हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # २२८ – बाल कथा – चतुराई धरी रह गई! – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा – चतुराई धरी रह गई!की समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # २२८

☆ बाल कथा – चतुराई धरी रह गई! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है.” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते.बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया,” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“ जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है.ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है,” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा मल चाहिए. वह लालची है. इस कारण उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“ इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे,वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए.”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया,” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला . जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“ भैया ! आप बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए,” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“ नहींनहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“ नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है,” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा. मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की , “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना. नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई .

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था,” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए,” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटासा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ.”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले.” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो,” कोमलसिंह ने कहा , “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपनेअपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“ भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते,” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह ढंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद,” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं,”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगाया जा चूका था. वह चुप हो गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शाश्वत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शाश्वत ? ?

लेखक ने लिखा सत्य।लेखक ने लिखा सिद्धांत। लेखक ने लिखा निष्ठा। लेखक ने लिखा स्वाभिमान। लेखक ने लिखा ध्येय।

समय बीतता रहा। सारे शब्द, लेखक के अस्तित्व में गहरे उतर गए। वह जिया सत्य के लिए, वह जिया सिद्धांत के लिए, वह जिया निष्ठा के लिए, वह जिया स्वाभिमान के लिए, वह जिया ध्येय के लिए।

फिर एक दिन लेखक की देह चिता पर चढ़ी। नश्वर थी, सो जलकर राख हो गई। सत्य, सिद्धांत, निष्ठा, स्वाभिमान, ध्येय चिता की आँच में तपे, निखरे, अदाह्य, अकाट्य, अशोष्य बने, शाश्वत हो गए।

 ?

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 1:59 बजे, 10.11.2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 6 नवम्बर से मार्गशीर्ष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️ 

🕉️ इसके साथ ही हम श्रीमद्भगवद्गीता का पारायण करेंगे। इसमें 700 श्लोक हैं। औसत 24 श्लोक या उनके अर्थ का यदि दैनिक रूप से पाठ करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # ९० – देवदूत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – देवदूत।)

☆ लघुकथा # ९० – देवदूत श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

झाड़ू लगाने वाली झुमरी जोर-जोर से  घंटी  बजा रही है।

अंदर से एक आवाज – “आई कौन है, जोर-जोर से घंटी क्यों बजा रहा है और सुबह सुबह मेरी नींद क्यों खराब कर दी, कोई चैन से मुझे सोने नहीं देता?”

राम किशोर ने गेट का ताला खोला।

“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आई हो?”

बाबा काकी से कह दो कि चाय पिला दे ठंड बहुत लग रही है?

रामकिशोर ने कहा – “काकी की तबीयत बहुत खराब हो गई है, उससे शहर के बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया है, मैं कृष्णकांत का दोस्त हूं।”

झुमरी ने गहरी सांस लेते हुए कहा – “बाबूजी एक ग्लास पानी तो पिला देना।”

रामकिशोर ने कहा- “बेटा अंदर आकर पानी पी लो और चाय बनाओ तुम भी पियो और मुझे भी पिलाओ।”

“अरे बाबू जी आपने सुबह से कुछ नहीं खाया क्या?आपको तो बहुत जोर से खांसी आ रही है?”

“माजी मुझे रसोई नहीं छूने देती, मैं बाहर  झाड़ू लगाती थी और कभी-कभी घर को भी झाड़ू पोछा लगा देती थी।”

रामकिशोर ने कहा- “कोई बात नहीं बेटा अगर तुम्हारे पास समय हो तो चाय हम तुम दोनों पीते हैं और रोटी सब्जी बना दो तो मैं खा लूंगा क्योंकि मुझे खाना बनाना नहीं आता और यहाँ किसी के टिफिन वाले को ढूंढने जा रहा था इस उम्र में घर का खाना ठीक रहता है पर क्या करूं मुझे कोई खाना देने वाला नहीं है।”

“बाबूजी आप मेरे हाथ का छुआ हुआ खाना खाएंगे क्या?” झुमरी ने धीमे स्वर में कहा।

रामकिशोर जी ने कहा – “हां क्यों तेरे हाथ में क्या खराबी है? बाहर होटल में और टिफिन वाले कौन हैं और उनकी जात क्या पता?”

“ठीक है बेटा तू मेरे लिए भगवान बन कर आई हो।”

“बाबा, क्या आप अपने घर में भी अकेले रहते हो?” झुमरी ने उत्सुकता में पूछा।

हां क्या करूं बेटा, मेरे बेटा बहू बाहर विदेश में रहते हैं और मैं अकेला अपने घर में रहता हूं।”

“बाबा मैं आपके लिए अडूसा के पत्ते लेकर आती हूं। आपकी खांसी,बलगम, ज्वार और घुटनों का दर्द सब ठीक हो जाएगा।” 

“भगवान काकी को जल्दी अच्छा कर दे।”

झुमरी और काका दोनों की आंखों से आंसू निकल गए।

“भगवान अच्छे लोगों को इतनी तकलीफ क्यों देता है?” झुमरी कहती कहती रसोई में खाना बनाने लगती है।

राम किशोर मन ही मन सोचते हैं कि भगवान सबको सहारा देता है इस बच्ची के कारण मेरी खांसी भी ठीक हो जाएगी। यह तो सचमुच देवदूत है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # २४५ – रिटायरमेंट ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “रिटायरमेंट”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # २४५ ☆

🌻लघु कथा🌻 रिटायरर्मेंट 🌻

(पुरस्कृत लघुकथा)

अभी घनश्याम बाबू रिटायरर्मेंट होकर घर पहुंच भी नहीं पाये थे। आलमारी में सहेजे गये मेगजीन, पुराने अखबार को बाहर दालान पर ढेर लगा दिया गया था।

हँसते मुस्कुराते चेहरे का रंग अचानक श्वेत होता चला,

सच तो है अब उन पुरानेअखबारों को कौन देखेगा, जिसमें कभी परीक्षा परिणाम देखने की होड़ लगी होती थी।

पापाजी अच्छे दामों से ले रहा कवाड वाला। अब अलमारी में सोनू अपनी किक्रेट मैच का सामान रख लेगा।

शायद अखबार भी रिटायर हो चला।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका# ८२ – संस्मरण… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– संस्मरण…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ गद्य क्षणिका # ८२ — संस्मरण — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

साठ उपन्यासों का ख्यातिलब्ध लेखक आज शर्म और आत्मताप से इस कदर व्यथित था कि उसे लगता था अपने गले में फाँसी की रस्सी डाल कर मर जाए। बात यह थी संस्मरणों की उसकी नवीनतम कृति को विश्व पुरस्कार मिला था। पर उसका अपना तो एक भी संस्मरण नहीं था। अपने संस्मरण दमदार और खास न होने से उसने तीन चार अनपढ़ कर्मठ बूढ़ों से साठ तक संस्मरण सुन कर अपने संस्मरणों के नाम से अपनी कृति तैयार की थी।

© श्री रामदेव धुरंधर

08 – 11 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Short Story ☆ ~ Setting Sun and the Earthen Lamp… ~ / अस्ताचल का सूर्य और मिट्टी का दीपक (भावानुवाद) ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing Short Story “~ Setting Sun and the Earthen Lamp ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) and his artwork.) 

? Short Story ~ Setting Sun and the Earthen Lamp… ??

As the setting sun, draped in fiery splendour, whispered to the world,

‘Who shall now inherit my radiant duty?’

A reverent hush fell upon the universe— mountains bowed in respect, oceans stilled their tides, and even the winds held their breath…

Then, from a solitary threshold, a tremulous voice arose— the gentle flame of a humble diya, an earthen lamp, its glow quivering yet resolute:

‘I shall, my Lord… as much as this small heart can bear!’

And in that moment, the setting sun bestowed a warm smile upon the earth, knowing that light is eternal, merely passing from one beacon to another!

~Pravin Raghuvanshi

? ~ अस्ताचल का सूर्य और मिट्टी का दीपक ??

जब अस्ताचल का सूर्य अरुणिमा ओढ़े गगन से बोला — अब मेरे प्रकाश का उत्तराधिकारी कौन होगा?”

क्षण भर को थम गई सारी सृष्टि — पहाड़ झुक गए, सागर शांत हो गए, यहाँ तक कि पवन भी थम गई श्रद्धा में।

तभी किसी दहलीज़ से एक कोमल स्वर उठा — मिट्टी के छोटे से दीपक ने, थरथराती लौ में विनम्रता भरकर कहा — मैं करूँगा, प्रभु… जितना मुझसे संभव होगा।

और उस क्षण, डूबते सूर्य ने मुस्कराकर भूमि पर निहारा — जानता था, प्रकाश शाश्वत है, वह तो बस हस्तांतरित होता है…!

 ~प्रवीन रघुवंशी ‘आफ़ताब’

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “पहचान” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “पहचान” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

कंडक्टर टिकट काट कर सुख की सांस लेता अपनी सीट तक लौटा तो हैरान रह गया। वहां एक आदमी पूरी शान से जमा हुआ था। कोई विनती का भाव नहीं। कोई कृतज्ञता नहीं। आंखों में उसकी खिल्ली उड़ाने जैसा भाव था।

कंडक्टर ने शुरू से आखिर तक मुआयना किया। कोई सीट खाली नहीं थी। बस ठसाठस भरी थी। वह टिकट काटते अब तक दम लेने के मूड में आ चुका था।

– जरा सरकिए,,,

उसने शान से जमे आदमी से कहा।

– क्यों?

– मुझे बैठना है।

– किसी और के साथ बैठो। मैं क्यों सिकुड़ सिमट कर तंग होता फिरुं?

– कृपया आप सरकने की बजाय खड़े हो जाइए सीट से। कंडक्टर ने सख्ती से कहा।

जमा हुआ आदमी थोड़ा सकपकाया , फिर संभलते हुए क्यों उछाल दिया।

– क्योंकि यह सीट मेरी है।

– कहां लिखा है?

जमे हुए आदमी ने गुस्से में भर कर कहा।

– हुजूर , आपकी पीठ पीछे लिखा है। पढ़ लें।

सचमुच जमे हुए आदमी ने देखा, वहां साफ साफ लिखा था। अब उसने जमे रहने का दूसरा तरीका अपनाया। बजाय उठ कर खड़े होने के डांटते हुए बोला- मुझे पहचानते हो मैं कौन हूं? लाओ कम्पलेंट बुक। तुम्हारे अभद्र व्यवहार की शिकायत करुं।

– वाह। तू होगा कोई सडा अफसर और क्या? तभी न रौब गालिब कर रहा है कि मुझे पहचानो कौन हूं मैं। बता आज तक कोई मजदूर किसान भी इस मुल्क में इतने रौब से अपनी पहचान पूछता बताता है? चल, उठ खड़ा हो जा और कंडक्टर की सीट खाली कर। बड़ा आया पहचान बताने वाला। कम्पलेंट बुक मांगने वाला। कम्पलेंट बुक का पता है, कंडक्टर सीट का पता नहीं तेरे को?

उसने बांह पकड़ कर उसे खड़ा कर दिया। अफसर अपनी पहचान बताये बगैर खिड़की से लटक कर रह गया!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ निष्ठा का अचार ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा ☆ निष्ठा का अचार ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

एक युवा बेरोजगार से किसी ने पूछा –एक सवाल का जवाब दोगे !

–हां पूछिए

–मान लो आप राजनीति में हो और चुनाव जीत गये। बड़ी पार्टी ने तुम्हें 100 करोड़ ऑफर किये कि तुम्हें उनकी पार्टी में विलय करना होगा अपने विजयी साथियों के साथ तो तुम क्या करोगे !

 –ये भी कोई पूछने की बात है ?

मतलब बड़ी शान से विलय कर लूंगा।

और तुम्हारी अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा का क्या होगा ?

 –निष्ठा का अचार डालना है ! निष्ठा को आजकल पूछता कौन है।

—ठीक है लेकिन इतने पैसों का करोगे क्या ?

दुनिया घूमूंगा। गरीबों की मदद करुंगा। आखिर पैसा ही तो सब कुछ है।

—गांधीजी कहते थे साध्य ही नहीं साधन भी पवित्र होना चाहिए।

— गांधीजी—!   उन्हें तो मैं ही नहीं सारा देश जेब में लेकर घूमता है।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

नागपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # ७० – लघुकथा – मकान, मार्केटिंग और मार्मिकता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(‘उरतृप्त’ उपनाम से व्यंग्य जगत में प्रसिद्ध डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा अपनी भावनाओं और विचारों को अत्यंत ईमानदारी और गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण उनके लेखन के विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान से मिलता है। वे न केवल एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं, बल्कि एक कवि और बाल साहित्य लेखक भी हैं। उनके व्यंग्य लेखन ने उन्हें एक विशेष पहचान दिलाई है। उनका व्यंग्य ‘शिक्षक की मौत’ साहित्य आजतक चैनल पर अत्यधिक वायरल हुआ, जिसे लगभग दस लाख से अधिक बार पढ़ा और देखा गया, जो हिंदी व्यंग्य के इतिहास में एक अभूतपूर्व कीर्तिमान है। उनका व्यंग्य-संग्रह ‘एक तिनका इक्यावन आँखें’ भी काफी प्रसिद्ध है, जिसमें उनकी कालजयी रचना ‘किताबों की अंतिम यात्रा’ शामिल है। इसके अतिरिक्त ‘म्यान एक, तलवार अनेक’, ‘गपोड़ी अड्डा’, ‘सब रंग में मेरे रंग’ भी उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं। ‘इधर-उधर के बीच में’ तीसरी दुनिया को लेकर लिखा गया अपनी तरह का पहला और अनोखा व्यंग्य उपन्यास है। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के हाथों) से सम्मानित किया गया है। राजस्थान बाल साहित्य अकादमी के द्वारा उनकी बाल साहित्य पुस्तक ‘नन्हों का सृजन आसमान’ के लिए उन्हें सम्मानित किया गया है। इनके अलावा, उन्हें व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों साहित्य सृजन सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। डॉ. उरतृप्त ने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने और समन्वय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना की विश्वविद्यालयी पाठ्य पुस्तकों में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है। कई पाठ्यक्रमों में उनकी व्यंग्य रचनाओं को स्थान दिया गया है। उनका यह सम्मान दर्शाता है कि युवा पाठक गुणवत्तापूर्ण और प्रभावी लेखन की पहचान कर सकते हैं।)

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – मकान, मार्केटिंग और मार्मिकता।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # ७० – लघुकथा – मकान, मार्केटिंग और मार्मिकता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

शहर के “मजबूरी नगर” में रहते हुए मुझे वो पुराना सरकारी क्वार्टर छोड़ना पड़ा, जिस पर चिड़ियों से लेकर बिल्ली-बिल्लों तक, सबका कानूनी हक था। मेरा बेटा बहादुर “बंटी” अब यू-ट्यूबिया एंटरप्रेन्योर बन गया था—घर से लाखों की कमाई का दावा करता, लेकिन बिल के समय अजीब गूंगी मछली बन जाता। बेशक, मैंने भी कभी पायलट बनने का सपना देखा था, मगर सरकारी दफ्तर की फाइलें उड़ाते-उड़ाते बाल सफेद हो गए। इन दिनों बैंक बैलेंस की ‘डोंगी’ कंटीले बजरे जैसी हिल रही थी। मजबूरी ने मुझे संकटमोचन बना दिया—अब या तो लोन लेकर बुढ़ापा फाइनेंस करूं, या पुराने घर के खूंटे खोल दूँ। उसी उहापोह में मेरी बेटी डिजिटल-दीदी “रीता” का कॉल आया—”पापा, कभी घर आओ, हम सब मिलकर मूँग की दाल के पकोड़े खाएँगे।” मोबाइल के वीडियो कॉल पर रिश्ते अब रेसिपी से ज्यादा लुभावने लगते हैं। दीदी-बाकी मुद्दों पे कभी बोलती ही नहीं, बस वही चुटकुले—”घर बेचो… लोन मत लो… एक सुपरहिट आईडिया दूँगी!”

शाम को बहू-बेटे को बुलाया—”सवाल पेंचीदा है, राय मशविरे दो।” बेटा बोला—”पापा, लोन छोड़िए, घर बेचिए, ईएमआई की औकात नहीं बची, मार्केटिंग के मामले में दीदी टॉप पर है।” दीदी के बैंकर पति—जिनका नाम सुनते ही मोहल्ले वाले बचे हुए क्रेडिट कार्ड छुपाने लगते हैं—मुस्कुराए, “घर का ग्राहक मैं हूं! रजिस्ट्री से बैंक तक सब देख लूंगा।” बंटू हैरान—”दीदी! ये तो अपना ही घर ख़रीद रही है!” दीदी बोली—”पापा, तुम्हें बुढ़ापे में अकेला नहीं छोड़ेंगे। अब हम किरायेदार नहीं, मकान मालिक हैं—लेकिन किराया मांगेंगे नहीं!” हॉल में चुप्पी छा गई… मैंने खिड़की से बाहर झांककर उस गुलमोहर को देखा जिसे कभी माँ ने लगाया था। यादें आंखों की कोर तर कर गईं। फिर दीदी बोली—”पापा, इस घर में बचपन की किलकारियां थीं, अब इसमें आपकी साँझ ढलेगी—बैंक के नए कॉम्प्लेक्स की आकांक्षा साथ में है, और मीठे पकोड़े भी!” मैं कुछ कह न सका। सिर्फ इतना कर पाया कि दोनों बच्चों को अपने डबडबाए गले से लगा लिया—मन ही मन सोचा—घर, रिश्ते और बाज़ार… सबसे बड़े फाइनेंसियल इंस्ट्रूमेंट हैं— ईएमआई  और आंसू किस्तों में ही निकलते हैं!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # ४० ☆ लघुकथा – प्रभाव… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “प्रभाव“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # ४० ☆

✍ लघुकथा – प्रभाव… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

सीताराम जी बचपन से नियम के पाबंद रहे हैं और आज भी हैं। नियम व न्याय उन्हें बेहद पसंद है। अब किराने की दूकान बेटों ने संभाल ली है, परंतु जब वे दूकान पर बैठते थे तब भी नियम से चलते थे, न कम तौलते न ज्यादा देते। परिचित गरीब को उधार दे दिया करते, यह सोचकर कि प्रभु ने उन्हें यह अवसर दिया है कि किसी की मदद कर सकें, इसलिए करते रहते। उधारी वे लोग चुकाते भी थे पर उनके पास पैसा आने पर। लेकिन उधारी का पैसा आ जाता। सीताराम जी पैसे के पीछे ज्यादा भागने वाले इंसान नहीं थे। पुश्तैनी घर था रहने के लिए। उनकी पत्नी ईश्वर भक्ति में डूबी रहतीं और घर में आने वालों की मन से आवभगत करतीं। बच्चों को शिक्षा देना लाजमी था तो वे इसके लिए पीछे नहीं हटे।

दोनों बेटों और बेटियों को अच्छे स्कूलों में अच्छी शिक्षा दिलवाई। पढ़ लिख कर वे योग्य भी बने। बेटियों का विवाह भी अच्छे घरों में हुआ और उन्होंने अपनी मां की ससुराल में भी अच्छी तरह गृहस्थी संभाली। दोनों बेटे उनकी तरह परिश्रमी निकले और माता पिता की सेवा को ही ईश्वर सेवा मानते। एक ने पुश्तैनी किराने की दूकान संभाल ली तो दूसरे ने कपड़े की दूकान खोल ली परन्तु हिसाब किताब अलग होते हुए भी एक था। संयुक्त परिवार। शाम को भेजन के समय दोनों भाई सीताराम जी को अपनी अपनी दूकान के बारे में बताते। कोई समस्या आती तो मिल कर सामना करते। सभी बहुत संतुष्ट और खुश थे।

दोनों बेटों के दो दो बेटे थे। वे जवान हो रहे थे। सीताराम जी उनकी बातों को कुछ समझते और कुछ नहीं। पूछने पर सुनने को मिलता कि दादा जी, “अब जमाना बदल गया है, वह नहीं रहा जो आपके युवा काल में था।अब जमाना एआई का है। आप तो बस आराम से रहिए। ” सीताराम जी चुप रह जाते परंतु सोचते अवश्य कि यह कौन सी शिक्षा है जो आदमी से ऊपर है। इस शिक्षा से क्या आदमी के जीने पर भी असर पड़ेगा।

अखबार पढ़ने में उनका काफी समय व्यतीत होता। अखबार में सब तरह की खबरें रहती हैं और वे बड़े मन से पढ़ते। एआई और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान व तकनीक के बारे में भी समाचार पढ़ते। समझने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। पर जब बच्चे कहते हैं कि आप नहीं समझेंगे तो उन्हें हैरानी होती। बच्चे ऐसा क्यों सोचते हैं। वे बच्चों की व्यस्तता, सोचने का ढंग और बातचीत से अनुमान लगाते कि क्या वह समय आ गया है जब युवाओं का जीवन एक कृत्रिम जीवन बन जाएगा जैसा कि वे लोगों से सुनते आ रहे हैं। मनुष्य ही तो सृष्टि का ऐसा प्राणी है जिसमें सोचने की क्षमता है। इस क्षमता पर भी प्रभाव पड़ सकता है? यही सोचते विचारते उनकी आंख लग गईं।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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