☆ ‘अष्टदीप’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
पुस्तक – ‘अष्टदीप’
लेखक- श्री विश्वास देशपांडे, चाळीसगाव
प्रकाशक – विश्वकर्मा पब्लिकेशन्स
पृष्ठसंख्या – ३०० पाने
पुस्तकाचे मूल्य – ४२५ रुपये
पुस्तक परीक्षण- सुश्री विभावरी कुलकर्णी
अष्टदीप पुस्तकाविषयी
या पुस्तकात भारतरत्न मिळालेल्या आठ व्यक्तींची चरित्रे लेखकाने रेखाटली आहेत. महर्षी कर्वे, जे आर डी टाटा, सर विश्वेश्वरय्या, लता मंगेशकर, लाल बहादूर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी, सरदार पटेल आणि ए पी जे अब्दुल कलाम. या सर्वांच्या जीवनातील प्रेरक प्रसंग आणि त्यांचे कर्तृत्व रसाळ आणि सोप्या भाषेत वर्णन केले आहे. दीपस्तंभाप्रमाणेच ‘ अष्टदीप ‘ हे पुस्तक तरुणाईसाठी प्रेरणास्रोत ठरेल यात शंका नाही.यातील व्यक्ती भिन्न परिस्थितीतून असलेल्या आहेत.पण सर्वांनी काम मात्र देशासाठीच केले.आणि त्या साठी या सर्वांच्या नावा आधी असलेली विशेषणे त्यांचे कार्य सांगून जातात.या सर्वांनीच अतिशय खडतर प्रवास केला आहे.आणि तोच या पुस्तकात वाचायला मिळतो.
निश्चयाचा महामेरू महर्षी धोंडो केशव कर्वे
नाव वाचताच लक्षात येते खूप प्रतिकूल परिस्थितीत अचल महामेरू प्रमाणे ठाम ध्येय डोळ्या समोर ठेवून निश्चयाने काम केले आहे.त्यांचे विधवांचे पुनरुत्थान आणि स्त्री शिक्षण याने जगातील स्त्रियांना वेगळेच स्थान मिळवून दिले आहे.प्रतिकूल परिस्थितीत सुरू झालेली छोटी संस्था आज एका मोठ्या वटवृक्षात रूपांतरीत झाली आहे.आणि कित्येक महिलांचे कल्याण झाले आहे.
द्रष्टा अभियंता सर विश्वेश्वरैया
पाणी, कालवे, बंधारे यावर त्यांनी केलेले संशोधन व प्रयोग आजही उपयुक्त ठरत आहेत. किंवा त्याला पर्यायच नाहीत. त्यांना आधुनिक विश्वकर्मा म्हणतात.
लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
सरदारांनी हिंदुस्थानातील ५६५ अर्धस्वायत्त संस्थानांचे भारतात विलीनीकरण करवून घेणे हे पटेलांचे सर्वात मोठे कार्य होय. मुत्सद्देगिरी व वेळ पडल्यास सैन्यबळ वापरून सरदारांनी संस्थाने भारतात विलीन केली आणि म्हणूनच ते भारताचे लोहपुरुष म्हणून ओळखले जातात. सरदार पटेल हे मुक्त व्यापार व खासगी मालकी हक्कांचे समर्थक होते भारताची एकता आणि अखंडता यांसाठी त्यांनी मोलाचे योगदान दिले. त्यांचा जन्मदिवस भारत सरकारने राष्ट्रीय एकता दिन म्हणून घोषित केला आहे. राष्ट्र उभारणीत त्यांचे योगदान महत्त्वाचे आहे.
द्रष्टा उद्योगपती जे.आर.डी.टाटा
कंपनीतील कामगारांच्या कल्याणासाठी खास योजना राबविण्यात आली. त्यामध्ये ‘दिवसातून आठ तास काम’, ‘मोफत आरोग्यसेवा’, ‘भविष्य निर्वाह निधी’ आणि ‘अपघात विमा योजना’ अश्या पायाभूत गोष्टींचा समावेश करण्यात आला होता. पुढे या योजना भारतीय केंद्र शासनाने सर्व उद्योग-व्यवसायांसाठी कायदेशीर रित्या बंधनकारक केल्या.
टाटांच्या कारकिर्दीत उद्योगसमूहाच्या विस्ताराबरोबरच इतर अनेक संस्था स्थापन झाल्या. भारतात मूलभूत संशोधन व्हावे म्हणून त्यांनी संशोधनसंस्था स्थापण्यात पुढाकार घेतला. आशियातील पहिले कर्करोग रुग्णालय साली मुंबईत सुरू केले
लाल बहादूर शास्त्री
अतिशय साधी रहाणी व देशा साठी केलेले कार्य यांच्या वरील जी भाषणे ऐकतो त्या पेक्षा वेगळी व सखोल माहिती या पुस्तकात मिळते.
अशीच माहिती आठही रत्नांची मिळते.
यातील लता मंगेशकर यांचे छोटी लता ते महान गायिका लता मंगेशकर असा जीवन पट वाचायला मिळतो.आणि सध्या त्यावरील एका सांगीतिक कार्यक्रमाचा आस्वाद पण आपण घेत आहोत.
ठळक वैशिष्ट्ये
आठ भारतरत्न प्राप्त व्यक्तींचा आदर्श हे पुस्तक आपल्या समोर ठेवते.
मूल्यविहीन तडजोड, भ्रष्टाचार इ च्या पार्श्वभूमीवर या भारतरत्न प्राप्त व्यक्तींचे जीवन म्हणजे जणू आपल्यासमोर धरलेला आरसा आहे.
देशासाठी बांधिलकी, त्याग करणे, कठीण परिस्थितीत खचून न जाता तिला धैर्याने तोंड देणे या गोष्टी हे पुस्तक नकळतपणे शिकवून जाते.
मूल्य – 425/- प्रकाशन – जुलै 2022
श्री विश्वास विष्णु देशपांडे
लेखकाविषयी
विश्वास देशपांडे हे लोकप्रिय लेखक असून त्यांची यापूर्वीची पुस्तके वाचकांकडून गौरवण्यात आली आहेत. ललित लेखन हा त्यांचा आवडता प्रांत आहे. सकारात्मक आणि आनंद देणारे लेखन हे त्यांच्या पुस्तकांचे वैशिष्ट्य आहे.
कवडसे सोनेरी अंतरीचे व आकाशझुला ही दोन्ही पुस्तके शासनमान्य पुस्तकांच्या यादीत समाविष्ट झाली आहेत.आणि बेसटसेलर पुस्तकात या पुस्तकांच्या बरोबर अष्टदीप याचाही समावेश आहे.
आत्ता पर्यंत त्यांची सात पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत.आणि नवीन पुस्तके लवकरच प्रकाशित होणार आहेत.
अत्यंत अभ्यासपूर्ण लेखन पण सोप्या सुटसुटीत शब्दात वाचकांच्या समोर आणणे हे लेखन वैशिष्ट्य आहे. त्या मुळे आपल्याच मनातील भावना व्यक्त होत आहेत असे वाटते.लेखकांची निरीक्षण शक्ती पण खूप दांडगी आहे.आणि शांत, गंभीर, सुस्पष्ट आवाजातील निवेदन या मुळे रेडिओ विश्वास वरील कार्यक्रम (आठवड्यातून तीन दिवस प्रसारित होणारे) अतिशय लोकप्रिय झाले आहेत.
एक गोष्ट आवर्जून सांगावीशी वाटते,लेखकांची सर्वच पुस्तके संग्रही ठेवावी व भेट म्हणून द्यावीत.
या पुस्तकाला तितिक्षा इंटरनॅशनल, पुणे यांचा राष्ट्रीय ग्रंथ पुरस्कार, प्रेरणादायी व्यक्तिकथा हा पुरस्कार ६ ऑगस्ट २०२३ रोजी प्राप्त झाला आहे.पुरस्कारासाठी मन:पूर्वक अभिनंदन!
पुढील साहित्य निर्मिती साठी खूप खूप शुभेच्छा!
पुस्तक परीक्षण – सुश्री विभावरी कुलकर्णी
सांगवी, पुणे
मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 198 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।
वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। खामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।
अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ सो! पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए: समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
☆ आलेख ☆ हिन्दी आंदोलन के अग्रदूत कामिल बुल्के ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆
भारत वर्ष साधु संतों की भूमि है। समस्त विश्व में भारतीय संतों की वाणी गूंजती है। संत ईसाई हो अथवा हिन्दू या मुसलमान उसका संदेश मानव जाति के लिए होता है। संत चाहे देशी हो या विदेशी उसका ज्ञान पूरे विश्व के लिए होता है। बाबा कामिल बुल्के जन्म से बेल्जियम और धर्म से ईसाई थे किंतु उनकी आत्मा भारतीय थी।
भारतीय दर्शन में उनकी गहरी रूचि थी और मातृभाषा फलेमिश रहते हुए भी वे आजीवन हिन्दी के प्रति समर्पित रहे। वे अपने आपको विशुद्ध भारतीय मानते थे। उनका हृदय हिन्दी के प्रति समर्पित था। वे हिन्दी पर किसी प्रकार का आक्षेप बर्दाश्त नहीं सकते थे। हिन्दी की रक्त उनके रग-रग में दौड़ती थी। वे जो भी सोचते-विचारते और करते सब हिन्दी में और हिन्दी के अतिरिक्त किसी भी भाषा में नहीं। उनका कहना था कि हिन्दी जन-जन की भाषा है। यह भारतीय जनमानस की भाषा है और पूरे भारत में सभी कार्य व्यवहार में इसका व्यवहार होना चाहिए।
वे एक बार जोर देकर बोले थे- ‘-हिन्दी को रोटी के साथ जोड़ दो।‘ अर्थात् नौकरी उसे ही मिलनी चाहिए जिसे हिन्दी आती हो। वे हिन्दी प्रेमियों को बहुत मानते थे उनसे हिन्दी के संबंध में घंटो तरह-तरह की बातें करते। हिन्दी के प्रति उनके विचार जानने की भलीभांति कोशिश करते लेकिन हां, हिन्दी प्रेमी यदि उनके समक्ष अंग्रेजी में बातें करते या अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते तब वे बिगड़ खड़े होते तथा उसे समझाते हुए कहते ’-तुम हिन्द देश के वासी हो इसलिए तुम्हें हिन्दी में बोलना चाहिए।‘
ज्ञातव्य है कि बाबा बुल्के सर्वत्र अपने भाषणों में कहा करते थे – ’हिन्दी बहुरानी है और अंग्रेजी नौकरानी।‘ किंतु एक बार हिन्दी-अंग्रेजी संबंधी वार्तालाप के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था – ‘कौन सा काम ऐसा है जिसे हिन्दी में नहीं किया जा सकता यदि सभी मिल-जुल कर ईमानदारी से कार्य करें तो प्रातः सूरज के उगने के साथ अंग्रेजी को हरी झंडी दिखाई जा सकती है।’
फादर कामिल बुल्के के मुख्य प्रकाशन
(हिंदी) रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
(हिंदी) मुक्तिदाता, 1972
(हिंदी) नया विधान, 1977
(हिंदी) नीलपक्षी, 1978
(साभार – विकिपीडिया)
मैं कुछ वर्षो तक उनके सानिध्य में रहा और उनके आचार-विचार, क्रिया कलाप को निकट से देखा। सादे वस्त्रों में सरल, सौम्य और सौजन्यपूर्ण बाबा बुल्के सरस्वती के एक विनम्र पुत्र नजर आते थे। रांची शहर के पुरूलिया रोड पर कुतुबमिनार की तरह गगनचुंबी कैथोलिक गिरिजाघर है जिसके ठीक सामने ईसा मसीह की एक विशाल प्रतिमा है जो पुरूलिया रोड पर चलने वाले राहगीरों को आशीर्वाद देती हुई दिखाई देती है। ठीक इसी गिरजाघर के बगल में है – मनेरसा हाउस कैथोलिक संन्यासियों का आश्रम। इसी के एक हिस्से में रहते थे तुलसी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान और हिन्दी संत कामिल बुल्के। वर्षो पूर्व उन्होंने संन्यास ले लिया था और अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया। उनका जन्म बेल्जियम में हुआ था जहां उन्होंने इंजीनियरिंग पढ़ी थी। भला इंजीनियर का साहित्य से क्या लगाव। पर अपने मन कुछ और है विधन के कुछ और। कामिल बुल्के जो इंजीनिरिंग के अध्येता थे और कहां साहित्य के अध्येता हो गये। संभवतः पहले संस्कृत के अध्ययन की और झुके बेंल्जियम से भारत चले आये। संस्कृत के ही एक श्लोक में कहा गया है कि राजा की पूजा अपने देश में ही होती है परंतु विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है। विद्वान के लिए बेल्जियम क्या और भारत क्या। भारत आकर हमेशा हिन्दी आंदोलन में अग्रसर रहे। एक बार मैंने उन्हें उनके निवास स्थान पर एक विदेशी पादरी को जो उनसे अंग्रेजी में बोल रहा था डांटते हुए सुना था ’-तुम इतने दिनों से भारत में रहे हो, तुमने आज तक हिन्दी नही सीखी और अंग्रेजी में बोलते हो, बहुत शर्म की बात है।‘
बाबा को रांची से बेहद प्यार था। वे रांची को अपनी साधना स्थली मानते थे। एक बार मेरे पिता कविवर रामकृष्ण उन्मन से कहा था- ‘मैं भारतीय हूं, हिन्दी मेरी भाषा है और भारत मेरा घर। यही रांची के कब्र्रिस्तान में मेरे लिए थोड़ी सी भूमि सुरक्षित है और मरणोपरांत भी यही रहूंगा।’
जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें गैंगरिन नामक बीमारी ने घेर लिया था। रांची में इलाज के बाद जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई तो उन्हें पटना के कुर्गी अस्पताल में भर्ती कराया गया जिन्हें देखने के लिए मैं अपने पिता के साथ उस अस्पताल में गया था। अस्पताल के बिस्तर में भी उन्हें इस बात की चिंता थी कि उन्हें अगर कुछ समय की मोहलत मिल जाती तो वे शायद हिन्दी के लिए कुछ और कर जाते। 17 अगस्त 1982 को उनका निधन नई दिल्ली में हो गया। यहां तक कि उनका अंतिम संस्कार भी नई दिल्ली में किया गया। शव को रांची लाने को लेकर मेरे पिता फादर पी पोनेट से मिले और उनकी अंतिम इच्छा बतायी लेकिन मिशन ने शव का अंतिम संस्कार नई दिल्ली के निकोल्सन कब्रिस्तान में करने का निर्णय लिया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- 30 अगस्त 2023 को सम्पन्न हुई। हम शीघ्र ही आपको अगली साधना की जानकारी देने का प्रयास करेंगे।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साधो, ये मुर्दों का गांव ..!!“।)
अभी अभी # 142 ⇒ साधो, ये मुर्दों का गांव ..!! श्री प्रदीप शर्मा
ना इंसान की, ना भगवान की, ना जमीन की ना आसमान की, ये तो दास्तां है एक अलग ही संसार की। ये सच है या झूठ, अफसाना है या हकीकत, थोड़ी ज़मीनी थोड़ी आसमानी, ये है, तेरी, मेरी, उसकी कहानी।
मैं भूत प्रेत से नहीं डरता, फिर भी डर का भूत मेरे अंदर ही मौजूद रहता है, मुझे डराने के लिए वैसे सांप बिच्छू ही काफी है।
होते हैं कुछ अति व्यस्त लोग, जिन पर हमेशा काम का भूत सवार रहता है, और जिन फुरसती लोगों पर एक बार प्यार का भूत सवार हो जाता है, तो जिंदगी भर नहीं उतरता। जो हमेशा आतंक के साये में जिंदगी गुजारते हैं, डर का भूत कभी उनका पीछा नहीं छोड़ता। ।
जीव, आत्मा और परमात्मा का खेल ही यह संसार है। जीवात्मा और परमात्मा के बीच कहीं आत्मा का भी निवास होता है। जब किसी सीधी सादी आत्मा को दुष्टात्माओं द्वारा इस जीवन में ज्यादा परेशान किया जाता है, तो मरने के बाद वे प्रेत योनि में जाकर प्रेतात्मा बन जाती है। कहते हैं, भूत प्रेत हमेशा साथ साथ किसी इमली के पेड़ पर अथवा किसी खंडहरनुमा हवेली में निवास करते हैं। गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई।
हमने तो डायन भी नहीं देखी। जिस इंसान का रोज महंगाई डायन से वास्ता पड़ता हो, उसे क्या कोई डायन डराएगी। चुड़ैल शब्द सुनने में अच्छा लगता है। कोई नहीं जानता यह चुड़ैल कोई सास है या बहू ! वैसे बदमिजाज, चिड़चिड़ी और हमेशा गुस्सा करने वाली महिलाओं को अगर चुड़ैल कहा जाए तो गलत भी नहीं।
बहना कुछ मर्द भी राक्छस से कम नहीं होते। ।
शैतानी करने से कोई बच्चा वास्तविक रूप में शैतान नहीं बन जाता। जब इंसान में ही साधु और शैतान का फर्क मिट जाए, तो शक, शंका, भय और आतंक के माहौल में इंसानियत कहां तलाशी जाए। आज कहां है किसी के होठों पर सचाई, और दिल में भलाई !
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – “सफल सोम अभियान”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 182 ☆
☆ संतोष के दोहे – “सफल सोम अभियान” ☆ श्री संतोष नेमा ☆