हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बाल दिवस विशेष – लघुकथा – “टिप” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है बाल दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “टिप”)

☆ कथा-कहानी ☆ बाल दिवस विशेष – लघुकथा – “टिप” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

(14 नवंबर को “बाल दिवस” था। इन जैसे “छोकरों” को भी बधाई।)

उन तीनों की होटल आज खूब चली। मालिकों को अच्छी कमाई हुई। देर रात तक होटल में काम करने वाले तीन छोकरे होटल से बाहर अपने घर की ओर निकले। आज की अतिरिक्त थकान को  दिल की खुशी सहला रही थी। और दिल इसलिए खुश था, कि मालिकों का मूड आज अच्छा होने से इन्हें  कुछ टिप् भी मिली।

पहला- “आज सेठ मूड में था, उसने  दस रुपये मुझे  टिप् के दिए।”

दूसरा- “मुझे रुपये तो नहीं, पर सेठ मूड में था, बोला- बचा हुआ खाना घर को ले जा।”

तीसरा- “मेरा सेठ भी आज मूड में था, जैसे  ही गिलास मेरे हाथ से फूटा,  वैसे ही उसने रोज की तरह चाँटा मारा।  मगर आज जरा धोरे से।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बालदिवस विशेष – “कसक…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ बालदिवस विशेष – “कसक…” ☆ श्री कमलेश भारतीय 

वह घर आया और रूठ कर दादी के पास पहुच गया । उसकी बाजू पकड़कर बोला- दादी , फोन पर मेरी पापा से बात करवा दे।

– कयों ?

– दादी , कहां रहता है , मेरा पापा ?

– वो तो काम के लिए दूर रहता है ।

– बुला उसे अभी ।

– कयों ?

– मैं अभी जाॅय के साथ खेल रहा था । उसका पापा आया और हम दोनों को कार में घुमाने ले गया ।

– फिर क्या हुआ ?

– जब मेरे पापा के पास गाड़ी है , तो मैं जाॅय के पापा की गाड़ी में सैर क्यों करूं ?

– बेटे , तेरे पापा नहीं आ सकते ।

– कह दे फिर मैं उनसे बात नहीं करूंगा ।

-नहीं बेटे , ऐसे नहीं कहते ।

– बस फिर, करवा दे मेरी बात । वह अपनी जिद्द पूरी करके ही माना । उसके बाद सपनों में खो गया और पापा की गाड़ी में सैर करने निकल गया ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #126 – “राम जाने” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “राम जाने”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 126 ☆

☆ लघुकथा – राम जाने ☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ

” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-02-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#157 ☆ लघुकथा – ज्ञानदीप… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “ज्ञानदीप…”)

☆  तन्मय साहित्य # 157 ☆

☆ लघुकथा – ज्ञानदीप… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर  मेहरबान क्यों नहीं होती”

दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।

“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”

“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”

“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”

“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”

“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”

“सुनो बिरजू! लछमी मैया को  खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”

“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।

“पढ़ लिखकर चंदू।  सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”

“पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें  बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”

“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है  किताब-कॉपी सब वही देते हैं,  चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”

चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर फेंके  और ज्ञानु की साथ में चल दिए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ??

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” सकारात्मक हो या नकारात्मक, भाग्य का स्वामी हर श्रेय अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम लक्ष्य की दिशा में बढ़ते गए। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुज़ुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।”

फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। हर श्रेय को अपने माथे ढोनेवाले प्रारब्ध के समर्थन में श्रम ने गरदन हिलाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हवा।)

☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लड़कियाँ देहरी पर खड़ी थीं – इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की उलझन में। इधर जाऊँ तो अपमान का डर, उधर जाऊँ तो जान का डर। लड़कियाँ न इधर गईं, न उधर गईं। उन्होंने बुज़ुर्गों से सुना था कि लड़कियाँ हवा से बनी हैं, वे हवा हो गईं। इधर वालों ने उधर वालों से पूछा, उधर वालों ने इधर वालों से पूछा कि कहाँ चली गईं लड़कियाँ? दोनों ने एक-दूसरे से कहा – पता नहीं किधर गईं। इधर वालों ने लड़कियों को भुला दिया, उधर वालों ने भी भुला दिया ; पर अब अक्सर दोनों तरफ़ रात को चीत्कार जैसी सीटियों के साथ हवा की सनसनाहट सुनाई देती थी और सुबह आँगन में हरे पत्ते बिखरे पाए जाते थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 – ग्रहण से मोक्ष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 142 ☆

🌺लघु कथा 🌗ग्रहण से ोक्ष 🌕

नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।

12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।

पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।

आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।

अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।

बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।

बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे।  मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।

पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।

नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

श्री कमलेश भारतीय जी की यह लघुकथा आप एएनवी न्यूज चैनल पर सुश्री मिष्ठी राणा की आवाज में इस लिंक पर क्लिक कर देख-सुन सकते हैं 👉  लघुकथा – “आज के संजय…”

☆ कथा – कहानी   ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय  

सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है । महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं । रथों के घोड़े हिनहिना रहे है । कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं । संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं । महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं । गांधारी भी पास ही बैठी हैं ।

वह एक युग था । तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे । कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय ।
अब युग बदल गया । इन दिनों चुनाव की महाभारत है । महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है । यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती । यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं ! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं । संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था । निष्पक्ष ! निरपेक्ष ! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं । इन्हें तो रोटी रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है । मनभावन शौक पूरे करने हैं । खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है ! जो चुकाये वह पा मनचाहा पा ले ! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते !

ये कैसे संजय हैं ?

ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं ! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं ! आप इन्हें पहचानते हैं

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )

☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए डॉ. कुंवर प्रेमिल 

अखबार में वर वधू  स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।

लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।

दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए।  सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।

तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।

चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।

– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न  देती हो।

पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।

अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #125 – “संस्कार” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “संस्कार”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆

☆ लघुकथा – संस्कार ☆ 

जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”

“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”

“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”

“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़  कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।

“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-05-22

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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