हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय  ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुष्प की अभिलाषा शीर्षक से लिखी कविता से आप भी चिरपरिचित हैं न ? आपने भी मेरी तरह यह कविता पढ़ी या सुनी जरूर होगी । कई बार स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी बच्चे को पुरस्कार लेते देख तालियां भी बजाई होंगी । मन में आया कि एक बार दादा चतुर्वेदी के जमाने और आज के जमाने के फूल में शायद कोई भारी तब्दीली आ गयी हो । स्वतंत्रता के बाद के फूल की इच्छा उसी से कयों न जानी जाए ? उसी के मुख से ।

फूल बाजार गया खासतौर पर ।

– कहो भाई , क्या हाल है ?

– देख नहीं रहे , माला बनाने के लिए मुझे सुई की चुभन सहनी पड रही है ।

–  अगर ज्यादा दुख न हो रहा हो तो बताओगे कि तुम्हारे चाहने वाले कब कब बाजार में आते हैं ?

–  धार्मिक आयोजनों व ब्याह शादियों में ।

– पर तुम्हारे विचार में तो देवाशीष पर चढ़ना या प्रेमी माला में गुंथना कोई खुशी की बात नहीं ।

– बिल्कुल सही कहते हो । मेरी इच्छा तो आज भी नहीं पर मुझे वह पथ भी तो दिखाई नहीं देता, जिस पर बिछ कर मैं सौभाग्यशाली महसूस कर सकूं ।

– क्यों? आज भी तो नगर में एक बडे नेता आ रहे हैं ।

– फिर क्या करूं ?

– क्यों ? नेता जी का स्वागत् नहीं करोगे ?

– आपके इस सवाल की चुभन भी मुझे सुई से ज्यादा चुभ रही है । माला में बिंध कर वहीं जाना है । मैं जाना नहीं चाहता पर मेरी सुनता कौन है ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – विश ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विश’।)

☆ कथा-कहानी  – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

छः-छः, सात-सात साल की दो बच्चियांँ खेल रही थीं कि उन्होंने एक टूटते हुए तारे को देखा। “देखो शूटिंग स्टार।” एक बच्ची चिल्लाई। दोनों ने प्रार्थना के अंदाज़ में हाथ जोड़कर आंँखें बंद कर लीं और कुछ बुदबुदाने लगीं। कुछ क्षण बाद पहली बच्ची ने दूसरी से पूछा, “तुमने कौन सी विश मांँगी?”

“मैंने विश मांँगी कि मेरे घर में चॉकलेट का पेड़ उग आए। पता है, मेरे पापा मुझे दूसरे-तीसरे दिन बाज़ार ले जाते हैं पर चॉकलेट महीने-दो महीने में ही दिलवाते हैं। घर में चॉकलेट का पेड़ होगा तो पापा से कहना ही नहीं पड़ेगा। तुमने कौन सी विश मांँगी?”

“मुझे चॉकलेट नहीं चाहिए, पापा चाहिएंँ। मेरे पापा फॉरेन में हैं न! मैं और मम्मा तीन साल से उन्हें मिले भी नहीं हैं। मैंने तो विश मांँगी कि पापा फॉरेन से वापस हमारे पास आ जाएंँ।”

“तुम पापा के बिना उदास हो जाती हो न!”

“हांँ, मम्मा भी उदास होती है। कभी-कभी तो इतनी अपसेट हो जाती है कि बिना बात के मुझे बुरी तरह डांँट देती है, कभी तो हाथ भी उठा देती है। उसके बाद रोने लगती है।” बच्ची यह सब बताते हुए रुआंँसी हो आई। दूसरी बच्ची ने उसे धीरे से खींचकर अपनी देह से सटा लिया। कुछ ही पलों बाद उसने झटके से अपने को उससे अलग किया,

“मैं जाती हूंँ।अंँधेरा हो गया, मम्मा अकेली है। “

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार

एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था। उसके घमंड के चलते आस पास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे। उसके घमंड की वजह से सारे  राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे।

एक बार उस गाँव से एक साधु महात्मा गुजर रहे थे उन्होंने ने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची। साधु तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए। राजा ने देखा तो वो गुस्से में भर गया । राजा बोला – ये क्या उदण्डता है महात्मा जी, आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?

साधु ने विनम्रता से उत्तर दिया – मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूँ। राजा को ये बात बहुत बुरी लगी वो बोला- महात्मा जी ये मेरा राज महल है कोई सराय नहीं, कहीं और जाइये।

साधु ने कहा – हे राजा, तुमसे पहले ये राजमहल किसका था? राजा – मेरे पिताजी का। साधु – तुम्हारे पिताजी से पहले ये किसका था? राजा– मेरे दादाजी का।

साधु ने मुस्करा कर कहा – हे राजा, जिस तरह लोग सराय में कुछ देर रहने के लिए आते है वैसे ही ये तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादाजी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिताजी का था, अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, ये राजमहल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है।

ये एक सराय ही है जहाँ एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है। साधु की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान सम्मान छोड़कर साधु के चरणों में गिर पड़ा और महात्मा जी से क्षमा मांगी और फिर कभी घमंड ना करने की शपथ ली।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 86 ☆ माँ सी …! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 86 ☆

☆ लघुकथा – माँ सी …! ☆

मीना की निगाहें कमला के घर पर ही लगी थीं। दो लडके बडी देर से उसके घर के बाहर चक्कर लगा रहे थे। दूर बैठी वह कमला के घर की चौकसी कर रही थी। कमला जब भी घर से बाहर जाती तो मीना की आँखें उसके घर पर ही लगी रहतीं। आँखें क्या तन मन से मानों वह उसी के घर में होती। कमला की जवान लडकी अकेली है घर में। पंद्रह- सोलह साल की ही होगी पर  अभी से बहुत सुंदर दिखती है, नजर हटती ही नहीं चेहरे से। वह मन ही मन सोच रही थी कि माँएं अपनी बेटियों की सुंदरता से कितनी खुश होती हैं लेकिन हमारे जैसी औरतें बेटी की सुंदरता से सहम जाती हैं।

बाईक पर आए दो लडकों को तांक – झांक करते देख उसने पूछा —

“ऐ – ऐ कहाँ जा रहे हो?”

“तेरा घर है यह? अपने काम से मतलब रख।”

वह तेजी से बोली — “हाँ मेरा ही घर है, अब बोल।”

“कमला बाई की लडकी से काम है।”

“क्या काम है? वही तो पूछ रही हूँ मैं?”

“उसी को बताना है। तू क्यों बीच में टांग अडा रही है?”   

वह कमला के घर का रास्ता रोक, कमर पर हाथ रखकर खडी हो गई- “तू पहले मुझे काम बता।”

“जबर्दस्ती है क्या? क्यों बताएं तुझे? साली धंधेवाली होकर बहुत नाटक कर रही है। चल यार, फिर कभी आएंगे हम।”

बात बढती देख वे दोनों तेजी से बाईक घुमाकर उसे गाली देते हुए वहाँ से चले गए।

“अरे! जब भी आएगा ना तू मीना ऐसे ही दरवाजे पर खडी मिलेगी। तू छू भी नहीं सकता मेरी बच्ची को।”

मीना जोर-जोर से चिल्लाकर बाईक पर पत्थर मारती जा रही थी। आस – पडोसवालों की भीड लग गई थी। वे हतप्रभ थे। मीना बाई की लडकी को तो बहुत पहले गुंडे उठा ले गए थे। ये तो कमला की लडकी है। भीड में खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

मीना आँसू पोंछते हुए बोली – “जानती हूँ मेरी लडकी नहीं है पर बेटी जैसी तो है ना ! अकेली कैसे छोड दूँ उसे?”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 96 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

जो जैसी करनी करें, सो तैसों फल पाय।

बेटी पौंची राजघर, बाबैं बँदरा खाय॥

शाब्दिक अर्थ :- बुरे काम करने का फल  भी बुरा ही मिलता है। बुरे सोच के साथ किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी ही एक सुकन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले बुरे विचार के साधू (बाबैं) को बंदरों (बँदरा) ने काट खाया और सुकन्या का विवाह साधू की जगह राजकुमार से हो गया।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो कहानी है वह बड़ी मजेदार है, आन्नद लीजिए। सुनार नदी के किनारे बसे रमपुरवा गाँव में एक बड़ा पुराना शिवालय था। गाँव के लोगों की मंदिर में विराजे भगवान शिव पर अपार श्रद्धा थी। गामवासी प्रतिदिन सुबह सबेरे नदी में स्नान करते और फिर भोले शंकर को जल ढारकर अपने अपने काम से लग जाते। एक दिन एक साधू कहीं से घूमता घामता गाँव में आया और उसने मंदिर में डेरा डाल दिया। मंदिर की और शिव प्रतिमा की साफ सफाई के बाद वह भजन गाने लगा। गाँव वालों को अक्सर भजन गाता,मंजीरा बजाता  यह सीधा साधा साधू बहुत पुसाया और वे उसे प्रतिदिन कुछ कुछ न कुछ भोजनादी सामग्री भेंट में देने लगे। इस प्रकार साधू ने मंदिर के पास एक कुटिया बना ली और वहीं रम गया। गाँव के लोग अक्सर साधू से अपनी समस्या पूंछते, बैल गाय घुम जाने अथवा अन्य परेशानियों का उपाय पूंछते और साधू उसका समाधान बताता। गाँव की महिलाएँ और कन्याएँ भी कहाँ पीछे रहती वे भी अपने दांपत्य सुख को लेकर या विवाह के बारे में साधू से पूंछती  और साधू उन्हे उनके मनवांछित जबाब दे  देता। इस प्रकार साधू की कीर्ति आसपास के अनेक गाँवों में फैल गयी।  रमपुरवा गाँव से कोई पांचेक मील दूर सुनार नदी किनारे एक और गाँव था बरखेड़ा। इस गाँव में एक विधवा ब्राम्हणी, अपनी सुंदर युवा पुत्री के साथ, रहती थी । पुत्री विवाह योग्य हो गई थी पर गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब विधवा ब्राम्हणी और कन्या ने ने इस साधू की ख्याति सुनी तो वे भी, रमपुरवा गाँव  के शिवालय साधू से मिल, विवाह  के बारे में जानने पहुँची। साधू उस सुंदर कन्या पर रीझ गया और उससे विवाह करने का इच्छुक हो गया किन्तु साधू होने के कारण वह ऐसा कर नहीं सकता था। अत: उसने विधवा ब्राम्हणी से कहा कि कन्या का भाग्य बहुत खराब है और इस पर सारे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि है। इसके निवारण का उपाय करने वह स्वयं अमावस्या के दिन बरखेड़ा गाँव आयेगा। नियत तिथी को साधू विधवा ब्राम्हणी के घर पहुँचा और उसने उसकी छोटी सी झोपड़ी कों देख कर कहा इस जगह रहने से इस कन्या का विवाह जीवन भर न होगा अत: यह झोपड़ी  छोडनी पडेगी। विधवा ब्राम्हणी बिचारी पहले से ही गरीब थी नई झोपड़ी बनाने पैसा कहाँ से लाती इसलिए उसने साधू से कोई दूसरा उपाय बताने को कहा। साधू तो मौके कि तलाश में ही था उसने सलाह दी कि कन्या को एक पेटी में बंद कर नदी में बहा दो एकाध दिन बाद कन्या किनारे लग कर बरखेड़ा गाँव वापस आ जाएगी और इससे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि का दोष दूर हो जाएगा और इसका विवाह किसी धनवान से हो जाएगा तथा ससुराल में कन्या राज करेगी। विधवा ब्राम्हणी कन्या का उज्ज्वल भविष्य की सोचकर इस योजना के लिए तैयार हो गई। अमावस्या की काली अंधेरी रात को साधू ने विधवा ब्राम्हणी के साथ मिलकर कन्या को एक बक्से में बंद कर नदी में डाल दिया और स्वयं अपनी कुटिया की ओर तेज गति  चल पड़ा। कुटिया में पहुँच कर वह कल्पना में डूब गया कि कुछ समय में वह बक्सा बहता हुआ आवेगा और फिर वह उसे यहाँ से बहाकर कहीं  दूर ले जाएगा और फिर उस सुंदर कन्या से विवाह कर अनंत सुख भोगेगा। इधर बक्सा बहते बहते नदी के दूसरे किनारे की तरफ चला गया।  कुछ दूर घने जंगल में एक राजकुमार शिकार खेल रहा था उसने इस बहते बक्से को देखा और उसे अपने सिपाहियों की मदद से बाहर निकलवाकर उत्सुकतावश खोला। जैसे ही उसने बक्सा खोला तो उसमे से वह सुंदर कन्या निकली। कन्या ने राजकुमार को अपनी आप बीती और साधू के कुटिल चाल की बात सुनाई। राजकुमार ने उसकी दुखभरी कहानी सुनकर उससे विवाह करने की इच्छा दर्शायी और अपने साथ राजमहल चलने को कहा। कन्या राजकुमार की बातों से सहमत हो गई। तब राजकुमार ने जंगल से एक दो खूंखार बंदरों को पकड़ उन्हे बक्से में बंद कर पुनः नदी में छोड़ दिया। यह बक्सा बहता बहता साधू की कुटिया के पास जैसे ही पहुँचा साधू ने बक्से को रोका और बड़ी कामना के साथ खोला। बक्सा खुलते ही दोनों बंदर बाहर निकल कर साधू पर झपट पड़े और उसे काट काटकर बुरी तरह घायल कर दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी है। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है :-

करैं बुराई सुख चहै, कैसें पाबैं कोय। 

बोबैं बीज बबूर कौ, आम कहाँ से होय॥

यह तो सनातन परम्परा चली आ रही है। जो जैसा भी कार्य करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। बुरे काम करने का नतीजा भी बुरा ही होता है। बुराई  के काम करने के बाद  यदि  कोई सुख चाहता है तो उसे सुखी जीवन जीने कैसे मिल सकता है। बबूल (बबूर) का बीज बोने से आम का पेड़ नहीं उग सकता।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा के निरीक्षण के प्रारंभ होने के साथ साथ ये कहानी जब आगे बढ़ती है तो संतोषी जी की पद्मश्री प्रतिभा, इंस्पेक्शन प्रारंभ होने के अगले दिन से ही सामने आना प्रारंभ हो जाती है. यहां पर अवश्य ही कुछ पाठक, इंस्पेक्शन अधिकारियों की खातिरदारी के नाम पर मदिरापान, निरामिष महाभोज और दूसरी तरह तरह की कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगे होंगे पर इन सब प्रचलित परंपरागत स्वागत से कहीं अलग संतोषी जी की प्रक्रिया थी. इसके लिये आपको, उनकी निज़ता का सम्मान करते हुये, उनके परिवार के बारे में सूचना देना आवश्यक है. संतोषी साहब को देशी उपचार का ज्ञान अपने दादाजी और दादीजी के माध्यम से मिला था. तबियत की सामान्य नासाजी, अनमनापन, सर्दी जुकाम, सामान्य ज्वर और अपच, पेट साफ नहीं होना याने इनडाइजेशन के लिये उनके पैतृक परिवार में और उनके साथ चल रहे न्यूक्लिक परिवार में भी, कभी भी डॉक्टर की सेवाएं नहीं ली जाती थीं. इसका अनुभव हमेशा संतोषी जी को परिवार के बाहर, बैंक की दुनियां में भी काम आता था. दूसरी बात यह कि वे तीन विदुषी और पाक कला में दक्ष पुत्रियों के लाडले पिता थे. पुत्रों कों पुत्ररत्न की उपाधि से सम्मानित करने की हमारी परंपरा, बेटियों के लिये किसी विशेषण का उपयोग नहीं करती पर ये वास्तविकता है कि बेटियाँ रत्न नहीं घरों की रौनक हुआ करती हैं और ये वही समझ पाते हैं जो बेटियों के पिता बनने का सौभाग्य पाते हैं. तो संतोषी जी की तीनों बेटियों की पाक कला में पूरे भारत के दर्शन हुआ करते थे. सुस्वादु और तड़केदार पंजाबी डिशों से लेकर सेहत और स्वाद दोनों की परवाह करती दक्षिण भारतीय डिशों से अक्सर उनका घर महका करता था. स्वादिष्ट भोजन की खुशबू , लोगों को हमेशा से ही चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती आई है और यह भी एक तरह की धनात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होती है. भोजन की पाकशाला में एक मेन्यू बहुत स्ट्रिक्टली प्रतिबंधित था और वह था नॉन वेजेटेरियन फुड. पूरे संतोषी परिवार का पूरे दृढता से ये मानना था कि जब शाकाहार में ही इतनी विविधता और स्वाद है तो किसी निर्बल का सहारा अपने स्वाद के लिये क्यों लिया जाय।

निरीक्षण में आये सहायक महाप्रबंधक दक्षिण भारतीय थे और एसी टू में यात्रा करने के बावजूद पर्याप्त नींद न लेने के कारण परेशान थे. उत्तर भारत की शीत ऋतु भी उन्हेँ रास नहीं आ रही थी. इन विषमताओं से उन्हें, सरदर्द, जुकाम और इनडाइजेशन तीनों की शिकायत हो गई थी. निरीक्षण में उनके साथ आये मुख्य प्रबंधक शुद्ध पंजाबी संस्कृति में पके पकवान थे. तो इडली सांभर और छोले भटूरे का तालमेल नहीं बैठ पाता था. पर निरीक्षण का काम नियमानुसार बंटा हुआ था और बैठने की जगह भी उस हिसाब से भूतल और प्रथम तल में अलग अलग थी तो आमना सामना सुबह की गुडमार्निंग के बाद यदाकदा ही होता था.

संतोषी साहब ने निरीक्षण करने आये सहायक महाप्रबंधक महोदय की अस्वस्थता, उड़ती चिडिया के पर  गिनने की दक्षता के साथ समझ लिया था और उनके अविश्वास और ना नुकर के बावजूद अपने देशी इलाज से उनकी सारी परेशानी उड़न छू कर दी. स्वस्थ्य होना हर प्रवासी की ज़रूरत होती है जिसे पाकर सहायक महाप्रबंधक, संतोषी जी के अनुरागी बन गये. उसके बाद अगला कदम उनके लिये नियमित रूप से घर के बने दक्षिण भारतीय, शाकाहारी भोजन की व्यवस्था थी जो सिर्फ उनके लिये की जाती गई. निरीक्षण अधिकारी, संतोषी साहब के इस व्यवहार से परम संतुष्ट हो गये और संतोषी जी को बजाए ब्रांच के अपनी निरीक्षण टीम का हिस्सा मानने का सम्मान दिया. जब उन्होंने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय से संतोषी जी के आतिथ्य की मुक्त कंठ से सराहना की तो मुख्य प्रबंधक भी बोल उठे कि सर,संतोषी साहब को हमने आप लोगों के लिये ही रिजर्व कर दिया है और जब भी आपको उनकी सहायता या सानिध्य की आवश्यकता पड़े,आप निस्संकोच मुझे निर्देश दें या आप उन्हें भी डायरेक्ट बुला सकते हैं.

“ड्राइफ्रूट्स”  बैंक सहित अन्य कार्यालयों का वह अघोषित खर्च होता है जो विशिष्ट अधिकारियों के आगमन पर किया जाता है. ये ऐसा अवसर भी होता है,जब इस बहाने ड्राई फ्रुट्स के स्वाद से बाकी लोग भी परिचित होते हैं. शाम की चाय इनके बिना “हाई टी” का तमगा नहीं पा सकती. इसका एक अघोषित नियम यह भी है जब मेजबान और मेहमान साथ बैठकर हाई टी का आनंद ले रहे हों तो भुने हुये काजू प्लेट से उठाने का अनुपात 1:4 होना चाहिए याने मेजबान एक : मेहमान चार.

इंस्पेक्शन तो अभी चलेगा और परम संतोषी कथा भी. इंस्पेक्शन फेस करने का पहला मूलमंत्र यही है कि कंजूसी मत करो क्योंकि आपकी जेब से नहीं जा रहा है.

यही मूलमंत्र कथा का अच्छा पाठक होने का भी है कि ताली ज़रूर बजाइये वरना आपको मूर्ति याने बुत समझा जा सकता है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं–[1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ लघुकथाएं – [1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप 

☆ बुद्धिजीवी ☆

बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!

ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।

☆ अपने बिल में ☆

समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं। 

इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#113 – लघुकथा – * गंगाजल * ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा “ *गंगाजल*”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 113 ☆

? लघु कथा ? *गंगाजल*? ?

पहली बार गंगा स्नान के लिए गोमती गांव से इलाहाबाद जा रही थीं। बरसों की भावना और मन में उत्साह बहुत था। स्टेशन से गंगा तट की दूरी बहुत ज्यादा हैं। इसलिए एक आटो वाले के साथ अन्य लोगों के साथ अपने नाती को लेकर बैठ गई।

स्नान पूजन के बाद गंगा जल बाॅटल में भर बड़े जतन और श्रद्धा से गोद में लेकर उसी आटो से वापस स्टेशन आने  लगी।

अत्यधिक भीड़ और धूप की वजह से रास्ते में आटो चालक जो शुगर पेशेंट था। अचानक उसे चक्कर सा आने लगा। उसने तुंरत आटो रोकने की कोशिश की और गिर पड़ा।

बाकी सभी बैठे यात्री अपनी अपनी गंगा जल की बाॅटल और सामान ले उतर कर भागने लगे। गोमती ने जल्द ही गंगा जल की बाॅटल खोल मुंह पर छींटा मारा और जल पिलाया।साथ में रखे खाने का सामान भी दिया।

सभी कहने लगे  कितनी मेहनत से तुम गंगा जल ले जा रही थीं और इस आटो वाले को पिला कर जूठा कर लिया। नाती भी डांटने लगा इतना खर्च किएऔर आपने गंगा जल यूं ही खराब कर दिया।

आटो चालक चंगा हो चलाने की स्थिति में आ गया। बाकी महिलाओं ने कहा अब तुम पूजन के लिए क्या ले जाओगी।

गोमती मंद मंद मुस्कान के साथ बोली मेरी पूजा तो  जन्मों जन्मों के लिए हो गई।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #79 – कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #79 – कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!! ☆ श्री आशीष कुमार

 एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। लोगों की बढ़ती साधना वृत्ति से वह प्रसन्न तो थे पर इससे उन्हें व्यावहारिक मुश्किलें आ रही थीं। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता,तो भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। भगवान इससे दुखी हो गए थे।

अंतत: उन्होंने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं !! मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं,न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।

प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए।

गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।

भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।

इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी महासागर में चले जाएं।”

वरुण देव बोले आप अंतरिक्ष में चले जाइए।

भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा।

भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं ?

अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू !! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा। पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा।

ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया। वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को ऊपर, नीचे, दाएं,बाएं,आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहे। मनुष्य अपने भीतर बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पा रहा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कथा-कहानी  – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय रचना ‘कहानियाँ’।)

☆ कथा-कहानी  – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

[1]

कहानियाँ अगर फाँस सी कसकने लगें

तो उन्हें हर हाल में सुना जाना चाहिए

कहानियाँ अगर अनसुनी मर जाएँ

तो समाज मर जाता है उनके साथ

सभ्यता और संस्कृति भी।

 

[2]

बड़ी-बड़ी हवेलियों के तहख़ानों में

बहुत सी चीख़ती कहानियाँ ज़िन्दा हैं

जिस दिन तहख़ानों में हवा दाख़िल होगी

बादल प्रलय की तरह बरसेंगे

और आलीशान हवेलियाँ ढह जाएँगी।

 

[3]

राजाओं की कहानियों में युद्ध थे

जीत का दर्प था या हार की शर्मिंदगी

इन कहानियों को पढ़ते हुए

लाशों की गंध आती है

उंगलियाँ लहू से लिथड़ जाती हैं।

 

[4]

कुछ कहानियाँ भरी जवानी में

दीवारों में ज़िन्दा चुनवा दी गईं

प्रेत हो गईं ये कहानियाँ जब रोती हैं

तो इनके साथ रोता है इतिहास भी

और कातर धरती काँप जाती है।

 

[5]

कुछ कहानियां अंकुर की तरह फूटती हैं

ज़रूरी नहीं कि अंकुर पौधे बन ही जाएँ

अक्सर ये अंकुर सूखे से झुलस जाते हैं

उखाड़ दिए जाते हैं खरपतवार की तरह

या डूब जाते हैं बाढ़ के पानी में।

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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