हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

 ** होली स्पेशल सीरीज़ **

इस बार असहमत अपने पिताजी का escort बनकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद, कोविड वैक्सीन लगवाने  प्राइवेट चिकित्सालय पहुँचा कि शायद यहाँ भीड़  न हो पर अनुमान के विपरीत भीड़ थी जो कोविड प्रोटोकॉल के पालन से बेखबर होने का पालन कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग से ‘सोशल’ और ‘डिस्टेंस’ दोनों ही गायब थे, परिचित भी अपरिचितों जैसा व्यवहार कर रहे थे. असहमत और उसके पिता तो मॉस्क पहनकर आये थे पर ये अनुशासन बहुत कम ही दृष्टिगोचर हो रहा था. मौसम गर्म था और सीनियर सिटीज़न या तो कतार में त्रस्त थे या फिर थकहार कर छाँह की तलाश में नज़र दौड़ा रहे थे.  प्रसिद्ध मंदिरों के समान VIP दर्शन /इंजेक्शन की विशेष व्यवस्था यहाँ भी थी पर उसकी पात्रता से असहमत हमेशा की तरह दूर ही था और उसे ये चिंता सता रही थी कि संक्रमण कहीं ‘क्यू’ याने ‘कतार में ही तो नहीं खड़ा होकर अपना शिकार तलाश रहा हो.

अचानक ही असहमत की नज़र कार से उतर रही युवती पर पड़ी और उसे B. Sc. First year की क्लास याद आ गई. “सन्मति कुलश्रेष्ठ ” जो शायद अब डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ बन चुकी थी, किसी जमाने में असहमत की सिर्फ इस क्लास की क्लासफेलो थी. सन्मति के फॉदर नगर के जानेमाने सर्जन थे और सन्मति का टॉरगेट भी वही था. जब व्यक्ति लक्ष्य निश्चित कर के समर्पित होकर आगे बढ़ता है तो अगले मोड़ पर सफलता खड़ी रहती ही है. सन्मति, सौंदर्य, स्मार्टनेस और बुद्धिमत्ता का विधाता का रचा गया कांबिनेशन थी या है . सन्मति कुलश्रेष्ठ  कभी असहमत की भी क्लासफेलो थी और क्लास के बहुत से छात्र जिनकी कोई क्लास नहीं थी,  “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम हमको सन्मति दे भगवान ” भजन अक्सर गाया करते थे. सन्मति के जीवन में उस समय भी इस फिल्मी चोंचलेबाजी से कहीं अलग अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने की प्राथमिकता सबसे ऊपर थी. तो सन्मति का सिलेक्शन नगर से दूर के मेडीकल कॉलेज में MBBS के लिये हो गया और लक्ष्यहीन मस्तीखोर असहमत और उसके साथी  ग्रेजुएशन पूरा करने की लक्ष्यहीन और “सन्मतिहीन ” यात्रा में आगे बढ़ गये. असहमत का ग्रुप शेयर करने में विश्वास रखता था और ये भावना उनके इक्ज़ाम्स के रिजल्ट में भी नजर आती थी. 100% मार्क्स में ग्रास मार्क्स मिलाकर तीन दोस्त पास हो जाते थे. इस % पर साईंस फैकल्टी में पोस्टग्रेजुऐशन में एडमीशन मिलना तो संभव ही नहीं था पर लक्ष्यहीन छात्रों के लिये मॉस्टर ऑफ आर्टस फैकल्टी के दरवाजे हमेशा की तरह खुले थे जो वेस्ट waste प्रोडक्ट को रिसाइकल करके नेचरल गैस बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग करती रहती थी. इस फैकल्टी में अगर पोस्टग्रेजुऐशन में अच्छे नंबर आ गये तो हो सकता है कि रजिस्ट्रेशन  P. HD. के लिये हो जाये.फिर बाल पकते पकते थीसिस कंप्लीट हो कर अवार्ड हो जाये और ग्रेज्यूयेशन की नाम के पहले डॉक्टर लिखने की इच्छा पूरी हो जाय.और अगर PHD नहीं कर पाये या इसके लिये सिलेक्ट नहीं हो पाये तो बहुत सारे विषय हैं जिनमें एक के बाद एक M.A.की जा सकती है जब तक कि कोई जॉब न मिल जाय या फिर कोई  स्टार्ट अप प्रोजेक्ट शुरू न हो जाय. बहुत सारे दोस्त कॉलेज जाने के आकर्षण के चलते दो तीन विषयों में एम. ए. करने में व्यस्त हो गये पर असहमत ने  सिर्फ इकॉनामिक्स में  MA करने के बाद MBA करना ज्यादा सही समझा और आज उसके पास एक गुमनाम सेठ कॉलेज की MBA की डिग्री भी आ चुकी है.

अचानक ही किसी के छींकने की आवाज़ से अतीत की सोच को छोड़कर असहमत वर्तमान में आया और अपने पिताजी को वेक्सीन लगवाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गया. वेक्सीन लगने के बाद तीस मिनट के ऑब्जरवेशन पीरियड के दौरान पिताजी को मित्र मिल गये तो उन्हें गपशप करने के लिये छोड़कर और “just coming कहकर हॉस्पिटल का राउंड लगाने चल दिया. दिल के किसी कोने में डॉक्टर सन्मति को फिर से देखने की हसरत तो थी पर साहस नहीं था. क्लास की डेस्क की नजदीकियां कैरियर और स्टेटस के आधार पर कब दूरियों में बदल जाती हैं पता नहीं चलता. वैसे भी कुत्तों से डरना और लड़कियों से शरमाना असहमत के जन्मजात गुण थे.पर अचानक ही उसका सामना, सामने से राउंड पर आती डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ से हो ही गया.

क्रमशः….

**कहानी जारी रहेगी**

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 107 – लघुकथा – तलाश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय लघुकथा  “तलाश ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 107 ☆

? तलाश ?

बारात के साथ सिर पर लाईट का सामान लेकर चली जा रही, लाईन पर एक महिला के साथ-साथ करीब आठ साल का बच्चा अपनी मां का आंचल पकड़े-पकड़े चले जा रहा था।

कंपकंपी सी  ठंड से हाथ पैर सिकुड़े चले जा रहे थे। मनुष्य न जाने कितने-कितने स्वेटर-शाल ओढ़े चल रहे थे। परंतु, वह बच्चा एक साधारण सी स्वेटर पहने माँ का आँचल पकड़कर चल रहा था। सभी की नजर पड़ रही थी परंतु कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था।

बारात के साथ-साथ चलते-चलते दूल्हे के ताऊजी लगातार उस बच्चे को देखते पूछते और कहते चले जा रहे थे-  “क्यातुम्हें ठंड नहीं लग रही?” बार-बार के पूछने पर बच्चे ने उनसे कहा – “आज मां के दोनों हाथ ऊपर लाईट पकड़े हुए हैं और वह मुझे आज अपने आंचल से नहीं भगा रही है। इसलिए मुझे ठंड नहीं लग रही आज माँ  के साथ-साथ मैं चल रहा हूं मुझे बहुत अच्छा लग रहा, ठंड नहीं लग रही है।“

बारात अपने गंतव्य पर पहुँच चुकी थी। स्वागत सत्कार होने लगा।  दूल्हे के ताऊ जी ने पता लगाया कि वह उसकी अपनी संतान नहीं है, उसके पति की पहली बीवी का बच्चा है जो उसे छोड़कर मर चुकी है।

स्वागत के बाद सभी खाना खाने पंडालों की ओर बढ़ने लगे। अचानक आर्केस्ट्रा पर गाना बजने लगा…

तुझे सूरज कहूँ  या चंदा

तुझे दीप कहूँ  या तारा

मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा

धूम-धड़ाके के बीच और सभी एक दूसरे का मुँह  देखने लगे।

तभी दूल्हे के ताऊ जी का स्वर सुनाई दिया – “आज मेरी तलाश पूरी हो गई है। आज मुझे मेरा बेटा मिल गया है। आप सभी मुझे कहते रहे कि- कोई बच्चा गोद क्यों नहीं ले रहे हो। मैंने आज इस बच्चे को गोद लिया है। अब यही मेरी संतान है। बाकी की कानूनी कार्रवाई कल समय पर हो जायेगी।”

यह बात बच्चे को कुछ समझ में नहीं आ रही थी । पर खुशी से उसके चेहरे पर मुस्कान फैल रही थी कि वह किसी सुरक्षित आदमी की गोद में है।

ताऊ जी की कोई संतान नहीं थी।  ताऊ जी ने बाकी की कार्यवाही दूसरे दिन समय पर पूरी करने का आश्वासन दे बच्चे को अपने साथ ले लिया।

आज उनकी तलाश पूरी हो चुकी थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 118 ☆ दरवाज़े ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 118 ☆  दरवाज़े ?

एक समय था जब लोगों के घरों के दरवाज़े दिन भर खुले रहते थे। समय के साथ विचार बदले, स्थितियाँ बदलीं और अब अधिकांश घरों के दरवाज़े बंद रहने लगे हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़ा बंद रखना समकालीन आवश्यकता हो सकता है। तथापि स्थूल का प्रभाव, सूक्ष्म पर भी होता है।

एक प्रसंग सुनाता हूँ। एक धनी व्यक्ति एक महात्मा के पास आया। धनी का महल आलीशान था। उसके मन में इच्छा हुई कि अपना महल महात्मा को दिखाए। बहुत ना-नुकर के बाद महात्मा उसका महल देखने के लिए राजी हो गए। धनी ने जब अपना महल महात्मा को दिखाया तो वे हँस पड़े। धनी आश्चर्यचकित हुआ। फिर तनिक नाराज़गी के साथ बोला, ” महात्मन! यह दुनिया का सबसे सुरक्षित महल है।” महात्मा ने पूछा, “कैसे?” धनी बोला,” मैंने इसके सारे दरवाज़े चुनवा दिये हैं। इसमें केवल एक ही दरवाज़ा रखा है जिसके चलते शत्रु का भीतर प्रवेश करना असंभव-सा हो चला है।” इस बार महात्मा ठहाका लगाकर हँसे। फिर बोले, ” यह एक दरवाज़ा भी क्यों छोड़ दिया? यदि इसे भी बंद कर दो तो शत्रु का तुम तक पहुँचना असंभव-सा नहीं अपितु असंभव ही होगा।”  धनी ने महात्मा के ज्ञान के कई प्रसंग लोगों से सुने थे। उसे लगा, सारे प्रसंग झूठे हैं। महात्मा तो सामान्य बात भी समझ नहीं पाते। सो चिढ़कर बोला, “महात्मन, यदि यह एकमात्र दरवाज़ा भी बंद कर दिया तब तो मेरे प्राण जाना निश्चित है। ऐसी सूरत में यह महल, महल न रहकर कब्र में बदल जाएगा।”  इस बार  गंभीर स्वर में महात्मा बोले, ” जब तुझे बात का भान है कि एक दरवाज़ा बंद करने से तेरी मृत्यु हो जाएगी तो इतने सारे दरवाज़े बंद करके कितनी बार मर चुका है तू?”

ध्यान देनेवाली बात है कि  दरवाज़े सर्वदा बंद रखने के लिए होते तो बनाये ही क्यों जाते? उनके स्थान पर भी दीवारें ही खड़ी की जातीं।

दरवाज़े बार-बार खुलते रहने चाहिएँ, ताज़ा हवा का झोंका भीतर आते रहना चाहिए। खुले दरवाज़ों से नयापन और ताज़गी भीतर आते रहते हैं, प्रफुल्लता बनी रहती है।

…अंतिम बात,  घर के हों या मन के, यह सूत्र दोनों प्रकार के दरवाज़ों पर लागू होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

नौकर अति उत्साहित होकर बोला, “मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा। लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?”

अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

व्यापारी ने कहा, “मैंने ऊँट खरीदा है,” गहने नहीं! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।”

नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, “मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।”

फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, “मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था। आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।”

व्यापारी ने कहा “मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं। धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।”

व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

अंत में व्यापारी ने झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा, “असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।”

इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला “मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

“दो सबसे कीमती वाले” व्यापारी ने जवाब दिया।

“मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – [1]लेखक और पुरस्कार [2] खोया हुआ कुछ …☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – [1]लेखक और पुरस्कार [2] खोया हुआ कुछ …  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

[1]

लेखक और पुरस्कार

पुरस्कारों की घोषणा हुई।

लेखक का नाम नहीं था। वह निराश नहीं हुआ । हठ न छोडा । पुरस्कार पाने योग्य एक और पुस्तक की रचना की, जिसमें किसान की उमंगें , मजदूर के पसीने की गंध, मिट्टी की महक और आम आदमी की लड़ाई शामिल थी । पुस्तक लिए लेखक व्यवस्था के द्वार पर जा खड़ा हुआ ।

व्यवस्था बाहर आई, अपने चुंधिया देने वाले मायावी रूप में। पुस्तक को एक पल ताका, लेखक को घूरा, फिर आंखें तरेरते बताया

पुरस्कार चाहते हो तो एक ही शर्त है।

क्या ?

बस , मेरे असली रूप को देखकर एक शब्द भी नहीं लिखोगे,  स्वीकार हो तो अंदर आओ। तुम्हारे बहुत से भाईबंधु मिलेंगे। 

लेखक ने अपनी कलम को चूमा और लौट गया।

 

[2] 

खोया हुआ कुछ … 

-सुनो ।

-कौन ?

-मैं ।

-मैं कौन ?

– अच्छा । अब मेरी आवाज भी नहीं पहचानते ?

– तुम ही तो थे जो काॅलेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे । बहाने से मेरे काॅलेज के आसपास मंडराया करते थे । सहेलियां मुझे छेड़ती थीं । मैं कहती कि नहीं जानती ।

– मैं ? ऐसा करता था ?

– और कौन ? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये । मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे । फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी ।

– अरे ऐसे ?

– हां । बिल्कुल । याद नहीं कुछ तुम्हें ?

– फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी ।

-एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी ।

– कितने वर्ष बीत गये । कहां से बोल रही हो ?

– तुम्हारी आत्मा से । जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं । बाॅय । खुश रहा करो । जो बीत गयी सो गयी ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 99 – लघुकथा – पीढ़ी का अंतर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “पीढ़ी का अंतर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 99 ☆

☆ लघुकथा — पीढ़ी का अंतर ☆ 

” भाई ! तुझ में क्या है?  भावों के वर्णन के साथ अंतिम पंक्तियों में चिंतन की उद्वेलना ही तो है, ” लघुकथा की नई पुस्तक ने कहा।

” और तेरे पास क्या है?” पुरानी पुस्तक अपने जर्जर पन्नों को संभालते हुए बोली, ” केवल संवाद के साथ अंत में कसा हुआ तंज ही तो है।”

” हूं! यह तो अपनी-अपनी सोच है।”

तभी, कभी से चुप बैठे लघुकथा के पन्ने ने उन्हें रोकते हुए कहा, ” भाई!  आपस में क्यों झगड़ते हो? यह तो समय, चिंतन और भावों का फेर है। यह हमेशा रहा है और रहेगा।

” बस, अपना नजरिया बदल लो। आखिर हो तो लघुकथा ही ना।”

सुनकर दोनों पुस्तकें विचारमग्न हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-03-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज असहमत का मन साउथ सिविल लाईन की तफ़रीह करने का हो रहा था तो उसने साईकल उठाई और शहर के इस पॉश एरिया की सैर के लिये निकल पड़ा. ये एरिया शहर की छवि को दुरुस्त करता है, सपाट चौड़ी साफ सड़कें, अनुशासित शालीन लोग, अपने कीमती वाहनों से अक्सर यहां आवागमन करते हैं. जबलपुर की पहचान हाईकोर्ट और भव्य रेल्वे प्लेटफार्म से शुरुआत होती है , साउथ सिविल लाईन नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाके की, फिर जब और आगे बढेंगे तो बायें तरफ पुलिस अधीक्षक ऑफिस, इंदिरा मार्केट और दायीं तरफ रेल्वे हॉस्पिटल का क्षेत्र तो किसी तरह आपको एडजस्ट करते रहते हैं पर आगे जाने पर शहर की हवा और नक्शा दोनों बदलने लगते ह़ै.इलाहाबाद बैंक चौक के नाम से विख्यात इस बड़े चौराहे को पार करने के साथ ही साऊथ सिविल लाईन के नाम से पहचाने जाने वाली जगह शुरु हो जाती है. जिले के सारे महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी,पुलिस अधिकारी और कोर्ट के योअर ऑनर्स के विशालकाय बंगलों से सजा है यह क्षेत्र, हालांकि यहां पर मल्टीप्लेक्स स्टोरीज़ भी कॉफी हैं.जबलपुर के सांसद का निवास और सदर क्षेत्र के विधायक भी यंहा के निवासी हैं.

साऊथ सिविल लाईन्स की सैर करते हुये असहमत को अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे थे. यहां का भ्रमण उसे अनूठा आनंद दे रहा था.अधिकांश बंगलों पर अंदर सैर करने की उसकी ख़्वाहिश को रौबदार नेमप्लेट,गेट पर खड़े संतरी और और सायरन लगी गाड़ियां ,कमज़ोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.सपना तो उसका भी था कि इन प्रभावशाली बंगलों में से किसी एक में उसकी भी नेमप्लेट लगे पर उसका प्रारब्ध इस मामले में उससे असहमत था. ये भी कहा जा सकता है कि ईश्वर जब इन पदों को हासिल करने की योग्यता बांट रहे थे तो असहमत इसी बात पर गर्वित था कि शहर की टॉकीज़ों में उसे फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि करेंट बुकिंग की खिड़की से शो की टिकट लेने में उसे महारथ हासिल थी. सरकारी बंगलों में रहने वालों के बारे में उसकी इस धारणा को कोई नहीं बदल पाया कि ” बाहर कुछ भी जल्वा हो पर घर पर हमेशा IG की नहीं बल्कि बाईजी की ही चलती है. बाई जी याने मैडम जिनके लिये IAS, IPS का एग्जाम क्वालिफाई करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है.
सरकारी बंगलों के बाद कुछ प्राइवेट बंगले भी बने थे जिनमें कॉलेज और विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर निवास कर रहे थे. संतरी तो नहीं थे पर कुत्तों से सावधान के बोर्ड लगे थे, कुछ में कुत्ते की फोटो भी थी जिसे देखकर शाम को अपने मालिक /मालकिन के साथ सैर पर निकले कुत्ते भौंकना शुरु कर देते थे. असहमत वैसे तो अपने प्रकृति प्रदत्त गुण के कारण किसी से नहीं डरता था पर कुत्ते उसकी कमजोरी थे. इनको देखकर असहमत के साथ साथ उसकी साईकल की भी धड़कन भी तेज हो जाती है.अचानक एक छोटे बंगले पर उसकी नज़र चिपक गई जिसके गेट पर न तो संतरी था न ही कुत्ते वाली चेतावनी, सिर्फ नेमप्लेट ही चमक रही थी जिस पर लिखा था “प्रोफेसर मनसुख लाल ” उसे याद आ गया कि ये उसके कॉलेज़ के ही इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद इस बंगले को गुलज़ार कर रहे हैं.
प्रोफेसर साहब काफी रसिक मिज़ाज के थे और शहर वाले इन्हें इनके जूली सदृश्य प्रकरण के कारण जबलपुर के प्रोफेसर मटुकनाथ के नाम से जानते थे. इनकी गाइडेंस में रिसर्च कर रहे स्कालर्स में छात्रों से ज्यादा छात्राओं का अनुपात था. हालांकि ये तो बाद में पता चला कि प्रोफेसर साहब गाईड कम मिसगाईड ज्यादा किया करते थे. कुछ की थीसिस तो इन्होने घर बैठे बैठे कंप्लीट करवा दी हालांकि घर कौन सा होगा ये छात्रा नहीं बल्कि प्रोफेसर डिसाइड करते थे. जले भुने और मेहनत करके भी लटकने वाले छात्र इनको प्रोफेसर गूगल कहते थे, जिसका अर्थ उनकी शैली में “हल्दी लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा” होता था.जब असहमत इनके पास पहुंचा तो प्रोफेसर साहब किसी विदुषी से लॉन में बैठकर पाठकों की अज्ञानता और सस्ते, हल्के साहित्य से लगाव और शालीन अभिरुचियों से दूर होते जाने के विषय पर बात कर रहे थे. प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि पता नहीं मोबाइल और लैपटॉप में उलझी इस युवा पीढ़ी की साहित्य के प्रति ये अवहेलना और स्तरहीन दृष्टिकोण देश को किस रसातल में ले जायेगा. पाठक दिनों दिन पथभ्रष्ट होता जा रहा है, टीवी, और सोशलमीडिया से दोस्ती की पींगे मार रहा है.न चरित्र है न ही साहित्य के प्रति लगाव. प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त, दिनकर सही समय में अवतरित हुये तो साहित्य ने उनका मूल्यांकन किया. अब तो हाल ये हो गया है कि खुद ही लिखो और खुद ही पढ़ो. अगर मार्केटिंग की कोशिश की तो लोग उसी तरह से दूर भागते हैं जैसे कोई फ्लॉप mutual fund scheme पकड़ा रहा है. पाठकों को जबसे सस्ता इंटरनेट मिला है, उसकी आदत बिगड़ गई है, उसे हर वस्तु सस्ती या मुफ्त चाहिए.

अभी तक असहमत बैठ जरूर गया था प्रोफेसर साहब की बैठक में, पर उसे किसी ने नोटिस नहीं किया था. वैसे भी प्राध्यापकों की आदत होती है विशेषकर कॉलेज और विश्वविद्यालय वाले, जहाँ पर छात्रों की अटेंडेंस लेने का तो सवाल ही नहीं उठता और कितने आये हैं कितने नहीं इस पर ध्यान दिये बगैर वो जो घर से लेक्चर तैयार करके लाते हैं उसे डिलीवर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं.अगर आप समझ गये तो आप सौभाग्यशाली होते हैं.

पर असहमत तो ऐसा नहीं था कि कोई उसकी मौजूदगी से बेखबर रहे. तो वो बोला और इस बार उसकी आवाज़ में उन बहुत सारे उपेक्षित छात्रों के दर्द भी शामिल थे जिनका रिसर्च वर्क प्रोफेसर साहब के अनुमोदन की राह देखते देखते युवा प्रेमिका से वयोवृद्ध पत्नी बन चुका था.

असहमत : सर,आपको पाठकों से नाराज होना शोभा नहीं देता क्योंकि ये सारे लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं और जब आप इनको इतिहास पढ़ा रहे थे, तो यहां की सारी स्टूडेंट कम्युनिटी आपका इतिहास चटकारे ले लेकर कॉलेज केंटीन में शेयर किया करती थी. जहां तक साहित्य की बात हैं तो वक्त की नब्ज पहचानने वाले कुमार विश्वास, मनोज़ मुंतिजर, चेतन भगत आज के युवाओं के दिलों में बस चुके हैं.

ये सब सुनते ही, प्रोफेसर का रौद्र रूप देखकर असहमत के तोते उड़ गये और इसके पहले कि प्रोफेसर उसे पकड़ पाते वो ऐसी तेज़ गति से भागा जैसे साउथ सिविल लाईन के सारे कुत्ते उसका पीछा कर रहे हैं.??‍♂️??‍♂️??‍♂️

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  सीढ़ियाँ ??

ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज करता है और टिकाये रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ श्रृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, श्रृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कहा-कहानी ☆ लघुकथा – मजबूरी का फायदा ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “मजबूरी का फायदा)

☆ लघुकथा – मजबूरी का फायदा ☆

“क्या हुआ रज्जो मुंह क्यों लटका हुआ है तेरा?” रेशमा ने पूछा।

“वह जो 56 नंबर कोठी वाली बीबी है ना, उसने मुझे काम पर से निकाल दिया।” रज्जो ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा।

“क्यों क्या कहती है?” रेशमा ने फिर पूछा।

“कुछ नहीं, बस कहा कि हमने नई बाई का इंतजाम कर लिया है, तेरी अब जरूरत नहीं, तेरी छुट्टी। ऐसे कैसे?” रज्जो गुस्से से बोली।

“मुझे पहले से ही अंदेशा था”, रेशमा ने कहा, “और मैंने तुझे पहले कहा भी था शायद?”

“क्या कहा था?” रज्जो उसकी तरफ ताकते हुए बोली।

“याद है, जब उन बीवी जी के पहला बच्चा हुआ था, उनकी पहली संतान, तो उन्हें तेरी बड़ी सख्त जरूरत थी। वह नौकरीपेशा थी और अपने पति के साथ अकेली रह रही थी”, रेशमा ने कहा. “और तूने उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर उनसे अपनी पगार दोगुनी करवा ली थी, जबकि बच्चे का कोई भी काम नहीं करना था तुझे। ठीक भी था। उस वक्त वह बच्चा संभालती या नई बाई ढूंढती। बस अब उसको कोई और अच्छी कामवाली मिल गई, तो उसने तेरी छुट्टी कर दी। अगर तू ऐसा ना करती, जैसा तूने किया था, तो शायद…।”

रज्जो चुप थी…।

***  

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है समाज को आईना दिखाती हृदय को झकझोर देने वाली एक विचारणीय कथा  ‘कॉवर्ट इनसेस्ट’।)

 ☆ कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆

एक कमरा। कमरे की खिड़कियां बंद और पर्दे खिंचे हुए। एक मेज पर दो मोमबत्तियां जल रही हैं। तीन युवक तथा एक युवती मेज के चारों ओर चार कुर्सियों पर बैठे हैं। मेज पर एक सफेद ड्राइंग शीट बिछी है। शीट पर आंग्ल वर्णमाला के सभी अक्षर बड़े आकार में अंकित हैं। उस चार्ट के ऊपरी सिरों पर एक तरफ ‘यस’ और दूसरी ओर ‘नो’ लिखा है।

उन युवकों से एक युवक कुर्सी छोड़कर उठ गया। उसके एक हाथ में एक छोटी कटोरी, एक रूपए का एक सिक्का, दूसरे हाथ में एक जलती हुई मोमबत्ती तथा एक अगरबत्ती है। उन्हें लेकर वह कमरे की छत के एक किनारे पर जाकर, मोमबत्ती को मुंडेर पर खड़ा करता है। कटोरी में सिक्का डालकर, सुलगती हुई अगरबत्ती का धुआं कटोरी में घुमाते हुए बुदबुदाता है, ‘‘ओ…इन्नोसेंट सोल! प्लीज कम…।’’ वह, तकरीबन तीन मिनट तक उस वाक्य को दोहराता रहता है। सहसा, मोमबत्ती की लौ लहराने लगती है मानों वायु का तीव्र संचरण हो रहा हो जबकि वस्तुस्थिति में वायु का प्रवाह अति मंद है।

अचानक युवक का बुदबुदाना रूक जाता है। वह चारों वस्तुओं को लेकर कमरे में उतर आता है। मोमबत्ती और अगरबत्ती को टेबल पर लगाकर, कटोरी को ड्राइंगशीट पर उल्टी रख देता है और अपनी एक अंगुली उस पर रख देता है। यह देख, तीनों जने अपनी तर्जनी कटोरी पर रख देते हैं। अब, आव्हानकर्त्ता प्रश्न करता है, ‘‘ए निर्दोष आत्मा! क्या तुम हमारे सवालों का उत्तर देने को तैयार हो?’’ कटोरी सरक कर ‘यस’ पर आ जाती है। वह युवक पूछता है, ‘‘क्या तुम कल होने जा रही हमारी परीक्षा के प्रश्नों के बारे में बता दोगी?’’

कटोरी पहले ‘नो’ की ओर सकरती है फिर ‘यस’ पर लौट आती है। चारों के चेहरे खिल उठते हैं। दूसरा युवक उत्साह में आकर कहता है, ‘‘लेट, टेल द क्वेश्चन्स।’’ कटोरी वर्णमाला के एक एक अक्षर के ऊपर से गुजरती है और वाक्य बनता है, ‘‘आई हेट यू।’’ युवक का चेहरा उतर जाता है। अब, लड़की बोलती है, ‘‘प्लीज, बता दीजिए…।’’ कटोरी फिर से अक्षरों पर घूमती है- ‘‘आई लव यू।’’ युवती पानी पानी हो जाती है। उसे लड़कों की अंगुलियों पर संदेह होने लगता है।

आव्हानकर्त्ता युवक, ‘‘लगता है कोई बेड स्प्रिट आ गयी है।’’ वह छत पर जाकर, उस आत्मा को गुडबॉय कर, पुनः पहले वाली प्रक्रिया दोहराने लगता है। चार मिनट बाद वह फिर से टेबल पर है। फिर से प्रश्न किए जा रहे है किन्तु कटोरी कभी यस पर और कभी नो पर जा रही है। लड़की इसे साथी लड़कों की शरारत समझ रही है। उसका संदेह गहराता जा रहा है। एकाएक, कटोरी चार्ट के अक्षरों पर घूमने लगती है और शब्द बनते हैं- ‘कार्वट इनसेस्ट’। युवती सिहरकर अपनी अंगुली हटा लेती है। तभी लड़कों की अंगुलियों के नीचे से कटोरी छिटककर ड्रांइग शीट के मध्य में पहुचकर सीधी हो जाती है। दोनों मोमबत्तियां भी बुझ गयीं और कमरे में अंधेरा व्याप्त हो गया किन्तु बुझी हुई मोमबत्ती की बत्तियों की मंद होती ललाई से उठती धुंए की लकीरें का कटोरी की ओर जाने का अभास उन चारों को हो रहा है। शनैः शनैः कटोरी के इर्द-गिर्द एक प्रकाशवृत बन गया है और वहां एक छायाकृति उभर आयी- तीन वर्ष की एक बालिका। क्षत-विक्षत शरीर। मिट्टी के एक ढेर पर बैठी, मुट्ठी भर भर कर मिट्टी फांके जा रही है। *

पांच पल के बाद दृश्य परिवर्तित हो जाता है और वहां एक दूसरी आकृति उभरती है। अब, एक किशोरी का अक्स है। शरीर पर अधफटा कुर्त्ता है किन्तु सलवार नदारद है। चेहरा झुलसा हुआ। सामने आग जल रही है और वह लपलपाती हुई ज्वाला में अपने खुले मुंह को डाल रही है मानों उस आग को पी लेना चाहती हो।*

 कुछ देर बाद फिर से परिवर्तन हुआ- अब, एक अधेड़ औरत की छाया है। ब्लॉउज रहित श्वेत वसन में अध लिपटी देह। उसकी साड़ी तथा केश यूं फड़फड़ा रहे हैं मानों सामने से प्रचंड पवन प्रवाहित हो रही हो। वह स्त्री अधलेटी अवस्था में इस प्रकार मुख को खोले हुए थी कि सम्पूर्ण वायु को अपने शरीर में समाहित कर लेना चाहती हो।* कुछ ही पलों बाद चौथी छवि कटोरी के ऊपर उभरती है। एक कृशकाय वृद्धा चित पड़ी हुई अपनी छाती और पेट को पीट पीट कर हाय…पूतो…हाय…पूतो करती जा रही है।*

सहसा, तीव्र धमाके की ध्वनि हुई जैसे कमरे में कोई भारी वस्तु गिर गयी हो। भयाक्रांत युवकों में से एक ने मोबाइल की टॉर्च जलायी। युवती कुर्सी से फर्श पर गिरी हुई थी। उसके झाग भरे मुख से शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- ‘‘कॉर्वट इनसेस्ट…कॉर्वट इनसेस्ट…।’’ *

*पाद टिप्पणी:- कुटुम्बीय व्यभिचार- हवस की शिकार पांच छवि  1.  तीन वर्षीय भतीजी।   2. एक बहन। 3. एक विधवा। 4. एक दादी  5. बाल्यावस्था में कुत्सित छेड़छाड़ की स्मृतियां ताजा हो जाने से सुधबुध खोई युवती।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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