हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #195 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 195 ☆

ख़ुद से जीतने की ज़िद्द 

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण… कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को  रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

 ‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 122 ⇒ ये जो है जिन्दगी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये जो है जिन्दगी”।)  

? अभी अभी # 122⇒ ये जो है जिन्दगी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जीवन कहें या जिंदगी, इसको परिभाषित करना इतना आसान नहीं, क्योंकि जिंदगी तो हमें जीना है, हर हाल में, हर शर्त में, कभी हंसते हंसते, तो कभी रोते रोते। रोएं हमारे दुश्मन, हम तो बस हंसते मुस्कुराते ही जीवन के चार दिन गुजार दें।

हेमंत कुमार तो कह गए हैं, जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है, लेकिन हमारा कहां केवल प्यार से काम चल पाता है, कुछ लोग इंतजार ही करते रह जाते हैं, पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही।।

कुछ लोग सदाबहार होते हैं, जिनके चेहरे तो दिन भर चांदनी के फूल की तरह खिले रहते हैं और रात में भी वे रात रानी की तरह महकते रहते हैं। खुशबू और ताजगी ही उनकी पहचान होती है। वे नफरत करने वालों के सीने में भी प्यार भरते चले हैं। प्यार बांटते चलो।

माना कि बहुत कठिन है डगर पनघट की, फिर भी गोरी भर ही लाती पनघट से मटकी। क्योंकि उसका ध्यान उधर होता है, जिधर ;

दूर कोई गाये,

धुन ये सुनाये।

तेरे बिन छलिया रे

बाजे ना मुरलिया रे।।

सन् १९८४ में दूरदर्शन पर कुंदन शाह निर्देशित एक हास्य धारावाहिक आया था, जिसका शीर्षक ही था, ये जो है जिंदगी ! किसकी जिंदगी में खट्टे मीठे अनुभव नहीं होते, रोजमर्रा की जिंदगी में नोंक झोंक नहीं होती। जीवन में संघर्ष भी है और चुनौतियां भी, जिनका सामना आप चाहे हंसकर करें अथवा रोकर और परेशान होकर।

एक कड़वे सच से हम सभी को गुजरना भी पड़ता है, laugh and the world laughs with you, and weep, and you are alone to weep. फिर भी गम की अंधेरी रातों से गुजरते हुए भी दूसरों के आंसू पोंछने वाले लोग भी कई लोग हमारे बीच हैं। दुनिया में इतना गम है, मेरा गम कितना कम है।।

यह भी सच है कि बनावटी हँसी से जिंदगी नहीं काटी जाती, लेकिन दूसरे की खुशी और गम में बराबरी से शामिल तो हुआ ही जा सकता है। व्यर्थ के राग द्वेष को भूल एक दीया प्यार और खुशी का तो जलाया ही जा सकता है।

कभी राजनीति पर हंसी आती थी, आज की राजनीति पर रोना आ रहा है। लोग आपस में मिलते थे तो अपने सुख दुख और परिवार की बात करते थे, आजकल व्यर्थ ही राजनीति पर बहस की जा रही है, लोगों को बांटा जा रहा है। आपसी असहमति का ऐसा दौर पहले कभी नहीं देखा।।

कभी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, आजकल राजनीति समाज का दर्पण बन रही है। प्रचार और दुष्प्रचार मीडिया और सोशल मीडिया का दिन भर का नाश्ता, भोजन, लंच और डिनर सब कुछ हो गया है।

क्या हमारे भोजन में आपसी प्रेम की मिठास है। एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ से भोजन और आंखों के सामने बुद्धू बक्सा आखिर कब तक।

हमें एक ब्रेक की आवश्यकता है। हमारे जीवन से सहज हास्य गायब होता चला जा रहा है। अब कहां नुक्कड़ और जाने भी दो यारों जैसे हास्य धारावाहिक! सेक्स, हिंसा और पॉर्न के साथ लोगों को एक दूसरे से दूर करती, आपस में वैमनस्य फैलाती राजनीति के आगे तो बेचारी डायन महंगाई भी थक हार कर भुला दी गई है। महंगाई अच्छी है।।

हमारी मजबूरी यह है कि हम इसी रास्ते पर और आगे बढ़ना चाहते हैं, भूले बिसरे गीत, आदर्श प्रधान फिल्में, मधुर कर्णप्रिय संगीत और सहज हास्य हमें अपनी ओर पहले की तरह आकर्षित नहीं कर पाता। आज रह रह कर ऑफिस ऑफिस जैसे धारावाहिक और जसपाल भट्टी का उल्टा पुल्टा याद आता रहता है, जिसमें व्यंग्य था, विसंगति थी, सहज हास्य का पुट था, और सार्थक संदेश भी था।

आगे बढ़ना गलत नहीं, लेकिन गलत रास्ते पर चलने में भी समझदारी नहीं। जब जीवन से आपसी प्रेम और सहज हास्य गायब हो जाएगा, तो चारों ओर, लोगों को आपस में बांटने वाली कुत्सित राजनीति का ही साम्राज्य हो जाएगा। हमें जीवन में दूसरों के बजाय अपने आप पर हंसना सीखना पड़ेगा। दूसरों के नहीं, अपने दोष देखने पड़ेंगे और अपने स्वस्थ मनोरंजन के लिए कला, संगीत और सहज हास्य की शरण में जाना पड़ेगा। फेसबुक के दर्शकों की नजर शायद नजरबट्टू जैसे हास्य कार्यक्रम पर पड़ी हो, जो शायद भविष्य में ऑफिस ऑफिस अथवा उल्टा पुल्टा की जगह ले ले।

हास्य का परिपक्व होना बहुत जरूरी है। राजनीति तो परिपक्व होने से रही, कुछ वापस के. बी.सी. और कुछ कॉमेडी विथ कपिल की शरण में चले जाएंगे, वर्ना हॉट स्टार और नेटफ्लिक्स तो जिंदाबाद है ही।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 121 ⇒ आँखें आई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी # 121 ⇒ आँखें आई? श्री प्रदीप शर्मा  ? 
👁️ Eye Eye 👁️

अगर एकाएक आपकी आँख आ गई तो आप यूरेका यूरेका भी नहीं कह सकते, क्योंकि आप तो जन्म से ही दो दो आँख वाले हैं। यह भी सच है कि जब आँख से आँख मिलती है, तब वे चार जरूर होती हैं, लेकिन नजर हटते ही फिर वही दो ही रह जाती हैं।

भले ही कोई व्यक्ति कभी आपको फूटी आंखों नहीं सुहाया हो, लेकिन आपने कभी अपनी आँखों को आँच नहीं आने दी। बस नजरें फेरकर काम चला लिया।।

सबकी तरह बचपन में हमारी भी दो ही आँखें थीं, लेकिन नजर कमजोर होने से डॉक्टर ने हमारी आँखों पर चश्मा चढ़ाकर दो आँखें और बढ़ा दी। अगर हमारे हरि हजार हाथ वाले हैं, तो उनका हरि का यह जन भी तब से ही चार आँखों वाला हो गया।।

आंख को नजर भी कहते हैं। हम पहले इस भ्रम में थे कि नजर वाला चश्मा लगाने के बाद हमें किसी की नजर नहीं लगेगी, लेकिन जब से हमें चश्मे बद्दूर शब्द का अर्थ पता चला, हमारी आँखें खुल गई। अब हमारी किसी से आँखें चार ही नहीं होती, नजर क्या लगेगी।जिसकी खुद की ही चार आँखें हों, उसकी आँखें मिलकर या तो छः हो जाएगी और अगर वह भी चार आँखों वाला या वाली निकली, तो दो दो हाथ होने से तो रहे, लेकिन आठ आठ आँखें जरूर हो जाएंगी।

हमारी मां ने कई बार हमारी नज़र उतारी, लेकिन फिर भी नजर का चश्मा नहीं उतार पाई। खूब दूध बादाम और धनिये के लड्डू हमें खिलाए, त्रिफला के पानी से आंखे भी धोई और डाबर का च्यवनप्राश खाया, डाबर आंवला का तेल भी लगाया, आसन प्राणायाम भी किए, लेकिन डॉक्टर ने साफ कह दिया, आप हाईली मायोपिक हो, बस आंख बचाकर रखो।।

इस बार गुजरते सावन और अधिक मास में, न तो बरसात का पता है, और न ही बरसाती मेंढकों का। लेकिन लोग हैं कि उनकी आंख आ रही है। आँखों के डॉक्टर इसे कंजेक्टिवाइटिस और सरल हिंदी भाषा में नेत्रश्लेष्मलाशोथ कहते हैं। आप जब डॉक्टर को आंख दिखाते हैं, तो वह कहता है, भूलकर भी किसी और को आंख मत दिखाना, आपकी आंख आई हुई है। गोरे गोरे गालों पर काला चश्मा यूं ही नहीं चढ़ाया जाता।

अपनी आँखों का प्रताप तो देखिए, ऐसी हालत में दुश्मन को बस आंख दिखाना ही काफी है। किसी को ऐसी स्थिति में आंख मारना खतरे से खाली नहीं।जहां कभी आँखों आँखों में बात हुआ करती थी, वहां आज परदा है जी पर्दा।।

जब तक आपकी आंख आई हुई है, अपनी भी सुरक्षा रखें और सामने वाले की भी। डॉक्टरों के लिए भले ही यह सालाना उत्सव हो, हमारे लिए एक संक्रमित रोग है। यह अतिरिक्त आंख है, इसका सावधानीपूर्वक विशेष खयाल रखना पड़ेगा। इसका उचित इलाज करवाएं।

शायर सही कह गया है; तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है। स्विस बैंक में रखा पैसा किस काम का। समझदार इंसान वह, जो समय रहते अपनी आंखें आई बैंक में जमा करा दे। नेत्रदान महा कल्याण। आपको इसके लिए जीते जी कुछ नहीं करना है, बस एक फॉर्म भरकर आपकी आँखें दान कर दीजिए। कल खेल में जब हम ना होंगे, तो आपकी ही आँखों से कोई खेल रहा होगा, यह दुनिया देख रहा होगा। किसी के जीवन का उजाला बनें, अपना लोक और परलोक दोनों सुधारें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 224 ☆ आलेख – निष्पक्ष परीक्षा के लिए ए आई… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखनिष्पक्ष परीक्षा के लिए ए आई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 224 ☆

? आलेख – निष्पक्ष परीक्षा के लिए ए आई?

जीवन हर पल एक परीक्षा ही होती है। गुणवत्ता बनाए रखने के लिए शिक्षा से लेकर नौकरी के लिए भी पारदर्शी तरीके से तटस्थ भाव से परीक्षा संपन्न करवाना भी एक बड़ा कार्य है। कभी पेपर आउट, कभी नकल, तो कभी कभी जांच कार्य में पक्षपात के आरोप लगते हैं। परीक्षाओं को सुसंपन्न करना एक चुनौती है।

इसके लिए कम्प्यूटर और अब ए आई का सदुपयोग किया जाना चाहिए।

इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है। इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है। AMIE हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, हमने प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तेहरे सुरक्षा कवच के साथ ठीक परीक्षा के समय पर आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की। सात दिनों, सुबह शाम की दो पारियों में लगभग 50 से ज्यादा पेपर्स, होते है।

 मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया।

इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है। पेपर डाक से भेजने नही होते, रियल टाइम पर पेपर कम्प्यूटर पर डाउन लोड किए जाते हैं। नकल रोकने कैमरे हैं। रिकार्डिंग रखी जाती है।

इस तरह पारदर्शी तरीके से अन्य शैक्षिक तथा नौकरी में भर्ती आदि परीक्षा संपन्न कराने में टेकनालजी के प्रयोग को और बढ़ाने की जरूरत है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #147 – आलेख – “बच्चों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के उपयोग का विश्लेषण” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  बच्चों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के उपयोग का विश्लेषण)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 147 ☆

 ☆ आलेख – “बच्चों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के उपयोग का विश्लेषण” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) एक शक्तिशाली उपकरण है जिसका उपयोग बच्चों के जीवन को कई तरह से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को व्यक्तिगतकृत शिक्षा प्रदान करने, उन्हें नए कौशल सीखने में मदद करने और उन्हें दुनिया के बारे में अधिक जानने में मदद करने के लिए किया जा सकता है.

हालांकि, एआई का उपयोग बच्चों के लिए कुछ जोखिमों के साथ भी जुड़ा हुआ है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को ऑनलाइन धोखाधड़ी और उत्पीड़न के लिए किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, एआई का उपयोग बच्चों को आपत्तिजनक सामग्री तक पहुंच प्रदान करने के लिए किया जा सकता है.

कुल मिलाकर, एआई एक शक्तिशाली उपकरण है जिसका उपयोग बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है. हालांकि, एआई के उपयोग से जुड़े जोखिमों से अवगत होना महत्वपूर्ण है और बच्चों को सुरक्षित रूप से एआई का उपयोग करने के लिए शिक्षित करना महत्वपूर्ण है.

यहां कुछ विशिष्ट उदाहरण दिए गए हैं कि एआई का उपयोग कैसे किया जा सकता है ताकि बच्चों के जीवन को बेहतर बनाया जा सके:

व्यक्तिगतकृत शिक्षा: एआई का उपयोग बच्चों को व्यक्तिगतकृत शिक्षा प्रदान करने के लिए किया जा सकता है जो उनकी व्यक्तिगत जरूरतों और रुचियों को पूरा करता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को उनकी गतिविधियों के आधार पर पाठ्यक्रम सामग्री प्रदान करने के लिए किया जा सकता है, या उन्हें उनके कौशल के स्तर के अनुसार प्रश्न पूछने के लिए किया जा सकता है.

नए कौशल सीखना: एआई का उपयोग बच्चों को नए कौशल सीखने में मदद करने के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को भाषा सीखने, संगीत बजाने या कंप्यूटर प्रोग्रामिंग करने में मदद करने के लिए किया जा सकता है.

दुनिया के बारे में जानना: एआई का उपयोग बच्चों को दुनिया के बारे में जानने में मदद करने के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को दुनिया के विभिन्न देशों के बारे में जानकारी प्रदान करने, या उन्हें दुनिया के विभिन्न संस्कृतियों के बारे में जानने में मदद करने के लिए किया जा सकता है.

यहां कुछ विशिष्ट उदाहरण दिए गए हैं कि एआई का उपयोग कैसे किया जा सकता है ताकि बच्चों को जोखिम हो सकते हैं:

ऑनलाइन धोखाधड़ी: एआई का उपयोग बच्चों को ऑनलाइन धोखाधड़ी के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को उन वेबसाइटों पर भेजने के लिए किया जा सकता है जो उनसे व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करती हैं, या उन्हें उन उत्पादों या सेवाओं को खरीदने के लिए प्रेरित करने के लिए किया जा सकता है जो वे वास्तव में नहीं चाहते हैं.

उत्पीड़न: एआई का उपयोग बच्चों को उत्पीड़न के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को अपमानजनक या आपत्तिजनक संदेश भेजने के लिए किया जा सकता है, या उन्हें ऑनलाइन बदनाम करने के लिए किया जा सकता है.

आपत्तिजनक सामग्री तक पहुंच: एआई का उपयोग बच्चों को आपत्तिजनक सामग्री तक पहुंच प्रदान करने के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, एआई का उपयोग बच्चों को अश्लील सामग्री, हिंसक सामग्री या नफ़रत फैलाने वाली सामग्री तक पहुंच प्रदान करने के लिए किया जा सकता है.

यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता अपने बच्चों को एआई के जोखिमों से अवगत कराएं और उन्हें सुरक्षित रूप से एआई का उपयोग करने के लिए शिक्षित करें. माता-पिता अपने बच्चों को एआई का उपयोग करते समय कुछ बातों का ध्यान रख सकते हैं, जैसे कि:

अपने बच्चों को यह समझाएं कि –

  • एआई एक उपकरण है, और इसका उपयोग अच्छे या बुरे के लिए किया जा सकता है.
  • वे ऑनलाइन क्या साझा कर रहे हैं, इस बारे में सावधान रहें.
  • वे ऑनलाइन किसी से भी बातचीत करते समय सावधान रहें.
  • वे ऑनलाइन आपत्तिजनक सामग्री देखते हैं, तो क्या करें.

माता-पिता अपने बच्चों को एआई के जोखिमों से अवगत कराकर और उन्हें सुरक्षित रूप से एआई का उपयोग करने के लिए शिक्षित करके, वे अपने बच्चों को ऑनलाइन सुरक्षित रहने में मदद कर सकते हैं.

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-08-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्व आदिवासी दिवस विशेष – गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती…… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखगढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती)

☆ आलेख ☆ विश्व आदिवासी दिवस विशेष – गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती

विश्व इतिहास की पहली आदिवासी योद्धा थीं गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती

विश्व इतिहास में रानी दुर्गावती पहली महिला है जिसने समुचित युद्ध नीति बनाकर अपने विरूद्ध हो रहे अन्याय के विरोध मे मुगल साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र उठाकर आदिवासी सेना का नेतृत्व किया और युद्ध क्षेत्र मे ही आत्म बलिदान दिया. रानी दुर्गावती के मदन महल, जबलपुर का भ्रमण किया हैं कभी आपने? एक ही शिला को तराश कर यह वाच टावर, छोटा सा किला जबलपुर में पहाड़ी के उपर बनाया गया है. इसके आस पास अप्रतिम नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है. रानी दुर्गावती सोलहवीं शताब्दि की वीरांगना थीं, उनके समय तक गौंड़ सेना पैदल व उसके सेनापति हाथियो पर होते थे, जबकि मुगल सेना घोड़ो पर सवार सैनिको की सेना थी. हाथी धीमी गति से चलते थे और घोड़े तेजी से भागते थे, इसलिये जो मुगल सैनिक घोड़ो पर रहते थे वे तेज गति से पीछा भी कर सकते थे और जब खुद की जान बचाने की जरूरत होती तो वो तेजी से भाग भी जाते. किंतु पैदल गौंडी सेना धीमी गति से चलती और जल्दी भाग भी नही पाती थी.

विशाल, सुसंगठित, साधन सम्पन्न मुगल सेना जो घोड़ो पर थी उनसे जीतना संख्या में कम, गजारोही गौंड सेना के लिये कठिन था, फिर भी जिस तरह रानी दुर्गावती ने अकबर की दुश्मन से वीरता पूर्वक लोहा लिया, वह नारी सशक्तीकरण का अप्रतिम उदाहरण है. तीन बार तो रानी ने मुगल सेना को मात दे दी थी, पर फिर फिर से और बड़ी सेना लेकर आसफ खां चढ़ाई कर देता था.

97वर्षीय सुप्रसिद्ध कवि गीतकार एवं लेखक प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध की एक रचना है ‘‘गौडवाने की रानी दुर्गावती जिसमें उन्होनें दुर्गावती का समग्र चित्रण किया है. इस गीत को जबलपुर के श्री सोहन सलिल व सुश्री दिव्या सेठ ने स्वर तथा संगीत, व तकनीकी सहयोग देकर श्री प्रशांत सेठ ने बड़ी मेहनत से मधुर संगीत के साथ तैयार किया है. यह गीत यू ट्यूब पर निम्न लिंक पर सुलभ है, जिसे आप यहाँ भी आत्मसात कर सकते हैं.

प्रस्तुत है वह रचना

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का.

 

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को मां रेवा की घाटी ने

 

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

 

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

 

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

 

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राह मे अड़ता था

बादशाह अकबर की आंखो में वह बहुत खटकता था

 

एक बार रानी को उसने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

 

बदले में रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुंचाया

 

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न रही वांछित आशा

 

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

 

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

 

आती हैं जीवन मे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

 

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

 

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खां को तब सेना दे भेजा लडने

 

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खां सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा

 

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

 

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र में रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

 

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

 

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

 

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

 

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

 

तभी फंसी रानी को आकर लगा आंख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

 

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

 

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

 

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढे जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

 

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

 

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है मां रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती गढ़ मंडला की रानी में

 

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गौंडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

 

असमय विधवा हुई थी रानी मां बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

 

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से था किया प्रयाण

 

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहां हुई गौडो की मुगलों से हार

 

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दे जो उपहार

 

कभी दगा देती यह दुनियां कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

रानी दुर्गावती पर अनेक पुस्तके लिखी गई है, कुछ प्रमुख इस तरह है-

राम भरोस अग्रवाल की गढा मंडला के गोंड राजा, नगर निगम जबलपुर का प्रकाशन रानी दुर्गावती, डा. सुरेश मिश्रा की कृति रानी दुर्गावती, डा. सुरेश मिश्र की ही पुस्तक गढा के गौड राज्य का उत्थान और पतन, बदरी नाथ भट्ट का नाटक दुर्गावती, बाबूलाल चौकसे का नाटक महारानी दुर्गावती, वृन्दावन लाल शर्मा का उपन्यास रानी दुर्गावती, गणेश दत्त पाठक की किताब गढा मंडला का पुरातन इतिहास

इनके अतिरिक्त अंग्रेजी मे सी. यू. विल्स, जी. वी. भावे, डब्लू स्लीमैन आदि अनेक लेखको ने रानी दुर्गावती की महिमा अपनी कलम से वर्णित की है.

वीरांगना की स्मृति को अक्षुण्य बनाये रखने हेतु भारत सरकार ने 1988 मे एक साठ पैसे का डाक टिकट भी जारी किया है.

रानी दुर्गावती ने ४०० साल पहले ही जल संरक्षण के महत्व को समझा था, अपने शासनकाल मे जबलपुर मे उन्होने अनेक जलाशयो का निर्माण करवाया, कुछ ऐसी तकनीक अपनाई गई कि पानी के प्राकृतिक बहाव का उपयोग करते हुये एक से दूसरे जलाशय में बिना किसी पम्प के जल भराव होता रहता था. रानी ने अपने प्रिय दीवान आधार सिंग, कायस्थ के नाम पर अधारताल, अपनी प्रिय सखी के नाम पर चेरीताल और अपने हाथी सरमन के नाम पर हाथीताल बनवाये थे. ये तालाब आज भी विद्यमान है. प्रगति की अंधी दौड मे यह जरूर हुआ है कि अनेक तालाब पूर कर वहां भव्य अट्टालिकाये बनाई जा रही है.

रानी दुर्गावती के समय की और भी कुछ चीजे, सिक्के, मूर्तियां आदि रानी के नाम पर ही स्थापित रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में संग्रहित हैं.

रानी दुर्गावती ने सर्वप्रथम मालवा के राज बाज बहादुर से लडाई लडी थी, जिसमें बाज बहादुर का काका फतेहसिंग मारा गया था. फिर कटंगी की घाटी मे दूसरी बार बाज बहादुर की सारी फौज का ही सफाया कर दिया गया. बाद मे रानी रूपमती को संरक्षण देने के कारण अकबर से युद्ध हुआ, जिसमें तीन बार दुर्गावती विजयी हुई पर आसफ खां के नेतृत्व मे चौथी बार मुगल सेना को जीत मिली और रानी ने आत्म रक्षा तथा नारीत्व की रक्षा मे स्वयं अपनी जान ले ली थी.

नारी सम्मान को दुर्गावती के राज्य मे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी. नारी अपमान पर तात्कालिक दण्ड का प्रावधान था. न्याय व्यवस्था मौखिक एवं तुरंत फैसला दिये जाने वाली थी. रानी दुर्गावती एक जन नायिका के रूप मे आज भी गांव चौपाल में लोकगीतो के माध्यम से याद की जाती हैं.

गायक मडंली-

तरी नाना मोर नाना रे नाना

रानी महारानी जो आय

माता दुर्गा जी आय

रन मां जूझे धरे तरवार, रानी दुर्गा कहाय

राजा दलतप के रानी हो, रन चंडी कहाय

उगर डकर मां डोले हो, गढ मडंला बचाय

हाथन मां सोहे तरवार, भाला चमकत जाय

सरपट सरपट घोडे भागे, दुर्गे भई असवार

तरी नाना. . . . . . . . . . .

ये लोकगीत मंडला, नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह, छिंदवाडा, बिलासपुर, आदि अंचलो मे लोक शैली मे गाये जाते है इन्हें सैला गीत कहते है.

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालींजर मे हुआ था. उनके पिता कीरत सिंह चन्देल वंशीय क्षत्रिय शासक थे. इनकी मां का नाम कमलावती था. सन् 1540 में गढ मंडला के राजकुमार दलपतिशाह ने विवाह कर दुर्गावती का वरण किया था. अर्थात आज जो अंतर्जातीय विवाह स्त्री स्वात्रंत्य व नारी अस्मिता व आत्म निर्णय के प्रतीक रूप में समाज स्वीकार कर रहा है, उसका उदाहरण रानी ने सोलहवीं शताब्दी में ही प्रस्तुत किया था. 1548 मे महाराज दलपतिशाह के निधन से रानी ने दुखद वैधव्य झेला. तब उनका पुत्र वीरनारायण केवल 3 वर्ष का था. उसे राजगद्दी पर बैठाकर रानी ने उसकी ओर से कई वर्षो तक कुशल राज्य संचालन किया.

आइने अकबरी मे अबुल फजल ने लिखा है कि रानी दुर्गावती के शासन काल मे प्रजा इतनी संपन्न थी कि लगान का भुगतान प्रजा स्वर्ण मुद्राओ और हाथियो के रूप मे करती थी.

शायद यही संपन्नता, मुगल राजाओ को गौड राज्य पर आक्रमण का कारण बनी.

शायद रानी ने राज्य की आय का दुरुपयोग व्यक्तिगत एशो आराम, बड़े बड़े किले महल आदि बनवाने की जगह आम जनता के सीधे हित से जुड़े कार्यो में अधिक किया, यही कारण है कि जहां मुगल शासको द्वारा निर्मित बड़े बड़े महल आदि आज भी विद्यमान हैं, वहीं रानी के ऐसे बड़े स्मारक अब नही हैं.

लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि अकबर ने विधवा रानी पर हमला कर, सब कुछ पाकर भी कलंक ही पाया, जबकि रानी ने अपनी वीरता से सब कुछ खोकर भी इतिहास मे अमर कीर्ति अर्जित की.

समय के साथ यदि ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यो को नई पीढ़ी के सम्मुख दोहराया न जावे तो विस्मरण स्वाभाविक होता है, आज की पीढ़ी को रानी दुर्गावती के संघर्ष से परिचित करवाना इसलिये भी आवश्यक है, जिससे देश प्रेम व राष्ट्रीय एकता हमारे चरित्र में व्याप्त रह सके इस दृष्टि से सरदार पटेल पर बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक व एकता शक्ति ग्रुप के संस्थापक इंजी अमरेन्द्र नारायण जी के नेतृत्व में विगत वर्ष रानी दुर्गावती जयंती का आयोजन कई संस्थाओ में किया गया था. इस वर्ष लाक डाउन के चलते इस यू ट्यूब काव्य रचना के जरिये एकता शक्ति ग्रुप वीरांगना रानी दुर्गावती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है.

 © विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिंतन मनन।) 

? अभी अभी # 120 ⇒ चिंतन मनन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इस सृष्टि में सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो न केवल बोल सकता है, अपितु सोच विचार कर सकता है, अपना अच्छा बुरा और हित अहित भी समझ सकता है। वह आहार, भय, निद्रा के वशीभूत होकर भी यह अच्छी तरह से जानता है कि चिंता से चिंतन भला, चिंता चिता समान।

जहां सोचने विचारने की शक्ति है, वहां मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी मौजूद हैं। भला बुरा और पाप पुण्य तराजू के दो पलड़े हैं और उनका हिसाब रखने वाला कोई तीसरा ही है। ।

कहते रहें इसे ईश्वर की माया, जीव ने अगर जन्म लिया है तो इस संसार को उसे तैरकर ही पार करना है। कब तक चलेंगे किनारे किनारे, जरा सा पांव फिसला और हर हर गंगे।

जहां मनुष्य में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार है, वहीं उसके पास ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वैराग्य की बैसाखी भी है। वह पढ़ लिखकर एक अच्छा इंसान बन सकता है। सभी अवतार इस धरती पर ही प्रकट होते हैं, हे भगवान ! कितने भगवान हैं इस धरती पर, कुछ स्वयंभू और कुछ स्वयंसिद्ध। ।

हम जो पढ़ते, सुनते और समझते हैं वह हमारे चित्त में प्रवेश कर जाता है, बुद्धि उसे ग्रहण कर लेती है, और वह हमारी चिंतन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन जाता है। हम जो पढ़ते हैं, हमें याद हो जाता है, जो सुनते हैं, मन में बैठ जाता है, और जो सुनते हैं, वह भी स्मृति कोष में एकत्रित होता चला जाता है। किसी भंडार से कम नहीं हमारा चित्त।

चिंतन से आगे की प्रक्रिया मनन कहलाती है। जो पढ़ा अथवा सुना है, उस पर बार बार मनन भी आवश्यक है, वर्ना आगे पाट और पीछे सपाट वाली स्थिति बन जाती है। मनन को पढ़े अथवा सुने हुए को हम बार बार दोहराना भी कह सकते हैं। बचपन से ही हमें हर पाठ को दोहराने का अभ्यास कराया जाता है।।

जिस विषय में हम कमजोर होते थे, वह सबक पच्चीस बार दोहराने का सबक किसे याद नहीं। हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है cotemplation !

बार बार का अभ्यास ही अध्ययन है, स्वाध्याय है, चिंतन मनन है। सभी तत्वज्ञ, योगी महात्मा और वैज्ञानिक इसी चिंतन, मनन, contemplation और मेडिटेशन की राह से गुजरे हैं। जो प्रकट है, वह प्रत्यक्ष है, जो अप्रकट है, उसका प्रकट होना शेष है। धारणा, ध्यान और समाधि केवल शब्दांडर नहीं, एक जन्म की उपलब्धि नहीं, कई जन्मों के चिंतन मनन का परिणाम है। जानिये, जितना जान सकते हैं, सीमाएं अनंत आकाश है। सितारों के आगे जहान और भी हैं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 78 – पानीपत… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्थानांतरण याने ट्रांसफर जो हिंदी में लिखा जाय या इंग्लिश में, सौ में से अस्सी बार तनाव देता है, नया माहौल, अपरिचित लोग, नया शहर/गाँव बहुत कुछ नया नया पर दुख दर्द पुराना पुराना. ये कोविड संक्रमण के समान देश व्यापी है जिसमें कोविशील्ड और कोवैक्सीन भी निष्फल हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि कभी कभी “को ब्रदर और को सिस्टर” नामक वैक्सीन रोग की व्यथा कम या दूर कर देती है. वांछित स्थान के स्थानांतरण आदेश प्रेमपत्र जैसे अजीज लगते हैं और दुर्गम स्थान के आदेश चार्जशीट के समान, जो पाने वाले का सुकून डिस्चार्ज कर देते हैं. पानीपत सदृश्य शाखा के मुख्य प्रबंधक “घर वापसी” का आदेश सपनों में अक्सर देखा करते थे और सपनीली खुशी के कारण आंख खुलने पर “मेरा सुंदर सपना टूट गया ” मद्धम सुर में गाते थे.

फिर कुछ दिनों बाद चुनावों का मौसम आया. ये विधानसभा या संसद के चुनाव नहीं थे बल्कि अधिकारी संघ के चुनाव थे. महासचिव पद के प्रत्याशी अपने अगले टर्म के लिये दलबल सहित शाखा में पधारने वाले थे. रात में रुकने की व्यवस्था और समीपस्थ सारी शाखाओं के अधिकारियों को शाम 5 बजे के बाद संबोधित करने के निर्देश, इन्हें प्राप्त हो चुके थे. शाखाओं के कुछ प्रवीण अधिकारी रुकने और सभा की व्यवस्था में लग चुके थे. उपस्थिति के हिसाब से सभा के लिये नगर के ही प्रसिद्ध होटल के मीटिंग हाल का चयन किया जा चुका था. आने वाले मेहमान जो मंचासीन होंगे, की संख्या ज्ञात करने के पश्चात एक सैकड़ा पुष्प मालायें और पुष्प गुच्छ आ चुके थे. पहले वेलकम शीतल पेय से और फिर संबोधन के पश्चात हाई टी की बेहतरीन व्यवस्था की गई थी. समयानुसार महासचिव की अगुवाई में उनके नौ सहयोगी सभाकक्ष में प्रविष्ट हुये. सारे अधिकारी गण पहले ही आ चुके थे. जो आपसी बातचीत में मगन थे, यह दृश्य देखकर उठ खड़े हुये और करतल ध्वनि से स्वागत करने की प्रतियोगिता में नज़र आने का प्रयास करते दिखे. महासचिव पद के प्रत्याशी, जिनका फिर से चुना जाना भी सुनिश्चित ही था, उड़ती नजरों से उपस्थित जनों को देखते हुये, सभाकक्ष की पहली पंक्ति में स्थान ग्रहण करने के लिये बढ़ रहे थे. जिन्हें पहचानते थे, उनकी ओर हल्की सी मुस्कान फेंकते और परिचित निहाल हो जाता. इसके पहले कि वे प्रथम पंक्ति में बैठते, हमारे मुख्य प्रबंधक उन्हें शालीनता के साथ मंच की ओर ले गये और सम्मान के साथ मध्य में बिठाया. टीम के शेष सदस्य, निर्देशानुसार पहली पंक्ति में ही बैठ गये. मीटिंग हॉल रोशनी से जगमगा रहा था, ब्लैक सफारी में सुसज्जित, क्लीन शेव, अत्यंत गौर वर्ण के महासचिव के चेहरे का तेज और व्यक्तित्व का प्रताप, स्टेज से भी ज्यादा दीपायमान था. उपस्थित जन उनकी सुंदर काया से चमत्कृत थे और तुरंत वोट देने को तैयार भी. मंच संचालन, इस कार्य के विशेषज्ञ युवा अधिकारी द्वारा किया जा रहा था और पर्याप्त समय और पर्याप्त से भी अधिक शब्दों के साथ प्रशस्तिगान चल रहा था. फिर उनकी टीम के शेष सदस्य एक एक करके पहले मंच संचालक द्वारा और फिर स्वयं भी अपना परिचय देते हुये विराजित होते गये. स्वागत भाषण के बाद और कुछ वक्ताओं के संक्षिप्त उदबोधन के पश्चात, शाखा के मुख्य प्रबंधक को सुपरसीड करते हुये, महासचिव जी ने संबोधन की डोर संभाली. उनके भाषण के कुछ रोचक अंश:

  1. पानीपत शाखा के मुख्य प्रबंधक (नाम लिया था) तो खुश होंगे कि आज फिर, … वे बोलने से बच गये. मेरे अनुज के साथी हैं और यहाँ इनकी पदस्थापना से पहली बार मुझे लगा कि बैंक सिर्फ बोलने वालों को नहीं बल्कि कभी कभी साइलेंट वर्कर्स को भी नोटिस कर लेती है.
  2. ये आखिरी चुनाव होगा, यह सुनकर हाल में उत्तेजक खामोशी छा गई. फिर थोड़ा समय लेकर और अपनी लोकप्रिय मुस्कान से उन्होंने हॉल को आलोकित किया और बोले: मित्रों, अभी मैं रिटायर होने वाला नहीं हूँ और मेरा स्वास्थ्य भी टनाटन है. (ये उनकी बोलने की शैली थी और सब इस शैली के हास्यरस से परिचित थे) उनकी जीत का एक फैक्टर उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी था जिसे वो गाहे बगाहे इस्तेमाल करते रहते थे. उनकी हाजिरजवाबी से बहुत सी डिमांड, हंसी के माहौल में ही सैटल हो जाती थीं. फिर उन्होंने कहा कि हम सब एक संस्था से जुड़े हैं और आपकी समस्याओं के लिये आवाज उठाना और अधिकतम प्रकरणों में निदान पाना, हम सबकी लड़ाई है. जब हम सब एक हैं तो फिर इलेक्शन क्यों. वो मेरा आदमी है और ये उसका, मैं इस पर नहीं जाता. चुनाव माहौल बिगाड़ता है और हमारी एकता को खंडित करता है, इस कारण ही उच्च प्रबंधन दूर से मजे लेता है. एक बागी तेवर वाला नौजवान मेरे पास आया था. मैंने यही समझाया कि आपस में लड़ने से बेहतर मेरा साथ दो. मेरी पारखी नजरें तुम्हारे भीतर एक उप महासचिव बनने की संभावनाएं देख रही हैं, थोड़ा धीरज रखो. समझदार बंदा था मान गया.
  3. भोपाल का पानी, अपने फायदे की राजनीति सिखा देता है. भोपाल घरवापसी के लिये इतने लोग मिलने आते हैं कि सुकमा, बीजापुर, पखांजूर, अंतागढ़, कमलेश्वरपुर वालों के बारे में सोचना भी भूल जाते हैं. ये नाम तक मुझे याद नहीं हैं, लिखकर लाना पड़ा.

इस तरह हंसी मजाक के बीच में सहजता के माहौल में मीटिंग समाप्त हुई. बाद में उनसे भेंट के दौरान ही और एकांत पाने पर मुख्य प्रबंधक जी ने अपनी घरवापसी के लिये मदद करने की बात कही. महासचिव जानते थे कि इन्हें तो अभी एक साल भी नहीं हुआ है. तो उनका ह्यूमर फिर से बाहर आया “अरे एक साल में तो मैं अपना ट्रांसफर भी नहीं करा सकता. हमारे भी स्थानांतरण हुये हैं अच्छे भी और बुरे भी. अभी भी हमारे दो ट्रांसफर तो होते ही होते हैं. एक हारने पर और दूसरा घर वापसी याने जीतने पर. पास खड़े लोग मुस्कान बिखेर रहे थे. फिर बाद में महासचिव महोदय अपने परिचितों के साथ अआगे की नीति बनाने में व्यस्त हो गये.

कथा में वर्णित सारे पात्र काल्पनिक हैं और यहाँ से कोस कोस दूर तक उनका किसी वास्तविक पात्र से कोई संबंध नहीं है. इंज्वॉय कीजिए क्योंकि अब तो यही करना चाहिए. डॉक्टर मनमोहनसिंह जी की नकल प्रधानमंत्री नहीं बना सकती इसलिए “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल.”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 119 ⇒ तमीज और तहजीब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तमीज और तहजीब”।)  

? अभी अभी # 119 ⇒ तमीज और तहजीब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

• Manners & Etiquettes

विद्या ददाति विनयम् !

जहां शिक्षा है, वहां संस्कार है। हमने साक्षरता पर अधिक जोर दिया है, डिग्रियों पर दिया है, लेकिन बुद्धि, ज्ञान और विवेक पर नहीं दिया। मानवीय गुणों के अभाव के कारण अभी तक हमारी शिक्षा अधूरी ही साबित हुई है ;

दया, धर्म का मूल है

पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िए

जब तक तन में प्राण। ।

हम मूक प्राणियों पर तो दया का ढोंग करते हैं, कहीं कबूतरों को दाना चुगाते हैं, तो कहीं चींटियों तक को आटा डालते हैं, लेकिन आपस में इंसान से नफरत और दुश्मनी पालते हैं। कहीं पैसे के लिए, तो कहीं पानी के लिए, एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं।

नीति का तो पता नहीं, और राजनीति करते नजर आते हैं। और शायद यही कारण है कि हमारी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर है। हमारे पांव तो जमीन पर नहीं, लेकिन हम आसमान छूना चाहते हैं।

तमीज को हम मैनर्स कहते हैं, मैनर्स यानी इंसानों वाली हरकतें। लोक व्यवहार हमारी तहजीब का एक हिस्सा है। एक सभ्य समाज की नींव माता पिता के संस्कार, स्कूल में शिक्षक की शिक्षा दीक्षा और जीवन में सदगुरु के शुभ संकल्प पर ही मजबूत होती है। ।

सभ्यता की अपनी अलग परिभाषा है। एक गांव का अनपढ़ किसान अथवा आदिवासी भी सभ्य हो सकता है और शहर का कथित पढ़ा लिखा इंसान भी असभ्य। लेकिन हमने सभ्यता को शिक्षा, पद, पैसा और कपड़े लत्ते से जोड़ लिया है, और इसीलिए आज की आधुनिक पीढ़ी पढ़ लिखकर भी असभ्य और अनैतिक होती जा रही है, जिसका असर उन लोगों पर पड़ रहा है, जिन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कार नहीं मिले हैं। गुड़ गोबर एक होना इसी को कहते हैं।

एक समय था, जब हर छोटी बड़ी सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी के लिए चरित्र प्रमाण पत्र मांगा जाता था, तब भी भले ही यह एक महज औपचारिकता मात्र ही हो, लेकिन नौकरी का चरित्र से क्या संबंध। आपकी निजी जिंदगी आपकी है। ढंग से काम करो, और ऐश करो। ।

छोटी मोटी नौकरियों के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट, फिटनेस सर्टिफिकेट और ड्राइविंग लाइसेंस ही काफी है। एक पेशेवर ड्राइवर के लिए शराब पीकर वाहन चलाना अपराध है, बाकी उसके चाल चलन की जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं है। चोरी, डकैती, स्मगलिंग जैसे अपराध तो पकड़े जाने पर ही सामने आते हैं। पुलिस और प्रशासन कोई भगवान नहीं, जो हर आती जाती गाड़ी पर निगरानी रखता फिरे।

आज के युग में सभी अपराधों की जड़ है, easy money ! पैसा कमाना आर्थिक अपराध नहीं। रिश्वत अगर अपराध होती, तो लोगों के घर ही नहीं बनते, गाड़ी बंगले कार जहां, वहीं तो है भ्रष्टाचार।

फिर भी आप easy money को काला पैसा, यानी ब्लैक मनी नहीं कह सकते। पैसा दिमाग और सूझ बूझ से कमाया जाता है। हर ईमानदार गरीब नहीं होता और हर बईमान अमीर भी नहीं हो सकता। सबका नसीब अपना अपना। ।

जहां तमीज नहीं, तहजीब नहीं, वहां बदतमीजी और बदमिजाजी है। आप किसी को तमीज नहीं सिखला सकते। किसी का अच्छा व्यवहार किसे नहीं सुहाता, लेकिन किसी का दुर्व्यवहार आपको मानसिक चोट पहुंचा सकता है। पुरुष हो या महिला, दुर्व्यवहार आजकल आम बात है।

जिनके अपने वाहन नहीं होते, उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ही सहारा लेना पड़ता है। पहले आप डिजिटल अपडेट हों, अपनी आर्थिक स्थिति अनुसार ओला, जुगनू अथवा उबेर बुक करें। कभी कभी जल्दी में, चलते रिक्शा को भी रोक लेना पड़ता है। बुक किए वाहन का तो हमारे पास ऑटो नंबर सहित पूरी जानकारी होती है, लेकिन तत्काल उपलब्ध वाहन और चालक की हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती। ।

पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। अच्छे बुरे सभी तरह के लोग हर पेशे में होते हैं, आपसे कौन टकराता है, यह तो आप भी नहीं जानते। मेरा अब तक का अनुभव इतना बुरा भी नहीं रहा। लेकिन पिछले दिनों एक ऑटो चालक की बदतमीजी और बदमिजाजी ने तो सभी हदें पार कर दी।

जब हम दूध से जलते हैं तो छाछ भी फूंक फूंककर पीने लगते हैं। इतनी बेपरवाही भी अच्छी नहीं। अपनी सुरक्षा के लिए पहले ऑटो का नंबर नोट करें, उसके बाद ही यात्रा सुख का आनंद लें। आजकल तो मोबाइल ने यह काम भी आसान कर दिया है। ।

फिर भी कहने वाले तो कहते ही रहते हैं ;

हर शाख पे उल्लू बैठा है

अंजामे गुलिस्तां क्या होगा

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 46 – देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 46 ☆ देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र लाल कोठी क्षेत्र, जयपुर में स्थित “जन्म/ मृत्यु” पंजीयन कार्यालय का है। आगंतुकों के लिए बैठने की उपलब्ध बेंच को लेवल करने के लिए एक किनारे पर पत्थर लगाया हुआ हैं। दूसरा सिरा बहुत नीचे है। कुर्सी की बेंत भी नहीं है, ताकि गर्मी में पीठ से पसीना नहीं आए।

ये तो एक उदहारण है, डेढ़ वर्ष पूर्व भी ये ही दृश्य था। कौन इसका जिम्मेवार हैं? इस प्रकार के मनभावन दृश्य प्राय सभी सरकारी विभाग में मिल जाते हैं। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि यदि किसी जगह टूटा/ गंदा फर्नीचर पड़ा है, तो आप बिना गूगल की मदद से ये जान सकते है, कि ये ही सरकारी कार्यालय हैं। अनुपयोगी सामान से तो सामान का ना होना ही उचित होता हैं। सरकारी कर्मचारी खराब सामान को हटाने में डरते हैं, कि कहीं कुछ गलत ना हो जाए, वैसे गलत (रिश्वात इत्यादि) कार्य अधिकतर कर्मचारियों के प्रतिदिन का प्रमुख कार्य होता हैं।

करीब दो दशक पूर्व तक बैंकों में भी ग्राहकों के लिए पुराना/ टूटा हुआ फर्नीचर कुछ शाखाओं में मिल जाता था। वर्तमान में स्थिति बहुत बेहतर हैं। हालांकि मुख्य यंत्र सिस्टम, नेट प्रणाली, कंप्यूटर, प्रिंटर इत्यादि समय समय पर विश्राम में चले जाते हैं।

पुलिस थानों की स्थिति तो और भी भयावह हैं।  जब्त किए गए वाहन, न्यायालय के निर्णय/ आदेश की दशकों तक प्रतीक्षा करते हुए जंग( rust) से जंग लड़ते हुए, अपना अस्तित्व समाप्त कर लेते हैं।

कर उपदेश कुशल बहुतेरे” मेरे स्वयं के घर में भी ढेर सारी अनुपयोगी वस्तुओं उपलब्ध हैं।

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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