हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 213 ☆ कहानी – उड़ान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय कहानी उड़ान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 213 ☆

☆ कहानी – उड़ान 

नन्दो बुआ जब घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसे ठसक से चलती हैं जैसे विश्व -विजय पर निकली हों। वजह यह है कि नन्दो बुआ एक काम की विशेषज्ञ हैं और यह काम है शादी कराना। यह नन्दो बुआ की ‘हॉबी’ है और इसके प्रति वे पूरी तरह समर्पित हैं। अगर उन्होंने ‘मैरिज ब्यूरो’ खोला होता तो भारी कमाई कर लेतीं। उनके बगल में उनका फूला हुआ बैग दबा रहता है जिसमें लड़कों- लड़कियों के फोटो, उनकी जन्मपत्रियाँ और अते-पते भरे रहते हैं।

जहाँ ब्याह लायक लड़कियाँ हैं वहाँ नन्दो बुआ को खूब आदर-सम्मान मिलता है। जहाँ बैठ जाती हैं वहाँ से घंटों नहीं उठतीं। घर में उनकी नज़र घूमती रहती है। हर लड़की में उन्हें संभावनाशील दुलहन नज़र आती है। घरों में उनका रोब भी खूब चलता है। इच्छानुसार चाय- भोजन की फरमाइश कर देती हैं। नाराज़ होने पर किसी को भी ‘बेसहूर’ ‘बेवकूफ’ कह देती हैं।

नन्दो बुआ के हिसाब से लड़का-लड़की की शादी की उम्र इक्कीस और अठारह साल मुकर्रर करना सरकार की सरासर ज़्यादती और बेवकूफी है। शादी-ब्याह के मामले में भला कानून का क्या काम? यह तो नन्दो बुआ जैसे लोगों की पारखी नज़र ही बता सकता सकती है कि कौन लड़की शादी-योग्य है और कौन नहीं। सरकार खामखाँ हर मामले में टाँग अड़ाती है।

नन्दो बुआ का दृढ़ मत है कि लड़की की सुरक्षा और चरित्र-रक्षा के लिए अगर कोई पुख़्ता मार्ग है तो वह शादी ही है। लड़की का चरित्र काँच  जैसा होता है, एक बार टूटा सो टूटा। फिर जोड़े नहीं जुड़ता। लड़की के माँ-बाप चौबीस घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए जितनी जल्दी गंगा- स्नान हो जाए उतना अच्छा।

लड़कियाँ नन्दो बुआ को वे ही पसन्द आती हैं जो नितान्त आज्ञाकारी, गऊ समान होती हैं,कि जिसके पल्ले माँ-बाप बाँध दें चुपचाप खुशी-खुशी चली जाएँ। स्कूटर पर फर-फर उड़ने वालीं, चबड़- चबड़ करने वालीं, हर बात में अपनी नाक घुसेड़ने वाली लड़कियाँ नन्दो बुआ को फूटी आँख नहीं सुहातीं। उनके हिसाब से आजकल की लड़कियों की आँख का शील मर गया है। आँख में आँख डाल कर बात करती हैं और मज़ाक उड़ाने से भी बाज़ नहीं आतीं। राह चलते अगर नन्दो बुआ को लड़कियाँ बैडमिंटन खेलतीं या हँसती-बोलती दिख जाएँ तो रुक कर हिदायत दे देती हैं—‘ए लड़कियो, कुछ लाज शरम रखो।यह क्या हुड़दंग मचा रखा है? क्या ज़माना आ गया है!’

सीधी-सादी, कम पढ़ी- लिखीं, आत्मविश्वास से हीन लड़कियाँ नन्दो बुआ को प्रिय हैं क्योंकि वे न कोई आपत्ति उठाती हैं, न कोई अपनी राय रखती हैं। ऐसी लड़कियों के सिर पर नन्दो बुआ का हाथ बार-बार घूमता है,कहती हैं, ‘फिकर मत करियो बिटिया। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी हमारी। ऐसे घर में भेजूँगी कि रानी बनकर राज करोगी।’

नन्दो बुआ की मानें तो दुनिया रसातल की तरफ जा रही है। पहले लड़कियाँ मर्यादा के साथ रहती थीं, अब झुंड की झुंड, बगल में किताबें दबाये घूमती हैं। जहाँ देखो लड़के-लड़कियाँ साथ खड़े हीही-ठीठी करते हैं। कपड़े देखो तो सब ऊटपटाँग। शर्म-लिहाज सब गया। पहले लड़कियाँ स्कूटर पर सिमट कर बाप या भाई के पीछे बैठती थीं, अब खुद माँ-बाप को पीछे बिठाये सर्र-सर्र दौड़ती हैं। दूसरी बात यह कि लड़कियों का मुँह खुल गया है। माँ-बाप की बात का सीधे विरोध कर देती हैं। वे उन लाजवन्तियों को हसरत से याद करती हैं जिन का मुँह तो क्या, हाथ-पाँव की उँगलियाँ देख लेना भी मुश्किल होता था। जो मुँह छिपाये ससुराल में आती थीं और मुँह छिपाये ही संसार से विदा हो जाती थीं। अब की लड़कियाँ तो आधी रात को भी घर से बेझिझक निकल पड़ती हैं।

पटेल परिवार की गीता पर बुआ की नज़र तब से थी जब वह दसवीं ग्यारहवीं में थी। लड़की सुन्दर, हाथ- पाँव से दुरुस्त थी। और क्या चाहिए? बारहवीं पास कर ले तो शादी के लिए बिल्कुल फिट हो जाएगी। गीता की माँ के पास बुआ की बैठकें जमती रहती थीं। उन्हें भी वे आश्वासन दे चुकी थीं कि गीता को रानी बना देंगीं।

गीता शोख थी। बुआ को चिढ़ाने में उसे मज़ा आता था। माँ के सामने ही बुआ से कहती, ‘बुआ, रानी कैसे बनाओगी? राजा- रजवाड़े तो सब खतम हो गये। अब तो देश में प्रजातंत्र है।’

बुआ आँखें चढ़ाकर कहतीं, ‘बिट्टी, थोड़ा पढ़-लिख गयी हो तो जुबान पर मत बैठो। रानी बनने से मेरा मतलब है कि ऐसे घर में भेजूँगी जहाँ खूब आराम मिले। दस नौकर-चाकर सेवा में रहेंगे।’

लेकिन बुआ की मुराद पूरी नहीं हुई। गीता ने बारहवीं पास करने के बाद नीट की तैयारी शुरू कर दी और उसके माता-पिता ने फिलहाल उसकी शादी का विचार त्याग दिया। बुआ ने भी बात को समझ कर दूसरी, कम महत्वाकांक्षी, लड़कियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बारहवीं में गीता के अंक अच्छे आये थे इसलिए उसे भरोसा था कि वह नीट में निकल जाएगी।

दुर्भाग्यवश गीता नीट पास नहीं कर पायी और उसकी आगे की पढ़ाई की सारी योजना गड़बड़ा गयी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। कॉलेज की पढ़ाई से ध्यान हटाकर वह फिर नीट की तैयारी में लग गयी। एक साल गुज़र जाने के बाद परिणाम आया। इस बार भी सफलता नहीं मिली। अब गीता को मायूसी हुई। आत्मविश्वास डगमगा गया। कॉलेज छोड़ देने के कारण आगे की राह अनिश्चित हुई। लेकिन उसने उम्मीद पूरी तरह छोड़ी नहीं। एक बार और नीट में बैठने का निश्चय उसने कर लिया।

गीता का सपना था कि डॉक्टर बनकर समाज की खूब सेवा करेगी। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकड़े समाज में वह असमर्थ लोगों को छोटे छोटे रोगों से मरते और पीड़ा भोगते देखती थी। उसका सोचना था कि बड़ी असमानताओं वाले इस देश में कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ तो सबको सुलभ होना चाहिए। उसे लगता था कि अपने बूते के अनुसार उसे लोगों का दुख-निवारण ज़रूर करना चाहिए। लेकिन दो बार की असफलता के बाद उसे अपना सपना टूटता दिखता था।

दूसरी बार की असफलता के बाद नन्दो बुआ की नज़र फिर गीता पर टिक गयी। अब फिर उन्हें उसकी जगह एक सजी-धजी दुलहन दिखायी देने लगी थी। उसके घर में उनकी बैठकें बढ़ने लगीं।

गीता की माँ को भी अब लगने लगा था कि वक्त बेकार ज़ाया हो रहा था। लड़की की शादी हो जाए तो अच्छा। दो बार की असफलता से बेटी के चेहरे पर आयी मायूसी उन्हें तकलीफ देती थी। वे सोचती थीं कि ब्याह हो जाए तो यह सब पीछे छूट जाएगा। लड़की की उम्र बढ़ने से भविष्य में होने वाली परेशानियों से वे वाकिफ थीं। इसलिए उनकी तरफ से नन्दो बुआ को ज़्यादा सहयोग और प्रोत्साहन मिलने लगा था।

नन्दो बुआ के बटुए में हमेशा आठ दस लड़कों-लड़कियों के फोटो और ज़रूरी जानकारी रहती थी। उनके संपर्क के लड़के अक्सर साधारण पढ़े-लिखे और छोटी-मोटी नौकरियों या धंधे वाले होते थे। आधुनिक घरों में उनकी पैठ कम थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के हाव-भाव उन्हें पसन्द नहीं आते थे। उन्हें परंपरावादी, रूढ़िवादी लोग ज़्यादा रास आते थे। ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़कों की डिग्रियाँ और योग्यताएँ उनकी समझ में नहीं आती थीं।

वे गीता की माँ को दो तीन लड़कों की जानकारी दे चुकी थीं। लड़के पढ़ने-लिखने में सामान्य थे लेकिन उनके परिवार मालदार थे, जो बुआ की नज़र में खास बात थी। बुआ गीता की माँ को आश्वासन देती रहती थीं कि उन लड़कों के परिवार इतने संपन्न थे कि लड़का ज़िन्दगी भर कुछ न करे तब भी उनकी बेटी को तकलीफ नहीं होगी।
गीता को बुआ की उसमें इतनी रुचि से चिढ़ होती थी। एक दिन उसने बुआ से कहा, ‘बुआ, थोड़ा गम खाओ। मुझे आदमी बन जाने दो।’

सुनकर बुआ ठुड्डी पर तर्जनी टिका कर बोलीं, ‘एल्लो, सुन लो पोट्टी की बातें! क्या अभी तू आदमी नहीं है?’

गीता ने जवाब दिया, ‘कहने को तो आदमी तब भी आदमी था जब वह गुफाओं में रहता था और पत्थर के हथियारों का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के आदमी और आज के आदमी में बहुत फर्क है।’

नन्दो बुआ ने अप्रतिभ होकर पूछा, ‘क्या मतलब है तेरा?’

गीता बोली, ‘मतलब यह कि लड़कियों को भी इतना मौका और वक्त दो कि वे दुनिया में अपने लिए जगह बना सकें। जिस दुनिया में रहती हैं उसे थोड़ा समझ सकें। लड़कियाँ उतनी कमजोर और लाचार नहीं होतीं जितना आप समझती हैं। वे अपने भविष्य का खयाल कर सकती हैं।’

बुआ पुचकार कर बोलीं, ‘अरे बिटिया, तू अभी नादान है। लड़की का जीवन बड़ा कठिन होता है। भले भले कट जाए तो गनीमत जानो। कब जरा सी बात पर बदनामी गले आ पड़े, कोई ठिकाना नहीं। हमारी सोसाइटी लड़कियों के लिए बड़ी निर्दयी होती है।’

गीता ने पलट कर प्रश्न किया, ‘यह बताओ बुआ कि आपकी सोसाइटी लड़कों और लड़कियों के बीच इतना भेद क्यों करती है? लड़कियों पर आप लोगों को भरोसा क्यों नहीं होता? सारी नसीहतें और सारे प्रतिबंध लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़कियों के आगे पीछे ताक- झाँक और जासूसी क्यों होती है? हमें अपने निर्णय करने की छूट क्यों नहीं मिलती?’

नन्दो बुआ निरुत्तर हो गयीं। ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘क्या कहें बिटिया, यह समाज ऐसा ही है। सदियों से यही होता रहा है।’

वैसे इस तरह की बातों से नन्दो बुआ को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लड़कियों की शादी कराना उनके लिए मिशन था। इस काम से उन्हें घरों में जो मान-सम्मान मिलता था वह उनकी पूँजी थी और उसे वे किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती थीं। इसलिए उन्होंने गीता की बातों को झाड़ कर दिमाग से निकाल दिया।

गीता तीसरी बार नीट की परीक्षा में बैठ गयी थी लेकिन अब उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। आँखों के सपने बुझ गये थे। इस बार असफल होने पर शायद शादी के सिवा कोई रास्ता न बचे। वह ऊपर से खुश दिखती थी, लेकिन मन पर उदासी की घेराबन्दी निरन्तर बढ़ रही थी। उसकी हार में नन्दो बुआ की जीत छिपी थी।

उस दिन गीता की माँ के पास नन्दो बुआ की बैठक जमी थी। नन्दो बुआ बताने आयी थीं कि एक लड़के ने गीता की फोटो को पसन्द कर लिया था। लड़के ने बी. कॉम. पास किया था और अब घर के धंधे में लगा था। नन्दो बुआ का विचार था कि एक बार गीता के पापा लड़के वालों से मिल लें तो बात आगे बढ़े।

तभी भीतर फोन की घंटी बजी। गीता ने फोन उठाया। उसकी सहेली का फोन था। फोन सुनती गीता की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी पड़ी— ‘वाउ, ग्रेट न्यूज़। आई एम सो हैप्पी।’

गीता बाहर निकली तो उसकी मुट्ठियाँ फैली हुई थीं और आँखें चमक रही थीं। चिल्ला कर बोली, ‘मम्मी, मैं नीट में पास हो गयी। मैं कितनी खुश हूँ!’

नन्दो बुआ हकला कर बोलीं, ‘बड़ी खुशी की बात है। तेरी मेहनत सफल हो गयी।’

गीता बोली, ‘हाँ बुआ! मेरी जान बच गयी। अब आप पिंजरे में डालने के लिए दूसरी लड़की ढूँढ़ो। मैं तो आकाश में उड़ने चली।’

बुआ का मुँह उतर गया, बोलीं, ‘उड़ो बेटा, खूब उड़ो। हम तो लड़कियों का भला करते हैं। तुम नहीं, और सही।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – दुगुना लाभ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  लघुकथा ☆ दुगुना लाभ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(सौ. उज्ज्वला केळकर जी की इस मराठी लघुकथा का  Baby Karforma द्वारा बांग्ला भावानुवाद ढाका, बांग्ला देश के “दैनिक गण मानुषेर आवाज़” (दैनिक आम आदमी की आवाज़) में प्रकाशित हुआ है। हार्दिक बधाई।) 

राष्ट्रपति भवन से एक अध्यादेश जारी किया गया। इस अध्यादेश द्वारा लोक प्रतिनिधि,  कार्यकर्ता, शासकीय अधिकारी, कर्मचारी सभी को भ्रष्टाचार प्रतिबंधक टीका लगाना अनिवार्य किया गया। निविदाएँ आमंत्रित की गई। कम कीमत वाली निविदा स्वीकृत की गई। औषधि मँगवाई गई। औषधि की बोतलें आई। डॉक्टर साहब भी आए।

यह सब इतनी तेजी से हुआ, कि किसी को कुछ पता ही नहीं चल रहा था, कि क्या हो रहा है? शासकीय स्तर पर इतनी शीघ्रता से घटित होने वाली यह पहली ही घटना होगी शायद। जब इसका नतीजा ध्यान में आया, तो मंत्री – संत्री, सचिव – अधिकारी, चपरासी, कार्यकर्ता,-अनुयायी सारे सकपका गए। सन्न होकर रह गए।

‘अब क्या फायदा मंत्री होने का?‘ मंत्री फुसफुसाने लगे।

‘अब क्या फायदा सचिव होने का? ‘सचिव भुनभुनाने लगे।

‘अब क्या फायदा अफसर  होने का?’ अफसर कहने लगे।

‘अब क्या फायदा चपरासी होने का?’ चपरासी बड़बड़ाने लगे।

‘अब क्या फायदा लार टपकाने का?’ अनुयायी शिकायत करने लगे।

सभी जनों को टीका लगाकर हाथ धोकर नैपकिन से पोंछते हुए डॉक्टर साहब बाहर आ गए।

‘क्यों, क्या हो गया? इस तरह मुँह लटकाए हुए क्यों बैठे हो?’ उन्होँने पूछा।

‘आप की करतूत….’

‘मेरी करतूत? क्यों भाई, मैँने क्या किया?’

‘सब कुछ जानते हुए भी यूँ अनजान मत बनो डॉक्टर साब।‘

‘अरे भाई, खुलकर बोलो तो, क्या हो गया? ‘

‘अभी अभी आपने भ्रष्टाचार प्रतिबंधक टीका जो लगाया है….’

‘ओह…! उसकी चिन्ता आप ना करें। टीके का कोई परिणाम नहीं दिखने वाला…’

‘वो कैसे?’

‘औषधि मिलावटी है। कम कोटेशन वाली निविदा जो दी थी ।

‘मगर ऐसा क्यों डॉक्टर साब?‘

‘दुगुना लाभ! कोटेशन कम होने के कारण निविदा स्वीकृत हो गई। अब आप लोग मेरी ईमानदारी का खयाल करेंगे ही! करेंगे ना…’

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सबसे बड़ा मज़ाक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

@ निठल्ला चिंतन

? संजय दृष्टि – सबसे बड़ा मज़ाक ? ?

कभी विचार किया कि तुम्हारे न होने से कितने लोगों को पर असर पड़ेगा? पत्नी-बच्चों पर, बहन पर, भाई पर, माता-पिता हैं तो उन अभागों पर, एकाध संगी-साथी पर, और…..?

नाम सूझ नहीं रहे न! …सच कहूँ, तुम्हारे होने का भी सिर्फ़ इन्हीं लोगों पर असर पड़ता है।

बाकी ये जो सोच रहे हो कि तुम हो तो दुनिया चल रही है, यह अपने समय और हर समय का सबसे बड़ा मज़ाक है।

…मानना न मानना, तुम्हारी मर्ज़ी..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी। 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः🕉️

💥 साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन)

☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लुटे पिटे, पस्त लोगों का क़ाफ़िला सरहद पार करते ही रुक गया। सबने एक दूसरे को देखा – किसी की उँगली कटी हुई थी, किसी के कंधे पर ज़ख़्म था तो किसी के सिर पर। कोई लंगड़ाता हुआ चला आया था तो कोई रोता हुआ। लगभग सभी के जिस्मों पर ख़ून के सूख चुके या सूख रहे धब्बे थे। ख़ैरियत सिर्फ़ इतनी थी कि जान बच गई थी। अब सब इस तरफ़ की धरती को देख रहे थे, जहाँ उनका बसेरा होने वाला था। एक शख़्स ने कहा – इधर की ज़मीन उधर से ऊँची तथा पवित्र लग रही है।

ज़्यादातर लोगों ने उसकी बात से सहमति जताई। तभी एक छः महीने का बच्चा भूख से रोया। उसकी माँ की एक छाती बलवाइयों ने काट दी थी। माँ ने बच्चे को बची रह गई छाती से चिपका लिया और उसे दूध पिलाती हुई उसके सिर पर हाथ फिराने लगी।

उसी शख़्स ने फिर कहा – मैं ग़लत था, कोई भी ज़मीन बच्चे को दूध पिलाती माँ की छाती से ऊँची तथा पवित्र नहीं हो सकती। फिर सभी ने सिर झुकाकर सहमति जताई। इस बार सबके हाथ जुड़े हुए थे, आँखें चू रही थीं।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अर्धनारीश्वर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अर्धनारीश्वर“.)

☆ लघुकथा – अर्धनारीश्वर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

जब उसकी पत्नी नहीं रही तो नल पर पानी लेने उसे ही सड़क पर आना पड़ा। नल पर मोहल्ले की महिलाओं का पूरा वर्चस्व था।

एक के बाद एक महिलाएं पानी भरती जाती और वह टुकुर-टुकुर दूर से खड़ा देखता रह जाता। जब भी कभी उसने बीच में घुसने की कोशिश की तो उसे डांट दिया जाता।

जब पूरी महिला मंडली पानी भर लेती तब कहीं उसका नंबर आता। इस कारण उसका गृह कार्य पिछड़ जाता, ऑफिस भी प्राय; लेट हो जाता। फलस्वरुप उसे रोज ही डांट खानी पड़ती।

वह अंदर ही अंदर परेशान था, पर इसका कोई उपाय उसे समझ में नहीं आ रहा था।

अंततः उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने केश बढ़ाए और अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर लिया। वह भोंडेपन से कमर हिलाकर पानी लेने आता। उसे देखते ही महिलाएं तितर बितर हो जाती, जिसका फायदा उसे मिलता और उसका सारा गृह कार्य समय पर निबट जाता। अब उसे अपने बास की छत झिड़कियां नहीं खानी पड़ रही थी। अर्धनारीश्वर बनने का उसे पूरा फायदा मिल रहा था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 208 ☆ “सहानुभूति…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति…)

☆ लघुकथा – ‘सहानुभूति’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अमीरों की बस्ती में बीस बाइस साल की सुंदर सी लड़की रोटी चोरी करते जब पकड़ी गई तो पुलिस ने झोपड़ी में बीमार सत्तर साल के मजदूर को पकड़ा। इसी मजदूर ने उसे पाला पोसा था, उसने बताया कि भोपाल गैस त्रासदी की रात तालाब के किनारे नौ-दस महीने की रोती हुई लड़की मिली थी, रोती हुई लड़की के पास एक महिला अचेत पड़ी थी शायद मर चुकी थी। तब से जब ये थोड़ी बड़ी हुई तो अमीरों के घर बर्तन साफ करके गुजारा करती रही।

बस्ती में न उसे कोई बहन कहता न कोई उसे बेटी कहता। इस बस्ती में उसने सिर्फ एक रिश्ता ही ज्यादा देखा कि प्रत्येक नजर उसके युवा तन पर फिसलती और वासना के अजनबी रिश्ते को जोड़ने का प्रयास करती। होली दीवाली, रक्षाबंधन सारे त्यौहार उसके लिए बेमानी। किसी पवित्र रिश्ते की सुगन्ध के लिए वह तरसती ही रही।

एक दिन जब बड़े साहब की पत्नी मायके गई थी और उस दिन मौसम भी बेईमान था, साहब ने उसे गर्म  पकौड़ी बनाने कहा, खौलते तेल में पकौड़ी जब तैर रहीं थीं तो साहब ने पीछे से उसके ब्लाउज में हाथ डाल दिए, कड़ाही पलट गयी थी, खौलते तेल से बेचारी का चेहरे, गले और स्तनों में फफोले पड़ गये थे, सुंदर चेहरा बदसूरती में तब्दील हो गया था।

कुछ दिन बाद जब वह ठीक होकर काम पर जाने लगी तो उसे आश्चर्य हुआ सभी घरों के साहब अब उसे बहन, बेटी जैसे संबोधनों से सहानुभूति देने लगे थे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 212 ☆ लघुकथा – वक्त वक्त की बात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा वक्त वक्त की बात-‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 212 ☆

☆ लघुकथा – वक्त वक्त की बात 

अम्माँजी अब अट्ठानवे पार की हुईं। अभी टनमन हैं। अपने सब काम खुद कर लेती हैं। किसी का हाथ नहीं थामना पड़ता। बड़ी बहू को बीनने-फटकने में मदद देती रहती हैं। सबेरे मुँह अँधेरे उठकर घर में कुछ न कुछ खड़बड़ करने लगती हैं।

अम्माँजी परिवार के मित्रों-परिचितों के बीच अजूबा बनी हुई हैं। जो घर में आता है वह पहले उन्हीं के हाल-चाल पूछता है। घर में आने वाले के लिए उनके ‘दर्शन’ ज़रूरी होते हैं। दर्शन के बाद लोग उनके पास बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘अम्माँजी, हमारे सिर पर हाथ धर दो। हम भी कम से कम सत्तर पार हो जाएँ। अभी तो उम्मीद कम है।’ अम्माँजी को भी इन बातों में मज़ा आता है। मिलने वाला लौट कर अपने घर जाता है तो वहाँ सबसे पहले अम्माँजी की कैफियत ही ली जाती है।

परिवार के लोग भी अम्माँजी के कारण उन्हें मिलते महत्व से खुश होते हैं। बहुत से लोग सिर्फ अम्माँजी के दर्शन के लिए आते हैं। मन्दिर की देवी की तरह पहले उनके दर्शन करके ही आसन ग्रहण करते हैं। अम्माँजी के तीन बेटे हैं। वे बड़े बेटे गजराज के साथ रहती हैं।

लेकिन गजराज अम्माँजी जैसे खुशकिस्मत नहीं रहे। तम्बाकू खाने की लत लगी थी। उसे ही जबड़े में दबाये दबाये सो जाते। गले में तकलीफ रहने लगी। डॉक्टर ने जाँच की। कहा, ‘लक्षण अच्छे नहीं हैं। दवा लिखता हूँ। नियम से खाइए और तीन-तीन महीने में जाँच कराइए। रोग बढ़ा तो फिर दूसरा ट्रीटमेंट कराना पड़ेगा।’

गजराज ठहरे लापरवाह। दवा खाने में लापरवाही हो जाती, जाँच कराने में भी। अन्ततः वे कमज़ोर होते होते तेहत्तर साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गये।

परिवार पर दुख का पहाड़ टूटा। अम्माँजी इस बड़ी विपत्ति के आघात से संज्ञाशून्य हो गयीं। अब वे दिन भर घर के किसी कोने में चुप बैठी रहतीं। खाने-पीने की याद दिलानी पड़ती। परिवार की ज़िन्दगी को जैसे लकवा लग गया।

अब जो मिलने वाले आते उनसे अम्माँजी बचतीं। ऐसा लगता है जैसे उन्हें किसी बात पर शर्म आती हो। लोग आते तो उन्हें प्रशंसा के बजाय सहानुभूति से देखते। मुँह से ‘च च’ की ध्वनि निकलती। बाहर निकलते तो साथियों से कहते, ‘अम्माँजी का भाग्य देखो। बेटा चला गया, वे अभी तक बैठी हैं। भगवान ऐसी किस्मत किसी को न दे। ऐसी लम्बी उम्र से क्या फायदा!

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ ममता ☆ श्री दिनेश अवस्थी ☆

श्री दिनेश अवस्थी

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री दिनेश अवस्थी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आदरणीय श्री दिनेश जी, परसाई की नगरी जबलपुर से हैं । उन्हें परसाई साहित्य से अगाध प्रेम है । उन्होंने परसाई रचनावली के समस्त 6 खंडों की रचनाओं की एकीकृत सूची बनाई है। वे स्वयं भी व्यंग्य, कहानी आदि लिखा करते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ममता।)

☆ कथा कहानी ☆ ममता ☆ श्री दिनेश अवस्थी ☆

एक परिवार की कहानी है। वैसे तो यह कहानी सैकड़ों परिवार की है। पति-पत्नी के चार बेटे थे। बेटी नहीं थी। मध्यमवर्गीय सामान्य परिवारों की तरह पति-पत्नी बेटी न होने का रोना रोते और बेटी न होने पर भीतर ही भीतर खुश होते। तीन बेटे पूर्णतः स्वस्थ थे। सबसे छोटा चौथा बेटा, शरीर से स्वस्थ किन्तु मंद-बुद्धि था। तीनों बेटे पढ़-लिख गए पर मंदबुद्धि नहीं पढ़ पाया। तीनों स्वस्थ बेटे इतने भी योग्य नहीं थे कि कोई बड़ी आर्थिक-क्षमता धारण करते। पिता की पेंशन तीनों की आय से अधिक थी। अपने मित्र के यहां ऑफिस कार्य कर वे अतिरिक्त आय पा लेते थे । पिता की अधिक आय ने तीनों स्वस्थ बेटों को रोक रखा था वरना बेटों की अधिक आय पिता की उपेक्षा और बदतमीजी का कारण बनती ही है।

सामान्यतः पेंशन यानि आधा वेतन पूरी अवहेलना और तिरस्कार लेकर आता है। पिता इस मामले में भाग्यशाली थे। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण तीनों बेटे पिता के प्रति आज्ञाकारी और विनम्र थे। पेंशन तथा अतिरिक्त आय के साथ अपनी कमाई मिलाकर वे किसी तरह पिता के घर के भीतर ‘अपना घर’ चला रहे थे।

मंद बुद्धि बेटा घर पर ही बैठा रहता था। जिस घर में पर्याप्त अर्थ नहीं होता वहां बहुत सी बातें दिखने और घटने लगती हैं। बचपन में बड़े भाई छोटे को घोड़ा बनकर पीठ पर बैठाते थे अब पीठ पर चढ़े बिना ही वह उन्हें भारी दिखने लगा। दिन प्रतिदिन वह और भारी लगने लगा था। मंद बुद्धि छोटा भाई उन्हें मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला दिखने लगा। बड़ी भाभी द्वारा कभी दिया गया संबोधन बैल अब सबकी जुबान पर था। बात होने लगी थी कि बैल जैसा है, कुछ न करे तो मजदूरी ही करे। चारों में तीसरा बेटा मुंह फट और उद्दंड प्रवृत्ति का था, बोला- इन कलेक्टर साहब को पिता जी की शह है।

कहते हैं कि बेटा मजदूरी नहीं करेगा, मेरी इज्जत का सवाल है। अब कौन बताए कि रिटायर हेड क्लर्क की ऐसी कौन-सी इज्जत होती है जो इन साहब के मजदूरी करने से चली जाएगी। घर में सर्वाधिक आय वाली पेंशन का दबाव काम कर जाता। स्वस्थ बेटे मन मसोस कर रह जाते।

बैल के मजदूरी करने के प्रस्ताव ने प्रारंभ में पिता और मां दोनों को ही चोट पहुंचायी। ताजा रिटायर हो चुके किंतु पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त न हो सके पिता अधिक आहत हुए थे। मंद बुद्धि बेटे के लिए बैल शब्द से आहत उनका अहंकार बोला- मैं अभी जिंदा हूं। अपनी पेंशन से इसे खिला सकता हूं। मेरे बाद इसकी मां को पेंशन मिलेगी वो इसे खिलाएगी। मां के बाद भी तो मंद बुद्धि बेटे को जीवित रहना है तब उसे कौन खिलाएगा? पेंशन तब बंद हो जायेगी। इसका उत्तर न तो पिता के पास था और न ही मां के पास। पिता को लगता था कि मृत्यु उपरांत शरीर रहित होकर भी वे परिवार को वैसे ही नियंत्रित करेंगे जैसे अभी कर रहे हैं। पारिवारिक सदस्य उन्हें तब भी मानेंगे जैसा कि अभी मानते हैं। वे यह भूल जाते थे कि उन्हें माने जाने का कारण पेंशन तो तब नहीं रहेगी। तब क्या? अभी ही अगर उनकी पेंशन नहीं होती और बेटों की आय से अधिक नहीं होती, तब इसी लोक में उनकी दुर्गत होती। वे यह नहीं सोच पाए कि मृत्यु उपरांत न तो उनकी चेतना रहेगी, न स्मरण शक्ति और न ही अनुभूति होगी। तब मंद बुद्धि बेटा खाता है या नहीं उसकी मुझे क्या फिक्र करना? मृत्यु उपरांत मैंने किसी अन्य परिवार में जन्म ले लिया तब क्या होगा? इस परिवार की परिचय पुस्तिका के दहन उपरांत ही तो मुझे किसी दूसरे परिवार में स्थान मिलेगा।

यह भी हो सकता है कि उस पार का जीवन, इस पार के जीवन से सरल न हो। उस पार कया होगा ? प्रतिकूल होगा या अनुकूल होगा ? इस पार की चिंताओं को रखने की जगह, उस पार मिलेगी कि नहीं ? इस पार की जिंदगी का अभ्यस्त व्यक्ति यही समझकर अनुमान लगाता है कि उस पार भी, इस जीवन से भिन्नता नहीं होगी। इस कहानी के परिवार का मुखिया भी ‘इस पार की चिंता’ से ग्रस्त रहता था। उस पार तो शरीर नहीं जाता, आत्मा जाती है। आत्मा को भूख नहीं लगती, उसे छत की आवश्यकता नहीं होती, वह कभी बीमार नहीं पड़ती, वह कभी बालक और वृद्ध नहीं होती फिर चिंता से उसका क्या संबंध ?

मंद बुद्धि बेटा कहां जानता था कि वह मुफ्त की नही खा रहा है। उपेक्षा के कटु वचनों और तिरस्कार को ग्रहण कर रोटी की कीमत अदा कर रहा है। संतोष-असंतोष, तटस्थता, आनंद, प्रसन्नता, दुख, चिंता, उपेक्षा और तिरस्कार में से किसी एक का साथ रोटी को चाहिए। बगैर किसी साथ के रोटी पेट में नहीं जाती।

रिटायरमेंट के दो वर्ष बाद पिता को भी छोटा बेटा मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला लगने लगा। अब तक वे पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त हो चुके थे। मां के भीतर मातृत्व ने दो वर्ष तक मंद बुद्धि बेटे की छवि मुफ्त की रोटी तोड़ने वाली नहीं बनने दी । मां और अकेला मंद बुद्धि बेटा होते तब मां को वह नहीं खटकता। अकेली मां की ममता चार हिस्सों में विभाजित थी। ममता के तीन हिस्सों, मंद बुद्धि बेटे के चौथे हिस्से पर भारी पड़ने लगे। आखिर कब तक वह तीन गुने भारी हिस्सा का बोझ उठाती? उसे भी लगने लगा कि मंद बुद्धि बेटे की उपेक्षा और तिरस्कार ‘अधिक अनुचित’ नहीं है। उपेक्षा और तिरस्कार जब पाला बदलते हैं तब उनका कसैलापन, मीठे पन में बदल जाता है। ममता के चौथे हिस्से ने मां को बेटे का बैल होना नहीं दिखाया पर शेष तीन हिस्सों की तिगुनी ममता ने दूसरों के द्वारा ‘बैल’ तथा “मुफ्त की रोटी’ शब्दों के उच्चारण के प्रति उसके विरोध और आपत्ति को समाप्त कर दिया।

गाली, अपमान, तिरस्कार और घृणा को जीवन का सहज अंग स्वीकार कर लेने पर उनकी क्षमता का दंश कुंठित हो जाता है। भारतीयों ने गुलामी को इसी तरह से घातक की श्रेणी से उठाकर सहज जीवन-शैली में ढाल लिया था।

धीरे-धीरे मंद बुद्धि बेटे के प्रति मां की आंखों पर पड़ा ममता का परदा खिसकने लगा। बैठे-बैठे मुफ्त की रोटी तोड़ने वाले बेटे के प्रति पारिवारिक सदस्यों की उपेक्षा अब उसे अनुचित तो लगती थी पर आहत नहीं करती थी। आहत न करने वाली उपेक्षा और तिरस्कार बड़ी आसानी से सहन हो जाते हैं। सैकड़ों वर्षों तक अछूत और दलितों द्वारा आपत्तिविहीन जीवन यापन के पीछे का यही रहस्य है।

बच्चे जब छोटे थे तब अन्य कोई विकल्प न होने पर मां, घरों में बर्तन, झाड़ू-पोंछा कर चारों बच्चों का पेट पाल लेती। बच्चों और उसकी ममता के बीच अब समय आ खड़ा हुआ था। घरों में बर्तन मांज कर मंद बुद्धि बेटे को ‘पाल’ लेने की बात अब उसके दिमाग में आ ही नहीं सकती थी। प्रेम व्यक्तिगत और सार्वभौमिक गुण है। करुणा और त्याग भी सार्वभौमिक और व्यक्तिगत मूल्य है। सभ्यता के विकास में यह तय हुआ कि मानवीय-मूल्य तभी शिखर पाएँगे जब वे सार्वभौमिक होंगे। ममता सार्वभौमिक गुण नहीं है। ममता को चाहे जितना बड़ा, विराट कर देखा जाए पर है वह व्यक्तिगत मूल्य ही। व्यक्तिगत मूल्यों के बीच ममता का आकार अत्यंत संकुचित घेरे जैसा है। काश महिलाओं की ममता सार्वभौमिक होती जिसे उन्होंने पेटजायी संतान तक संकीर्ण घेरे म॑ं सीमित कर रखा है।

ममता यदि सार्वभौमिक होती तब यह दिव्य, आलौकिक गुण होता। तब आकाश गंगा में पृथ्वी की महिमा-गान के लिए खरबों-खबर पृष्ठ भी कम होते। सैकड़ों साल बाद जहाँ पहुँचने का सपना आज मनुष्य देख रहा है, वहां आज से पाँच सौ साल पहले पहुँच चुका होता।

बहुत सी ऊर्जाएं व्यर्थ हो जाती हैं । भाप के इंजन की भाप ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग व्यर्थ चला जाता है। घरों में पहुंच रही विद्युत-ऊर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। प्रसव-जन्य दर्द से उत्पन्न ममता का एक बड़ा हिस्सा, समय के साथ आगे जाकर व्यर्थ होता जाता है। चौबीसों घंटे छाती से चिपकाई गई नवजात बच्ची, बारह-तेरह बरस की होने पर पैसे लेकर लेकर मां द्वारा ही वेश्यालय के सुपुर्द कर दी जाती है।

छाती से चिपके नवजात शिशु सात-आठ बरस की उम्र में होटलों की झूठी प्लेटें साफ करने हेतु भेज दिए जाते हैं। गीतों और कहानियों में प्रतिष्ठा के ढेर पर बैठी ममता इतनी कमजोर होती है कि आठ साल के बच्चे को ठेकेदार द्वारा मां बहन की गालियों सहित अमानवीय तरीके से पीटे जाने पर कुछ नहीं कर सकती। विरोध तक नहीं कर सकती।

ममता तभी तक ममता है जब तक उसके समक्ष अर्थ और समय न खड़े हों। समय और अर्थ के आगे कैसी ममता? कहां का ममत्व ? समय और अर्थ के आगे कैसा प्रेम और कहां का स्नेह ?

 ♡ ♡ ♡ ♡ ♡

©  श्री दिनेश अवस्थी

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 127 ☆ जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जेनरेशन गैप’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 127 ☆

☆ लघुकथा – जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘माँ! मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, बहुत घुटन होती है वहाँ। शाम को सात बजे ही हॉस्टल में आकर कैद हो जाओ। लगता है जैसे जानवरों की तरह पिंजरे में बंद हों। मुझे अपने दोस्तों के साथ फ्लैट में रहना है। ‘

‘बेटी! अनजान शहर में लड़कियों के लिए हॉस्टल में रहना ही अच्छा होता है, सुरक्षा रहती है। हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं, उन्हें मानना चाहिए। और मैं भी यहाँ निश्चिंत रहती हूँ ना!। ‘

 ‘ये नियम नहीं बंधन हैं, जेल में कैदी के जैसे। और नियम सिर्फ लड़कियों के हॉस्टल के लिए होते हैं? लड़कों के हॉस्टल में तो ऐसा कोई नियम नहीं होता कि उन्हें हॉस्टल में कब आना है और कब जाना है, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या?’

माँ सकपकाई – ‘हाँ- हाँ — लड़कों के हॉस्टल में भी ये नियम होने चाहिए। पर लड़कियाँ अँधेरा होने से पहले घर आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है बेटी! अँधेरे में जरा डर बना रहता है। ‘

‘क्यों? क्या दिन में लड़कियाँ सुरक्षित हैं? आपको याद है ना! दिन में ट्रेन में चढ़ते समय क्या हुआ था मेरे साथ? ‘

‘हाँ – हाँ, रहने दे बस, सब याद है’ – माँ ने बात को टालते हुए कहा – ‘पर चिंता तो —– ‘

‘पर – वर कुछ नहीं, मुझे बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लड़कियों को घर जल्दी आ जाना चाहिए। हॉस्टल में बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ। और यह चिंता- विंता की रट क्या लगा रखी है? कब तक यही कहती रहेंगी आप? बोलिए ना! ‘

माँ चुप रही — ‘आप मानती ही नहीं, खैर छोड़िए, बेकार है आपसे बात करना। आप कभी नहीं समझेंगी मेरी इन बातों को ’, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई।

बेटी की नजर में दुराचार की घटनाओं के लिए रात -दिन बराबर थे।

माँ की आँखों में रात के अंधकार में घटी बलात्कार की सुर्खियाँ जिंदा थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “झोलाराम“.)

☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक था झोला राम। उसे झोला खरीदने का बड़ा शौक था। जहां भी कोई नया नायाब झोला दिखाई देता, उसे खरीद लेता।

बहुत सारे झोले उसके पास हो चुके थे।

एक दिन उसकी जिंदगी में बुरा समय आ गया। दाने दाने को मोहताज हो गया था झोला राम। जब फाका पड़ा तो उसने एक झोला बेच दिया। कुछ दिनों बाद दूसरा फिर तीसरा।

सुंदर और नायाब झोले, फटाफट बिक जाते।

एक दिन उसने पुराने और नए झोलों को मिलाकर एक नई डिजाइन का झोला बनाकर बाजार में पेश कर दिया।

झोले खूब बिके। एक दिन  वह सेठ झोला राम बन गया। उसने अपने नए महल का नाम ‘झोला महल’ रखा।

फिर झोला बाग, झोला बाजार बनते रहे। वह अपने घर में झोले की पूजा पहले करता, दूजा काम बाद में होता।

‘झोला नगर’ बनते बनते सेठ झोला राम प्रसिद्धि के सोपान पार कर चुका था। एक दिन अखबार वाले चले आए और सेठ झोलाराम से उसकी सफलता का राज पूछने लगे।

झोलाराम बोला- ‘अपने शौक को बाजार तक पहुंचाने की कला भर आनी चाहिए बस, यही मैंने किया है। शौक और कला मिलकर माला माल कर सकते हैं।’

सेठ झोला राम का यह वक्तव्य दूसरे दिन शहर के सारे अखबारों में मुख पृष्ठ पर छापा गया था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print