श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – लघुकथा – आदत 

….. पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

…. हाँ बेटा ठीक है…., ढीले स्वर में कहकर मनोहर जी बेडटेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे।  गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती।  टोकती,…. इतनी चाय मत पीया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी।  आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज्यादा बार चाय।

पैतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गए पैंतालीस दिन भी नहीं हुये थे कि ….! …. तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया।  जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी से लगी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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Rita Singh

आज यही सच्चाई है।कल तक जो घर के बड़े बुजुर्ग थे वे आज बेटे – बहू के आगे मजबूर हैं।

अलका अग्रवाल

समय का पहिया घूमते ही मनुष्य बेचारगी का जीवन जीने पर मजबूर हो जाता है।??

वीनु जमुआर

… अधिकतर बुजुर्गों की आत्मकथा… बेहद मार्मिक स्थिति!