हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ी और समय।)

?अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमें समय दिखाई नहीं देता, फिर भी हर घड़ी, हर पल, समय बदलता रहता है। समय को देखने के लिए हमारे पास घड़ी है। समय कभी नहीं बजता, फिर भी हमें तसल्ली नहीं होती, घड़ी देखते रहते हैं, कितना बजा ! घंटे की आवाज सुनकर, अलार्म लगाकर हमें पता चलता है, कितना बजा, कितनी बजी।

घड़ी की टिक टिक और हमारे दिल की धड़कन में भी बड़ी समानता है। अगर उधर टिक टिक, तो इधर धक धक। उधर इंतजार की घड़ियां और इधर दिल की धड़कन। इंतजार और अभी, और अभी, और अभी।।

समय देखने के लिए अगर हमारे पास घड़ी है, तो तारीख और तिथि देखने के लिए कैलेंडर और पंचांग।

वेतन के लिए हम तारीख देखते हैं और शुभ मुहूर्त के लिए तिथि और वार। शुभ समय के निर्धारण के लिए घड़ी नहीं, चौघड़िया देखा जाता है। हमारे अच्छे बुरे समय का निर्णय घड़ी से नहीं, काल निर्णय से होता है। सिर्फ अपनी ही नहीं, ग्रहों की दशा भी देखी जाती है।

दिन रात बदलते हैं,

हालात बदलते हैं।

साथ साथ मौसम के

फूल और पात बदलते हैं:

और कैलेंडर भी हर साल बदलते हैं।।

नए कपड़ों की ही तरह लोग नए वर्ष की भी खुशी मनाते हैं। कोई जीन्स पहन रहा है तो कोई धोती कुर्ता ! यह साल मेरा नहीं। हिंदू तिथि और पंचांग वाला साल मेरा है। खुशी तो खुशी है, वक्त क्या तेरा मेरा। जन्म मरण कहां चौघड़िया और कैलेंडर देखते हैं। हां, जन्म तो फिर भी तारीख, तिथि और मुहूर्त से होने लग गया है। सिजेरियन जिंदाबाद। जो भविष्य दृष्टा होते हैं, उनकी बात और है, आम आदमी के लिए तो आज भी जिंदगी एक पहेली ही है और मौत अंतिम सत्य।

आपको आपका नव वर्ष मुबारक चाहे वह अब वाला हो या आगामी ९ अप्रैल २०२४ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि। गया दिसंबर आई जनवरी। हो सकता है सभी हिंदू उत्सव इस बार २२ जनवरी को ही धावा बोल दें। असली काउंट डाउन तो यही है। जब वक्त ठहर जाएगा, इतिहास बदल जाएगा और इस देश में फिर से रामराज्य की स्थापना हो जाएगी। शायद अच्छे समय और अच्छी घड़ी की यह जुगलबंदी हो। नेपथ्य में कहीं से तथास्तु की ध्वनि कानों में पड़ रही है।

Be it so ! शुभ शुभ सोचें स्वागत नव वर्ष २०२४ …..

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 250 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख की शृंखला – “रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन” का पहला भाग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 250 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ?

रामचरित मानस विश्व का ऐसा महान ग्रंथ है, जिसे शोध कीजिस दृष्टि से देखा जावे, तो अध्येता इतना कुछ पाता है, कि वह उसे चमत्कृत कर देने को पर्याप्त होता है। रामचरित मानस की मूल कथा में अयोध्या, जनकपुर, लंका, चित्रकूट, नन्दीग्राम, श्रंगवेरपुर, किष्किंधा, कैकेय, कौशल आदि नगरों, राज्यों का वर्णन मिलता है। रामजन्म भूमि प्रकरण की राष्ट्रीय ज्वलंत समस्या के निराकरण हेतु न्यायालय के आदेश पर, इन दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विशेषज्ञ, अयोध्या के विवादित स्थल पर उत्खनन कार्य कर रहे है। सारा देश इस उत्खनन के परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अवधपुरी का वर्णन करते हुए लिखा है:-

 अयोध्या

बंदऊ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कालि कलुष नसावनि ॥ (प्रसंग : वन्दना)

बालकाण्ड 1/16

 अवधपुरी सोइहि एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ (प्रसंग : रामजन्म)

 बालकाण्ड 2/195

 इसी तरह रामविवाह के प्रसंग में भी अयोध्या का वर्णन मिलता है –

 जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । रामपुरी मंगलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई ॥

 बालकाण्ड 3/296

इसी प्रसंग में गोस्वामी जी लिखते है कि रामविवाह की प्रसन्नता में, माँ सीता के नववधू के रूप में स्वागत हेतु अयोध्यावासियों ने अपने घर सजा कर अपनी भावनायें इसी तरह अभिव्यक्त की।

मंगलमय निज-निज भवन, लोगव्ह रचे बनाई । बीथी सींची चतुर सम, चौके चारू पुराई ।।

बालकाण्ड 296 राजा दशरथ के देहान्त एवं राम वन गमन के प्रसंग में भी अयोध्या के राजमहल का वर्णन मिलता है :-

गए सुमंत तब राउर माही। देखि भयावन जातं डेराहीं ॥ (राउर अर्थात राजमहल)

 अयोध्या काण्ड 2/38

अयोध्या का नगर एवं प्रासाद वर्णन पुनः उत्तर काण्ड में मिलता है, जब श्रीर। म वनवास से लौटते है।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन विमान । देखि मधुर सुर हरषित करहि सुमंगल गान ॥

उत्तरकाण्ड /3 ख

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना । वेद पुरान विदितजग जाना । अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ । यह प्रसंग जानड़ कोऊ कोऊ ॥

उत्तरकाण्ड 2/4

 जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।

उत्तरकाण्ड 3/4

रामराज्य के वर्णन के प्रसंग के अंतर्गत भी अवधपुरी के भवनों, सडकों, बाजारों का विवरण मिलता है।

जातरूप मनि रचित अटारी । नाना रंग रूचिर गच ढारी ॥

पुर चहुं पास कोट अति सुन्दर । रचे कंगूरा रंग-रंग वर ।।

स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियां है। उनमें मणि, रत्नों की अनेक रंगों की फर्श ढली है। नगर के चारों ओर सुन्दर परकोटा है। जिस पर सुन्दर कंगूरे बने है।

नवग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ।।

मानों नवग्रहों ने अमरावति को घेर रखा हो।

धवल धाम ऊपर नग चुंबत । कलस मनहुं रवि ससि दुति निंदत ॥ उज्जवल महल ऊपर आकाश को छू रहें है, महलों के कलश मानो सूर्य-चंद्र की निंदा कर रहे है, अर्थात उनसे ज्यादा शोभायमान है।

छंद-

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरी विदुम रची ।

मनि खंब भीति, विरचि विरचि कनक मनि मरकत खची । 

सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे ।

प्रति द्वार-द्वार कपाट पुरट बनाई बहु बजहिं खचे ॥

घरों में मणियों के दीपक हैं। मूंगों की देहरी है। मणियों के खम्बे है।

पन्नों से जड़ित दीवारें ऐसी है, मानों उन्हें स्वयं ब्रम्हा जी ने बनाया हो। महल मनोहर और विशाल है। उनके आगंन संगमरमर के है। दरवाजे सोने के हीरे लगे हुये है।

चारू चित्रसाला गृह-गृह प्रति लिखे बनाई । राम चरित जे निरख मुनि, ते मन लेहि चौटाई ॥

सुमन बाटिका सबहि लगाई । विविध शाति करि जतन वनाई ।।

घर-घर में सुन्दर चित्रांकन कर राम कथा वर्णित है। सभी नगरवासियों ने घरों में पुष्प वाटिकायें भी लगा रखी है।

छंद-

बाजार रूचिर न बनई बटनत वस्तु बिनु गश्च पाइये । जहं भूप रमानिवास तहं की संपदा किमि गाइये ।

बैठे बजाज, सराफ बनिक, अनेक मनहुं कुबेर ते । सब सुखी, सब सच्चरित सुंदर, नारि नर सिसुजख ते ॥

सुन्दर बाजारों में कपड़े के व्यापारी, सोने के व्यापारी, वणिक आदि इस तरह से लगते है, मानो कुबेर बैठे हों। सभी सदाचारी और सुखी है। इसी तरह सरयू नदी के तट पर स्नान एवं जल भरने हेतु महिलाओं के लिए अलग पक्के घाट की भी व्यवस्था अयोध्या में थी –

दूरि फराक रूचिर सो घाटा, जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ।

पनिघट परम् मनोहर नाना, तहाँ न पुरूष करहि स्नाना ॥

उत्तरकाण्ड 1/29 जल व्यवस्था हेतु बावड़ी एवं तालाब भी अयोध्या में थे । सार्वजनिक बगीचे भी वहाँ थे।

पुट शोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम् रूचिराई ।

देखत पुरी अखिल अध भागा । बन उपबन बाटिका तड़ागा ।।

उत्तरकाण्ड 4/29 इस प्रकार स्थापत्य की दृष्टि से अयोध्या एक सुविचारित दृष्टि से बसाई गई नगरी थी। जहाँ राजमहल बहुमंजिले थे। रनिवास अलग से निर्मित थे। रथ, घोड़े, और हाथियों के रखने हेतु अलग भवन थे। आश्रम और यज्ञशाला अलग निर्मित थी। पाकशाला अलग बनी थी। शहर में पक्की सड़कें थी। आम नागरिकों के घरों में भी छोटी सी वाटिका होती थी। घर साफ सुथरे थे, जिनकी दीवारों पर चित्रांकन होता था। शहर में सार्वजनिक बगीचे थे। जल स्रोत के रूप में बावड़ी, तालाब, स्त्री एवं पुरुषों हेतु अलग-अलग पक्के घाट एवं कुंए थे। ऐसा वर्णन तुलसीदास जी ने किया है।

 जनकपुरी :-

मानस में वर्णित दूसरा बड़ा नगर मिथिला अर्थात जनकपुरी है। जिसका वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

बनई न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाई मन तहंड लाभाई ॥

 उत्तरकाण्ड 1/213

जनकपुर का वर्णन धनुष यज्ञ एवं श्रीराम सीता विवाह के प्रसंग में सविस्तार मिलता है।

जनकपुर में बाजार का वर्णन :-

धनिक बनिक वर धनद समाना । बैठे सकल वस्तु लै नाना ।

चौहर सुंदर गली सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥

अर्थात यहाँ चौराहे, सड़के सुंदर है, जिनमें सुगंध बिखरी है। सुव्यवस्थित बाजारों में वणिक विभिन्न वस्तुयें विक्रय हेतु लिये बैठे है।

मंगलमय मंदिर सब केरे । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरे ।

अर्थात, सभी घरों पर सुंदर चित्रांकन होता था।

भवनों के दरवाजों पर परदे होते थे। किवाड़ों पर सुन्दर नक्काशी और रत्न जड़े होते थे –

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ।

सेनापति, मंत्रिगण आदि के घर भी महल की ही तरह सुन्दर और बड़े थे। घुड़साल, गजशाला, अलग बनी थीं। धनुष यज्ञ हेतु एक सुन्दर यज्ञशाला नगर के पूर्व में बनाई गई थी। जहां लंबा चौड़ा आंगन एवं बीच में बेदी बनाई गई थी। चारों ओर बड़े-बडे मंच बने थे। उनके पीछे दूसरे मकानों का घेरा था। पुष्पवाटिका जहां पहली बार श्रीराम का सीताजी से साक्षात्कार हुआ था, का वर्णन भी गोस्वामी जी रचित मानस में मिलता है। वटिका में मंदिर भी है। बाग के बीचों बीच एक सरोवर है। सरोवर में पक्की सीढ़ियां भी बनी है। इस प्रकार हम पाते है कि स्वयं श्रीराम जिनको चौदहों लोकों का प्रणेता कहा जाता है, जब अपने मानव अवतार में संसारी व्यवहारों से गुजरते है, तो

“मकान” की मानवीय आवश्यकता के अनेक वर्णन उनकी लीला में मिलते है। भगवान विश्वकर्मा, जो देवताओं के स्थापत्य प्रभारी के रूप में पूजित है, जो क्षण भर में मायावी सृष्टि की संरचना करने में सक्षम है, जैसे उन्होनें ही माँ सीता की नगरी बसाई हो, इतनी सुव्यवस्थित नगरी वर्णित है जनकपुर।

क्रमशः… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 64 ☆ देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जीवन के छै दशक से भी अधिक का काल बीत गया,कान सुन सुन कर पक गए,अब नया सवेरा आयेगा।

जीवन में खुशियां और सुख की बाढ़ आयेगी।

आज फिर एक और अंग्रेज़ी नव वर्ष आरंभ हो रहा हैं।हम प्रतिदिन की भांति तैयार होकर प्रातः भ्रमण के लिए निकल पड़े। मौसम समाचार और व्हाट्स ऐप के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के मद्दे नज़र बंदर टोपी के ऊपर मफलर लपेट लिया,ऊनी मोजे , हाथ में चमड़े के दस्ताने,ओवर कोट के ऊपर लाल इमली,कानपुर वाली पुरष शाल लपेट कर अपनी दिनचर्या का पहला कदम मंजिल की तरफ बढ़ा दिया।

घर के बाहर कोहरे की घनी चादर , खड़े हुए वाहनों पर  ओस की परत देखकर मन में अंतरद्वंद चल रहा था,की लोट चले रजाई में वापिस,कल देखेंगे।

व्हाट्स ऐप के ज्ञान ने हमे हिम्मत और सबल दिया,घर की दहलीज पार कर ली।प्रतिदिन की भांति कुछ लोग कान में यंत्र डाल कर भ्रमण करते हुए दृष्टिगोचर हुए।कुछ नए बरसाती मेंढक भी दिखे, हर नव वर्ष पर दो चार दिन ऐसा ही होता हैं।

एक स्थान पर प्लास्टिक के ग्लास ठंडी हवा मे तांडव करते हुए अवश्य दिखें।एक समाज सुधारक ठेकेदार ने विगत रात्रि मुफ्त गर्म दुग्ध वितरण करवाया था।उनको आगामी लोक सभा में पार्टी के टिकट जो प्राप्त करना हैं।

अगले नुक्कड़ पर कुछ अधिक अंधेरा था,लेकिन दस बारह वर्ष के कुछ बच्चे अंधेरे में कुछ खोज रहे थे।वहां कांच की टूटी बोतलें पड़ी थी।बच्चे साबूत बोतलों को डूंड कर   अपनी पेट की क्षुधा को शांत करने की मुहिम में जीजान से लगें हुए थे।

नए सवेरे की इंतजार में रात्रि के अंधेरे में अवश्य मद्यपान वालों की महफिल सजी होगी।नया सवेरा तो कहीं दिख नहीं रहा था।प्रतिदिन की भांति दो दूध वाले सरकारी नल के पास पानी का इंतजार कर रहे थे।उनके मोबाइल से अवश्य आवाज़ आ रही थी,दूध में कितना पानी मिलाएं ?

भ्रमण से वापसी में घर के पास सफाई कर्मचारी सड़क पर फैले हुए जले हुए पटाखे के कचरे को एकत्र करते हुए,परेशान से दिख रहे थे।

कुछ युवा जो क्षेत्र में कार सफाई का कार्य करते है,आपस में बातचीत करते हुए कह रहे थे,आज पहली तारीख है,गाड़ी अच्छे से साफ करनी पड़ेगी।

ये सब तो प्रतिदिन होता है,वो व्हाट्स ऐप पर हजारों संदेश जो कह रहे थे, कि आज नया सवेरा होगा,आशा की किरण होगी,सब तरफ खुशहाली होगी,खुशियों का समुद्र होगा,कहां हैं,कब होगा ? नया सवेरा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगलियों का अंकगणित।)

?अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं जब सुबह सोकर उठता हूं, तो अपने ही हाथों का दर्शन कर, दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ता हूं, और अपने गर्म हाथों से अपने चेहरे को कोमल स्पर्श द्वारा, एक मां की तरह सहेजता हूं, दुलारता हूं, और ईश्वर का स्मरण करता हूं ;

कराग्रे वसते लक्ष्मी:

करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्द:

प्रभाते करदर्शनम्।।

ये हाथ अपनी दौलत है, ये हाथ अपनी किस्मत है।

हाथों की चंद लकीरों का

बस खेल है सब तकदीरों का।

जिसे हम हस्त कहते हैं, वही अंग्रेजी का palm है, और हस्तरेखा अथवा Palmistry एक विज्ञान भी है। हमारे जगजीतसिंह तो फरमाते हैं ;

रेखाओं का खेल है मुकद्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो।

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।।

रेखा को ही लकीर भी कहते हैं। हम आज हाथों की नहीं, उंगलियों की लकीरों की बात करेंगे। अगर हमारी पांच उंगलियां नहीं होती, तो क्या हमारा हाथ पंजा कहलाता, क्या हम मुट्ठी बांध और खोल पाते। हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं, जिनमें अंगूठा भी शामिल है।

ज्योतिष का क्या है, हाथों की चंद लकीरें पढ़, शुभ अशुभ के तालमेल के लिए सारे नग उंगलियों की अंगूठी में ही तो आते हैं।

उधर अंगूठे का ठाठ देखो, और thumb impression देखो। नृत्य की मुद्रा, और योग में भी मुद्रा का महत्व उंगलियों की उपयोगिता को सिद्ध करता ही है, इन्हीं उंगलियों पर लोग नाचते और नचाते भी हैं।।

क्या कभी आपने आपकी उंगली पर गौर किया है। हमारी उंगलियों का भी अजीब ही गणित है। हर उंगली में तीन आड़ी लकीरें हैं। यानी ये लकीरें एक उंगली को तीन बराबर हिस्सों में बांटती है। आप चाहें तो इन्हें खाने भी कह सकते हैं। लेकिन मेरे दाहिने हाथ का अंगूठा यहां भी सबसे अलग है, उसमें तीन नहीं चार खाने हैं।

आपने कभी उंगलियों पर हिसाब किया है ! अवश्य किया होगा। लोग तो छुट्टियाँ भी उंगलियों पर ही गिन लेते हैं। सप्ताह में सात दिन हमने उंगलियों पर ही याद किए थे और दस तक की गिनती भी।

बहुत काम आती हैं ये उंगलियां जब कागज कलम नहीं होता।।

जब आज की तरह मोबाइल और कैलकुलेटर नहीं था, तब सब्जी का हिसाब उंगलियों पर ही किया जाता था। दूध के हिसाब के लिए तो कैलेंडर जिंदाबाद।

इन उंगलियों का उपयोग मंत्र जपने के लिए भी किया जा सकता है। आपके एक हाथ की उंगलियों में देखा जाए तो पंद्रह मनके हैं, यानी दो हाथ में तीस। याद है बच्चों को एक से सौ तक की गिनती भी इसी तरह सिखाई जाती थी। रंग बिरंगे प्लास्टिक के मोती एक स्लेटरूपी तार के बोर्ड में पिरो दिए जाते थे।

क्या क्या याद नहीं किया जा सकता इन उंगलियों पर, मत पूछिए। अभी कितने बजे हैं, रात के सिर्फ दो। यानी सुबह होने में, और उंगलियों पर गिनती शुरू, तीन, चार, पांच, छः, यानी बाप रे, चार घंटे कैसे कटेंगे। फिर कोशिश करते हैं, शायद आंख लग जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक चिंतनीय आलेख – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार”)

☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हमें ऐसा लगता है कि व्यंग्य कभी भी कहीं भी हो सकता है बातचीत में, सम्पादक के नाम पत्र में, कविता और कहानी आदि में भी। व्यंग्य लिखने में सबसे बड़ी सहूलियत ये है कि “जैसे तू देख रहा है वैसे तू लिख”।

समसामयिक जीवन की व्याख्या उसका विश्लेषण  उसकी सही भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और कोई नहीं। समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन आदि सहन नहीं होता तो व्यंग्य लिखा जाता है। जो गलत या बुरा लगता है उस पर मूंधी चोट करने व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं और कहीं न कहीं से लगता है कि व्यंग्यकार की कलम ईमानदार, नैतिक और रुढ़ि विरोधी को नैतिक समर्थन दे रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यंग्य साहित्य की ही एक विधा है।

साहित्य में व्यंग्य की पहले शूद्र जैसी स्थिति थी, कहानीकार, कवि आदि व्यंग्य को तिरस्कृत नजरों से देखते थे, पत्रिकाएं व्यंग्य से परहेज़ करतीं थीं, पर अब व्यंग्य का दबदबा हो चला है परसाई ने लठ्ठ पटककर व्यंग्य को ऊपर बैठा दिया है, व्यंग्य की लोकप्रियता को देखकर आज कहानीकार, कवि जो व्यंग्य से चिढ़ते थे ऐसे अधिकांश लोग व्यंग्य की शरण में आकर अपना कैरियर बनाने की ओर मुड़ गए हैं।

पाठक अब कहानी के पहले व्यंग्य पढ़ना चाहता हैं, क्योंकि आम आदमी समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखण्ड और केंचुए की प्रकृति के लोगों के चरित्र को देखकर हैरान हैं,जो पाठक व्यक्त नहीं कर पाता है वह व्यंग्य पढ़कर महसूस कर लेता है। व्यंग्य समाज को बेहतर से बेहतर बनाने की सोच के साथ काम करता है। इसीलिए माना जाता है कि समाज और साहित्य में  व्यंग्य की भूमिका बहुत महत्व रखती है।जब लोकतंत्र को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाए जाते हैं, प्रेस और मीडिया बिक जाते हैं तो व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका अहम हो जाती है।  व्यंग्यकार अपने व्यंग्य से जनता के बीच चेतना जगाने का काम करता है,समाज में जाग्रति फैलाता है और विपक्ष की भूमिका में नजर आता है, पर इन दिनों नेपथ्य में चुपचाप कुछ यश लोलुप, सम्मान के जुगाड़ू लोग शौकिया व्यंग्यकारों की भीड़ इकट्ठी कर चरवाहा बनकर भेड़ें हांक रहे हैं और व्यंग्य को फिर शूद्र बनाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें समाज और सामाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है वे पहले अपने नाम और फोटो से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में तुले हैं,समाज और साहित्य के लिए ये स्थितियां घातक हो सकतीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 221 – आलेख – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 221 ☆ आलेख – भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’ 

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का संबंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ होनेवाला यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 240 ⇒ बढ़ती का नाम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख  – “बढ़ती का नाम…।)

?अभी अभी # 240 ⇒ बढ़ती का नाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, चलती का नाम, बढ़ती का नाम और साड़ी का दाम ! लेकिन कबीर की तरह हम सिर्फ गाड़ी से ही नहीं, हमारी बढ़ती दाढ़ी और बढ़ते नाखून से भी परेशान हैं। साड़ी पर तो कबीर भी मौन रहे, इसलिए हम भी मुंह नहीं खोलेंगे।

बाल और नाखून तो खैर हमारे बचपन से ही बढ़ रहे थे। इनके विकास में हमारा कभी कोई योगदान नहीं रहा। सुना है, हम जब छोटे थे, तो जिसकी गोद में जाते थे, उसका चश्मा, टोपी, जेब का पेन, अथवा उनके चेहरे से ही खेलने लग जाते थे। अगर हमारे नाखून थोड़े भी बढ़े हुए होते, तो उनकी खैर नहीं।।

नाखून और बालों को काटो तो दर्द नहीं होता, लेकिन जब हम मां की गोद में खेलते खेलते, उनके बालों से खेलने लग जाते थे, तो मां को दर्द भी होता था। हमने कई दाढ़ी वालों के बाल, अच्छे बच्चे बनकर बहुत नोंचे हैं। लेकिन अब वह सुख कहां। आज भी अगर नंगे पांव चलते वक्त, थोड़ी सी ठोकर लग जाए, तो नाखून से भी खून बहने लगता है।

महिलाओं के बाल बढ़ते हैं, लंबे होते हैं, (जिन्हें शायर ज़ुल्फ कहते हैं), नाखून भी बढ़ते हैं, लेकिन ईश्वर ने उनकी कमनीय काया को दाढ़ी मुक्त रखा है। पुरुष तो उन्मुक्त प्राणी है, वह चाहे तो लिपटन टाइगर जैसी मूंछें रखे, अथवा टैगोर और बिग बी जैसी दाढ़ी। आजकल तो लगता है, हर युवक दाढ़ी वाले ही पैदा हो रहे हैं। कितना विराट व्यक्तित्व लगता है न, आजकल के युवाओं का, दाढ़ी में। कभी कभी तो हमारा मन भी मोदी मोदी करने लगता है, किसी की खूबसूरत दाढ़ी देखकर।।

बाल और नाखून काटना हिंसा में नहीं आता, क्योंकि इन्हें काटने से मर्द अथवा औरत, किसी को दर्द नहीं होता। लेकिन द्रौपदी की तरह अगर किसी के केश खींचे जाएं अथवा केश लोचन किया जाए, तो भाई साहब, दर्द तो होता है।

नाखून और बाल हमारे शरीर रूपी खेत की वह फसल है, जो लाइफ टाइम उगा करती है। बाल बढ़ाएं, नाखून बढ़ाएं आपकी मर्जी, काटें ना काटें, आपकी मर्जी।।

सुना है, भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन हमने तो कई गंजों को इस आस से नाखून घिसते देखा है, कि उनके सर पर फिर से खेत लहलहा उठे। वैसे अगर बंजर जमीन में खेती हो सकती है तो गंजे सिर में बाल ट्रांसप्लांट क्यों नहीं हो सकते। पूछता है भारत।

हमने दाढ़ी मूंछ के बारे में ना तो कभी मुंहजोरी की और ना कभी मूंछ पर ताव ही दिया। जिस तरह आज आप बिग बी, विराट और मोदीजी की बिना दाढ़ी के कल्पना ही नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह हम अपनी दाढ़ी के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते। अगर जिंदगी एक नाटक होती तो जरूर कभी नकली दाढ़ी लगाकर एक तस्वीर जरूर खिंचवा लेते, दाढ़ी में। लेकिन यकीन मानिए, हम तो क्या हमारी पत्नी भी हमें नहीं पहचान पाती और शायद आइना भी हमसे हमारी पहली सी सूरत ही मांगता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाल रोटी खाओ ।)

?अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिनको प्रभु का गुणगान करना है, उन्हें और चाहिए भी क्या ! ईश्वर हमारे देश के सत्तर करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन यूं ही नहीं प्रदान कर रहा, २२ जनवरी को प्रभु श्री राम के गुणगान का यह स्वर्णिम पल है। ओ भाभी आना, जरा दीपक जलाना, आज घर घर अयोध्या के प्रभु श्री राम विराजेंगे।

दाल रोटी तो मैं भी खाता हूं, लेकिन मुझ अज्ञानी का ध्यान प्रभु के गुणगान की ओर तो कम रहता है और भोजन की गुणवत्ता और स्वाद और खुशबू की ओर अधिक रहता है। गेहूं कौन से हैं, अरहर की दाल तीन इक्का है कि नहीं, चावल कौन सा है, काली मूॅंछ, अथवा बासमती।।

ईश्वर सगुण हो अथवा निर्गुण, इंसान में तो, प्रकृति की तरह तीन गुण ही होते हैं, सत, रज और तम। यानी जैसा हम अन्न खाते हैं, वैसा हमारा मन बनता है, यानी सात्विक, राजसी अथवा तामसी। हम ज्यादा झमेले में नहीं पड़ते, बस दाल रोटी शाकाहार है, सात्विक आहार है, मस्त दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ।

लेकिन यह चंचल, प्रपंची मन कितने किंतु, परंतु और तर्क वितर्क लगाता है। मालूम है, दाल का क्या भाव है। हम तो दाल में देसी घी का तड़का लगाते हैं, और वह भी हींग जीरे के साथ। अब हम प्रभु को याद करें या बढ़ती महंगाई को।।

जिस तरह राम दरबार में, राम लक्ष्मण जानकी और जय हनुमान जी की बोली जाती है, उसी तरह हमारी रसोई के तड़के में असली घी के साथ हींग जीरा और राई का होना भी जरूरी है। मंदिर में धूप बत्ती की महक की ही तरह रसोई में हींग जीरे के बघार की खुशबू फैल जाती है। बस राम का गुणगान और धन्यवाद करने का मन करता है ;

राम का गुणगान करिए

राम प्रभु की भद्रता का

सभ्यता का ध्यान धरिए…

एक सुहागन के लिए जितना एक चुटकी भर सिन्दूर का महत्व है, उतना ही महत्व चुटकी भर हींग का घर गृहस्थी में है। लेकिन यह चुटकी आजकल बड़ी महंगी पड़ रही है। कभी सौ दो सौ रुपए किलो वाला जीरा आज चार अंकों को छूने की कोशिश कर रहा है, तो पूरी दुनिया में हींग तो ग्राम और तोला में बिक रही है। पहले इसे तौलने के लिए पीतल की छोटी सी तराजू आती थी, और छोटे छोटे ग्राम वाले पीतल के ही बांट। सोने की तरह तुलती थी यह हींग।।

हमें रंग चोखा लाने के लिए नहीं चाहिए फिटकरी, लेकिन बिना हींग के हम नहीं रह सकते। कल पुष्प ब्रांड की बांधनी हींग, पाउडर वाली, ५० ग्राम का भाव पूछा तो ₹३७५ !लेकिन यह हींग भी कहां असली होती है। डले वाली शुद्ध, खुशबूदार हींग के तो अलग ही ठाठ हैं, दस ग्राम शुद्ध हींग तीन चार सौ रुपए से कम नहीं।

अब इतनी महंगी हींग और जीरा खाकर भी अगर कोई महंगाई का रोना ना रोकर प्रभु का गुणगान करे, तो बस समझ लीजिए, उसके अच्छे दिन आ गए।।

नया वर्ष दस्तक दे रहा है, और उधर अयोध्या में इतिहास रचा जा रहा है। घर घर घी के चिराग जलें, हर मंदर और प्रत्येक मन मंदिर में भी प्रभु श्रीराम का वास हो, रामराज्य फिर से आए। नहीं चाहिए हमें घी और दूध दही की नदियां, बस सब की दाल में हींग जीरे का तड़का हो, सब प्रेम से दाल रोटी खाएं और प्रभु श्रीराम के गुण गाएं। जय रामजी तो बोलना ही पड़ेगा ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #212 ☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 212 ☆

☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक

‘भीख में प्राप्त मान-सम्मान प्रगति के पथ में अवरोधक होते हैं, जो आपकी प्रतिभा को कुंद कर देते हैं’ यह कथन कोटिशः सत्य है। सन् 2011-12 में डॉ• नांदल द्वारा रचित एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी… ‘अभिनन्दन करवा लो’ बहुत सुंदर व्यंग्य-रचना थी, जिसमें आधुनिक साहित्यकारों की मनोवृत्ति व सोच का लेखा-जोखा बड़े सुंदर ढंग से रेखांकित किया गया था। आदिकाल व रीतिकाल … आश्रयदाताओं का गुणगान…एक पुरातन परंपरा, जिसका भरपूर प्रचलन आज तक हो रहा है; जिसे देख कर हृदय ठगा-सा रह गया, परंतु वह आज भी समसामयिक है। साहित्य जगत् में अक्सर लोग इस दौड़ अथवा प्रतिस्पर्द्धा में बढ़-चढ़कर भाग ही नहीं लेते; सर्वश्रेष्ठ स्थान पाने को भी आतुर रहते हैं। चंद कविता या कहानियाँ लिखीं या उनमें थोड़ा हेर-फेर कर अपने नाम से प्रकाशित करवा लीं…बस हो गए मूर्धन्य कवि व साहित्यकार…साहित्य जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र, जिसकी रश्मियों का प्रकाश सीमित समय के लिए चहुंओर भासता है। अमावस के घने अंधकार में तो जुगनू भी राहत दिलाने में अहम् भूमिका निभाते हैं, भले ही वे पलभर में अस्त हो जाते हैं, परंतु उनका महत्व समय व स्थान के अनुकूल अत्यंत सार्थक होता है। उनका जीवन तो क्षणिक होता है और वे पानी के बुलबुले की मानिंद उसी जल में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि यदि कुंभ के बाहर व भीतर जल होता है…कुंभ के टूटने के पश्चात् वह उसी में समा जाता है, एकाकार हो जाता है। परंतु वे साहित्यकार, जिन पर साहित्य के आक़ाओं का वरद्-हस्त होता है, अक्सर मंचों पर छाए रहते हैं। उनका महिमाण्डन बड़े-बड़े साहित्यकारों द्वारा ही नहीं किया जाता, मीडिया वाले भी उनके साक्षात्कार को अपनी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर स्वयं को धन्य समझते हैं और उन्हें साक्षात् दर्शकों से रू-ब-रू करवा कर अपने भाग्य को सराहते व फूले नहीं समाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चल निकलता है… भले ही उनकी लड़खड़ाती सांसें लंबे समय तक इनका साथ नहीं देतीं।

आप एक पुस्तक का संपादन कर भी अमर हो सकते हैं, भले वह आपके पूर्वजों द्वारा रचित हो या आप द्वारा संपादित… कृति आपके नाम से शाश्वत् हो जाती है और आप निरंतर सुर्खियों में बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो समाज के हर वर्ग का लेखक इस संक्रमण-रोग से पीड़ित है; जो बहुत शीघ्रता से फैलता ही नहीं; अपनी जड़ें भी गहराई तक स्थापित कर लेता है और उससे निज़ात पाने के निमित्त इंसान को लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ता है। इस प्रकार तथाकथित संस्थाओं में नाम व पद पाने के लिए, धन-संपदा लुटाने व पैसा बहाने में किसी को संकोच नहीं होता, क्योंकि ऐसे पदासीन लोगों व संस्थापकों के पीछे तो लोग मधुमक्खियों की भांति दौड़ते नज़र आते हैं तथा इसके उपरांत वे विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किए जाते हैं।

‘आदान-प्रदान अर्थात् एक हाथ से दो और बदले में दूसरे हाथ से लो’ की प्रणाली निरंतर चली आ रही है। हम अपनी संस्कृति के उपासक हैं। पहले यह प्रथा हमारी विवशता थी; मजबूरी थी, क्योंकि इंसान को अपनी मूलभूत

आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए लेन-देन प्रणाली को अपनाना पड़ता था। इंसान रोटी, कपड़ा व मकान जुटाने का उपक्रम, लाख कोशिश करने के पश्चात् भी अकेला नहीं कर सकता था, जो आज भी संभव नहीं है। परंतु आधुनिक युग में संचार-व्यवस्था तो बहुत कारग़र है और पूरा विश्व ग्लोबल विश्व बन कर रह गया है। भौगोलिक दूरियां कम होने के कारण दिनों का सफ़र चंद घंटों में पूरा हो जाता है। सब वस्तुएं हर मौसम में हर स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। परंतु हमने तो उस व्यवस्था को धरोहर सम संजोकर रखा है, जिसका उपयोग-उपभोग हम बड़ी शानोशौक़त व धड़ल्ले से आज तक कर रहे हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में आत्मकेंद्रितता का भाव एकाकीपन व अजनबीपन के रूप में चहुंओर तेज़ी से पांव पसार रहा है, जो संवादहीनता के रूप में परिलक्षित है…जिसके परिणाम- स्वरूप हम अहंवादी होते जा रहे हैं। हमें अपने व अपने परिजनों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, ठीक उसी प्रकार जैसे सावन के अंधे को केवल हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। वह केवल अपनों में ही रेवड़ियां बांटता है,क्योंकि वह केवल उनसे ही परिचित होता है। उसकी सोच का दायरा बहुत सीमित होता है तथा उसकी दुनिया केवल तथाकथित अपनों तक ही सीमित होती है। इसका प्रचलन हमारे साहित्य व विद्वत-समाज में बखूबी हो रहा है; जिसे देखकर मानव सोचने पर विवश हो जाता है कि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर व धन-सम्पदा लुटाकर उपाधियां व प्रशस्ति-पत्र प्राप्त करने वाले कृपा-पात्र, केवल बड़े-बड़े मंचों पर आसीन ही नहीं होते; उनकी प्रशंसा व सम्मान में कसीदे भी गढ़े जाते हैं; जिसे सुनकर वे सीधे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं और इस जहान के बाशिंदों से उनका संबंध- सरोकार शेष नहीं रह जाता।

इन्हीं दिनों कन्हैया लाल भट्ट जी का ‘राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार और सम्मान—एक व्यवसाय’ और मनीष तिवारी जी की उक्त भाव व कटु सत्य को उजागर करती सार्थक कविता ‘ओ सम्मान वालो’ पढ़ने को मिलीं। दोनों रचनाओं में पुरस्कारों-सम्मानों की लालसा व दौड़ में अक्सर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वास्तव में जो सम्मान के हक़दार हैं, वे उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। परंतु फिर भी वे शांत व निष्काम भाव से साहित्य-सृजनरत रहते हैं और आजीवन सम्मान के पात्र नहीं बन पाते।

आश्चर्य होता है, यह देखकर कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार नवाज़ने वाली संस्थाएं शॉल, श्रीफल व सम्मान-पत्र जुटाए विज्ञापन देती हैं तथा ऐसे लोगों की तलाश में रहती हैं…’पैसा दो; कार्यक्रम की व्यवस्था में सहयोग करो और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त करो।’ इतना ही नहीं, उनके यहां मानद उपाधियों का भी अंबार लगा रहता है। ‘पैसा फेंको…और बदले में मनचाही उपाधि प्राप्त करो।’ पीएच• व डी•लिट्• की मानद उपाधियों से नवाज़े गये लोग यू•जी•सी• द्वारा प्रदत डिग्री के समकक्ष लिखने अर्थात् नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लिखने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते, जबकि यह कानूनी अपराध है… बल्कि वे तो फख़्र महसूस करते हैं, क्योंकि वे तो बिना परिश्रम के, थोड़ी-सी धन-राशि जुटाकर वह सब पा लेते हैं; जिसे प्राप्त करने के लिए लोग वर्षों तक साधना करते हैं। उन दिनों उन्हें दिन-रात समान भासते हैं। परंतु आजकल तो कानून का भय, डर व ख़ौफ़ है ही कहां? यह आमजन के जीवन की त्रासदी है, जिसे आप हर मोड़ पर अनुभव कर सकते हैं।

वास्तव में उन साहित्यकारों की नियति देखकर असीम दु:ख होता है, जो एक तपस्वी की भांति शांत भाव से निरंतर चिंतन-मनन व लेखन करते रहते हैं और तिलस्मी दुनिया के कर्णाधारों को उन कर्मयोगियों की साधना की खबर तक भी नहीं होती। इस दुनिया में सबका अपना-अपना नसीब है, अपना-अपना भाग्य है, अपनी-अपनी तक़दीर है। परंतु यह तो पूर्वजन्म के कर्मों का लेखा-जोखा है…जिसे जितनी साँठगाँठ करने का सलीका व अनुभव होगा, वह उतने अधिक सम्मान पाने में समर्थ होगा। ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जो जितना अधिक जोखिम उठाने का साहस जुटा पाएगा; उतना ही ख्याति-प्राप्त साहित्यकार बन जाएगा। तो आइए! अवसर का लाभ उठाने की प्रतियोगिता में प्रतिभागी बन जाइए और शामिल हो जाइए इस दौड़ में…जहां अध्ययन, परिश्रम व साधना अस्तित्वहीन हैं, उनकी तनिक भी दरक़ार नहीं। हां! इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि ‘जितना गुड़ डालोगे, उतना मीठा होगा’ अर्थात् जितना धन जुटाओगे; उतना बड़ा सम्मान पाकर नाम कमाओगे।

यह भी अकाट्य सत्य है कि ‘यह सुविधा-प्राप्त सम्मान व पुरस्कार आत्मोन्नति के पथ में बाधक होते हैं और आपकी सोचने-विचारने की शक्ति को कुंद कर देते हैं। जब इंसान बिना प्रयास के आकाश की ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हो जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कट जाता है।’ वह इस तथ्य से भी बेखबर हो जाता है कि उसे लौट कर इसी धरा पर आना है; समाज के लोगों के मध्य अर्थात् उनके साथ ही रहना हैं। अत्यधिक प्रशंसा सदैव पतन का कारण बनती है और अकारण प्रशंसा करने वाले लोगों से मानव को सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे मित्र नहीं, शत्रु होते हैं; जो आपके हितैषी कदापि नहीं हो सकते। जैसे नमक की अधिकता रक्तचाप को बढ़ा देती है और व्यर्थ की चिंता अनगिनत रोगों की जनक है; जिससे निज़ात पाना संभव नही। आप चाहकर भी इस दुष्चक्र अथवा मिथ्या अहं-रूपी व्यूह से बाहर निकल ही नहीं सकते, क्योंकि उस स्थिति में आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ अनुभव करने लगते हैं। यह एक ऐसा लाइलाज रोग है;  जिससे मुक्ति पाना, नशे की गिरफ़्त से स्वतंत्र होने के समान कठिन ही नहीं; ना-मुमक़िन है, क्योंकि जितना व्यक्ति इसके चंगुल से बाहर आने का प्रयास करता है, उतना अधिक उस दलदल में धंसता चला जाता है। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि,जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् वहाँ से आने वाले सब, उसे काले ही नज़र आते हैं…पांचों इंद्रियों के दास, इच्छाओं के ग़ुलाम, अहंनिष्ठ, निपट स्वार्थी… सो! ऐसे माहौल में वह अपने सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है।

आइए! आत्मावलोकन करें; परिश्रम व साहस को जीवन में धारण कर निरंतर अध्ययन व गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति में लीन रहें; अपने अहं को विगलित कर साहित्य-सृजन करना प्रारंभ करें। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग–जब रवीद्रनाथ ठाकुर से अंतिम दिनों में किसी ने उन से यह प्रश्न किया कि 2000 गीतों की रचना करने के पश्चात् वे कैसा अनुभव करते हैं? टैगोर जी सोच में पड़ गये… ‘जो गीत वे लिखना चाहते थे, अब तक नहीं लिख पाए हैं।’ नोबल पुरस्कार विजेता के मुख से ऐसा अप्रत्याशित उत्तर सुन वह दंग रह गया।

रहीम जी ने ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ संतोष को सबसे बड़ा धन स्वीकारा है, परंतु साहित्य-सृजन के संदर्भ में संभावनाओं को ज़हन में रखना आवश्यक है…यही सफलता का सोपान है। ज्ञान असीम है, अनंत है, सागर की भांति अथाह है। जितना आप गहरे जल में गोता लगाएंगे; उतने अनमोल मोती व सीपियां आपके हाथ लगेंगी। सो! बड़े सपने देखिए, परंतु खुली आंखों से देखिए और तब तक आराम से मत बैठिए… जब तक आप मंज़िल पर नहीं पहुंच जाते। जीवन की अंतिम सांस तक निष्काम भाव से साहित्य सृजनरत रहिए; सुविधा-प्राप्त पुरस्कारों की प्रतियोगिता में प्रतिभागी मत बनिए…पीछे मुड़कर मत देखिए… बीच राह से लौटने के भाव को भी मन से निकाल दूर फेंकिए; रास्ते व गुणों के पारखी आपको स्वयं ही ढूंढ निकालेंगे। यही ज़िंदगी का मूलमंत्र है… सार है… मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 237 ⇒ ताइवान के अमरूद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ताइवान के अमरूद।)

?अभी अभी # 237 ⇒ ताइवान के अमरूद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आपने बागपत के खरबूजों की तारीफ सुनी है, तो हमने भी बड़वानी के पपीते खाए हैं। आज अगर लोकल फॉर वोकल और स्वदेशी का जमाना है, तो हमारा जमाना तो पूरा देसी ही था। मांडव की खिरनी और फलबाग के जाम अगर देसी थे तो बड़वाह का चिवड़ा और राऊ की कचौरी भी अपनी ही तो थी।

सूरज की पहली किरण के साथ ही, दूध, अखबार, अटाला और सब्जी वाला मोहल्ले में एक साथ दस्तक देते थे। उनके सभी लोकल काम, वोकल ही तो होते थे। सूर्योदय से पहले ही सबसे पहला संगीत सड़क पर झाड़ू बुहारने का गूंजा करता था। और फिर शुरू होता था बिग बास्केट और ज़ोमेटो की जगह ठेलों पर ताजी सब्जियों, और फलों का तांता, अपने अपने सुर और राग में। एक ही सांस में सभी सब्जियों के नाम। तेरी आवाज ही पहचान है। फेरी वालों की पहचान आवाज से ही होती थी।

दोपहर होते होते तो एक बूढ़ी लेकिन कड़क आवाज हींग वाले की भी सुनाई दे जाती थी।।

तब तो टमाटर भी देसी ही आते थे और नींबू भी कागदी, बिल्कुल पीयर्स साबुन की तरह पारदर्शी। फिर शुरू हुआ संकर मक्का और हाइब्रीड का दौर! टमाटर भी देसी और सलाद के आने लगे, बिना बीज के, बिना रस, स्वाद और खटाई के। बीज से लोगों को पथरी होने लगी।

रासायनिक खाद ने छिलकों में छोड़िए, पूरे फलों में ही जहर भर दिया।

पहले अंगूर खट्टे और बीज वाले होते थे। आज उन्नत अंगूर देखिए बिना बीज वाले, लंबे लंबे, नासिक वाले। आज आप कौन से संतरे खा रहे हैं, आप ही जानें। हम तो नागपुरी संतरों की बात कर रहे हैं।।

पपीते की जगह तो कब से ताइवान के पपीते ने ले रखी है, नासपाती और अमरूद ने मिलकर एक अलग ही खिचड़ी पका ली। केले समय पूर्व पकने के चक्कर में अपना स्वाद और खुशबू, सब खो चुके हैं। करते रहिए छींटाकशी, बाजार में छींटे वाले केले कहीं नजर नहीं आएंगे।

इस बार तो देसी भुट्टो के लिए भी तरस गए। यह कैसा स्वदेशी और लोकल फॉर वोकल, हर जगह अमरीकन भुट्टे का ही बोलबाला। जो किसान बोएगा, वही तो बाजार में उपलब्ध होगा।।

बदलते मौसम के साथ फलों की भी बहार आती है। एकाएक पूरे बाजार में ताजे ताजे, बड़े बड़े अमरूदों की बहार आ गई। अमरूद किसकी कमजोरी नहीं। एक अमरूद रोज, an apple a day, का ही काम करता है, क्योंकि इसके बीज आंतों की सफाई करते हैं और इसे शुगर वाले मरीज भी खा सकते हैं।

लेकिन हाय री किस्मत, इस बार हमें अमरूद भी ताइवान के ही हाथ लगे। हम अमरूदों की खुशबू पहचानते हैं। खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं! लेकिन पहली बार उस ताइवानी अमरूद की शक्लो सूरत और बाहरी सुंदरता पर मर मिटे। अच्छा मोटा ताजा, मुंह में पानी लाने वाला।।

हमें न जाने क्यों ऐसे वक्त पर बर्नार्ड शॉ याद आ जाते हैं। जो चाहते हो, वह पा लो, वर्ना जो पाया है, उसे ही चाहने लग जाओगे। अरहर और मूंग की दाल भी आजकल हमें आकार में छोटी नजर आने लगी है, बड़ी मांगो तो स्वाद और खुशबू गायब। अब तो बस, जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया। मैं स्वाद, खुशबू और गुणवत्ता के साथ समझौता करता चला गया।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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