हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #158 ☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य गाँव की धूल और नेता के चरन। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 158 ☆

☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन

नेताजी के गाँव के दौरे पर आने की खबर पहुँच चुकी थी। कलेक्टर और बहुत से छोटे अफसर साज़-सामान के साथ पहुँच चुके थे। कलश, फूलमाला वगैरः का मुकम्मल प्रबंध हो चुका था। गाँव के लोगों की एक भीड़ नेता जी के भाषण के लिए बनाये गये मंच के पास इकट्ठी होकर उत्सुकता से उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। बच्चे और औरतें किलिर-बिलिर कर रहे थे।

नेता जी की कार आती दिखी और इंतज़ामकर्ताओं और दर्शकों में हरकत होने लगी।  कार रुकी और उसके रुकते ही धूल का एक बड़ा ग़ुबार उठा और गाँव वालों के ऊपर बरस गया। गाँव वालों ने अपने गमछों से मुँह और कपड़ों की धूल झाड़ी।

नेता जी ने मोटर से उतर कर गाँव वालों को झुक कर नमस्कार किया। सरपंच के हाथों से माला पहनी। जब गाँव की स्त्रियों के द्वारा उनकी आरती उतारी गयी तो वे आँखें मूँदे, हाथ जोड़े खड़े रहे। यह सब हो गया तो नेता जी ने घूम कर गाँव का सिंहावलोकन किया। उनकी मुद्रा से ऐसा लगा जैसे वह गाँव को देख कर भाव-विभोर हो गये। उनका मुख प्रसन्नता के फैल गया और दोनों हाथ प्रशंसा के भाव से उठ गये।

नेताजी की इच्छानुसार उन्हें पूरे गाँव के राउंड पर ले जाया गया। नेताजी अगल-बगल के घरों में झुक झुक कर झाँकते जाते थे, हाथ जोड़कर नमस्कार करते जाते थे। गाँव की स्त्रियाँ घूँघट में दो उँगलियाँ लगाये उन्हें देख रही थीं। एक घर में से हाथ-चक्की चलने की आवाज़ आ रही थी। नेताजी एकाएक भाव-विभोर होकर उस घर की चौखट पर बैठकर ठुनकने लगे— ‘मैं तो चने की मोटी रोटी और चटनी खाऊँगा।’ कलेक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहाँ से उठाया। नेताजी जैसे बड़ी अनिच्छा से दुखी मुँह लिये उठे। गाँव वाले उनकी सरलता को देखकर बहुत प्रभावित, एक दूसरे का मुँह देख रहे थे।

गाँव के चक्कर के बाद नेता जी का भाषण हुआ। नेताजी बोले, ‘भाइयो, मेरी मोटर और मेरे कपड़ों को देखकर आप समझते होंगे कि मैं बहुत सुखी हूँ। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस देश में आपसे ज्यादा सुखी कोई नहीं है। हम शहर में रहने वाले माटी की इस सुगंध के लिए, इस ताजी हवा के लिए, इन पेड़ों के लिए तरसते हैं। मैं शहर में रहता हूँ, लेकिन मेरी आत्मा भारत के गाँवों में घूमती रहती है। मेरे प्यारे ग्रामवासियो, तुम अपने को छोटा मत समझो। तुम हमारे अन्नदाता हो, हमारे मालिक हो। मैं आप लोगों को प्रणाम करता हूँ।’

नेता जी ने झुक कर गाँव वालों को नमस्कार किया।

नेता जी ने एक गाँव वाले को मंच पर बुलाया, जिसकी नीली कमीज़ पर पसीने की अनगिनत सफेद रेखाएं थीं। नेताजी ने उसे बगल में खड़ा करके उसकी कमीज़ की तरफ इशारा किया, बोले,  ‘भाइयो, ये पसीने के निशान देखते हैं आप? यह पसीना गंगा के पानी से भी ज्यादा पवित्र है। आप अपनी गरीबी पर दुखी मत होइए। आज आपसे धनी कोई नहीं। आपके पास मेहनत की संपत्ति है, इसलिए आप गरीब होते हुए भी राजा हो और हम जैसे लोग निर्धन हैं।’

नेताजी ने गर्व से दाहिने-बायें देखा और सरपंच ने कलेक्टर के इशारे पर तालियाँ बजवा दीं।

भाषण खत्म करते हुए नेताजी बोले, ‘मेरे प्यारे गाँववासियो, मैं राजधानी में जरूर रहता हूँ, लेकिन मेरा दिल हमेशा आपके साथ रहता है। काम ज्यादा रहने के कारण आपके बीच में आने का सुख प्राप्त नहीं कर पाता। लेकिन मैं आपका आदमी हूँ। आप कभी राजधानी आयें तो मुझे सेवा का मौका दें। मेरा दरवाजा हर वक्त आपके लिए खुला रहेगा।’

कलेक्टर और सरपंच के इशारे पर गाँव वालों ने फिर तालियाँ बजायीं।

उधर नेताजी की कार के पास उनके ड्राइवर से एक ग्रामीण युवक बड़ी दीनता से बात कर रहा था। युवक ड्राइवर से बोला, ‘ड्राइवर साहब, शहर में हमारे लिए कुछ काम का जुगाड़ लगवा दो।’

ड्राइवर सिगरेट का कश खींचकर बोला, ‘किराये के पैसे हों तो दिल्ली आ जाना। वहाँ आकर नेता जी से विनती करना।’

युवक विनती के स्वर में बोला, ‘किराये के पैसे कहाँ हैं साहब? इसी मोटर में एक कोने में बैठा कर ले चलते तो बड़ी मेहरबानी होती।’

ड्राइवर ने सिगरेट मुँह से निकाल कर ठहाका लगाया, फिर हाथ झटकता हुआ बोला, ‘अरे भाग पगलैट, भाग यहाँ से। कैसे-कैसे पागल आ जाते हैं।’

युवक वहाँ से खिसक कर कुछ दूर जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 116 ☆ मन का मनका फेर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन का मनका फेर। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 116 ☆

☆ मन का मनका फेर ☆ 

हेरा- फेरी के चक्कर में केवल दोषी ही मानसिक कष्ट नहीं उठाता वरन उससे जुड़े लोग भी शक के घेरे में आ जाते हैं। शिकायतकर्ता अपने को सौ प्रतिशत सही मानता है जबकि आरोपी मामला शांत करवाने हेतु हर समझौते के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे में सबसे बड़ी भूमिका संवाद की होती है। यदि विवाद को शांत करना है तो क्षमा याचना के साथ की गयी प्रार्थना को स्वीकार करना चाहिए। अनावश्यक बात का बतंगड़ सबका चैन छीनता  है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जहाँ उसके अच्छे कार्यों से सभी सुखी होते हैं तो वहीं दूसरी ओर जाने- अनजाने किए गए गलत कार्यों की आँच से जुड़े हुए लोगों का झुलसना स्वाभाविक है।

करे कोई भरे कोई  ये मुहावरा कई अर्थों में प्रयोग होता है। कहते हैं कर्म का प्रभाव अवश्यम्भावी होता है। कार्य तो करें किन्तु इतनी जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए कि परिणाम क्या होगा इसकी चिंता करने का अवसर ही न मिले। सबको साथ लेकर चलने की कला जिसको आ गयी उसे सब कुछ आ जाता है। जाना आना तो प्रकृति का नियम है। सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। किसी का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता बस योजना सही होनी चाहिए। यदि सही तरीके से निर्धारण हो तो प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहती है। वास्तव में टीम लीडर ऐसा होना चाहिए जो हमेशा बैकअप प्लान तैयार करके रखता हो।  बस शुरुआत करिए यदि आप चलने लगेंगे तो लोग स्वयं आपके साथ खड़े होकर हिप- हिप हुरै करनें में सहयोग देंगे।

पूरी व्यवस्था यदि चार चरणों में हो तो कोई भी आकर खाली स्थान को भर देगा और किसी को समझ भी नहीं आएगा कि क्या उठा- पटक हो गयी।  प्रातः स्मरणीय वंदना के साथ विचार शक्ति को सशक्त करिए और जुट जाइए दैनिक कार्यों के संपादन में। लगभग पचहत्तर प्रतिशत कार्य पूरा करने के बाद इंतजार करिए कि कोई न कोई बचा हुआ पच्चीस प्रतिशत पूरा करने के लिए आएगा क्योंकि आखिरी दौर में अपने आप भीड़ इकट्ठी हो जाती है।

जीवन का फलसफा है कि-

मन का मनका जाप कर, कर्म करो निःस्वार्थ।

लक्ष्य साध बढ़ते रहो, जैसे बढ़ता पार्थ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 153 ☆ “बारिश तुम कब जाओगी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बारिश तुम कब जाओगी”)  

☆ व्यंग्य # 153 ☆ “बारिश तुम कब जाओगी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

Preview imageराजा के देश में पानी नहीं गिर रहा था, गर्मी से हलाकान महिलाओं ने इन्द्र महराज को खुश करने कपड़े उतार कर फेंक दिए, राजा की मर्जी से चारों तरफ टोटके होने लगे, शिव शक्ति मंडल ने एक मंदिर में मेंढक मेंढकी का विवाह धूमधाम से करा दिया, खर्चा हुआ दस बारह लाख। विपक्षियों ने मांग उठाई, विवाह के खर्च में जीएसटी की चोरी की गई है। एक दूसरी पार्टी वाले का कहना था कि शायद राजा ने लगता है कि स्कूलों में नर्सरी और के. जी. के कोर्स  से नर्सरी राइम्स में से “रेन रेन गो अवे ” को हटा दिया होगा, तभी बारिश रूठ गई है। कुछ कहने लगे जब राजा को हटाया जाएगा तब बादल खुश होंगे।

हर जगह नये नये टोटकों की बाढ़ आ गई।इन्द्र महराज के दरबार में किसी ने शिकायत कर दी कि नीचे वालों ने एक मेंढक के साथ अत्याचार और अन्याय किया है उसकी इच्छा के विरुद्ध एक मंदिर में मेंढकी से विवाह कर दिया है।इन्द्र महराज ने नीचे झांककर देखा एक गांव में सैकड़ों औरतें उमस और गर्मी से परेशान हैं और बूंद बूंद को तरस रहीं हैं,  पसीने से तरबतर महिलाएं धीरे-धीरे अपने वस्त्रों को शरीर से अलग कर रहीं हैं शरीर के पूरे कपड़े उतार कर नाचते और  लोकगीत गाते हुए किसी देवता को रिझाने के लिए पूजा पाठ कर रहीं हैं …बरसात के देवता ने झांक कर देखा और तत्काल दूत को आदेश दिया कि बंगाल की खाड़ी के इंचार्ज साहब से बोलो कि हमने आर्डर दिया है कि बंगाल की खाड़ी से बादलों की एक खेप इस गांव की ओर तुंरत रवाना करें …

आदेश का पालन इतना तेज हुआ कि भूखे बादलों को तेज हवा ने ढकेल दिया , बादल भूखे थे,बादलों की माँ समुद्र में रोटी सेंक रही थी उनकी भी परवाह नहीं की ,डर के मारे बादल चलते चलते जैसई रास्ते में ऊंचे पहाड़ मिले ,भूखे मेघ चरने लगे ,तभी पीछे से तेज हवा ने हंटर चलाना चालू किया, गुस्से में आकर इतना बरसे कि रिकार्ड तोड़ दिया, हाहाकार मच गया, करोड़ों रुपए के बांध टूटने की कगार में पहुंच गए, शहर और गांव डूब गए,पुल टूट गये, सड़कें धंस गई,विपक्ष ने कहा हर जगह भ्रष्टाचार हुआ है।

राजा के भक्तों ने आरोपों का खंडन करते हुए विपक्ष पर नये आरोप गढ़ दिये, मीडिया को दंगल कराके पैसा कमाने का अच्छा मौका मिल गया, विपक्ष पर आरोप लगाया गया कि आने वाले चुनावों को देखते हुए इन लोगों ने पैसा खिलाकर इंद्र महराज से सारी बारिश इसी क्षेत्र में कराने का षड़यंत्र रचा,इसलिए इस बार जनता को तकलीफ उठानी पड़ रही है।विवाद बढ़ते देख हाईकमान ने खरीदी मंत्री को जांच करने भेजा,जांच से पता चला कि जुलाई महीने में एक मंदिर में मेंढक मेंढकी का जबरदस्ती विवाह कराया गया था जिसकी शिकायत किसी ने बरसात के देवता को कर दी थी और राजा के इशारे पर रोज तरह तरह के टोटके होने लगे थे। खरीदी मंत्री ने तुरंत अरकाटियों और पंडितों को बुलाया,सलाह मशविरा किया और तय किया गया कि जुलाई में धूमधाम से सम्पन्न हुये मेंढक मेंढकी का तलाक करा दिया जाए, और राजा के दरबार में यज्ञ के दौरान ‘बारिश तुम कब जाओगी’ के सवा लाख मंत्रों का जाप कराया जाए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #157 ☆ व्यंग्य – एक और त्रिशंकु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘एक और त्रिशंकु’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 157 ☆

☆ व्यंग्य – एक और त्रिशंकु

पुराणों में एक कथा राजा त्रिशंकु की है जिन्हें ऋषि विश्वामित्र ने सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। उन्हें इंद्र ने वापस ढकेला तो विश्वामित्र ने पृथ्वी और स्वर्ग के बीच उनके लिए अलग स्वर्ग का निर्माण कर दिया और वे वहीं लटके रह गये।

दूसरी कथा युधिष्ठिर की है। आयु पूरी कर जब वे दूसरे लोक गये तो उन्हें अश्वत्थामा की मृत्यु के संबंध में मिथ्याभाषण के दंडस्वरूप कुछ देर के लिए नरक जाना पड़ा। वहाँ नरकवासियों ने प्रार्थना की कि उन्हें कुछ देर और वहाँ रखा जाए क्योंकि उनको छू कर आने वाली हवा से उन्हें सुख मिल रहा था।

अब नेताजी की बात। छः बार दल-बदल करने और छत्तीस अपराधों में नामित होने के बाद भी स्वच्छंद विचरते नेताजी अचानक संसार से मुक्त हुए तो सीधे नरक पहुँचे। नेताजी दुखी हुए क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनके अपराधों के बावजूद उन्हें स्वर्ग में प्रवेश मिल जाएगा, जैसे वे दल बदल कर हर कैबिनेट में घुसने में सफल होते रहे थे। लेकिन ऊपर उनकी कोशिशें कारगर नहीं हुईं।

नेताजी के आने से एक गड़बड़ यह हुई कि नरक में अचानक भयानक दुर्गंध फैलने लगी। थोड़ी ही देर में नरकवासी उस दुर्गंध से त्रस्त हो गये। लोग अचेत होकर गिरने लगे। खोजने पर पता चला कि वह दुर्गंध नेताजी की आत्मा से निर्गमित हो रही थी।

दुर्गंध को रोकने के सारे प्रयास विफल होने पर तय हुआ कि नरकवासियों के हित में नेताजी को वापस धरती पर भेज दिया जाए, जहाँ वे आत्मा के ही रूप में कुछ दिन रहें। दुर्गंध कुछ कम होने पर उन्हें पुनः नरक में खींचने पर विचार होगा।

दुर्भाग्य से यह खबर पृथ्वी पर लीक हो गयी और वहाँ खलबली मच गयी। लोग मन्दिर- मस्जिद में इकट्ठा होने लगे। प्रार्थना के द्वारा ऊपर संदेश भेजा गया कि नेताजी से बमुश्किल-तमाम मुक्ति मिली है, अतः उन्हें किसी भी सूरत में धरती पर न भेजा जाए। यह भी कहा गया कि नेताजी खुराफाती स्वभाव के हैं, अतः उनकी आत्मा यहाँ किसी के शरीर में जबरन घुसकर उसकी आत्मा को अपने काबू में कर लेगी और उसे अपने मंसूबों के हिसाब से चलाने लगेगी। लोगों ने प्रभु से यह भी कहा कि यदि नेताजी की आत्मा को पृथ्वी पर भेजा गया तो लोगों का भरोसा ईश्वर पर से उठ जाएगा और उनकी पूजा-अर्चना बन्द हो जाएगी।

यह संदेश ऊपर पहुँचा तो वहाँ सभी चिन्ता में पड़ गये। विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि फिलहाल नेताजी को ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा त्रिशंकु के लिए बनाये गये स्वर्ग में भेज दिया जाए,जहाँ एक के बजाय दो हो जाएँगे। निर्णय होते ही नेताजी की आत्मा को त्रिशंकु के स्वर्ग में ढकेल दिया गया।

दो तीन दिन बाद ही ऊपर राजा त्रिशंकु की गुहार पहुँची—‘हमें यहाँ से निकाला जाए। हम पृथ्वी पर वापस जाने के लिए तैयार हैं। अब हमारी स्वर्ग में रहने की इच्छा मर गयी है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 115 ☆ भाषा सम्मेलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “भाषा सम्मेलन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 115 ☆

☆ भाषा सम्मेलन ☆ 

सभी भाषाओं का सम्मेलन हो रहा था अंग्रेजी बड़े गर्व के साथ उठी और कहने लगी मैं सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हूँ, मुझे जितना सम्मान भारत  में मिला उतना कहीं नहीं, धन्यवाद भारतीयों।

फ्रेंच, रूस, जापानी, चीनी सभी  भाषाएँ एक एक कर मंच पर अपनी प्रस्तुति देतीं गयीं व सभी ने हिंदी की प्रशंसा व्यंग्यात्मक लहजे में मुक्त कंठ से की।

सबसे अंत  में  हिंदी को मौका  मिला, तो उसने कहा आप सब का धन्यवाद  मैंने तो सदैव सबको समाहित किया है क्योंकि  भारतीय संस्कार हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम का पालन कर रहे हैं , जो समष्टि का पोषक करता है वही दीर्घजीवी व यशस्वी होगा ऐसा दार्शनिक व वैज्ञानिक दोनों ही आधार पर सिद्ध हो चुका है।

ये सब कहीं न कहीं सत्य है। हिंदी पखवाड़े में हिंदी पर हिंदी भाषी ही चिंतन करते हैं और बाद में निराश होकर टूट जाते हैं और हिंदी के लेखन व ऑफीसियल कार्यों में इसके प्रयोग को नियमित नहीं कर पाते। दरसल हिंदी के कठिन शब्दों को ही अंग्रेजी के विकल्प के रुप में रखा जाता है। क्या आपने कभी गौर किया कि हमेशा हिंदी प्रयोग करने वाला भी बैंक या अन्य ऑफिस के कार्यों में अंग्रेजी का ही विकल्प चुनता है क्योंकि उसमें बोलचाल के शब्द होते हैं जबकि उत्कृष्ट हिंदी पढ़कर वो सहसा भूल जाता है कि क्या लिखा है।

हमें सामान्य बोलचाल की भाषा व ऐसे शब्द हो हिंदी ने आत्मसात कर लिए हैं उनका ही प्रयोग करना चाहिए। पूरे राष्ट्र को एक भाषा सूत्र में पिरोने हेतु बोलियों के प्रचलित शब्दों को भी बढ़ावा देना होगा। सरलता व सहजता से ही अहिंदी प्रान्तों को हिंदी प्रेमी बनाना होगा। पूरे वर्ष भर हिंदी के प्रयोग को एक आंदोलन के रूप में चलाना चाहिए। भारतेंदु  हरिश्चंद्र जी ने सही कहा है – निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। आइए संकल्प लें कि हिंदी में बोलेंगे, लिखेंगे और अन्यों को भी प्रेरित करेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 30 ☆ नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!! ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!”।) 

☆ शेष कुशल # 30☆

☆ व्यंग्य – “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हार में गुंथे एक फूल ने दूसरे से कहा – ‘मैं मर जाना चाहता हूँ.’

दूसरे ने कहा – ‘चौबीस-छत्तीस घंटे की ही तो लाईफ और बची है, कल तक सूख-साख जाओगे, फिर तो मिट्टी में मिलना तय है.’

‘चौबीस घंटे एक लंबा वक्त है दोस्त, मैं चौबीस सेकण्ड्स भी जीना नहीं चाहता. विधाता ने हम फूलों में जान तो डाल दी मगर हाराकीरी कर पाने के साधन नहीं दिए वरना अभी तक तुम मेरी मिट्टी देख रहे होते. मादक खूशबू, खूबसूरत पंखुड़ियाँ, ये चटख रंग एक झटके में सब के सब बदरंग हो गए हैं. अब मैं और जीना नहीं चाहता.’

‘कुछ देर पहले तक तो ठीक-ठाक थे अचानक ऐसा क्या हो गया है ?’

‘देख नहीं रहे! सम्मान करने के परपज से जिस गले में हमें डाला गया है वो नृशंस हत्या और बलात्कार कांड के सजायाफ़्ता मुजरिम का गला है. वह उस गुलबदन को मसल देने का अपराधी है जिसके गर्भ में एक पाँच माह की कली पनप रही थी. उसी की टहनी से फूटी नन्ही नाजुक सी ट्यूलिप को पत्थर पर पटक पटककर जिन्होने कुचल दिया उनकी सज़ा माफ कर दी गई है. गला इनका है और दम मेरा घुट रहा है. जो शख्स कैक्टस का हार पहनाए जाने की पात्रता नहीं रखते उसके गले को गुलों-गुलाबों से सजाया गया है !!, उफ़्फ़…. घिन आने लगी है दोस्त अब और जीने का मन नहीं है.”

फिर उसने हार में से कुछ तिरछा होकर आसमान की ओर देखा और कहा – ‘आगे से अंटार्कटिका में उगा देना प्रभु मगर आर्यावर्त में नहीं. मैं टहनियों में उगे कांटो के बीच रह लूँगा मगर नए दौर के आकाओं के निमित्त निर्मित मालाओं, गुलदस्तों में तो बिलकुल नहीं भगवान. कभी हम देवताओं के हाथों बरसाए जाने के काम आते रहे, आज अपराधियों के संरक्षकों के हाथों बरसाए जा रहे हैं. हमारी प्रजाति में जूही, चम्पा, चमेली किसी रेपिस्ट के रिहा होने पर तिलक नहीं लगातीं, आरती नहीं उतारतीं. आर्यावर्त में जुर्म, सजा, इंसाफ अपराध की प्रकृति देखकर नहीं, अपराधी का संप्रदाय और रिश्ते देखकर तय होने लगे हैं. हम आवाज़ नहीं कर पाते मगर समझते सब हैं. आर्यावर्त में बगीचे के माली फूलों को उनका धरम देखकर सींचते हैं. विधर्मी फूल सहम उठते हैं, कब कौन मसल दिया जाएगा कौन कह सकता है. कभी संगीन अपराधों पर सन्नाटा पसर जाया करता था अब ढ़ोल-ताशे बजते हैं. बजते रहें, इल्तिजा बस इतनी सी है प्रभु सहरा के रेगिस्तान में उग लें, साईबेरिया की बर्फ में उग लें, सागर की गहराईयों उग लें – आर्यावर्त में नहीं मालिक.’

‘मैं समझ सकता हूँ दोस्त, अब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी भी नहीं रहे कि तुम्हारी निराशा को स्वर दें सकें.’

‘पता है मुझे. कोई बात नहीं अगर वनमाली उस पथ पर न फेंक पाए जिस पर शीश चढ़ाने वीर अनेक जा रहें हों, कम से कम बलात्कारियों के पथ पर तो न डालें. सुरबाला के गहनों में गूँथ दें, चलेगा. प्रेमी-माला में बिंध दें – इट्स ऑलराईट. सम्राटों के शव पर अपने को सहन कर लूँगा. देवों के सिर पर चढ़ा दे तब भी कोई बात नहीं, हत्यारों बलात्कारियों के गर्दन-गले की शोभा तो न बनाएँ मुझे.’  उसने फिर साथी फूल से मुखातिब होकर कहा – ‘ये मिठाई, ये अबीर गुलाल और ये आतिशबाज़ी! इन्हे मामूली स्वागत समारोह की तरह मत देखना दोस्त – ये आनेवाले कल के आर्यावर्त का ट्रैलर है. फूलों की आनेवाली जनरेशन को इससे कठिन समय देखना बाकी है.’

‘डोंट वरी, हमें बहुत नहीं सहना पड़ेगा. जमाना आर्टिफ़िशियल फ्लावर का है. न उनमें जान होगी न तुम्हारी तरह जान देने की जिद. और लीडरान ? वे तो आर्टिफ़िशियल रहेंगे ही, अन्तश्चेतना से शून्य.’

सजा-माफ बलात्कार वीर समूह माला पहने-पहने तस्वीर खिंचवा रहा है. तस्वीर कल सुबह अखबार के कवर पेज पर नुमायाँ होगी. नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बांध और बाढ़ का खेल”)  

☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

एक अभियंता की दया से बांध बनाने का ठेका मिल गया, बांध बियाबान जंगल के बीच पिछड़े आदिवासी इलाके में बनना था, बीबी गर्व से फूली नहीं समा रही थी कहने लगी – अर्थ वर्क भ्रष्टाचार के रास्ते खोलता है और अमीर बनाने के खूब मौके देता है कमा लो जितना चाहो…। दो बड़े पहाड़ों को एक बड़ी मेंड़ बनाकर जोड़ने का काम था ताकि बहती नदी के पानी को रोका जा सके। इधर शहर में साहब का बंगला बनाने का नक्शा भी पास हो गया था। “बांध के साथ शहर में इंजीनियर साहब का बंगला भी बनता रहेगा” साहब के इसी इशारे में काम दिया गया था। सीमेंट, गिट्टी, लोहा शहर से खरीदा जाता बांध के लिए। पर पहली खेप बंगले बनने वाली जमीन पर उतार दी जाती। फिर बांध के नाम का बिल तुरंत पास हो जाता। 

बांध का काम चलता रहा और साहब का बंगला तैयार…। उधर साहब कभी कभी बांध के पास बनी कुटिया में शराब, शबाब और कबाब में डूबे रहते और शहर के बंगले के बेडरूम में उनकी मेडम फिनिशिंग का काम कराती रहती। बरसात आयी खूब पानी गिरा, लीपापोती के चक्कर में साहब ने बांध बह जाने की रिपोर्ट ऊपर भेज दी। साहब का बंगला रहने के लिए तैयार और साहब ने पैसे देकर ट्रांसफर करा लिया। 

अब जो नया साब आया उसे बड़े टाइप के बांधों में घोटाला करने का अच्छा अनुभव था… नाम  सलूजा साब। एक दिन शराब के नशे में सलूजा जी ने बड़े बांधों में घपले के किस्से सुनाए – बांध  बनने से बहुत से गांव डूब जाते हैं, बड़ी आबादी विस्थापित होती है, सोना-चांदी उगलतीं फसलें तबाह होतीं हैं गरीब बेसहारा हो जाते हैं और बांध बनाने वाले अधिकारी और ठेकेदारों की चांदी हो जाती है, बंगले और मंहगी गाड़ियों में ईजाफा हो जाता है। 

अभी एक खबर सुनी, ये भी आदिवासी जिले के 305 करोड़ लागत के बांध के घपले की खबर थी। खबर सुनकर बड़बड़ाना स्वाभाविक है कि हम लगातार बांधों का निर्माण तो करते जा रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बांध प्रबंधन का सलीका नहीं सीख पाए हैं। यदि बांध से बाढ़ को रोका जा सकता है तो पूरा देश बाढ़ की चपेट में आकर क्यों बर्बाद हो रहा है। बांध बनते जा रहे हैं और बाढ़ से तबाही भी बढ़ती जा रही है। बाढ़ देखने के हवाई दौरे भी बढ़ रहे हैं। बांध और बाढ़ की चर्चा पर करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं, और बांध बाढ़ से दोस्ती करके हाहाकार मचवाये हुए हैं। नेता लोग बांध घूम कर बाढ़ का मजा लेते हैं और बाढ़ में गरीब लोग मरते हैं। बिहार में 47 साल से बन रहा 380 करोड़ रुपये का बांध उदघाटन होने के एक दिन पहले ही बह गया था।  बांध भी मुख्यमंत्रियों से डरता है। आरोप लगे कि बांध को दलित चूहों ने कुतर दिया इसलिए बांध बह गया। गंगा मैया सागर से मिलने उतावली है और उसे बांध में बांध दोगे तो क्या अच्छी बात है गंगा मैया नाराज नहीं होगी क्या? उदघाटन के पहले मुख्यमंत्री को गंगा मैया में नहा-धोकर पाप कटवा लेना चाहिए था, तो हो सकता है कि बिहार का बांध बच जाता। 

दूरदराज और जंगल के बीच बने छोटे छोटे  बांध आंकड़ों में चोरी हो जाते हैं अक्सर। असली क्या है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है न, इसलिए बांध और बाढ़ की जरूरत पड़ती होगी देश पूरी तरह खेती पर आश्रित है और इन्द्र महराज पानी देने में पालिटिक्स कर देते हैं तो सिंचाई के लिए बांध और नहरों की जरूरत पड़ती है। बांध बनाने के पहले विरोध होता है फिर बांध बनते समय विरोध होता है और बांध बन जाने के बाद विरोध होता है क्योंकि विरोध करना हमारी संस्कृति है। 

सबको मालूम है कि जब बड़े बांध बनते हैं तो हजारों गांव खेती की जमीन पशु, पक्षी, पेड़, पौधे सब डूब जाते हैं विस्थापितों के पुनर्वास में लाखों करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं फर्जी भू-रजिस्टरी का कारोबार पकड़ में आता है।

गंगू बांध और बाढ़ की दोस्ती से परेशान है, बिहार वाले नेपाल के बाधों से परेशान हैं और किसान हर तरफ से परेशान है। दुख इस बात का है कि इस बार आदिवासी क्षेत्र के इस 305 करोड़ रुपए लागत के  बांध के फूटने की खबर ने हजारों किसानों को रक्षाबंधन और आजादी का अमृत महोत्सव चैन से नहीं मनाने दिया।  

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #156 ☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 156 ☆

☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान

रोड पर चलते हुए कुछ दूर पर भीड़ सी देखकर उत्सुकतावश रुक गया। पास गया तो देखा भीड़ एक मूर्ति को घेरे थी। आरती और पूजा का कार्यक्रम चल रहा था। भीड़ से छटक कर एक सज्जन निकले तो पूछा, ‘यहाँ क्या हो रहा है?’

जवाब मिला, ‘यह हमारे समाज के कवि जी की मूर्ति है। आज उनका जन्मदिन है, इसलिए समाज का कार्यक्रम चल रहा है। इन्होंने हमारे समाज का नाम ऊँचा किया है।’

मैंने पूछा, ‘इनकी कविताएँ आपने पढ़ी हैं?’

जवाब मिला, ‘अभी पढ़ी तो नहीं हैं, लेकिन इनकी दो किताबें है हमारे पास हैं। समाज ने मँगवा कर सबको बँटवायी थीं।’

मैंने पूछा, ‘आप दूसरे कवियों को पढ़ते हैं?’

वे बोले, ‘अरे भैया, कहाँ घसीट रहे हो? हम व्यापारी आदमी हैं। हमें धंधे से फुरसत मिले तो कविता अविता देखें। ये सब फुरसत वालों के काम हैं।’

घर पहुँचा तो वह घटना दिमाग में घूमती रही। सोचते सोचते अपराध-भाव से घिरने लगा। बार-बार यह विचार कुरेदने लगा कि दूसरे समाजों में लोग जाति-गर्व से फूले हैं, और एक मैं हूँ कि कभी अपनी जाति पर गर्व करने का सोचा नहीं, जबकि हर क्षेत्र में हमारी जाति के झंडे लहरा रहे हैं। शहर में महाराणा प्रताप और सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा हमारी जाति के किसी बड़े आदमी की मूर्ति दिखायी नहीं पड़ी, जो निश्चय ही अफसोस की बात है। इस सबके बीच मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। बुलाये जाने पर भी अपनी जाति के कार्यक्रमों से कन्नी काटता रहा। कभी जाति पर गर्व नहीं किया।

इसलिए सोचा कि फिलहाल हमारे समाज के उन महानुभावों के नाम खोज कर सामने लाऊँ जिन्होंने साहित्य में नाम किया है और हमारे समाज का नाम रोशन किया है। बताना ज़रूरी है कि जैसे हमारे समाज ने वीरता में इतिहास रचा, वैसे ही साहित्य में कम हासिल नहीं किया।

प्रातःस्मरणीय सुभद्रा कुमारी जी का नाम ले चुका हूँ। उनकी ‘खूब लड़ी मर्दानी’ तो आप भूल नहीं सकते। उनसे पहले हमारे समाज के एक और साहित्यकार राधिका रमण प्रसाद सिंह हुए थे जिनकी कहानी ‘कानों में कंगना’ खूब चर्चित हुई।

हमारी जाति का समाज साहित्यकारों की खान रहा है। आलोचना में शीर्षस्थ नामवर सिंह हमारे समाज में ही अवतरित हुए। उनके अनुज काशीनाथ सिंह ने कहानी और उपन्यास में झंडे गाड़े। उनके समधी दूधनाथ सिंह एक और महत्वपूर्ण कथाकार रहे। आलोचना में नामवर जी के अलावा कर्ण सिंह चौहान और चंचल चौहान भी सुर्खरू हुए। इसी काल में हमारे समाज में ‘नीला चाँद’ उपन्यास के रचयिता शिवप्रसाद सिंह भी मशहूर हुए। बताना ज़रूरी है कि ‘आँवा’ उपन्यास की लेखिका चित्रा मुद्गल जी जन्म से हमारे समाज की हैं।

कवियों में ‘ताप के ताए हुए दिन’ के रचयिता महाकवि त्रिलोचन (असली नाम वासुदेव सिंह) और ‘कुरुक्षेत्र’ वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को कौन भूल सकता है? इसी परंपरा में आगे ‘बाघ’ के कवि केदारनाथ सिंह ने खूब यश अर्जित किया।        

हमारे समाज के दो और चमकते सितारे ‘टेपचू’ और ‘तिरिछ’ के लेखक उदय प्रकाश और ‘लेकिन दरवाज़ा’ वाले पंकज बिष्ट हैं। किसी को आपत्ति न हो तो ख़ाकसार को भी इस सूची के अन्त में जोड़ा जा सकता है, यद्यपि अपना योगदान कुछ ख़ास नहीं है।

अभी यह सूची खुली है और खुली ही रहेगी। जो छूट गये हैं वे कुपित न हों। उम्र के साथ मेरी स्मरण-शक्ति कमज़ोर हो रही है, इसलिए भूल सुधार का सिलसिला चलता रहेगा। फिलहाल मैंने ‘हिन्दी साहित्य में क्षत्रियों का योगदान’ पुस्तक की शुरुआत कर दी है। मुकम्मल होने पर जनता-जनार्दन की ख़िदमत में पेश करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 114 ☆ पूछ से पूँछ तक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “पूछ से पूँछ तक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 114 ☆

☆ पूछ से पूँछ तक ☆ 

उत्सव समाप्त की विधिवत घोषणा भी नहीं हो पायी थी कि एक बड़ा खेमा विरोध में खड़ा हो गया। उसकी समस्या थी कि उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया, केवल एक की  ही पूँछ पकड़े साहब घूमते रहे, अब क्या किया जाए, प्रकृति ने तो इसे मानव से विलुप्त कर दिया है ठीक वैसे ही जैसे डायनासौर को, पर अभी भी  कुछ  लोग इसका भरपूर  उपयोग कर रहे हैं।

विरोधी ग्रुप ने खूब हाथ-पैर  पटके पर उम्मीद की किरण दिखाई ही नहीं दे रही थी, खैर उम्मीद पर तो दुनिया कायम  है वे लोग  समानांतर  संगठन बनाने लगे।

उनका नेता भी कोई कुटिल ही होना था क्योंकि  बिना इसके न तो रामायण पूरी हुई न महाभारत सो ये क्रम कैसे रुके, अच्छा भी है ये सब होते रहने से कुछ कड़वाहट भी फैलती है जिससे मीठे की बीमारी से बचाव होता है।

जब व्यक्ति  स्वान्तः सुखाय की दृष्टि धारण कर लेता है तो उसे स्वार्थी की संज्ञा समाज द्वारा दे दी जाती है।

अब प्रश्न ये उठता है कि क्या  स्व + अर्थ  =  स्वार्थ की कसौटी क्या होनी चाहिए इसका निर्धारण कौन करेगा। सभी अपने दृष्टिकोण से  सोचते हैं, तर्क देते हैं और खुद ही फैसला सुना देते हैं। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है यदि उससे किसी का नुकसान न हो  रहा हो तो।

जितना  भी विकास हुआ है उसमें मनुष्य की जिज्ञासू प्रवृत्ति से कहीं ज्यादा  स्वयं का हित ही समाहित रहा है। जब-जब केवल अपना हित चाहा प्रत्यक्ष रूप से तब-तब विरोध के स्वर मुखरित हुए।

यदि आपके विचारों से समाजोपयोगी कार्य हो रहे हैं तो अवश्य करें, जब तक एक जुट होकर सार्थक प्रयास नहीं होंगे तब तक स्वार्थ  सिद्धि में लगे लोग इसके सही अर्थ को न समझ पायेंगे न समझा पायेंगे।

छोड़ दो तुम स्वार्थ सारे।

थाम लो  नेहिल   सहारे।।

बीत   जायेगी   ये  रैना।

बात  सच्ची  मान  प्यारे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

चमत्कारी प्रशिक्षु: किस्सा इंदौर प्रशिक्षण केंद्र का है. वाकया उस वक्त का जब हर सत्र के दौरान विषय से संबंधित “हेंड आउट्स” सभी पार्टिसिपेंट्स को वितरित किये जाते थे. यह चमत्कारी युवा बड़ी शिद्दत से एक-एक हेंड ऑउट से अपना फोल्डर सजाता था. मजाल है कि एक भी कम हो जाये. पर फिर भी अविश्वास इतना कि कांउटिंग रोज होती थी. आज तक कितने हो गये. कभी कोई मजा़क में कह दे कि अरे तुम्हारे पास एक कम कैसे है, कौन सा पेपर नहीं है. फिर भारी टेंशन कि कौन सा वाला मिस कर दिया. किसी सहयोग करने वाले बंदे की शरण ली जाती, फुरसत में एक एक हैंड ऑउट, करेंसी की तरह टैली किये फिर पता चलता कि ये तो प्रैंक था.

उस जमाने में इंदौर कपडों के लिये भी प्रसिद्ध था तो रविवार उपलब्ध होने पर कपड़े भी खरीदे जाते. चमत्कारी युवक ने भी कपड़े खरीदे और कुछ ज्यादा ही खरीद लिये, लेटेस्ट फैशन और किफायती होने के कारण. अंतिम दिन जब पैकिंग की बारी आई तो ट्रेनिंग नोट्स के कारण फोल्डर भी भारी हो गया था. सूटकेस के बगावती तेवर सिर्फ एक ही ऑप्शन प्रदान कर रहे थे या तो तंदुरुस्त फोल्डर जगह पायेगा या नये कपड़े. और कोई दूसरा रास्ता था नहीं. वापसी की ट्रेन या बस जो भी रही हो, पकड़ने के लिये समय बहुत कम बचा था. निर्णय जल्दबाजी में, कुशल ज्ञानी सहपाठियों के सिद्धांत के आधार पर लिया गया. कपड़े छोड़े नहीं जा सकते क्योंकि मनपसंद और कीमती हैं. ज्ञान तो व्यवहारिक है, गिरते पड़ते सीख ही जायेंगें. फिर भी मन नहीं माना तो मेस के ही एक सेवक के पास अमानत के तौर पर रखवा दिये कि बहुत जल्दी फिर प्रशिक्षण पर आना ही है, इतनी जल्दी हम न सीखते हैं न ही सुधरते हैं. सेवक भी, प्रशिक्षण केंद्र में काम-काम करते-करते कोर्स से इतर विषयों में प्रशिक्षित हो गया था तो उसने हल्की मुस्कान से इन साहब के आदेश का पालन किया और अमानत में खयानत की भावना के साथ फोल्डर को अपना संरक्षण प्रदान किया.

वैसे जो फोल्डर लेकर जाते हैं, वे भी कितना पढ़ पाते हैं ये शोध का विषय हो सकता है या फिर confession का. 😀

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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