षाविद श्रद्धेय स्व. श्री रामचन्द्र जी तिवारी के प्रेरक व्यक्तित्व के विषय में आज जब मैं अपने शब्दों के माध्यम से श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा हूं तो मेरे मानस पटल पर तिवारी जी की शिक्षकीय कार्यकाल की वे सारी स्मृतियां जीवंत हो उठी हैं जो मेरे स्मृति कोष में एक अमूल्य धरोहर बन गई हैं। और बात शिक्षकीय जीवन की हो या फिर हमारे पारिवारिक जीवन की, आदरणीय तिवारी जी इस सुदीर्घ यात्रा में वे हमेशा मेरा संबल बने रहे।

केसरवानी कालेज जबलपुर में बी.एड. के अध्ययन काल में वे मेरे गुरु थे और पारिवारिक संबंधों के अंतर्गत मैं उन्हें चाचा जी कहकर संबोधित करता और अपने को गौरवान्वित महसूस करता। इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में मुझे हमेशा संरक्षक, दिशा दर्शक और मार्गदर्शक के रुप में अपने सिर पर उनका वरदहस्त होने का अहसास होता रहा। कालेज के छात्रों के साथ भी उनके संबंध अत्यंत आत्मीय हुआ करते। कक्षा में अगर वे छात्रों के लिए गुरु की भूमिका में होते तो कक्षा के बाहर अभिभावक के रुप में अपने दायित्वों का निर्वाह भी करते। वे अपने छात्रों के बीच एक लोकप्रिय शिक्षक के रुप में प्रतिष्ठित थे। वे अपने छात्रों को सदा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते। उन्होंने न तो  कभी अपने छात्रों को रुकने दिया और नहीं  थकने दिया।

मेरा नज़रिया है कि वे व्यक्ति अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें विरासत में उन्हीं शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन करने का अवसर मिलता है जहां पर कि उनके अभिभावकों ने शिक्षा अर्जित की होती है। श्री रामचन्द्र जी तिवारी के यशस्वी सुपुत्रों को ये सौभाग्य मिला था कि उन्होंने जबलपुर की  उस गौरवशाली शैक्षणिक संस्था माडल हाई स्कूल जबलपुर में अध्ययन किया जहां पर कि उनके पूज्य पिता ने भी अपनी शालेय शिक्षा पूर्ण की थी। माडल हाई स्कूल में उस समय प्रवेश पाना और पढ़ाई करना अत्यंत सम्मान की बात होती थी।

श्री रामचन्द्र जी तिवारी ने अपनी शालेय शिक्षा माडल हाई स्कूल से प्राप्त करने के बाद महाविद्यालयीन शिक्षा अपने समय के प्रतिष्ठित काले रार्बटसन से पूर्ण की। उन्होंने आर्थिक उपार्जन का माध्यम भी शिक्षकीय क्षेत्र को ही चुना और जबलपुर की एक.पी.नर्मदा हायर सेकेण्डरी स्कूल में सफलता पूर्वक एक अध्यापक के दायित्वों का निर्वाह किया। इसी दौरान तिवारी जी ने जबलपुर के कृषि महाविद्यालय में भी  सक्रियता पूर्वक अपनी सेवाएं दीं और बाद में केसरवानी महाविद्यालय में  प्रतिष्ठा पूर्वक शिक्षण कार्य किया और केसरवानी महाविद्यालय से ही सेवा निवृत्त भी हुए। यह उल्लेखनीय है कि तिवारी जी शैक्षणिक क्षेत्र के लिए इतने समर्पित थे कि उन्होंने आमगांव में एक हाई स्कूल की भी स्थापना की थी और बाद में यह स्कूल राज्य शासन को समर्पित कर दिया गया।

एक शिक्षक के रुप में श्री तिवारी जी का यह भी सोचना था कि छात्रों के मानसिक, बौद्धिक और शैक्षणिक विकास के साथ ही उनका शारीरिक विकास होना भी आवश्यक है  और इसी सोच के अनुसार खेलकूद की गतिविधियों के अंतर्गत उनके मार्गदर्शन  में  JELCO की प्रतियोगिता की शुरुआत की गई। ये प्रतियोगिता JEAA जैसी थी। स्मरणीय है कि अपने अध्यापन काल के दौरान श्री रामचन्द्र जी तिवारी ने हिन्दी व्याकरण और इतिहास की भी पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया जो कि पाठ्य पुस्तक के रुप में शैक्षणिक जगत में छात्रों के लिए अत्यंत उपयोगी और ज्ञानवर्धक सिद्ध हुई। श्री तिवारी जी की साहित्यिक गतिविधियों में भी सक्रिय भागीदारी थी। एक साहित्य साधक के रूप में विभिन्न शैक्षणिक और साहित्यिक संस्थाओं के साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों में भी उनका मार्गदर्शन और योगदान महत्वपूर्ण माना जाता था। शिक्षा जगत के लिए समर्पित और सक्रिय श्री रामचन्द्र जी तिवारी का जन्म दिनांक 25 जून 1923 को और स्वर्गवास दिनांक 18अक्टूबर 1923 को हुआ। समाज में ऐसे कम लोग ही होते हैं जो उद्देश्य पूर्ण जीवन का निर्वाह करते हुए सार्थक और सफल जीवन का एक ऐसा उदाहरण बन जाते हैं जिनसे हम आजीवन प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं और श्रद्धेय श्री रामचन्द्र जी तिवारी ऐसे ही कीर्ति पुरुष थे जिनके लिए किसी कवि की ये पंक्तियां पूरी तरह चरितार्थ होती हैं -+

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आदमी के, प्यार के, संघर्ष के जो गीत गाए,

जियेंगी सदियां उन्हें दिन रात छाती से ‌लगाए।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

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आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४८ – “गीतों के राजकुमार मणि “मुकुल”- स्व. मणिराम सिंह ठाकुर “मणि मुकुल”  ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४९ – “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५० – “मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५१ – “चर्चित कथाकार एवं मेरे श्रद्धेय अग्रज –  स्व. श्री हर्षवर्धन जी पाठक” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५२ – “सुप्रसिद्ध साहित्यकार और शिक्षाविद – स्व. श्री इन्द्र बहादुर खरे और उनका सृजन” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५३ – “प्रखर पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी – स्व. पं. कुंजबिहारी जी पाठक” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५४ – “माडल हाई स्कूल के पूज्य शिक्षक स्मृति शेष रमेश कुमार पांडेय जी” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५४ – “माडल हाई स्कूल के पूज्य शिक्षक स्मृति शेष रमेश कुमार पांडेय जी” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५५ – “बहुमुखी प्रतिभा के धनी – स्व. प्रोफेसर एन. बी.गोस्वामी” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ कहाँ गए वे लोग # ५६ – सरस्वती पुत्र स्व प्रोफ़ेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५७ – “बुंदेली के विद्वान स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # २७ – संस्मरण ☆ पश्चिम उत्तर प्रदेश का आध्यात्मिक वैभवस्थल शुकतीर्थ (शुक्र ताल) ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # २७ ☆

संस्मरण ☆ ~ पश्चिम उत्तर प्रदेश का आध्यात्मिक वैभवस्थल शुकतीर्थ (शुक्र ताल) ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

समृद्ध पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जनपद मुजफ्फरनगर, गन्ने की चीनी मिले एवं दूर दूर तक फैले गन्ने की फसलों के बीच मेरा वाहन  आगे बढ़ रहा था। एक भ्रमण कार्यक्रम के सिलसिले में मेरा इस जनपद में आना हुआ। आर्थिक रूप से समृद्ध इस जनपद की साहित्यिक समृद्धि के विषय में जानने की उत्कंठा को मुजफ्फरनगर के प्रख्यात साहित्यकार एवं चिकित्सक डॉ. बी.के. पाण्डेय जी ने एवं डॉ. राकेश कौशिक ने पूर्ण किया।

जब से मैं यहां आया मेरी खोजी नजर इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि को ढूंढ रही थी। मुझसे मेरे बड़े भाई श्री उमेश दत्त शर्मा जी से इस विषय बात हुई और होती भी क्यों नहीं, जब मैं उनके गृह जनपद के भ्रमण पर था।

भोपा, अथाई, सब कुछ मेरे जेहन में था। यात्रा का अंतिम पड़ाव पार करने के उपरांत समय की सुई सांय के पाँच से ऊपर के समय को पार कर चुकी थी। मेरी नजर एक मार्ग निर्देशिका की तरफ गयी। जिसपर   शुकतीर्थ – तीन किलोमीटर लिखा हुआ दिखाई दिया। शुकतीर्थ शब्द मेरे मन मस्तिष्क में ज्योहीं आए एक विशेष स्पंदन की स्थिति उत्पन्न हुई।

आध्यात्मिक अभिरुचि एवं  उस तपोभूमि से जुड़ी हुई  कथाएं मेरे मन में मचल रही थी। अब मेरे पास मुजफ्फरनगर की आध्यात्मिक समृद्धि के दर्शन करने का अवसर आ गया था।

श्री सलित जी, जिन्हे स्थानीय रूप से हमारे सहयोग के लिए नामित किया गया था, शायद उन्होंने मेरे मन की बात को समझ लिया था।

सर..मैं समझ रहा हूं  आप पावन तीर्थ ‘ शुकतीर्थ ‘की ओर चलना चाहते हैं।

डॉ.रजनीश ने एक पंक्ति में भागवत भगवान के प्राकट्य स्थल की बात और शुकदेव जी की एक लघुकथा कार में बैठे बैठे सामने धर दी। मैं और मेरे दो सहयोगी मित्र हम चारों शुकतीर्थ की पावन भूमि पर पहुंच चुके थे। थोड़ी ऊंचाई पर पैदल चलते-चलते हम उस पावन तीर्थ के प्रवेश द्वार की सीढ़िया पर पहुंचे तो मेरी नजरों के आगे वह अक्षय वटवृक्ष दृष्टिगत हो उठा जिसके नीचे बैठकर सुखदेव जी ने परीक्षित महाराज  को  भागवत भगवान की  प्रथम महिमा कथा सुनाई थी।

यह क्या…!! मंदिर की सीढ़ियों से आगे कुछ ही कदम  पड़े थे कि हमें एक पावन दिव्य युवा संत के दर्शन हुये। हम स्वयं ऐसे संत के दर्शन कर रहे थे और वे अगवानी के भाव में हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।

दिव्य युवा विभूति कोई और नहीं थी बल्कि इस मंदिर को अपनी साधना एवं अध्ययन भूमि बनाने वाले पूज्य श्री अचल कृष्ण शास्त्री जी थे। दोनों हाथों को जोड़कर हम दोनों ने एक दूसरे के अभिवादन को स्वीकार किया। लेकिन हम स्वतः ही बाएं की तरफ मुड़ गए और हम पहुंच गए, उस अद्भुत, दिव्य, आध्यात्मिक स्थल पर जिस स्थान पर बैठकर शुकदेव जी ने महाराजा परीक्षित को श्री भागवत् भगवान की कथा सुनाई थी। आज भी यह पवित्र अक्षयबट वृक्ष जो कि लगभग साढे पांच सौ वर्षों से यहां पर इस रूप में है, मानो आज भी शुकदेव जी यहां पर विराजमान है।

लोग पीत सूत्रों से लिपटे हुए इस वृक्ष के समीप  आकर पूजा अर्चन करते हैं।

भजन कीर्तन चल रहा था मंदिर में शुकदेवजी महाराज और महाराजा परीक्षित एवं  उनकी कथा सुनती हुई मूर्तियां विराजमान थी।

वार्ता के केंद्र में परीक्षित महाराज की चर्चा हुई तो मुझे अतीत के वे दिन याद आ गए जब, मैं बचपन में मेरठ जनपद के नगर मवाना मैं रहता था, जहां से मात्र सात किलोमीटर की दूरी पर महाभारत काल का, हस्तिनापुर और परीक्षितगढ़ किला सब कुछ मुझे याद आ रहा था। दो ढाई सौ किमी वृतीय  दायरे में फैला यह वही भूभाग है जहां महाभारत काल में नाना प्रकार की घटनाएं घटी। पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर हो या उनका दूसरा नगर इंद्रप्रस्थ ( दिल्ली ) हो या अभिमन्यु जी के पुत्र महाराज परीक्षित जी का परीक्षितगढ़ किला हो  या कुरुक्षेत्र का मैदान जहां आध्यात्मिक इतिहास की सबसे बड़ी घटना घटी जब भगवान श्री कृष्ण यानी परम ब्रह्म के स्वमुख से  श्रीमद्भागवत गीता जी का प्राकट्य हुआ या वह स्थान जिसे आज शुकतीर्थ कहते हैं जहां महाराज परीक्षित ने सुखदेव जी से भागवत भगवान की पावन कथा सुनी थी।

इन सभी स्थानों की बात मै इसलिए कह गया कि जब मैं मंदिरके किनारे ऊंचे स्थान से श्री हनुमान जी का विशाल विग्रह और गंगा मैया के कछार का क्षेत्र देख रहा था, तो मुझे वह पूरा भूभाग समझ में आ रहा था। मेरे मन में महाभारत काल की बातें और ये सारे महत्वपूर्ण स्थान के दर्शन हो रहे थे। मैं एक अलग ही अनुभूति कर रहा था कि यह वही क्षेत्र है जहां ये सारी घटनाएं घटी थीं।

पुनः में शुकतीर्थ की ही बात करता हूं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में बोली जाने वाली कौरवी बोली, जो हिन्दी के शाब्दिक अर्थ को बदलकर रखने का सामर्थ्य रखती है, इस स्थान को शुकर ताल बोला जाता रहा। यद्यपि न यहाँ शुक्राचार्य जी महाराज का स्थान है न ही कोई ताल है, बल्कि यहाँ गंगा कछार है। खैर पूज्य माननीय आदरणीय मुख्यमंत्री जी की दृष्टि इस पावन तीर्थ पर पड़ी और यह स्थान अब अपने पुरातन नाम शुकतीर्थ के रूप अपने आध्यात्मिक वैभव को प्राप्त कर रहा है।

मेरे सहयोगी श्री सनित कुमार में मुझे  हजारों वर्ष प्राचीन इस अक्षय बट की एक शाखा के दर्शन हुए जिसमें श्री गणेश भगवान का स्वयं प्राकट्य रूप और शुकदेव जी ( शुकरूप ) की  आकृति स्पष्टरूप  से दिखाई दे रही थी। इस बीच जब मेरी नज़रें ऊपर की तरफ गई तो अनेकानेक शुक यानी तोते पंक्षियों के जोड़े  दिखाई दे रहे थे। ये इस बात को बयां कर रहे थे कि आज से करीब साढ़े पांच हजार वर्ष पूर्व इसी स्थान पर श्री शुकदेव जी महाराज ने महाराजा परीक्षित को इस पावन कथा का श्रवण कराया था।

अब हम सभी पूज्य अचल कृष्ण शास्त्री जी के विराजित स्थल पर पहुंच चुके थे। महाराज श्री अचल शास्त्री जी ने श्री भागवत भगवान के प्राकट्य की संक्षिप्त कथा सुनाइ, यह तो हमारा अमृत पान सा था। साथ ही साथ आपने प्रसाद और छाछ भी प्रदान किये जिसने हमें आत्मिक रूप से महाराज से जोड़ दिया।

पूज्य अचल शास्त्री जी महाराज अभी युवा है लेकिन बौद्धिक रूप से आपने प्रचुर आध्यात्मिक ज्ञानअर्जन कर लिया है, ऐसा मुझे उनसे बात करने के उपरांत आभासित हो रहा है। भागवत भगवान की कथा के वाचक आचार्य अचल कृष्ण शास्त्री जी ने बताया कि प्रतिवर्ष इस स्थान पर हजारों लोग आते हैं और यहां अस्थाई रूप से कुछ दिनों के लिए रुकते हैं। भागवत कथा को सुनते हैं। उन सभी मानना है कि जिस स्थान पर राजा परीक्षित जी ने प्रथम भागवत कथा सुनी थी। हमको भी उस स्थान पर इस पावन कथा का श्रवण कर  स्वयं को धन्य करना है।

अब मैं चर्चा करुंगा एक ऐसे संत की जिन्होंने इस तीर्थ के पुनरोत्थान/ जीर्णोद्धार में अपना  पूरा जीवन समर्पित कर दिया यह संत भगवान थे स्वामी कल्याण देव जी महाराज। भारत में सैकड़ों ट्रस्टॉ, आध्यात्मिक पीठों की स्थापना करने वाले स्वामी कल्याण देव जी को पद्म भूषण, पद्म विभूषण जैसी उपाधियों से भारत की सरकार ने न सिर्फ सम्मानित किया बल्कि भारत के पहले  प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी एवं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर माननीय पपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने इस स्थान पर आकर या अन्य स्थानों पर सम्मान सम्मान करने हेतु महाराज जी को बुलाकर उनके दर्शन प्राप्त किये। ये सारे चित्र हमें इस स्थान पर निर्मित संग्रहालय में देखने को मिलते हैं। हमें स्वामी कल्याण देव जी की से जुड़े उन सारी सामग्रियों के भी पावन दर्शन हुए जो हमें उनके साक्षात दर्शन की पावन अनुभूति करा रहे थे।

हमारे प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री जी जो स्वयं में योगी है, उनका संतों के प्रति और आध्यात्मिक तीर्थं स्थानों के प्रति लगाव होना स्वाभाविक है। ऐसा इस स्थान के साथ भी है और हमें उनके कुछ चित्र को इस स्थान पर देखकर लग भी रहा था।

इस स्थान पर स्थाई रूप से बना हुआ हेलीपैड इस बात को बयां कर रहा है कि माननीय मुख्यमंत्री जी अक्सर इस स्थान पर आते हैं।

इस पावन यात्रा के समाप्ति पर पूज्य अचल शास्त्री जी ने हमें भेंट स्वरूप एक पुस्तिका ” ऐतिहासिक शुकतीर्थ संक्षिप्त परिचय ” दी, जिसके लेखक हैं स्वामी ओमानंद जी एवं प्रकाशक है श्री सुखदेव आश्रम स्वामी कल्याण देव सेवा ट्रस्ट सुख तीर्थ ( शुक्र ताल ), मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश।

इस आध्यात्मिक यात्रा ने मुझे  न सिर्फ पश्चिम उत्तर प्रदेश के आध्यात्मिक वैभव की यात्रा कराया बल्कि  इस यात्रा की समाप्ति पर मैं अपने साथ साहित्यिक आध्यात्मिक और भौतिक अनुभूतियों को लेकर वापस जा रहा हूं।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्कॉटलैंड की वह रात ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ संस्मरण ☆ स्कॉटलैंड की वह रात ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

प्रिय,

कभी-कभी कोई एक रात हमारे भीतर उतर जाती है… इतनी गहराई तक कि वह हमें बदल देती है, हमारे भीतर का स्वरूप नया हो जाता है। ऐसी ही एक रात थी …स्कॉटलैंड की वह रात!

स्कॉटलैंड का मौसम वैसे भी अपने अप्रत्याशित स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। कहते हैं, वहाँ एक ही दिन में चारों ऋतुएँ उतर आती हैं.. सुबह धूप, दोपहर में बादल, शाम को बारिश और रात में धुंध। हवा में एक नमी रहती है, जो कभी सिहरन देती है तो कभी कविता। एडिनबर्ग, जहाँ हम ठहरे थे, वही शहर है जिसने हैरी पॉटर को जन्म दिया। यहीं की पुरानी गलियाँ, पत्थरों की सीढ़ियाँ, और कैफ़े की खिड़कियों से बाहर झरती बारिश ने जे.के. रॉलिंग को प्रेरणा दी थी, जब वे “The Elephant House” नामक कैफ़े में बैठकर हैरी, हॉगवर्ट्स और उस जादुई दुनिया को रच रही थीं। उस रात जब मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, तो लगा मानो वही जादुई दुनिया अब भी हवा में तैर रही है ..बस इस बार जादू किसी जादूगर की छड़ी से नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों से बन रहा था।

घमासान बारिश कुछ ज़्यादा ही भयावह लग रही थी..मानो आसमान अपनी सारी अधूरी बातें ज़मीन से कह रहा हो। शहर की सड़कों पर जलकुंड बने थे, रोशनी हर मोड़ पर पानी में बिखरकर झिलमिला रही थी। रात की शांत सड़कों पर बारिश की निरंतर झड़ी भले ही अपना सौंदर्य लिए थी, पर उस सौंदर्य के बीच हमारे भीतर की बेचैनी हर बूँद के साथ और गहरी होती जा रही थी।

हम छह लोग थे। थके हुए, पर भीतर कहीं घर लौटने की राहत लिए हुए। हमारी ट्रिप का वह आख़िरी दिन था। लंदन के सैर और संगोष्ठी के बाद हमारा अंतिम पड़ाव था स्कॉटलैंड। सुबह पाँच की फ़्लाइट थी, और तय था कि दो बजे तक एयरपोर्ट पहुँचना है। हम वापसी के लिए उत्सुक थे और अपने…….अपने कमरों में सामान पैक कर बस जाने के लिए तैयार थे।

डिनर के बाद, जब वह मेसेज आया, “आपकी फ्लाइट केन्सिल हो गयी है”… तो जैसे वक़्त ने एकाएक रुककर हमें देखा और मुस्कुरा दिया, थोड़ी सी विडंबना के साथ। हम सबके चेहरे पर पता नहीं कितने सवाल आए और गए… विदेशों में फ्लाइट का कैंसिल होना अब आम बात है, पर जब तक दूसरी फ्लाइट कन्फर्म नहीं होती, जान हलक में अटकी रहती है।

लॉज की बुकिंग खत्म हो चुकी थी, हमने चेक…….आउट कर लिया था और मैनेजर की कृपा से एक कमरे में यूँ ही बैठे थे। अब कोई ठिकाना नहीं था। बाहर घनघोर बरसात थी, ऐसी कि टैक्सी की हेडलाइट भी धुंध में खो जाए। हम सब चुप थे.. एक…….दूसरे की आँखों में सवाल थे और उत्तर कहीं नहीं।

“चलो एयरपोर्ट चलते हैं,” किसी ने कहा “वहाँ जाकर कुछ न कुछ कर लेंगे।” यह ‘कुछ न कुछ’ शब्द उस रात सबसे बड़ा सहारा बन गया। एक बांग्लादेशी ड्राइवर आया… लंबा, चौड़ा, भरा हुआ आदमी, जिसकी आँखों में नींद और दया दोनों थीं। वह हमारे लिए टैक्सी लेकर खड़ा था, मानो हमारी बेचैनी को वह भी समझ गया हो।

बरसाती अँधेरी रात में हम निकल पड़े। वाइपर लगातार शीशे पर बारिश से जूझ रहा था, पर हर बार हार जा रहा था। कभी…….कभी सड़क की लाइटें बारिश की धारों में टूटकर गिरतीं और फिर लुप्त हो जातीं… बिल्कुल हमारी उम्मीदों की तरह।

एयरपोर्ट पहुँचे तो राहत की साँस ली… कम से कम मंज़िल दिखी। पर भीतर के काउंटर पर कंप्यूटर की स्क्रीन ने वही कहा जो बारिश ने बाहर कहा था..सब धुँधला है, स्पष्ट कुछ नहीं। एयरपोर्ट पर इतनी रात गए कोई नहीं था। कारण कोई फ्लाइट न आनेवाली थी न जानेवाली। धीरे…….धीरे चार बजे के आसपास एक काउंटर खुला, लोग आने लगे।

हमारा ग्रुप लीडर, गायत्री, वाणी और मैं.. लगातार फ़ोन पर थे। किसी न किसी रूप में हमें कोई फ्लाइट मिल जाए… और अचानक एक मेसेज आया.. दो टिकट कन्फर्म हुईं हैं, दिल्ली तक। हम कुल छह लोग थे। बाकी चार वहीं ठहर गए.. जैसे चार आत्माएँ किसी प्रतीक्षालय में अटकी हों।

उस रात हमें समझ नहीं आया कि हँसे, रोएँ या बस इंतज़ार करें। किसी ने मित्र को जगाया, किसी ने रिश्तेदार को, कोई कस्टमर केयर पर चिल्लाया, तो कोई चुपचाप खिड़की से बाहर झाँकता रहा… जहाँ बारिश अब भी वही थी, बस हमारी स्थिति बदल गई थी। हमारे साथी अपने बैग उठाकर चले गए। हमने कहा, “आप जाइए… हम कोई न कोई इंतज़ाम तो कर ही लेंगे।”

समस्या पर समस्या। कोई कहता ..“यूएस होकर जाइए।” कोई कहता.. “दुबई होकर।” पर वीज़ा? हर समाधान एक नई उलझन बन जाता। आख़िर थककर हमने एक कोना ढूँढ़ा और बैठ गए.. बिना किसी से कोई सवाल किए। गायत्री लगातार अपने पति के संपर्क में थी..उम्मीद थी, कुछ तो हो।

हाँ, बाहर बारिश लगातार हो रही थी। हम जहाँ बैठे थे वहाँ बारिश की आवाज़ और भी गहरी थी, जो भीतर के अवसाद को और गाढ़ा करती जा रही थी। पता नहीं कितनी फ्लाइटें आयीं…….गईं, कितने लोग आए…….गए, और हम वहीं थे… बस एक ही मन में “टिकट कन्फर्म हो जाए…”..फ्लाईट मिल जाए

घंटों बाद, मेसेज आया — गायत्री का एक टिकट बुक हुआ, वाया यूएस। पर उसके साथ उसका बेटा था — वह अकेली कैसे जा सकती थी! फिर से सब रद्द। सुबह के दस बज चुके थे, पर बाहर लग नहीं रहा था कि सुबह है। हम लगातार कोशिश कर रहे थे कि किसी भी तरह कोई बुकिंग मिल जाए, भले ही डायरेक्ट न हो।

पाँच घंटे बीत गए.. कुछ नहीं हुआ। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने अब हमें वहाँ ज़्यादा रुकने की अनुमति नहीं दी। कोई सुविधा भी नहीं। उन्होंने कहा, “लंदन वापस जाइए, वहीं से फ्लाइट लीजिए।” हमने सोचा.. चलो, यहाँ से निकलते हैं, वहीं कोई ठिकाना ढूँढ़ते हैं कि तभी तीनों को मेसेज मिला , “फ्लाइट कन्फर्म्ड फॉर टुमॉरो!” सुबह की एक फ्लाइट मिली ..बैंगलोर तक। एक साँस में जैसे हम सबने जीवन को पकड़ लिया। अब प्रश्न था.. रात कहाँ काटें?

वीणा ने अपने संपर्कों से किसी एअर बिन का इंतज़ाम किया। हमने कैब बुक की। फोन बार…….बार सिग्नल खो रहा था। आखिर किसी तरह एअर बिन.. हमारे उस दिन के गंतव्य तक पहुँचे। मकान बड़ा सुंदर था, दीवारों पर हल्की नमी, लकड़ी की खुशबू, और डिजिटल ताले का ठंडा स्वागत। फोन पर कोड आया.. दरवाज़ा खुला। लगा, यह शहर कह रहा है ..“यहाँ इंसान नहीं, सिस्टम रहते हैं।”  दिन के बारह बज चुके थे। थकान इतनी कि कुर्सियाँ भी तकिए लगने लगीं। वहाँ के प्रबंधक .. शायद वही एक वास्तविक व्यक्ति हमारी दशा देखकर मुस्कुराए, “थोड़ी चाय…….टोस्ट लीजिए।” वह चाय सिर्फ गर्म नहीं थी, वह एक सांत्वना थी। टोस्ट हमारे भीतर के डर पर मरहम की तरह था। चाय के बाद नींद आँखों में उतरने लगी। लॉबी में, सूटकेस के सहारे, हम सब अनजान शहर में सो गए ..किसी अजनबी की छत के नीचे, किसी डिजिटल ताले की सुरक्षा में। जब जागे तो एक शाम हो गई थी। बारिश थम गई थी। हमने एक…….दूसरे को देखा.. थके थे पर अब राहत थी। नहा…….धोकर बाहर निकले… भीगे शहर को देखने, अपने डर को पीछे छोड़ने। सड़कें साफ़ थीं, हवा में गीली मिट्टी की खुशबू थी। लाइटें अब झिलमिला नहीं रही थीं.. स्थिर थीं, जैसे कह रही हों… “अब सब ठीक है।” हम पैदल ही चले… हँसते, बातें करते, कभी तस्वीरें लेते, कभी पेड़ों से टपकती बूँदें देखते। शहर की नमी अब अपनी लगने लगी थी।

एक मॉल में पहुँचे। कुछ खाया नहीं, पर थोड़ी खरीदारी की.. शायद सामान्यता को फिर से महसूस करने के लिए। फिर एक छोटे…….से चायनीज़ रेस्टोरेंट में गए। नूडल्स का स्वाद उस रात की भूख से कहीं गहरा था। हर बाइट में थकान का संतुलन था, हर घूँट में राहत का स्वाद। रात लौटे तो शरीर बिस्तर पर था, पर मन अब भी उड़ान में। आँखें बंद कीं, पर नींद नहीं आई। सबसे बड़ी थी मैं — जिम्मेदारी की परछाइयाँ मन पर घूमती रहीं। क्या सब ठीक होगा? क्या अगली सुबह कुछ नयी समस्या तो नहीं आएगी? रात के दो बजे फिर वही सिलसिला शुरू हुआ — टैक्सी बुक करना, सिस्टम से कोड लेना, सामान बाँधना, बच्चे को जगाना।

पर इस बार हम डर से नहीं, अनुभव से निकल रहे थे।

एडिनबर्ग एयरपोर्ट रोशनी में नहाया हुआ था, पर उस चमक में एक ठंडी दूरी थी।

लॉबी में तरह…….तरह के लोग थे — अपने देश लौटने वाले, पहली बार विदेश जा रहे, और कुछ बस यात्राओं के बीच ठहरने वाले। ऑफिसर्स के चेहरों पर आत्मविश्वास था , कहीं-कहीं वह आत्मविश्वास एंठ में बदल जाता। वे अपनी साफ…….सुथरी अंग्रेज़ी में बात करते, और जब किसी देसी यात्री की टूटी…….फूटी अंग्रेज़ी सुनते, तो उनके चेहरे पर हल्की…….सी मुस्कान फैल जाती और कभी कभी ये मुस्कान, जो तिरस्कार की सीमा तक चली जाती थी। वहीं, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी आँखों में करुणा थी। एक बुज़ुर्ग महिला का पासपोर्ट गिर गया था, और एक अजनबी युवक ने बिना कुछ कहे उसे उठा लिया। एक विदेशी महिला को अपने बैग का वजन कम करना था, तो बगल में बैठी भारतीय युवती ने मुस्कराते हुए कुछ चीज़ें अपने बैग में रख लीं। इन छोटे-छोटे क्षणों में लगा…मानवीयता अब भी ज़िंदा है, बस भीड़ में दब जाती है।

वहीं कुछ प्रवासी भारतीय अपने बच्चों से फोन पर बात कर रहे थे…हिंदी, मराठी, कन्नड़, तमिल, पंजाबी अलग-अलग भाषाएँ एक साथ घुलमिल रही थीं। ऑफिसर वर्ग के कुछ चेहरे हुए ऐसे लगे, मानो अपने ही देश के लोगों को किसी अलग श्रेणी में रख दिया हो। मुझे लगा शायद “विकास” और “विदेश” के बीच कहीं संवेदना छूट जाती है।

अनाउंसमेंट हुआ, “Flight to Mumbai now boarding…” हमने अपनी चीज़ें समेटीं।  पीछे मुड़कर देखा तो वह एयरपोर्ट रोशनी, आवाज़ें, चेहरों का सागर  सब एक मूक प्रतीक बन चुका था। बोर्डिंग पास हाथ में लेकर हम फ्लाइट में आ बैठे। फिर बातें..बातें और बातें.. हँसना, खाना और तस्वीरें लेना…

मुंबई पहुँचे। वहाँ फ्लाइट बदलनी थी। गायत्री अपने बेटे के साथ मुंबई में उतर गई। मैं और वाणी बैंगलोर के लिए निकल पड़े। सुबह चार बजे दोसा खाया, वह दोसा जैसे कह रहा था, “सब गुज़र गया, अब बस घर बाकी है।” बैंगलोर पहुँचे। पहली बार लगा, हवा में अपनापन है। थकान उतरी, और भीतर एक अजीब सी कृतज्ञता भर गई। उस रात ने मुझे सिखाया कि सुरक्षा कोई बाहरी वस्तु नहीं, वह भीतर से उगती है। हमारा भय तब तक बड़ा होता है, जब तक हम उसे छूने की हिम्मत नहीं करते। एक बार जब हम उससे होकर गुजरते हैं, तो वह बस एक अनुभव बन जाता है.. जो हमें और जीवित बना देता है।

कभी कभी नियति हमें परदेश की बारिश में फेंक देती है  ताकि हम जान सकें कि घर सिर्फ एक जगह नहीं होता, वह हमारी आत्मा की शांति में बसता है। उस रात मैंने यह सीखा कि हर अनिश्चितता के भीतर एक अदृश्य हाथ होता है, जो हमें संभालता रहता है, भले ही हम उसे देख न पाएं। अब जब भी कोई स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर जाती है, तो मुझे स्कॉटलैंड की वह रात याद आती है … बारिश की आवाज़, भीगी सड़कों की चमक, और वह अजनबी टैक्सी ड्राइवर, जो जाने…….अनजाने मेरी कहानी का हिस्सा बन गया। कभी लगता है  वह रात एक परिचय थी…अपने भीतर के साहस से, अपने भीतर के विश्वास से।

प्रिय, यदि कभी जीवन तुम्हें किसी बरसाती अंधेरे में छोड़ दे, तो याद रखना.. हर बारिश के पार एक सुबह होती है, और हर खोए हुए सफ़र के बाद घर की हवा और भी परिचित लगती है। मैं यह सब तुम्हें इसलिए लिख रही हूँ, क्योंकि कुछ बातें सिर्फ आत्मा को ही कही जा सकती हैं .. शब्दों में नहीं, अनुभवों में। तुम वह आत्मा हो, जिससे बात करना, अपने आप से बात करना है। स्कॉटलैंड की वह रात अब बीत चुकी है, पर उसकी बूंदें आज भी भीतर गीली हैं कभी याद की तरह, कभी सीख की तरह, और कभी बस एक मुस्कान की तरह।

*********                          

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # ४७ – संस्मरण – मैनपाट शाखा का अनुभव ☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆

डॉ. अनिल कुमार वर्मा

संक्षिप्त परिचय –

  • शिक्षा : पीएचडी (वास्तु शास्त्र), बी.टेक., एफआईई, एफआईवी, चार्टर्ड इंजीनियर,
  • सम्प्रत्ति : वास्तु/जियोपैथिक स्ट्रेस सलाहकार, प्रॉपर्टी मूल्यांकनकर्ता, पूर्व फैकल्टी, कृषि अभियांत्रिकी कॉलेज, जेएनकेवीवी, जबलपुर, पूर्व चीफ मैनेजर, एसबीआई, भोपाल सर्कल
  • विशेषज्ञता: औद्योगिक/कॉरपोरेट वास्तु एवं जियोपैथिक स्ट्रेस
  • लिखित पुस्तकें: “विजयी चुनावी वास्तु”, “Vastu For Winning Election”
  • टीवी साक्षात्कार: ज़ी बिज़नेस, ज़ी 24 छत्तीसगढ़, आईबीसी 24
  • लेख: टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, माय प्रॉपर्टी आदि
  • विभिन्न पुरस्कार विजेता

ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। 

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं।

इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है।

इस श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है…संस्मरण – मैनपाट शाखा का अनुभव. 

☆  दस्तावेज़ # ४७संस्मरण – मैनपाट शाखा का अनुभव ☆ डॉ अनिल कुमार वर्मा ☆

वर्ष 1997 से 20ओ1 के दौरान, मुझे शहडोल स्थित SBI रीजनल ऑफिस में CM (Credit) रहते हुए, कई बार कमलेश्वरपुर शाखा, यानी छत्तीसगढ़ के हिल स्टेशन मैनपाट जाने का अवसर मिला है। यह स्थान प्रकृति की गोद में बसा, बेहद मनोहारी और शांति से परिपूर्ण है। यहाँ तिब्बतियों का पगोडा (मंदिर) विशेष आकर्षण है और पूरा हिल स्टेशन अपने आप में एक अनुपम सौंदर्य का अनुभव कराता है। छत्तीसगढ़ सरकार भी वहाँ पर्यटन विकास के लिए निरंतर प्रयास कर रही है।

मैनपाट के तिब्बती लोग अत्यंत परिश्रमी और ईमानदार थे। हर वर्ष सर्दियों के पूर्व वे अपने स्वेटर व्यापार के लिए शाखा से ओवरड्राफ्ट लेते, फिर लुधियाना जाकर स्वेटर और शॉल खरीदते। इसके बाद वे दलों में बँटकर अलग-अलग शहरों में अस्थायी दुकानें लगाते और पूरी सर्दियों मन लगाकर व्यापार करते। ठंड खत्म होते ही वे पूरा ऋण चुका देते थे। उनकी रिकवरी हमेशा 100% रहती थी, जो उनकी ईमानदारी और परिश्रम की मिसाल थी।

हालाँकि ऋण देने की प्रक्रिया आसान नहीं थी। चूँकि वे विदेशी शरणार्थी थे, उनके पासपोर्ट मंत्रालय को भेजकर अनुमति मिलने के बाद ही लोन सैंक्शन हो पाता था। इसके बावजूद उनकी निष्ठा और बैंक के प्रति विश्वास देखने योग्य था।

एक बार जब मैं शाखा में पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि एक ऑडिट ऑब्जेक्शन लंबे समय से अटका हुआ है। समस्या यह थी कि KYC की एक औपचारिकता—ग्राहक की फोटो—अधिकांश खातों में संलग्न नहीं थी। कारण यह था कि कमलेश्वरपुर जैसे दूरस्थ क्षेत्र में कोई फोटो स्टूडियो था ही नहीं। फोटो खिंचवाने के लिए ग्राहकों को अंबिकापुर जाना पड़ता था। परिणामस्वरूप खाते फोटो के बिना ही खोले गए थे। अब वर्षों बाद ग्राहकों को ढूँढकर भेजना और फोटो मँगवाना सचमुच टेढ़ी खीर साबित हो रहा था।

यही वह क्षण था जब मैंने एक तकनीकी समाधान खोज निकाला। समाधान था—इंस्टेंट फोटो कैमरा (पोलरॉइड कैमरा)। यह वही कैमरा था जो प्रायः पर्यटक स्थलों पर देखने को मिलता था, जहाँ खींची गई तस्वीर तुरंत रंगीन प्रिंट के रूप में हाथ में मिल जाती थी। मैंने ऐसा कैमरा जबलपुर से मँगवाकर शाखा को भिजवाया।

इसके आ जाने से मानो शाखा प्रबंधक की बड़ी समस्या का अंत हो गया। उन्होंने अपने सामने की दीवार पर एक बैकग्राउंड स्क्रीन टाँग दी। अब ग्राहक शाखा प्रबंधक के सामने कुर्सी पर बैठ जाता और प्रबंधक अपनी सीट से ही फोटो खींच लेते। धीरे-धीरे सभी खातों में फोटो संलग्न हो गईं और वह जटिल ऑडिट ऑब्जेक्शन भी दूर हो गया।

यह अनुभव आज भी मेरे लिए यादगार है। यह केवल बैंकिंग समाधान नहीं था, बल्कि इस बात का प्रतीक था कि यदि हम नवोन्मेषी सोच (innovative thinking) अपनाएँ, तो कितनी भी कठिन समस्या को सरल बनाया जा सकता है।

♥♥♥♥

© डॉ अनिल कुमार वर्मा 

कार्यालय-सह-आवास: बंगला नंबर B 27 चौहान टाउन, जुंनवानी, भिलाई, छत्तीसगढ़ मोबाइल: 9425028600 वेबसाइट: www.askvastu.com

यूट्यूब चैनल: askvastu.com  ईमेल: vermanilg@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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