हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – काला पानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – काला पानी ?

सुख-दुख में

समरसता,

हर्ष-शोक में

आत्मीयता,

उपलब्धि में

साझा उल्लास,

विपदा में

हाथ को हाथ,

जैसी कसौटियों पर

कसते थे रिश्ते,

परम्पराओं में

बसते थे रिश्ते,

संकीर्णता के झंझावात ने

उड़ा दी सम्बंधों की धज्जियाँ,

रौंद दिये सारे मानक,

गहरे गाड़कर अपनापन

घोषित कर दिया

उस टुकड़े को बंजर..,

अब-

कुछ तेरा, कुछ मेरा,

स्वार्थ, लाभ,

गिव एंड टेक की

तुला पर तौले जाते हैं रिश्ते..,

सुनो रिश्तों के सौदागरो!

सुनो रिश्तों के ग्राहको!

मैं सिरे से ठुकराता हूँ

तुम्हारा तराजू,

नकारता हूँ

तौलने की

तुम्हारी व्यवस्था,

और स्वेच्छा से

स्वीकार करता हूँ

काला पानी

कथित बंजर भूमि पर,

तुम्हारी आँखों की रतौंध

देख नहीं पायी जिसकी

सदापुष्पी कोख…,

जब थक जाओ

अपने काइयाँपन से,

मारे-मारे फिरो

अपनी ही व्यवस्था में,

तुम्हारे लिए

सुरक्षित रहेगा एक ठौर,

बेझिझक चले आना

इस बंजर की ओर,

सुनो साथी!

कृत्रिम जी लो

चाहे जितना,

खोखलेपन की साँस

अंतत: उखड़ती है,

मृत्यु तो सच्ची ही

अच्छी लगती है..!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 10:16 बजे, 10 जुलाई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (56-60) ॥ ☆

 

विवश स्वयं आप भी है इसी विधि इस देव तक को यहाँ बचाने

क्या आप खुद भी नहीं है तत्पर इस रश्यरक्षार्थ विपद उठाने ? ॥56॥

 

अवध्य मानें मुझे भले पर हों कीर्ति तनु हेतु मेरे दयालु

जो मर्त्य है मुझ समान सारे मरन नियत उनका है, कृपालु ॥57॥

 

पूर्वोक्त  संबंध जो हो गया है इस वन विजन में सखे हमारा

उचित न होगा वह नेह विच्छेद शिवानुचर  है सखे तुम्हारा ॥58॥

 

तब गोप्रहर्ता उस सिंह के हेतु, भोजन सदृश देह अपनी बनाते

तत्काल तूकीर से मुक्त कर हाथ, नृपति मुझे सिंह सम्मुख गिराते ॥59॥

 

तभी तथा विधि मुझे नृपति को थी कल्पना सिंह प्रहार की जब

विद्याधरों ने प्रसन्नता में की पुष्प वर्षा सम्मान में तब ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णानीति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆

यूट्यूब लिंक =>> कृष्णनीति

जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (51-55) ॥ ☆

 

मृगेन्द्र के इतना बोलने पर पुनः वही श्शब्द हुये प्रकृति से

यथा शिखर पर उस प्रतिध्वनि ने विनत निवेदन किया नृपति से ॥51॥

 

तब धेनु की कातर दृष्टि द्वारा देख गया राजा बहुत आकुल

सुनकर वचन श्शम्भु के भृत्य के फिर बोला दया भाव से आर्त व्याकुल ॥52॥

 

रक्षा करे क्षत सह जो व्रती दृढ़ क्षत्रिय वही विश्व में है कहाता

विपरीत इसके उस राज्य से क्या ? जो प्राण – मन को कलुषित बनाता ॥53॥

 

यह है सुरभि धेनु अनुपम न इस तुल्य है दान पा गुरू हों प्रसन्न जिससे

यह जो तुम्हारा प्रहार इस पर यह शम्भु चल से है न कि तुमसे ॥54॥

 

स्वदेह भी दान दे आपको यह गुरू धेनु रक्षा समुचित मुझे है

होम आदि के कार्य रूकें न गुरू अतः सभी भांति उचित यही है ॥55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  100वीं  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

? चरैवेति-चरैवेति ? 

‘संजय उवाच’ ने जब मानसपटल से काग़ज़ पर उतरना आरम्भ किया तो कब सोचा था कि यात्रा पग-पग चलते शतकीय कड़ी तक आ पहुँचेगी। आज वेब पोर्टल ‘ई-अभिव्यक्ति’ में संजय उवाच की यह 100वीं कड़ी है

किसी भी स्तंभकार के लिए यह विनम्र उपलब्धि है। इस उपलब्धि का बड़ा श्रेय आपको है। आपके सहयोग एवं आत्मीय भाव ने उवाच की निरंतरता बनाये रखी। हृदय से आपको धन्यवाद।

साथ ही धन्यवाद अपने पाठकों का जिन्होंने स्तंभ को अपना स्नेह दिया। पाठकों से निरंतर प्राप्त होती प्रतिक्रियाओं ने लेखनी को सदा प्रवहमान रखा।

आप सबके प्रेम के प्रति नतमस्तक रहते हुए प्रयास रहेगा कि ‘संजय उवाच’ सुधी पाठकों की आकांक्षाओं पर इसी तरह खरा उतरता रहे।

(विशेष- संगम-सा त्रिगुणी योग यह कि आज ही बंगलूरू और चेन्नई के प्रमुख हिंदी दैनिक ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’ में उवाच की 65वीं और भिवानी, हरियाणा के लोकप्रिय दैनिक ‘चेतना’ में 50वीं कड़ी प्रकाशित हुई है।)

संजय भारद्वाज

☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, “धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?”

इस प्रश्न के उत्तर से आरम्भ हुआ संजय उवाच ! वस्तुत: धृतराष्ट्र द्वारा पूछे इस प्रश्न से पूर्व भी महाभारत था, धृतराष्ट्र और संजय भी थे। जिज्ञासुओं को लगता होगा कि महाभारत तो एक बार ही हुआ था, धृतराष्ट्र एक ही था और संजय भी एक ही। चिंतन कहता है, भीतर जब कभी महाभारत उठा है, अनादि काल से मनुष्य के अंदर बसा धृतराष्ट्र, भीतर के संजय से यही प्रश्न करता रहा है।

वस्तुत: अनादि से लेकर संप्रति, स्थूल और सूक्ष्म जगत में जो कुछ घट रहा है, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भर है संजय उवाच।

महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र रूपी स्वार्थांधता को उसके कर्मों का परिणाम दिखाने हेतु संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। संजय की आँखों की दिव्यता, विपरीत ध्रुवों के एक स्थान पर स्थित होने की अद्भुत बानगी है। उसकी दिव्यता में जब जिसे अपना पक्ष उजला दिखता है, वह कुछ समय उसका मित्र हो जाता है। दिव्यता में जिसका स्याह पक्ष उजाले में आता है, वह शत्रु हो जाता है। उसकी दिव्यता उसका वरदान है, उसकी दिव्यता उसका अभिशाप है। उसका वरदान उसे अर्जुन के बाद ऐसा महामानव बनाता है जिसने साक्षात योगेश्वर से गीताज्ञान का श्रवण किया। मनुज देह में संजय ऐसा सौभाग्यशाली हुआ, जो पार्थ के अलावा पार्थसारथी के विराट रूप का दर्शन कर सका। उसका अभिशाप उसे अभिमन्यु के निर्मम वध का परोक्ष साक्षी बनाता है और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या देखने को विवश करता है। दिव्य दृष्टि के शिकार संजय की स्थिति कुछ वर्ष पूर्व कविता में अवतरित हुई थी..,

 

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

गुणातीत वरद अवध्य हूँ

कालातीत अभिशप्त हूँ!

 

संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे सरल है, संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे जटिल है। असत्य के झंझावात में सत्य का तिनका थामे रहना, सत्य कहना, सत्य का होना, सत्य पर टिके रहना सबसे कठिन और जटिल है। बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है, सर्वस्व होम करना पड़ता है। संजय सारथी है। समय के रथ पर आसीन सत्य का सारथी।

आँखों दिखते सत्य से दूर नहीं भाग सकता संजय। जैसा घटता है, वैसा दिखाता है संजय। जो दिखता है, वही लिखता है संजय। निरपेक्षता उसकी नीति है और नियति भी।

महर्षि वेदव्यास ने समय को प्रकाशित करने हेतु शाश्वत आलोकित सत्य को चुना, संजय को चुना। संकेत स्पष्ट है। अंतस में वेदव्यास जागृत करो, दृष्टि में ‘संजय’ जन्म लेगा। तब तुम्हें किसी संजय और ‘संजय उवाच’ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यही संजय उवाच का उद्देश्य है और निर्दिष्ट भी।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40) ॥ ☆

 

तब उस अँधेरी गिरिकन्दरा को स्वदंत आभा से कर विभासित

उस शम्भु अनुचर ने फिर नृपति से हँसते हुये बात कही प्रकाशित ॥46॥

 

एकछत्र स्वामित्व वसुन्धरा का, नई उमर स्वस्थ श्शरीर सुन्दर

इतना बड़ा त्याग  पाने जरा सा, दिखते मुझे मूर्ख हो तुम अधिकतर ॥47॥

 

बचा जो जीवन पितैव राजन करेगा नित धन – प्रजा सुरक्षा

औं तव मरण केवल एक गौ की ही कर सकेगा तो प्राण रक्षा ॥48॥

 

इस एक गौ के विनाश से व्यर्थ गुरू की अवज्ञा से डर रहे तुम

परन्तु ऐसी हजार गायें प्रदान करने न समर्थ क्या तुम ? ॥49॥

 

जो आत्म ओजस्वी देह को तुम अनेक हित हेतु रखो बचायें

विशाल पृथ्वी पर स्वर्ग सदृश है राज्य यह इन्द्र भी जो न पाये ॥50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (41-45) ॥ ☆

 

तब उस नृपति ने जो मृगाधिपति की, ऐसी सुनी बात प्रगल्भ सारी

स्वशस्त्रसंपात की रूद्धगति पर अपमान औं ग्लानि सभी बिसारी ॥41॥

 

बोला तथा सिंह से बाणसंधान में जो विफल तब तथा हो गया था

जैसे कि शिवदृष्टि से वज्रआबद्ध हो इन्द्र भी खुद विफल मुक्ति हित था ॥42॥

 

अवरूद्ध गति मैं जो हूँ चाहूँ  कहना, हे सिंहवर बात वह हास्य सम है

सब प्राणियों की हृदयभावना ज्ञात है आपको क्या कोई ज्ञात कम है ? ॥43॥

 

माना सभी जड़ तथा चेतनों का विनाशकर्ता जो परमपिता हैं

पर यों परम पूज्य गुरूधेनु कां अंत हो सामने ये भी समुचित कहाँ है ? ॥44॥

 

तो आप मेरे ही श्शरीर से आत्मक्षुधा निवारें कृपालु होकर

इस बालवत्सा गुरूधेनु को देव ! दें छोड़ सब भांति दयालु होकर ॥45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40) ॥ ☆

 

जो सामने देखते दारू तरू ही वह पुत्रवत पालित श्शम्भु द्वारा

जिसे सुलभ वृद्धि हित स्कन्दंजननी अंचल कलश से सतत नेहधारा ॥36॥

 

कभी किसी वन्य राज ने खुजाते, उखाड़ी थी छाल इसकी रगड़ से

तो पार्वती मातु ने बात समझी कि स्कन्द ने छाल छीली बिगड़ के ॥37॥

 

मैं तभी से इसे प्रभु श्शम्भु आदेश पा हूॅ निरत वन्य राज सें बचाने

इस सिंह के रूप में इस गुफा में निकट आये सारे पशु – प्राणी खाने ॥38॥

 

तो मुझ बुमुक्षित के हेतु आई ज्यों राहुहित चन्द्रमा की सुधा सी

यथाकाल प्रेषित यहाँ ईश द्वारा, यह धेनु पर्याप्त होगी क्षुधा की ॥39॥

 

तब त्याग लज्जा स्वगृंह लौट जाओ, बहुत है दिखाई गुरूभक्ति तुमने

यदि शस्त्र से भी न हो रक्ष्य रक्षा, तो है शस्त्रधर का न कुछ दोष इसमें ॥40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (21-25) ॥ ☆

 

प्रदक्षिणा कर पदस्विनी की सुदक्षिणा पूजन थाल धारे

लगा सुस्हंगो के बीच टीका, प्रणाम करती ज्यों सिद्धि द्वारे ॥21॥

 

वम्सोत्कंठित भी धेनु निश्चल स्वीकारती श्शांत समस्त पूजा

प्रसव दम्पति थे, सिद्धि संभाव्य का और वन्या होगा चिन्ह दूजा ॥22॥

 

सदार गुरू को प्रणाम करके दिलीप ने की सप्रेम संध्या

फिर दुग्धदोहन के बाद विश्रांतिरत नन्दिनी की सेवा सुश्रूषा ॥23॥

 

उसे पूजकर दीप रक्खे जहाँ थे, उसी के निकट बैठ के साथ रानी

शयन बाद सोये जगे प्रात पहले यही थी नृपति की निरन्तर कहानी ॥24॥

 

यों व्रत धरे पुत्र हित ख्यात नृप के पत्नी सहित दिवस इक्कीस बीते

दोनोपकारी व सदकीर्ति वाले नृपति ने दिये त्याग सारे सुभीते ॥25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुनाव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? चुनाव ?

कुछ नहीं देती भावुकता,

कुछ नहीं देती कविता,

जीने का

सामान करना सीखो,

जीवन में

सही चुनाव करना सीखो,

एक पलड़े पर

दुनियादारी रखी,

दूसरे पर

कविता धर दी,

सही चुनने की सलाह

स्वीकार कर ली,

मैंने अपने लिए

कविता चुन ली..!

 

आपका दिन सार्थक हो। ?

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 9:24 बजे, 23 जून 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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