हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 40 – कॉमेडी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “कॉमेडी…“।)   

☆ आलेख # 40 – कॉमेडी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जीवन में नवरस का होना ईश्वर के हाथ में है पर हास्यरस का होना आवश्यक है स्वास्थ्यप्रद मानसिकता के लिये. हास्यरस को स्थूल रूप से कॉमेडी भी कहा जाता है जिसका जीवन में प्रवेश, बचपन में देखे जाने वाले सर्कस के जोकर से शुरु होता है. इन्हें विदूषक भी कहा जाता है. ये अपनी वेशभूषा, भावभंगिमा से दर्शकों और विशेषकर बच्चों से तारतम्य स्थापित करते हैं. यहाँ शब्दों की आवश्कता नहीं होती.

जोकर की जीवनी पर तीन भागों, दो इंटरवल वाली चार घंटे की फिल्म सिर्फ राजकपूर ही बना सकते हैं. फिल्म का पहला भाग विश्व की किसी भी भाषा में बनी फिल्म से प्रतिस्पर्धा कर सकता था. मासूम बचपन और शिक्षिका के प्रति अज्ञात आकर्षण की संवेदना को बहुत खूबसूरती से फिल्मांकन करने में राजकपूर सिद्धहस्त थे. अभिनय की दृष्टि से अबोध ऋषिकपूर भी नहीं जानते होंगे कि स्वाभाविक अभिनय से सजी यह फिल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक होगी. “शो मस्ट गो ऑन” इसी फिल्म की थीम थी और राजकपूर की संगीतकार शंकर जयकिशन के साथ अंतिम फिल्म भी यही थी यद्यपि जयकिशन पहले ही अनंत में विलीन हो चुके थे.

पर बात यहाँ सिर्फ फिल्मों की नहीं हो रही है, हास्यरस हमारा प्रमुख विषय है. कामेडी का अगला पड़ाव सर्कस से शिफ्ट होकर फिल्मों पर आता है और तरह तरह की कामेडी करने वाले, विभिन्न काया, भंगिमा और आवाज़ के स्वामी, हास्य अभिनेताओं की कामेडी से वास्ता पड़ता है. कभी सिचुएशनल कॉमेडी, कभी भाव भंगिमा, तो कभी असामान्य आवाज़ या नाकनक्श. गोप, जॉनीवाकर, आगा, मुकरी, राजेंद्र नाथ, मोहन चोटी, केश्टो मुखर्जी आदि बहुत सारे हास्य कलाकार थे पर सबसे सफल थे महमूद जिनकी फिल्म के नायक के साथ साथ खुद की कहानी भी समांतर चला करती थी और अभिनेत्री शोभाखोटे के साथ महमूद की सफल जोड़ी भी बन गई थी. बाद में यही महमूद फिल्म निर्माता बने और अमिताभ बच्चन और संगीतकार आर.डी.बर्मन को अपनी फिल्मों में मौका दिया. बांबे टू गोवा, अमिताभ बचन की सफल फिल्म थी और भूत बंगला राहुल देव बर्मन की.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा ईश्वर की ही पूजा है ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा ईश्वर की ही पूजा है ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कहा जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है सर्वव्यापी है और सर्वशक्तिमान है। वह संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का संरक्षक और पोषक है। वह परम दयालु और अहैतुकी कृपा करने वाला है। उसी ने इस सृष्टि की रचना की है जिसमें सबकी आवश्यकताओं के लिए सबकुछ है। परन्तु वह स्वत: अदृश्य है। उसे केवल अन्तर्चक्षुओं से देखा जा सकता है। इतनी विशालता और विविधता से परिपूर्ण सारी सृष्टि नियमितता से आबद्ध और अनुशासित है। समय चक्र समान गति से घूमता रहता है। दिन होते हैं रात होती है। ऋतुएँ आती जाती रहती है। भूमि को उर्वरा बनाती हैं। भूमि पर विभिन्न  वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। खेती से विभिन्न फसलें होती है। समय समय पर विभिन्न फसलें पकती हैं। वृक्ष मौसम के अनुसार फल देते हैं। सब आवश्यक और हितकारी हैं। सभी जीवनधारियों की आवश्यकतानुसार सुस्वादु भोजन मिलता रहता है। नदियाँ, पहाड़, समुद्र सब अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। समय के साथ बढ़ते, बनते-बिगड़ते और सेवायें दे के उचित समय पर विनष्ट हो जाते हैं। यही नियम समस्त प्राणि जगत पर भी लागू होते हैं। मनुष्य भी वनस्पति और अन्य प्राणियों की भाँति एक उद्ïदेश्य से संसार में आता है, जन्म लेता, विकसित होता, सेवाएँ देता और अन्त में शांत हो जाता है। किन्तु मनुष्य में एक विशेषता है, उसे बुद्धि और विवेक का वरदान मिला है। वह सोचता विचारता, समझता, निष्कर्ष निकाल सकता और नई खोजें और नव निर्माण कर सकता है। शायद इसी अर्थ में वह ईश्वर का अंश कहा गया है। उसकी आत्मा ईश्वर की ही भाँति सशक्त और अविनाशी है।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी

ईश्वर ने जैसे सकल ब्रह्माण्ड की अनुपम रचना की है। सबको अलग अलग रंग रूप और गुण दिए हैं इसी प्रकार मनुष्य ने भी विभिन्न सुख-सुविधाएँ देने वाले यंत्रों-मशीनों का निर्माण कर लिया है और नये-नये अविष्कार करता जा रहा है। वह कल्पनाएँ कर सकता है और उन्हें अपने प्रयासों से साकार कर सकता है  इसीलिए तो अदृश्य ईश्वर को भी जानने के लिए अपनी कल्पनानुसार विभिन्न रूप दिए हैं। पुरातन काल से अब तक बनी विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ और मन्दिरों में उनकी स्थापना उसी का परिणाम हैं। परन्तु सर्वनियंता अलख ईश्वर आज भी अनजाना है। दर्शन शास्त्रियों ने अपने चिन्तन के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त कर उसे पहचानने का प्रयत्न किया किन्तु सभी एकमत नहीं हैं। उसका वास्तविक स्वरूप आज भी रहस्य बना हुआ है। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की शंकाओं को निर्मूल करने के लिए अपना विराट रूप उसे दिखाया था जिसमें सारा ब्रह्मïाण्ड ही समाहित है। यह रूप ही ईश्वर के सत्स्वरूप को समझने का सबल संकेत है। प्रकृति, ईश्वर की रचना है और प्रकृति के क्रियाकलापों  के माध्यम से नवसृजन करती है। उसी की इच्छा, प्रेरणा और कृपा से सब निर्माण-विकास-परिवर्तन और लय होते हैं अत: प्रकारान्तर से प्रकृति की यही महान शक्ति ही ईश्वर है। यही प्रकृति और उसकी सृष्टि की परमात्मा के स्वरूप की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। प्रकृति के क्रिया-कलापों से ही ईश्वर की सत्ता और स्वरूप का आभास मिलता है। प्रकृति ही सबको जीवन दान देती है और अपनी अकथनीय लीलाओं से सबका संधारण और संवरण करती है। आँधी, बाढ़, भूकम्प, तूफान, भूस्खलन जैसी आकस्मिक अनायास उत्पन्न घटनायें प्रलय ला देती हैं साथ ही विश्व को नया रूप प्रदान करती हैं। प्रकृति और पर्यावरण से ही जीवन को गति मिलती है। प्राणियों को सुख-दुख मिलते हैं और संसार में नवीनता आती है। जीवन को विकास के नये अवसर मिलते हैं। प्रकृति की मुस्कान ही फूल खिलाती है और क्रोध ही विनाश का कारण बनता है। इसलिए यह बात सहज समझ में आनी चाहिए कि पर्यावरण ही सबका रक्षक है। और विपरीत स्थितियों में विश्व का भक्षक भी हो सकता है। मानव जीवन में प्राकृतिक पर्यावरण का जीवन मरण के लिए भारी महत्व है। हमें पर्यावरण की सुरक्षा कर उसे जीवन के लिए अनुकूल बनाने के सतत प्रयत्न करने चाहिए। प्राकृतिक पर्यावरण सभी प्राणियों के साथ मानव जाति का चिर सहचर है। वह हमारे मनोभावों को समझता है हमारे सुखोंं में खुश होता है और दुखों में संवेदना सूचक उदासी प्रदर्शित करता है। शुद्ध और स्वच्छ पर्यावरण मन को प्रसन्नता और पावनता प्रदान करता है और दूषित पर्यावरण उदासी और मलिनता से दुखी करता है। जीवन के पालन पोषण और सुरक्षा में प्रकृति और पर्यावरण की निरन्तर वही भूमिका है जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की विश्व के संचालन में है। इसीलिए तो भारतीय ऋषियों मुनियों ने प्रकृति के सानिध्य में वनों में रहकर चिन्तन मनन और ईश्वराधना को मानव जीवन के तृतीय आश्रम को ”वानप्रस्थ’‘ का नाम दिया है। प्रकृति की पूजा और पर्यावरण की सुरक्षा ही ईश्वर की सच्ची पूजा और उपासना है जिसका सहज वरदान स्वस्थ्य काया का पुण्य लाभ है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सुख और समृद्धि के लिए जरूरी है निष्ठा और नैतिकता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सुख और समृद्धि के लिए जरूरी है निष्ठा और नैतिकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज हमारे देश में जो परिदृश्य है वह राष्ट्रहितकारी कम और स्वार्थपूरक अधिक दिखाई देता है। लोग प्राचीन मान्य परम्पराओं और मर्यादायों के प्रति उदासीन हो विभिन्न वर्जनाओं का खुला उल्लंघन कर रहे हैं। बहुतों में न लोकलाज दिख रही है न नियम-कायदों का डर।

देश तो यह वही है जिसने कभी अपने संगठित अनुशासनपूर्ण व्यवहार से आजादी के पूर्व के दिनों को देखा और भोगा है, वे जानते हैं कि तत्कालीन वातावरण में कितनी अनिश्चितता थी और विदेशी शासन के जुल्मों का कितना भय था, किन्तु तब भी देश प्रेमी जनता के मन में कत्र्तव्य के प्रति कितनी निष्ठा, लगन और ईमानदारी थी। समाज में जातीय भेदभाव होते हुए भी आत्मीय, एकता और समन्वय की भावना थी। प्रत्येक छोटे-बड़े को कत्र्तव्य की आत्मप्रेरणा थी और अपने काम को ढंग से पूर्ण गुणवत्ता के साथ निर्धारित अवधि में पूर्ण करने की लगन थी। इसी सामाजिक कत्र्तव्य परायण्ता, कत्र्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी ने एक जुटता से राष्ट्र के लिए प्राणपण से न्यौछावर होने की भावना जगाई थी और मार्ग की अनेकों दुगर्म कठिनाईयों के होते हुए भी हमें स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को पाने में सफलता मिली थी।

इसके विपरीत आज आजाद देश के नागरिकों के मन में कलुषता, लोलुपता और चरित्रहीनता दिखाई देती है। क्षेत्र चाहे कोई भी हो हर जगह मलिनता व्याप्त है। वातावरण में पवित्रता और व्यवहार में पावनता, निश्छलता और सहज सेवा उपकार की भावना कहीं स्पष्ट दिखाई बहुत कम दिख पाती है। अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला हो चला है। स्वार्थ की प्रबलता है। संबंधों में अदावट है, क्रिया-कलापों में दिखावट है, रूप में निरर्थक सजावट है, सेवाओं में गिरावट है, विभिन्न उत्पादों में मिलावट है तथा सही प्रगति पथ पर जगह जगह रुकावट है। पुराना भाईचारा, आपसी सम्मान, सद्ïभावना, कत्र्तव्यनिष्ठा और गुणवत्ता बढ़ाने के लिये कुछ सीखने की इच्छा लुप्त सी हो गयी हैं। इसी से वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे। धन का अपव्यय हो रहा है और संकल्पित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही। यह गहन चिन्तन का विषय है कि ऐसा क्यों हो गया ?

लगता है इस सारी बढ़ती बदहाली का मूल कारण हमारे सोच और कार्य-सरणी में बदलाव है। मनुष्य वैसा ही बनता है जैसा वह सोचता है। विचार ही व्यक्ति के व्यावहारों के उद्ïगम हैं। लोकतांत्रिक पद्धति की शासन व्यवस्था में लोगों ने शायद ”स्वातंत्र्य’‘ शब्द का अर्थ ”स्वच्छन्ता’‘ समझ गलत विचार करना शुरु कर दिया है। ‘स्वच्छंदता’ का परिणाम स्वत: के भविष्य के लिए और साथ ही समाज के लिए भी घातक होगा- यह ध्यान में नहीं रखा गया है। दूसरा शायद लोगों ने केवल धन को ही सुख का पर्याय मान लिया है। इसीकारण कम से कम श्रम से थोड़े से थोड़े समय में अधिक से अधिक धन कमा लेने की होड़ लग गई है। कमाई की अंधी दौड़ में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता  इससे सही या गलत साधन का भेद भुला दिया गया है। इसी उथली विचार धारा ने सबको संकट में डाल दिया है, व्यक्ति, समाज और शासन सभी परेशान हैं।  नई-नई समस्याएँ ‘सुरसा’ के मुख सी बढ़ती जाती हैं।

पहले हमारा आदर्श था-”सादा जीवन, उच्च विचार’‘। आज उल्टा हो गया है-” ऊँचा जीवन, निम्न विचार’‘।

धन सदा ही सुखदायी ही नहीं समस्या उत्पादक भी होता है। अनुचित साधनों से धन की प्राप्ति परिवार में नये संकट ही लाती है। सुख सचमुच में धन प्राप्ति के लिए अंधी दौड़ में नहीं, प्रेम के निश्छल आदान-प्रदान में है। सहयोग और ईमानदारी में सुख के बीज छिपे होते हैं। परन्तु इस सचाई को भुलाकर नवीनता की चका-चौंध में जो गलत प्रयत्न धन पाने के लिए अपनाएँ जा रहे हैं उन्होंने ही सारी कठिनाइयाँ बढ़ा दी है।

भारतीय संस्कृति में तप और त्याग का धार्मिक महत्व रहा है। इसी पवित्र भावना ने समाज को बाँधे रखा है और ंमन को बेलगाम होकर दौडऩे से रोके रखा है। किन्तु आज अन्य सभ्यताओं की देखा देखी भारतीय संस्कारों को तिलांजलि देकर लोगों ने बाह्यï आकर्षणों में सुख की साध पाल ली है इससे ही देश बीमार हो गया है और इसका संक्रमण फैलता ही जा रहा है।

यदि हमें अपने देश को फिर स्वस्थ और समृद्ध बनाना है तो भारत भूमि की ही जलवायु की ही उपासना करनी होगी और युग की नवीनता को अपने कार्यक्रमों में उचित रूप से समायोजित करनी होगी। बिना सदाचरण, निष्ठा और नैतिकता को अपनायें जीवन में वास्तविक सुख-शांति और समृद्धि असंभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दया धरम का मूल है॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दया धरम का मूल है  – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भारत का वैदिक धर्म जिसे सनातन धर्म की भी संज्ञा दी जाती है, मूलत: प्राकृतित विज्ञान पर आधारित है। यह प्रकृति का उपासक और समस्त मानव जाति का हितरक्षक है। इसकी प्रमुख भावना है-

”सर्वे सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया: 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दु:खंमाप्तुयात्’‘

आशय है सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों, सबका कल्याण हो, किसी को कोई दुख न हो। यह उद्ïदात्त भावना न केवल मानव जाति हेतु ही है वरन सृष्टि के समस्त प्राणियों और वनस्पति जगत के लिये भी है। धर्म का मन्तव्य सुख, शांति, प्रगति और कल्याण ही है।

यह विश्व जिस अज्ञात, अलक्ष्य सर्व शक्तिमान  की सृष्टि है उसने यहाँ कुछ भी अकारण नहीं बनाया है। मनुष्य प्राणी वनस्पति सभी इस संसार में एक दूसरे के सहयोगी है, अत: प्राकृतिक क्रिया-कलापों के सुसंचालन हेतु सभी परस्पर पूरक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। प्रत्येक की सुरक्षा और सुख हर दूसरे की सुरक्षा पर निर्भर हैं। यह सुरक्षा तभी संभव है जब मनुष्य के मन में सबके लिए रक्षा, दया और उदारता की भावना हो। यदि बारीकी से विचार किया जाय तो इस भूमण्डल में स्वार्थपूर्ति के लिए सबसे अधिक हिंसक प्राणी मनुष्य ही है। यदि मन में दया भाव है तो हिंसा का भाव स्वंय ही तिरोहित हो जाता है और व्यक्ति अपने नैसर्गिक धर्म का सहज ही निर्वहन कर सकता है। इसीलिये कहा गया हैं-

”दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान,

तुलसी दया न छाँडिय़े जन लगि घट में प्राण॥’‘

जहाँ दया और उदारता की भावना लुप्त होती है, वहीं स्वार्थ भावना पल्लवित होने लगती है और स्वार्थ की पूर्ति के लिए व्यक्ति दूसरों के प्रति असहिष्णु होकर हिंसा करने को उद्धत हो जाता है। धार्मिक भावना की कमी और परिणाम की अदूरदर्शिता के कारण ही आज मनुष्य न केवल अन्य सजातीयों पर हिंसा कर रहा है बल्कि अन्य प्राणियों वनस्पतियों और समस्त सृष्टि के प्रति अनुदार और हिंसक हो गया है। विश्वव्यापी मनोमालिन्यपूर्ण आतंकवाद के बढ़ते चरण, पशुपक्षियों के अवैध शिकार, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, वनों का विनाश, नदियों का प्रदूषण, भूमि का अनियंत्रित उत्खनन, वायु और गगन का प्रदूषण सब इसी के दुष्परिणाम हैं। इन कारणों से स्वत: मानव-जीवन आये दिन अनेकों कष्ट भुगत रहा है और अपनी अदूरदर्शिता से अपने और सबके भविष्य को नई-नई उलझनों के जाल में फँसाता जा रहा है। दुनियाँ विनाश की कगार पर पहुचती जा रही है। 

मन में दया के भाव का उद्ïगम व्यक्ति को हिंसा तथा अन्य विवादों की बुराइयों से रोकता है तथा समता की भावना को पल्लवित कर आनन्द स्नेह और संवेदना को पनपाता है। धर्म का यही उपदेश है कि दूसरों के साथ सदा वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि व्यक्ति औरों से अपने प्रति किये जाने की चाह रखता है। सबके साथ संवेदना और सहानुभूति एक ऐसे वातावरण को सृजित करते हैं जिसमें आनन्द और मिठास होती है।

यदि इस दृष्टि को रखकर जीवन जिया जाय तो कभी कोई अधर्म या पाप  ही न हो। यही तो सबसे बड़ा धर्म है कि परहित में कोई बाधा न हो और सब संयमित रूप से हिल-मिल कर समाज में रह सकें।

महात्मा तुलसीदास जी ने भी रामचरित में यही कहा है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ?

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है। वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है।

प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है।

‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत’..

हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियां अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये, पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर।

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएं और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवायें निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

-आनंद का असीम सागर है वारी..

-समर्पण की अथाह चाह है वारी…

-वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..

-जन्म से मरण तक की वारी…

-मरण से जन्म तक की वारी..

-जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी…

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें। ….(इति)

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #132 ☆ जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆

☆ ‌आलेख – जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, एकदम जर्जर बूढ़ा, तब तू क्या थोड़ा मेरे पास रहेगा? मुझ पर थोड़ा धीरज तो रखेगा न? मान ले, तेरे महँगे काँच के बर्तन मेरे हाथ से अचानक गिर जाए या फिर मैं सब्ज़ी की कटोरी उलट दूँ टेबल पर, मैं तब बहुत अच्छे से नहीं देख सकूँगा न! मुझे तू चिल्लाकर डाँटना मत प्लीज़! बूढ़े लोग सब समय ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते रहते हैं, तुझे नहीं पता?

एक दिन मुझे कान से सुनाई देना बंद हो जाएगा, एक बार में मुझे समझ में नहीं आएगा कि तू क्या कह रहा है, लेकिन इसलिए तू मुझे बहरा मत कहना! ज़रूरत पड़े तो कष्ट उठाकर एक बार फिर से वह बात कह देना या फिर लिख ही देना काग़ज़ पर। मुझे माफ़ कर देना, मैं तो कुदरत के नियम से बुढ़ा गया हूँ, मैं क्या करूँ बता?

और जब मेरे घुटने काँपने लगेंगे, दोनों पैर इस शरीर का वज़न उठाने से इनकार कर देंगे, तू थोड़ा-सा धीरज रखकर मुझे उठ खड़ा होने में मदद नहीं करेगा, बोल? जिस तरह तूने मेरे पैरों के पंजों पर खड़ा होकर पहली बार चलना सीखा था, उसी तरह?

कभी-कभी टूटे रेकॉर्ड प्लेयर की तरह मैं बकबक करता रहूँगा, तू थोड़ा कष्ट करके सुनना। मेरी खिल्ली मत उड़ाना प्लीज़। मेरी बकबक से बेचैन मत हो जाना। तुझे याद है, बचपन में तू एक गुब्बारे के लिए मेरे कान के पास कितनी देर तक भुनभुन करता रहता था, जब तक मैं तुझे वह ख़रीद न देता था, याद आ रहा है तुझे?

हो सके तो मेरे शरीर की गंध को भी माफ़ कर देना। मेरी देह में बुढ़ापे की गंध पैदा हो रही है। तब नहाने के लिए मुझसे ज़बर्दस्ती मत करना। मेरा शरीर उस समय बहुत कमज़ोर हो जाएगा, ज़रा-सा पानी लगते ही ठंड लग जाएगी। मुझे देखकर नाक मत सिकोड़ना प्लीज़! तुझे याद है, मैं तेरे पीछे दौड़ता रहता था क्योंकि तू नहाना नहीं चाहता था? तू विश्वास कर, बुड्ढों को ऐसा ही होता है। हो सकता है एक दिन तुझे यह समझ में आए, हो सकता है, एक दिन!

तेरे पास अगर समय रहे, हम लोग साथ में गप्पें लड़ाएँगे, ठीक है? भले ही कुछेक पल के लिए क्यों न हो। मैं तो दिन भर अकेला ही रहता हूँ, अकेले-अकेले मेरा समय नहीं कटता। मुझे पता है, तू अपने कामों में बहुत व्यस्त रहेगा, मेरी बुढ़ा गई बातें तुझे सुनने में अच्छी न भी लगें तो भी थोड़ा मेरे पास रहना। तुझे याद है, मैं कितनी ही बार तेरी छोटे गुड्डे की बातें सुना करता था, सुनता ही जाता था और तू बोलता ही रहता था, बोलता ही रहता था। मैं भी तुझे कितनी ही कहानियाँ सुनाया करता था, तुझे याद है?

एक दिन आएगा जब बिस्तर पर पड़ा रहूँगा, तब तू मेरी थोड़ी देखभाल करेगा? मुझे माफ़ कर देना यदि ग़लती से मैं बिस्तर गीला कर दूँ, अगर चादर गंदी कर दूँ, मेरे अंतिम समय में मुझे छोड़कर दूर मत रहना, प्लीज़!

जब समय हो जाएगा, मेरा हाथ तू अपनी मुट्ठी में भर लेना। मुझे थोड़ी हिम्मत देना ताकि मैं निर्भय होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकूँ। चिंता मत करना, जब मुझे मेरे सृष्टा दिखाई दे जाएँगे, उनके कानों में फुसफुसाकर कहूँगा कि वे तेरा कल्याण करें। तुझे हर अमंगल से बचायें। कारण कि तू मुझसे प्यार करता था, मेरे बुढ़ापे के समय तूने मेरी देखभाल की थी।

मैं तुझसे बहुत-बहुत प्यार करता हूँ रे, तू ख़ूब अच्छे-से रहना। इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ, क्या दे सकता हूँ भला।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बोलक्या भिंती….भाग 6 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ बोलक्या भिंती….भाग 6 ☆ सौ. अमृता देशपांडे 

अंदमानच्या कारागृहाच्या भिंती मात्र स्वतःला धन्य समजत असतील. कारण स्वातंत्र्यवीर सावरकरांना तिथे बंदिवासात ठेवलं होतं.त्यांच्या कर्तृत्वाची आणि कवनांच्या शब्दांची उंची इतकी भव्यदिव्य होती की ती  कारागृहाच्या भिंती भेदून, छत फाडून गगनस्पर्शी झाली. कारागृहाच्या भिंतीही तेजःपुंज आणि पवित्र झाल्या.

या सृष्टीमध्ये निर्जीव वस्तूला सजीवता देऊन अमरत्व प्राप्त होण्याचा मान कुणाला मिळाला असेल तर तो छोट्याशा भिंतीलाच. ज्ञानतपस्वी श्री चांगदेवयोगी वयाच्या 113व्या वर्षी जेव्हा वायुमार्गाने वाघावरून

ज्ञानेश्वरांना भेटायला आले, तेव्हा श्री ज्ञानेश्वर माऊली आपल्या भावंडांसह छोट्याशा भिंतीवर सकाळी बसले होते. त्रिकालज्ञानी ज्ञानमाऊलीने बसलेल्या भिंतीलाच त्यांना सामोरे जाण्याची विनंती केली आणि ती निर्जीव भिंत आपले निश्चलत्व टाकून चारी भावंडांना आकाशमार्गे चांगदेवांना भेटायला घेऊन गेली. ते बघता क्षणीच चांगदेवांना अहंकार गळून पडला आणि त्यांनी चारी भावंडांच्या पायी लोळण घेतलं. ज्ञानेश्वरांनी चालवलेली भिंत अमर झाली.

ही कथा आजच्या युगात अविश्वसनीय वाटेल , पण तेव्हा तसे घडले होते, हे खरे मानले तर ज्ञानेश्वरांचे देवत्व आणि भिंतीला मिळालेले सजीवत्व व अमरत्व हे ही खरे वाटू लागते.

अशा या भिंती,  बोलक्या आणि मुक्या सुद्धा! स्वतःचे अस्तित्व दाखवणा-या, ख-या, सुंदर, सकारात्मक आणि आनंदी.  सर्वच भिंती अशाच असाव्यात यासाठी आपण प्रयत्न करूया.  हो! फक्त घराच्याच नाही तर मनातल्या सुद्धा……

समाप्त…..🙏🏻

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मृत्योर्मा अमृतमगमय ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मृत्योर्मा अमृतमगमय ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उपनिषद भारतीय मनीषा के अद्वितीय ग्रन्थ हैं। वे मनुष्य को सही जीवन जीने के लिये पोषक रस देते हैं। हर छोटे मंत्र की जब विद्वानों द्वारा व्याख्या की जाती है तो उसके भाव की भव्यता और वृहत उपयोगिता समझ में आती है और दिये गये सूत्र की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ का अर्थ है- मृत्यु की ओर नहीं अमृता की ओर बढ़ो-अर्थात्ï विनाश नहीं अमरता का वरण करो। कोई काम जीवन में ऐसा मत करो जो विनाश की ओर ले जाने का कारण बने बल्कि ऐसा कुछ करो जो अमरता प्राप्त करने में सहायक हो।

प्रश्न उठता है कि मनुष्य फिर क्या करे जिससे उसे अमरता या ख्याति प्राप्त हो ? मानवता के अनेको गुण हैं जिनका पूर्ण विकास कर मनुष्य ने समाज हित किये हैं और और इतिहास में अमरता प्राप्त की है। सत्यवादिता, सूरवीरता, दानवीरता, जन-सेवा, देश प्रेम जैसे अनेकों गुण हैं जिनकी सदा प्रशंसा होती आई है। अनेकों महापुरुषों ने इन्हें अपनाकर प्रसिद्धि पाई है और इतिहास में अमर हो गये हैं। परन्तु  जन साधारण के लिए प्रकृति प्रदत्त एक सहज गुण है प्रेम जिसकी साधना के लिए न तो कोई धन की आवश्यकता है और न कोई कष्ट सहने की।

प्रेम मानव मन की एक सहज प्रवृत्ति है। हर व्यक्ति औरों से प्रेम पाना चाहता है। प्रेम ही व्यक्ति को अनायास खुशी देता है और मधुर मिठास घोल देता है। प्रेम से वन्य दुष्ट प्राणी तक वश में कर लिये जाते हैं। प्रेम ऐसा दिव्य अनमोल रत्न है कि जिस पर उसकी एक किरण पड़ जाती है वह चमक उठता है और आनन्दनुभूति से उसका हृदय भर जाता है। दुनियाँ में ऐसा कौन प्राणी है जो प्रेम की उपेक्षा कर सके। प्रेम पाकर हिंस्र पशु अपना क्रोध और हिंसा छोड़ देते हैं। विषैले प्राणी विष का परित्याग कर देते हैं। दुष्ट दुष्टता से विरत हो जाते हैं। शत्रु भी मित्र बन जाते हैं और पराये अपने हो जाते हैं। महात्मा बुद्ध के स्नेहिल व्यवहार से अंगुलिमाल सरीखे दुष्ट के हृदय परिवर्तन की कथा किसे नहीं ज्ञात हैं। हमारे दैनिक जीवन में प्रेम के व्यवहार की प्रतिक्रिया पशु-पक्षियों तक में तुरंत सहज रूप में दिखाई देती है। फिर यह प्रेम का व्यवहार मानव समाज में हर किसी को सहज आकृष्ट कर समीप लाने में सहायक क्यों न होगा? जिसे इसमें कोई शंका हो तो वह प्रत्यक्ष व्यवहार कर उसका प्रतिउत्तर पाकर अनुभव पा सकता है।

प्रेम तो वह पारस है जो दुष्ट और पापियों को भी उसी प्रकार सज्जन और पवित्र बना देता है जैसे लोहे को पारस सोना बना देता है। हृदय मन्दिर में प्रवेश पाने की कुंजी है प्रेम। प्रेम के आदान-प्रदान में एक पावनता है और अद्ïभुत आनन्द है। प्रेम संसार में ऐसा मंजुल मनोरम भाव है जो निर्मूल्य होते हुए भी अनमोल है। निश्छल प्रेम से द्वेष, कलह, विरक्ति और विषाद को धोकर मनोनुकूल, अनुपम, मोहक वातावरण निर्मित किया जा सकता है। प्रेम सभी मनोभावों का राजा है जो सबको सुरक्षा और सुख-संपदा प्रदान करता है। व्यक्तित्व में परिष्कार करता है और सब गुणों में निखार लाता तथा दुर्गुणों पर प्रहार करता है। प्रेम से स्वहित और समाजहित साधना संभव है। कोई भी समस्या कितनी भी जटिल क्यों न हो, प्रेम और सद्ïभाव उसे सुलझाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसी से प्रेम को परमात्मा का ही रूप कहा गया है। सच्चे प्रेम से केवल लौकिक सिद्धि ही नहीं परमात्मा को भी प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर की भक्ति प्रेम का ही ऊँचा परिष्कृत भाव है। गंगा की तरह पावन है। प्रेम गंगा में अवगाहन का आनन्द वे ही जानते हैं जिनने निश्छल मन से प्यार करना सीखा है। प्रेम में अद्वैत हैं अपनापन है।

ऐसे उच्च मानवीय गुण को जगाना और उसे पोषित करना विश्वहित के लिए बहुत जरूरी है।

जहाँ प्रेम तहाँ शान्ति है, जहाँ प्रेम तहाँ ज्ञान,

निर्मल प्रेमी हृदय में बसते हैं भगवान॥

विश्व में मनुष्य मात्र की सुख शांति और सद्ïभावना की अमरता के लिये प्रेम की ज्योति को जला कर संजोये रखना कल्याणकारी है। प्रेम ही प्राणियों को अमरता की ओर ले जाता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #140 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 140 ☆

☆ औरत की नियति

‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की, जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं, अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम औरत शब्द को परिभाषित करें, तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– औरत औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।

यदि हम नारी शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है; जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं– भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है; वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान, जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ है तो ठीक है, अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी कठपुतली की भांति मौन रहकर उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है और वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।

सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती।  दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने का तो समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’

वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय उद्वेलित हो उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई कहा जाता है। 

मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। परंतु उनके भीतर का सत्य यही होता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं। उसे तो आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है, जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता, जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।

धैर्य एक ऐसा पौधा होता है, जो होता तो कड़वा है, परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है, क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, तो वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।

परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है और उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।

परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।

‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना, सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति, जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो, तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो, तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं, लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है, क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है; यही उसकी नियति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  पारिवारिक रिश्ते।)   

☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मां की ममता की हकदार तो सभी संताने होती हैं और उन्हें मिलती भी है पर निर्भरता बेटों की मां पर बहुत ज्यादा होती है. मां के लिये बेटों से जुड़े भविष्य के सपनों, आकांक्षाओं के पूरे होने की उम्मीद रहती है जबकि बेटियों का वैवाहिक जीवन सफल,समृद्ध,सुखी हो, पति का प्यार और पति के पेरेंट्स का स्नेह मिलता रहे, यही कामनायें मां करती हैं.बेटियां उच्च और महंगी शिक्षा प्राप्त कर स्वर्णिम कैरियर बनाते हुये आत्मनिर्भर बनें और अपने जीवन के हर महत्वपूर्ण फैसले खुद लें, यह बेटियों की इच्छा तो होती है पर ये उपलब्धि पाने का लक्ष्य मां के मन के अंदर की असुरक्षा रूपी भय को दूर नहीं कर सकता. शायद यही सदियों से भारतीय संस्कृति के साइड इफेक्ट हैं जिन्हें हर मां और वो बेटी भी जब मां बनती है तो अपने बेटी के लिये महसूस करती है. हम लोग कितनी भी प्रगति कर लें और बेटियाँ कितनी भी शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन जायें पर पेरेंट्स के दिलों से ये असुरक्षा का भय कभी जाता नहीं है.बेटों का अकेले कहीं भी और कभी भी आना जाना अनुशासन की दृष्टि से भले ही नियंत्रित किया जाय पर असुरक्षा के लिहाज से पेरेंट्स के दिलों में कभी भी चिंता उत्पन्न नहीं करता.

फिल्मों में भी मां और बेटे का प्यार और एक दूसरे के लिये हद से गुजर जाना हिट फार्मूला है. इन भावनाओं का दोहन, फिल्म के हिट होने की गारंटी होती है. सारे सिंगिग और डांसिंग रियल्टी शोज़ के एक एक एपीसोड मां के नाम रिजर्व होते हैं और viewership के मामले में ये देशभक्ति के एपीसोड के साथ साथ ही हमेशा पहली पायदान पर होते हैं.

बेटियां पिता के लिये बहुत मूल्यवान और शायद दिल के ज्यादा नज़दीक होती हैं,यह एक बायोलाजिकल फेक्ट है पर पिता और बेटी के खूबसूरत रिश्तों और संवेदनाओं को उकेरती इक्का दुक्का फिल्में ही बनी हैं. एक फिल्म याद आती है “परिचय” जिसमें पिता और बेटी का किरदार संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने निभाया था. हालांकि संजीव कुमार बहुत कम समय ही फिल्म में रहे. ये दोनों ही कलाकार अभिव्यक्ति के मामले में संवाद पर निर्भर नहीं हैं. इनकी आंखें वो सब दर्शकों के मन तक पहुँचा जाती हैं जो भावनात्मक भारी भरकम डॉयलाग भी नहीं कर पाते.एक और फिल्म है”पीकू” जिसमें अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोन के बीच पिता और पुत्री के रिश्ते को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया था.अपनी आंखों से बहुत कुछ कहने वाले अभिनेता हैं “अमिताभ बच्चन जिनकी फिल्में ” काला पत्थर और शक्ति ” में उनकी खामोश आवाज पर बोलती आँखों से दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं.शक्ति में तो अपनी मौजूदगी पर एक दूसरे पर भारी पड़ते अभिनेता थे दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन.. कमाल के सीन थे फिल्म शक्ति के जिसके बारे में अमिताभ बच्चन ने स्वंय कहा था कि जब मैं सीन के दौरान दिलीप साहब की आंखों में देखता था तो उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से मोहित होकर खुद एक्टिंग करना भूल जाता था. दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन ही ऐसे दो अभिनेता हैं कि जब ये चुप रहते हैं तो इनकी आंखे बोलती हैं और वह सब संप्रेषित हो जाता है जिसके लिये डॉयलाग भी कम पड़े ,पर जब ये बोलते हैं तो इनकी बेमिसाल आवाजें सुनकर लगता है कि बस सुनते जाइये सुनते जाइये. लीजिए इनका जिक्र करते करते हम भी भटक गये. इन अभिनेताओं के चक्कर में भटकना स्वाभाविक भी था.

पिता और बेटी के अनूठापन लिये हुये स्नेह का रिश्ता, एक दूसरे पर निर्भरता, बेटी के विवाह के बाद खालीपन महसूस करते पिता और ससुराल में अपने पिता की छवि को तलाशती बेटी पर कोई फिल्म बनी हो याद नहीं आता. अगर बनती भी तो इन भूमिकाओं को न्याय बलराज साहनी, संजीव कुमार और जया भादुड़ी ,दीपिका पादुकोन जैसे ही अपनी भावप्रवणता से दे पाते और निर्देशक भी फिर उसी स्तर के ही ये सब संभव कर पाते.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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