हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 90 – लघुकथा – फुर्सत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “फुर्सत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 90 ☆

☆ लघुकथा — फुर्सत ☆ 

पत्नी बोले जा रही थी। कभी विद्यालय की बातें और कभी पड़ोसन की बातें। पति ‘हां- हां’ कह रहा था। तभी पत्नी ने कहा, ” बेसन की मिर्ची बना लूं?” पति ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी।

” मैं क्या कह रही हूं? सुन रहे हो?” पत्नी मोबाइल में देखते हुए कह रही थी।

पति उसी की ओर एकटक देखे जा रहे थे । 

तभी पत्नी ने कहा, ” तुम्हें मेरे लिए फुर्सत कहां है ? बस, मोबाइल में ही घुसे रहते हो।”

पति ने फिर गर्दन ‘हां’ में हिला दी । तभी पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ” मेरी बात सुनने की फुर्सत है आपको ?”  कहते हुए पति की ओर देखा।

पति अभी भी एकटक उसे ही देखे जा रहा था।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

11-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – आग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – आग ?

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उसपर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – रहस्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – रहस्य ?

…जादूगर की जान का रहस्य, अब रहस्य न रहा। उधर उसने तोते को पकड़ा, इधर जादूगर छटपटाने लगा।

….देर तक छटपटाया मैं, जब तक मेरी कलम लौटकर मेरे हाथों में न आ गई।

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 2:29, 2.2.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 99 – लघुकथा – ओरिजनल फोटो ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “ओरिजनल फोटो। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 99 ☆

? लघुकथा – ओरिजनल फोटो ?

शहर की भीड़भाड़ ईलाके के पास एक फोटो कापी की दुकान। विज्ञापन निकाला गया कि काम करने वाले लड़के – लड़कियों की आवश्यकता है, आकर संपर्क करें।

दुकान पर कई दिनों से भीड़ लगी थीं। बच्चे आते और चले जाते। आज दोपहर 2:00 बजे एक लड़की अपना मुंह चारों तरफ से बांध और ऐसे ही आजकल मास्क लगा हुआ। जल्दी से कोई पहचान नहीं पाता। दुकान पर आकर खड़ी हुई।

मालिक ने कहा कहां से आई हो, उसने कहा… पास ही है घर मैं समय पर आ कर सब काम कर जाऊंगी। मेरे पास छोटी स्कूटी है। दुकानदार ने कहा ..जितना मैं पेमेंट  दूंगा तुम्हारे पेट्रोल पर ही खत्म हो जाएगा। तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा।

लड़की ने बिना किसी झिझक के कहा… सर आप मुझे नौकरी पर रखेंगे तो मेहरबानी होगी और एक गरीब परिवार को मरने से बचा लेंगे।

जानी पहचानी सी आवाज सुन दुकान वाले ने जांच पड़ताल करना चाहा। और कहा… अपने सभी कागजात दिखाओ और अपने चेहरे से दुपट्टा हटाओं, परंतु लड़की ने जैसे ही अपना चेहरा दुपट्टे से हटाया!!! अरे यह तो उसकी अपनी रेवा है जिसे वह साल भर पहले एक काम से बाहर जाने पर मिली थी।बातचीत में शादी का वादा कर उसे छोड़ आया था। उसने कहा ..जी हां मैं ही हूं…. आपके बच्चे की मां बन चुकी हूं। अपाहिज मां के साथ मै जिंदगी खतम करने चली थी, परंतु बच्चे का ख्याल आते ही अपना ईरादा बदल मैंने काम करना चाहा।

आज अचानक आपका पता और दुकान नंबर मिला। मैं नौकरी के लिए आई।मैं आपको शादी के लिए जोर नहीं दे रही। वह मेरी गलती थी, परंतु आपके सामने आपके बच्चे के लिए मैं काम करना चाहती हूं।

फोटो कापी के दुकान पर अचानक सभी तस्वीरें साफ हो गई । अपने विज्ञापन को वह क्या समझे??? कभी रेवा के कागज तो कभी उसके बंधे हुए बेबस चेहरे को देखता रहा।

उस का दिमाग घूम रहा था। जाने कितने फोटो कापी मशीन चलाता रहा और जब ओरिजिनल सामने आया तब सामना करना मुश्किल है????

तभी आवाज आई कितना पेमेंट देगें मुझे आप?????

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ मैं ‘असहमत’ हूँ …..! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(ई-अभिव्यक्ति में श्री अरुण श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  आइये हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय करवाते हैं। हम साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से आपको असहमत से सहमत करवाने का प्रयास करेंगे। कृपया प्रतिक्रिया एवं प्रतिसादअवश्य दें।)     

☆ मैं ‘असहमत’ हूँ …! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

बाजार में वो दिखा तो लगा वही है पर जैसे जैसे पास आता गया तो लगने लगा कि नहीं है पर कुछ कुछ मिलता सा लगा. हमने नाम पूछा तो उसी हाव भाव में जबलपुरिया स्टाईल में बोला “असहमत ”  समझ में नहीं आया कि नाम बतला रहा है या इसका मतलब ये है कि “जाओ नहीं बताना, क्या कर लोगे”. फिर भी हमने रिस्क ली और कहा असहमत क्यों सहमत क्यों नहीं, वो तो ज्यादा अच्छा नाम है.

असहमत बोला “कोई अच्छा वच्छा नहीं, सहमत होते होते उमर निकल जाती है, लोग उनको पूछते हैं जिनके आप “सहमत ” होते हैं.  हमने कहा कि सहमत नहीं उनको तो चमचा, किंकर, छर्रा कहा जाता है. सहमत ने तुरंत हमारी तरफ उपेक्षित नजरों से देखते हुये कहा “ये चालू भाषा का प्रयोग हम नहीं करते, संस्कारधानी के संस्कारी व्यक्ति हैं, नमस्कार. पर आप जो बिना पहचान के हमसे अनावश्यक वार्तालाप कर रहे हैं तो आप हैं किस कृषि क्षेत्र की मूली. ” इस बाउंसर में वही झलक थी,

हमने उसके प्रश्न को ओवररूल करते हुये दूसरा प्रश्न दाग दिया “क्या तुम उसके भाई हो. (नाम के उपयोग पर कापीराइट है) “

उत्तर आया: हां गल्ती से वो हमारा भाई है पर हमने गुरुदीक्षा नहीं ली.

 हमारा प्रश्न सामान्यरूप से था कि क्यों?

उत्तर बड़ा संक्षिप्त पर सटीक था “हमारे माता पिता हमारा नाम “सहमत” ही रखना चाहते थे, वही बिना मात्रा के चार अक्षर और उद्देश्य भी वही कि छोटा भी बड़े के पदचिन्हों ? पर चले पर हम तो शुरु से बागी by Birth थे तो कैसे सहमत होते, असहमत होना हमारा जन्मजात गुण है तो असहमत नाम रखने पर ही हामी भरी.

हमने कहा “आखिर सहमत तो हुये ही और बड़ों के पदचिन्हों पर चलना तो हमारे समाज में अच्छी बात मानी जाती है.

असहमत का जवाब असरदार था ” देखिये सर, अपना नाम तो आपने बतलाया नहीं और हमारे नाम का पोस्टमार्टम करने लगे. चलिये फिर भी कहे देते हैं कि अगर आदत असहमति की होगी तो लोग आपको नोटिस करेंगे, आपसे कारण पूछेंगे, हो सकता है आपका मजाक भी उड़ायें पर फिर भी पाइंट ऑफ अट्रेक्शन तो रहेंगे ही और दुनिया तो हर अच्छे, नये विचार और विचारक का मज़ाक बनाती है पर समय और प्रतिभा और संघर्षशील व्यक्तित्व हो तो आदमी गुमनामी की जिंदगी नहीं जीता, पहचान उसकी खुद की होती है क्योंकि रास्ते में बनने वाले पदचिन्ह उसकी प्रतिभा और सफलता की कहानी खुद बयान करते हैं. पीछे चलने वाले छत्रछाया में खुद सुरक्षित भले ही महसूस  कर लें पर इतिहास नहीं बना पाते.

“असहमत “की बात से सहमत तो होना ही था. हमने सिर्फ यही कहा कि “असहमत भाई, बात ने गंभीर मोड़ तो ले लिया है पर अब जब भी मिलेंगे तो हास्य भी होगा, व्यंग्य भी होगा ताकि हमारे दोस्तों को भी आनंद आये. बतलाइये ठीक कहा ना. अगर अच्छा लगे तो असहमत से मुलाकात करते रहेंगे.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ लघुकथा – काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ☆ डॉ. हंसा दीप 

गुजराती जैन दंपत्ति बस में सफर कर रहे थे। उनके समीप ही सिख दंपत्ति बैठे थे। बातों-बातों में सिख दंपत्ति ने अपने साथ का नाश्ता-मिठाई-नमकीन वगैरह गुजराती दंपत्ति से खाने का आग्रह किया। उन्होंने विनम्रता पूर्वक इनकार कर दिया और बताया कि जैन धर्म में सूर्यास्त के बाद खाना, नाश्ता आदि करने की मनाही होती है। सिख महिला ने अपने पति से पंजाबी में कहा – “ए लोग किन्ने पिछड़े हन, रात दी रोटी दा और धरम दा कि मेल?” 

ठीक उसी समय गुजराती महिला अपने पति से कह रही थी – “आ लोकों केटला जूना जमाना ना छे, एटलो मोटो पागड़ो बांधे, ने लांबी डाढ़ी राखे छे।”

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें  ☆ श्री आशीष कुमार

एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ जो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी उस समय बिल्ली रसोई मे घुस कर बनाई रोटियां खा गई।

बिल्ली की रसोई मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पङा।

एक दिन किसी प्रकार से मालूम पङा कि रोटियां बिल्ली खा जाती है।

अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।

इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।

जब लङका बङा हुआ ओर शादी हुई।  बहू जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई  दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पूछा  कि तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो?

पति ने जवाब दिया कि – ये हमारे घर की परम्परा है इसलिए मैं रोज ऐसा कर रहा हूँ ।

माँ बाप अंधे थे बिल्ली को देख नही पाते उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था। इसलिये वह भी ऐसा करता जैसा माँ बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था इसलिए पाखंडवादी लोग जिनका स्वयं का भला हो रहा था उनके पाखंडवादी मूल्यों को माना औऱ अपनाया। जिनके पीछे किसी प्रकार का कोई  लौजिक या तर्क नही है। लेकिन आज के पढे लिखे हम वही पाखंडता भरी परम्पराओं व रूढी वादिता के वशीभूत हो कर जीवन जी रहे हैं।

इसलिये सबसे पहले समझो ,जानो ओर तब मानो तो समाज मे परिवर्तन होगा ।

“अपना दीपक स्वयं बनें”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – प्रमोशन और आज का अर्जुन ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ दो लघुकथाएं – प्रमोशन और आज का अर्जुन ☆ डॉ. हंसा दीप

☆ प्रमोशन ☆

विशेष जी प्रवासी साहित्यकारों से कुढ़ते थे। वे सोचते, प्रवासियों की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं। जब प्रवासी विशेषांक निकले तो उसमें छपते हैं और सामान्य अंक निकले तो उसमें भी छप जाते हैं। भड़ास निकलती- “ये पैसा कमाने के लिए विदेश जाकर बस गए हैं। इनको प्रवासी क्यों कहा जाए, विदेशी कहा जाए।”

अगले वर्ष इकलौते बेटे का प्रमोशन हुआ। बेटे की विदेश नियुक्ति के साथ वे भी विदेश आ गए। विचार समृद्ध हुए, कहने लगे- “प्रवासी ही हैं, जो वसुधैव कुटुंबकम की भारतीय मशाल समूचे विश्व में जलाते हैं।”

☆ आज का अर्जुन ☆ 

गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों की परीक्षा ले रहे थे। उनके समीप युधिष्ठिर, दुर्योधन व अर्जुन बैठे हुए थे। सामने पेड़ पर वह लक्ष्य था जिसे उन्हें निशाना बनाना था। सबसे पहले उन्होंने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा– “वत्स तुम्हें सामने क्या दिखायी दे रहा है?”

“गुरुदेव मुझे सिर्फ लक्ष्य दिखाई दे रहा है।”

“और कुछ?”

“लक्ष्य के अलावा कुछ नहीं।”

अब दुर्योधन की बारी थी। उसने कहा- “गुरुदेव, आसपास का प्रदीप्त आभा मंडल दिखाई दे रहा है।” गुरु द्रोणाचार्य का मुख क्रोधाग्नि से धधकने लगा। अर्जुन को देखा– “गुरुदेव मुझे लक्ष्य, आसपास का आभा मंडल और बैठे हुए तमाम विधायक गण के चेहरे दिखाई दे रहे हैं।”

गुरुदेव ने अर्जुन को उत्तीर्ण घोषित किया। 

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथाएं – गुनाहगार, तिलस्म और सेलिब्रिटी ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – गुनाहगार, तिलस्म और सेलिब्रिटी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(हंस प्रकाशन, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य “मैं नहीं जानता” लघुकथा संग्रह में से । ये तेरे प्रतिरूप ,,,) 

गुनाहगार

रात देर से आए थे , इसलिए सुबह नींद भी देर से खुली । तभी ध्यान आया कि कामवाली नहीं आई । शुक्र है उसने अपना फोन नम्बर दे रखा है । फोन लगाया ।

उसका पति बोला कि रीटा बीमार है । काम पर आ नहीं सकती ।

पता नहीं कैसे पारा चढ़ गया- क्यों नहीं आ सकती ? सारा घर बिखरा पड़ा है । कपड़े धुलवाने हैं । हम क्या करें ?

कामवाली का पति बोला – कहा न साहब कि बीमार है । आ नहीं सकती । दवा लेकर लेटी हुई है । बात भी नहीं कर सकती ।

– हम तीन दिन बाद आए । पहले ही छुट्टियां दे दीं । अब काम वाले दिनों में भी छुट्टी करेगी तो कैसे चलेगा ?

– क्या उसे बीमार होने का हक भी नहीं , साहब ? बीमारी क्या छुट्टियों का हिसाब लगा करके आयेगी ?

–  हम कुछ नहीं जानते । कोई इंतजाम करो ।

– ठीक है, साहब । मेरे बच्चे काम करने आ जाते हैं ।

कुछ समय बाद स्कूल यूनिफाॅर्म में दो छोटे बच्चे आ गये । फटाफट क्रिकेट की तरह काम करने लगे । छोटी बच्ची ने बर्तन मांजे । बड़े भाई ने झाड़ू लगाया । काम खत्म कर पूछा- अब जायें , साहब ?

मैंने पूछा – पहले  भी कहीं काम करने गये हो ?

बच्चों ने सहम कर कहा- नहीं , साहब । मां  ने दर्द से कराहते कहा था- जाओ , काम कर आओ । नहीं तो ये घर छूट जायेगा ।

मैं शर्मिंदा हो गया । कितनी बार बाल श्रमिकों पर रिपोर्ट्स लिखीं । आज कितना बड़ा गुनाह कर डाला । मैंने ही अपनी आंखों के सामने बाल श्रमिकों को जन्म दिया ? इससे बड़ा गुनाह क्या हो सकता है ? अपनी आत्मा पर इसका बोझ कब तक उठाऊंगा ? गुनाह तो बहुत बड़ा है ।

तिलस्म

रात के गहरे सन्नाटे में किसी वीरान फैक्ट्री से युवती के चीरहरण की आवाज सुनी नहीं गयी पर दूसरी सुबह सभी अखबार इस आवाज़ को हर घर का दरवाजा पीट पीट कर बता रहे थे । दोपहर तक युवती मीडिया के कैमरों की फ्लैश में पुलिस स्टेशन में थी ।

किसी बड़े नेता के निकट संबंधी का नाम भी उछल कर सामने आ रहा था । युवती विदेश से आई थी और शाम किसी बड़े रेस्तरां में कॉफी की चुस्कियां ले रही थी । इतने में नेता जी के ये करीबी रेस्तरां में पहुंच गये । अचानक पुराने रजवाड़ों की तरह युवती की खूबसूरती भा गयी और फिर वहीं से उसे बातों में फंसा कर ले उड़े । बाद की कहानी वही सुनसान रात और वीरान फैक्ट्री ।

देश की छवि धूमिल होने की दुहाई और अतिथि देवो भवः  की भावना का शोर । ऊपर से विदेशी दूतावास । दबाब में नेता जी को मोह छोड़ कर अपने संबंधियों को समर्पण करवाना ही पड़ा । फिर भी लोग यह मान कर चल रहे थे कि नेता जी के संबंधियों को कुछ नहीं होगा । कभी कुछ बिगड़ा है इन शहजादों का ?  केस तो चलते रहते हैं । अरे ये ऐसा नहीं करेंगे और इस उम्र में नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? इनका कुछ नहीं होता और लोग भी जल्दी भूल जाते हैं । क्या यही तिलस्म था या है ? ये लोग तो बाद में मज़े में राजनीति में भी प्रवेश कर जाते हैं ।

थू थू  सहनी पड़ी पर युवती विदेशी थी और उसका समय और वीजा ख़त्म हो रहा था । बेशक वह एक दो बार केस लड़ने , पैरवी करने आई लेकिन कब तक ? 

बस । यही तिलस्म था कि नेता जी के संबंधी बाइज्जत बरी हो गये ।

 

सेलिब्रिटी

संवाददाता का काम है- सेलिब्रिटी को ढूंढ निकालना । सेलिब्रिटी क्या करता है? कैसे रहता है? कहां जा रहा है ?  सब कुछ मायने रखता है ।संवाददाता की दौड़ इनके जीवन व दिनचर्या के आसपास लगी रहती है । पिछले कई वर्षों से इस क्षेत्र में हूं । सुबह उठते ही सेलिब्रिटीज का ध्यान करता घर के गेट के आगे खड़ा था । पड़ोस में बर्तन मांझते व सफाई करने वाली प्रेमा आई तो साथ में उसकी बेटी को देखकर थोड़ा हैरान होकर पूछा – कयों , आज इसके स्कूल में छुट्टी है क्या ?

– नहीं तो । यह तो घरों में काम करने जा रही है ।

–   कयों ?  पढ़ाने का इरादा नहीं ?

–   मेरा तो इसे पढ़ाने का विचार है लेकिन इसने अपनी नानी के लिए पढ़ाई छोड दी । बर्तन मांझने का फैसला किया है ।

– क्यों  बेटी, ऐसा किसलिए ?

– नानी बीमार रहती है । मां के काम के पैसे से घर का गुजारा ही मुश्किल से होता है । नानी की दवाई के लिए पैसे कहां से आएं ? मैं काम करूंगी तो नानी की दवाई आ जायेगी ।

इतना कहते बेटी मां के साथ काम पर चली गई । मैंने मन ही मन इस सेलिब्रिटी के आगे सिर झुका दिया ।

 

संस्कृति

-बेटा , आजकल तेरे लिए बहुत फोन आते हैं ।

– येस मम्मा ।

-सबके सब छोरियों के होते हैं । कोई संकोच भी नहीं करतीं । साफ कहती हैं कि हम उसकी फ्रेंड्स बोल रही हैं ।

– येस मम्मा । यही तो कमाल है तेरे बेटे का ।

-क्या कमाल ? कैसा कमाल ?

– छोरियां फोन करती हैं । काॅलेज में धूम हैं धूम तेरे बेटे की ।

– किस बात की ?

– इसी बात की । तुम्हें अपने बेटे पर गर्व नहीं होता।

– बेटे । मैं तो यह सोचकर परेशान हूं कि कल कहीं तेरी बहन के नाम भी उसके फ्रेंड्स के फोन आने लगे गये तो ,,,?

– हमारी बहन ऐसी वैसी नहीं हैं । उसे कोई फोन करके तो देखे ?

– तो फिर तुम किस तरह कानों पर फोन लगाए देर तक बातें करते रहते हो छोरियों से ?

-ओ मम्मा । अब बस भी करो ,,,,

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – तृष्णा और सम भाव ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ दो लघुकथाएं – तृष्णा और सम भाव  ☆ डॉ. हंसा दीप

☆ तृष्णा ☆

वह चिड़िया तिनका-तिनका सहेज कर लाती और बड़ी लगन से अपना घोंसला बनाती। कुछ दिनों बाद उसके नन्हें घोंसले में तीन-चार बच्चे चहचहाने लगे। अब चिड़िया बहुत खोजबीन कर दाने लाती और अपने बच्चों को चुगाती। एक दिन उसे एक सरकारी गोडाउन दिख गया जो अनाज के बोरों से भरा पड़ा था। वह डरते-डरते वहाँ पहुँची और दाना चोंच में भर कर उड़ गयी। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था। निडर होकर चोंच भर-भरकर दाने ले जाती। बच्चे जितना खा सकते उतना खाते, शेष वहीं एक कोने में इकट्ठा होने लगा। अब चिड़िया और उसके बच्चे काफी हष्ट-पुष्ट हो गए थे। दानों का ढेर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। नन्हा घोंसला इतना बोझ सह न सका और एक दिन भरभरा कर गिर पड़ा। 

☆ सम भाव ☆ 

बस की प्रतीक्षा करते हुए पति-पत्नी इधर-उधर देख रहे थे। एक सुंदर लड़की भी वहीं आकर खड़ी हो गयी। कुछ देर पत्नी उसे एकटक देखती रही फिर पति की ओर मुड़ी, वे एकटक लड़की को देख रहे थे। अपने आठ वर्षीय बेटे पर नजर गयी तो वह भी कौतुक से उसी लड़की को देख रहा था।

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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