हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 3 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 3 से आगे …

8- फिर हुआ बिजली का आविष्कार।

9- बिजली ने आदमी का जीवन ही बदल दिया।

10- बिजली से घरों में लट्टू जलने लगे।

1- फिर धरती से पानी खींचने वाली मोटर बनी और बिजली से चलाई जाने लगी।

2- पानी से बनी बिजली।

3- बिजली ने चलाई मोटर।

4- मोटर और पंप से शुरू हुआ बोरवेल।

5- धरती के गर्भ में उतरकर बोरवेल टटोलने लगा पानी।

6- हजारों लीटर पानी धरती से बाहर लाया जाने लगा।

7- आदमी बौरा गया।

8- आदमी खींचने लगा पानी।

9- आदमी फेंकने लगा।

10- पानी बेचने लगा पानी।

समवेत- आदमी खींचने लगा पानी…आदमी फेंकने लगा पानी…आदमी बेचने लगा पानी। ( कुछ पात्र खींचने, फेंकने, बेचने को मूक अभिनय द्वारा दर्शाएँगे।)

1- आदमी का लालच बढ़ा।

2- पहले जिसके पास जो उपलब्ध था, उससे उसका गुजारा हो जाता था। समाज में बार्टर पद्धति चलन में थी।

3- बार्टर याने क्या?

4- याने वस्तु विनिमय, अदल-बदल या प्रतिदान।

5- किसी के पास बाजरा था, किसी के पास चावल।

6- थोड़ा बाजरा देकर पहला चावल ले लेता। थोड़े चावल से दूसरा बाजरा पा जाता।

7- प्रकृति की सोच के केंद्र में आदमी था। आदमी की सोच के केंद्र में पैसा पैर जमाने लगा।

8- पहले परती खेती थी। आधा खेत जोता जाता, आधा परती या बिना उपयोग के रखा जाता।

9- अगले साल परती वाला भाग जोता जाता, दूसरा खाली रखा जाता।

10- अब दोनों भाग जोते जाने लगे।

1- आदमी की लिप्सा और बढ़ी।

2- पहले खाद के लिए वह गोबर इस्तेमाल करता था। सूखे पत्ते इस्तेमाल करता था।

3- टहनियाँ उपयोग में लाता था प्राकृतिक अपशिष्ट उपयोग में लाता था।

4- अब वह धरती की कोख में उतारने लगा जहर।

5- जहर घातक रासायनिक खाद का।

6- इस जहर से मिट्टी में रहने वाले कीड़े-मकोड़े मरने लगे।

7- इस जहर से मरने लगे फसल के लिए लाभदायक केंचुए और बैक्टीरिया।

समवेत- वह धरती की कोख में उतारने लगा जहर… जहर घातक रासायनिक खाद का… इस जहर से मिट्टी में रहने वाले कीड़े-मकोड़े मरने लगे…इस जहर से फसल के लिए लाभदायी केंचुए और बैक्टीरिया मरने लगे। (कुछ कुछ पात्र इन वाक्यों पर मूक अभिनय करेंगे।)

8- घातक रसायन भूजल में मिलने लगा।

9- पानी दूषित होने लगा।

10- आदमी तब भी न संभला, न रुका।

1- पहले उद्योग कुटीर थे।

2- पहले उद्योग पर्यावरण स्नेही थे।

3-  कलपुर्जे हाथ से बनाए जाते थे।

4- कलपुर्जे हाथ से चलाए जाते थे।

5- अब मशीनें कलपुर्जे बनाने लगीं।

6- अब बिजली कलपुर्जे चलाने लगी।

7-  औद्योगिक अपशिष्ट बड़ी मात्रा में निकलने लगा।

8- लालची आदमी कोई प्रक्रिया किए बिना इसे सीधे नदियों में बहने लगा।

9-  बहता पानी रुकने लगा, सड़ने लगा।

10- मछलियाँ  और जलचर मरने लगे।

1-  आदमी का जीवन थमने लगा।

2-  दूषित जल से आदमी बीमार पड़ने लगा।

समवेत- बहता पानी रुकने लगा…सड़ने लगा… मछलियाँ और जलचर मरने लगे…आदमी का जीवन थमने लगा…दूषित जल से आदमी बीमार पड़ने लगा।

 

क्रमशः  —— 4

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 2 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 1 से आगे …

9- (चक्रवाले लड़के से)- तुम कौन हो? हम सबको यह क्या दिखा रहे हो?

10-  मैं समय हूँ। 50 वर्ष आगे की तस्वीरें दिखा रहा हूँ। तस्वीर समाप्त होते जल की, तस्वीर अंत की ओर बढ़ते कल की।

1- अंत की ओर बढ़ता कल?

10- हाँ, जब नहीं होगा जल तब कैसे बचेगा कल?

2- क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं? क्या कोई हल नहीं इसका।

10- सही उत्तर पाने के लिए पहले प्रश्न को समझना जरूरी होता है।

3- मतलब?

10- मतलब यह कि पहले समझना होगा कि यह समस्या क्यों जन्मी? समस्या की जड़ तक पहुँचेंगे कभी हल की कुंजी मिलेगी।

4- समय, क्या तुम बता सकते हो कि यह समस्या क्यों जन्मी?

10- मेरे पूर्वज बताते हैं, एक समय था जब हर तरफ हरियाली थी। पृथ्वी मानो बादलों से ढकी थी। पहाड़ों पर बादलों से धाराएँ उतरती थीं। झरने धाराप्रवाह बहते थे। नदियाँ उफान मारती थीं। छोटे-बड़े प्राकृतिक जलाशय पानी भरकर रखने के लिए धरती के बारहमासी बर्तन थे।

(दो-तीन पात्र समवेत स्वर में दोहराएँगे- हर तरफ हरियाली थी…पृथ्वी मानो बादलों से ढकी थी…पहाड़ों पर बादलों से धाराएँ उतरती थीं… …झरने धाराप्रवाह बहते थे… नदियाँ उछाल मारती थीं…छोटे बड़े प्राकृतिक जलाशय पानी भरकर रखने के लिए धरती के लिए बारहमासी बर्तन का काम करते थे…)

(शेष पात्र इन वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा दर्शाए दर्शाएँगे।)

5- फिर क्या हुआ?

10- यह मानव के आदिम रूप की अंतिम सदी थी। आदमी अब एक जगह टिकने लगा था। उसका परिवार पनपने लगा था।

6- उसे लगा परिवार का पेट पालने के लिए खेती करनी चाहिए।

7- खेती के लिए चाहिए था पानी।

8- उसने तलाशी नदियाँ।

9- नदियों के आसपास चुनी जगह। उठाया कुदाल, चलाया हल, सपाट की माटी, सपाट की माटी, शुरू की खेती।

समवेत- उठाया कुदाल…चलाया हल… सपाट की माटी…बोये बीज…शुरू की खेती।

(कुछ पात्र इन वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा प्रदर्शित करेंगे।)

10- पर हर एक इतना भाग्यवान नहीं था। कुछ को वहाँ खेती करनी पड़ी जहाँआसपास नदी नहीं थी।

1- आदमी ने बुद्धि का प्रयोग किया। विचार किया कि बारिश का पानी मिट्टी में समाता है। इसका मतलब है कि धरती में पानी होता है।

2- धरती से पानी हासिल करने के लिए उसने खुदाई शुरू की। कुएँ खोदे।

समवेत- उसने खुदाई शुरू की…कुएँ खोदे।

(मूक अभिनय द्वारा कुछ पात्र दृश्य उपस्थित करते हैं।)

3- फिर क्या हुआ?

4- कुएँ से भूजल खींचकर उसने फसलों की सिंचाई शुरू की। उसके खेत हरे हो गए।

5- फसल लहलहाने लगीं। खेतों में दाने झूमने लगे। दाने खाने के लिए पंछी आने लगे।

समवेत- फसल लहलहाने लगीं…खेतों में दाने झूमने लगे…दाने खाने के लिए पंछी आने लगे।  (मूक अभिनय द्वारा दृश्य के निर्मिति कुछ पात्र करेंगे।)

6- अब गाँव तेजी से बसने लगे। गाँव में मोहल्ले बनने लगे। हर मोहल्ले का अपना कुआँ होने लगा।

7- पानी का उपयोग बढ़ा। आदमी रस्सी और बाल्टी की मदद से खींचकर घर में भरकर रखने लगा पानी।

8- फिर हुआ बिजली का आविष्कार।

9- बिजली ने आदमी का जीवन ही बदल दिया।

क्रमशः  —— 3

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 1 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

(पथ के एक ओर से समूह का गाते बजाते नाचते आना। ‘…घनन घनन घिर घिर आए बदरा। घन घनघोर छाये बदरा।’  दो या तीन पात्र गा रहे हैं। संभव हो तो एक या दो पात्र वाद्य बजाएँ। शेष बारिश में भीगने का अभिनय कर रहे हैं।)

(एकाएक समूह का एक पात्र आगे आता है। वह तेजी से चक्र घुमाने का अभिनय करता है। गायन, वादन, नृत्य करते सभी पात्र अपने स्थान पर स्थिर मुद्रा में खड़े हो जाते हैं।)

(अब हर पात्र अलग-अलग भूमिका निभाना आरंभ करेगा।)

1-अखबार विक्रेता- आज की ताज़ा ख़बर,  आज की ताज़ा ख़बर। शहर में पानी की बोतलों की चोरी बढ़ी। पानी की चोरी बढ़ी।

2-भोर समाचार- भोर समाचार- अब घर में भी सुरक्षित नहीं पानी की बोतल। घर में भी सुरक्षित नहीं पानी।

3- समाचारवाचक- नमस्कार। प्रस्तुत हैं शहर में घटी मुख्य घटनाएँ। शहर के पश्चिमी भाग से कल देर रात पानी की 17 बोतलें चोरी हो गईं। एक रोज पहले ही दक्षिणी भाग से 19 बोतलें चोरी हुई थी। सूत्रों के अनुसार सप्ताह भर में शहर से पानी की कुल 216 बोतलें चोरी हुई हैं। इन घटनाओं को लेकर आम जनता में भारी रोष है।

4- क्रॉनिकल न्यूज़- बड़ी खबरें- शहर में पेयजल को लेकर दो गुटों ने जमकर बवाल काटा। हुआ यूँ  कि पानी की सरकारी दुकान में पानी की केवल 7 बोतलें बची थीं। दोनों पक्षों का कहना था कि दुकान पर पहले वे पहुँचे थे, इसलिए पानी उनको मिलना चाहिए।

5- अरे सुनती हो, अखबार में लिखा है कि कल पड़ोस की कॉलोनी में जरूरत से ज्यादा पानी संग्रह करने के आरोप में पानी इंस्पेक्टर ने 4 घरों का चालान काटा है। हमारे पास अतिरिक्त पानी तो नहीं है ना?

6- वृद्ध क्र.-1क्या जमाना आ गया है! हमारे समय में भुखमरी से किसी का मरना तो सुनते थे,अब तो ‘प्यासमरी’ से लोग मर रहे हैं।

7- वृद्ध क्रमांक 2-  रोटी नहीं होने पर पानी पीकर कुछ वक्त गुजारा हो जाता था, अब तो पानी भी मयस्सर नहीं।

8- इंटरनेट समाचार- पानी की तस्करी कर रहे गिरोह के एक टेंपो को कल इलाके के लोगों ने धर दबोचा। टेंपो में 20 लीटर क्षमता वाले पानी से भरे तीन कैन मिले। पुलिस के पहुँचने से पहले 2 कैन का पानी भीड़ ने लूट लिया था। छीना-झपटी में तीसरा कैन फट गया जिससे उसमें रखा पानी बहकर बर्बाद हो गया। बाजार में इस पानी का मूल्य लगभग साठ हज़ार रुपये है।

9- (चक्रवाले लड़के से)- तुम कौन हो? हम सबको यह क्या दिखा रहे हो?

10-  मैं समय हूँ। 50 वर्ष आगे की तस्वीरें दिखा रहा हूँ। तस्वीर समाप्त होते जल की, तस्वीर अंत की ओर बढ़ते कल की।

क्रमशः  —— 2

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 – पृथ्वीराज कपूर ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूरपर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूर ☆ 

पृथ्वीराज कपूर (3 नवंबर 1906 – 29 मई 1972) हिंदी सिनेमा जगत एवं भारतीय रंगमंच के प्रमुख स्तंभों में गिने जाते हैं। पृथ्वीराज ने बतौर अभिनेता मूक फ़िल्मो से अपना करियर शुरू किया। उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक होने का भी गौरव हासिल है। पृथ्वीराज ने सन् 1944 में मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की, जो देश भर में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करता था। इन्हीं से कपूर ख़ानदान की भी शुरुआत भारतीय सिनेमा जगत में होती है।

ब्रिटिश भारत के खैबर पख्तूनख्वा, (वर्तमान पाकिस्तान) के पेशावर में एक गली में क़िस्सा ख्वानी बाज़ार था, जहाँ दोपहर से रात दस बजे तक गप्पों का लम्बा दौर चलता था जिसमें ज़ुबान के फ़नकार  और याददाश्त के धनी क़िस्साग़ो मौजूदा लोगों को रामायण-महाभारत, अरेबियन-नाइट, ब्रितानी-रानी और ईरानी-बादशाहों के साथ दिल्ली और लाहौर के क़िस्से मसाला लगाकर  सुनाया करते थे।

उस गली से थोड़ी दूर पर दो दोस्तों के मकान थे, एक घर लाला ग़ुलाम सरवार और दूसरा घर दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर का था। दोनों दोस्त फलों के बाग़ानों के मालिक और भरपूर परिवार के मुखिया थे। लाला ग़ुलाम सरवार के चार बच्चे थे, असलम खान, नासिर ख़ान, यूसुफ़ खान, एहसान खान।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को समुंद्री, समुंद्री तहसील, लायलपुर जिला, पंजाब के खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, बागेश्वरनाथ कपूर, पेशावर शहर में भारतीय इंपीरियल पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करते थे जबकि उनके दादा केशवमल कपूर समुंद्री में एक तहसीलदार थे। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और अभिनेता अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर पृथ्वीराज कपूर के चचेरे भाई थे।

दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर के दो बच्‍चे त्रिलोक कपूर और पृथ्वीराज कपूर के अलावा पृथ्वीराज कपूर की जल्दी शादी हो जाने  से उनके बच्चे राज कपूर, शशि कपूर, शम्मी कपूर, उर्मिला कपूर और सिआल कपूर, सब हम उम्र थे। क़िस्सा वाली गली में क़िस्सा-कहानी सुनने जमे रहते थे, उनमें यूसुफ़ और राज सबसे आगे बैठते थे, एक आज़ाद भारत का अदाकारी सम्राट और दूसरा सबसे बड़ा क़िस्सागो “शो मेन” बनने वाला था।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवम्बर 1906 को समुंद्री, फैसलाबाद, पंजाब (ब्रिटिश भारत), अब पाकिस्तान का पंजाब में हुआ था। वे ख्याति नाम फ़िल्म अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, लेखक थे। जब वे 17 साल के तब उनका विवाह 19 वर्षीय  रामसरनी मेहरा (1923–1972)  से हुआ और राजकपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर उनके सुपुत्र थे। पृथ्वीराज कपूर को कला क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1972 में उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

पृथ्वीराज ने पेशावर पाकिस्तान के एडवर्ड कालेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक साल तक कानून की शिक्षा भी प्राप्त की जिसके बाद उनका थियेटर की दुनिया में प्रवेश हुआ। 1928 में उनका मुंबई आगमन हुआ। कुछ एक मूक फ़िल्मों में काम करने के बाद उन्होंने भारत की पहली बोलनेवाली फ़िल्म आलम आरा में मुख्य भूमिका निभाई।

पृथ्वीराज लायलपुर और पेशावर में थियेटर में अभिनय करते थे। वे अपनी चाची से क़र्ज़ लेकर 1928 बम्बई आकर इम्पीरीयल फ़िल्म कम्पनी में नौकरी करने लगे जहाँ उन्होंने “दो धारी तलवार” मूक फ़िल्म में एक्स्ट्रा की भूमिका की, जिससे प्रभावित होकर उन्हें 1929 में “सिनेमा गर्ल” में मुख्य भूमिका मिल गई। उन्होंने कुल 9 मूक फ़िल्मों में काम किया जिनमे शेर ए अरब और प्रिन्स विजय कुमार धसमिल थीं। फिर उन्हें पहली सवाक् फ़िल्म आलमआरा में काम करने का मौक़ा मिला।

आलमआरा (विश्व की रौशनी) 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई (तब बंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था। यह पहली भारतीय सवाक इतनी लोकप्रिय हुई कि “पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए सहायता बुलानी पड़ी थी”। मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर मुख्य कलाकार थे।

1937 में पृथ्वीराज की फ़िल्म विद्यापति आई जो एक  बंगाली बायोपिक फिल्म है, जिसे देबकी बोस ने न्यू थियेटर्स के लिए निर्देशित किया है।  इसमें विद्यापति के रूप में पहाड़ी सान्याल ने अभिनय किया। फ़िल्म में उनके साथ कानन देवी, पृथ्वीराज कपूर, छाया देवी, लीला देसाई, के. सी. डे  और केदार शर्मा थे। संगीत आर. सी. बोरल का था और गीत केदार शर्मा ने लिखे थे। देबकी बोस और काजी नजरूल इस्लाम ने कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। कहानी मैथिली कवि और वैष्णव संत विद्यापति के बारे में है। फिल्म के गीत लोकप्रिय हो गए। इसने सिनेमाघरों में 1937 की बड़ी सफलता हासिल करने वाली भीड़ को सुनिश्चित किया।

उन दिनों की फिल्मों में नायिका-केंद्रित होने का चलन था और हालांकि इस फिल्म को विद्यापति कहा जाता था, लेकिन फिल्म की मुख्य कलाकार कानन देवी थीं। एक मजबूत स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का मुख्य प्रदर्शन उनका मुख्य प्रदर्शन बन गया।

पृथ्वीराज कपूर के प्रदर्शन को फिल्मइंडिया के संपादक बाबूराव पटेल ने उच्च दर्जा दिया, जबकि “नवागंतुक” मोहम्मद इशाक की भी सराहना की। उन्होंने देबकी बोस के निर्देशन को “कला की बेहतरीन कविता” और बोस को “वास्तव में एक महान निर्देशक” कहा।

इस फिल्म का उपयोग गुरुदत्त ने अपनी फिल्म कागज़ के फूल (1959) में थिएटर युग की बालकनी में फ़िल्म के किरदार सुरेश को श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया, जहाँ विद्यापति को दर्शकों द्वारा देखा जा रहा है।

संगीत निर्देशक आर. सी. बोराल ने अपने संगीत निर्देशन में पियानो का उपयोग करके पश्चिमी प्रभाव में लाए।  यह प्रभाव लोकप्रिय होने के साथ-साथ क्लासिक धुनों में भी सफल रहा और गीतों को काफी सराहा गया। अनुराधा की भूमिका जिसे कानन देवी ने अधिनियमित किया था, उसे नाज़रुल इस्लाम ने बनाया था। उनके गीत “मोर अंगना में आयी आली” और के. सी डे के साथ उनके युगल गीतों ने उन्हें न्यू थियेटर्स में के. एल. सहगल के साथ शीर्ष महिला गायन स्टार बना दिया। केदार शर्मा ने अपने और देबकी बोस के बीच मतभेदों के बाद न्यू थियेटर्स को छोड़ दिया।

पृथ्वीराजकी 1941 में एक बहुत बेहतरीन फ़िल्म “सिकंदर” आई, जिसके निर्देशक सोहराब मोदी थे। इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर महान का किरदार निभाया है।

कहानी 326 ई.पू. फिल्म सिकंदर महान के फारस और काबुल घाटी पर विजय के बाद  भारतीय अभियान से शुरू होती है, सिकंदर की सेना  झेलम में भारतीय सीमा तक पहुंचती है। वह अरस्तू का सम्मान करता है और फारसी रुखसाना से प्यार करता है। सोहराब मोदी भारतीय राजा पुरु (यूनानियों के लिए पोरस) की भूमिका में हैं। पुरु पड़ोसी राज्यों से एक सामान्य विदेशी दुश्मन के खिलाफ एकजुट होने का अनुरोध करता है। विश्वासघाती आम्भी राजा की भूमिका में के.एन.सिंग थे।

जब सिकंदर ने पोरस को हराया और उसे कैद किया, तो उसने पोरस से पूछा कि उसका इलाज कैसे किया जाएगा। पोरस ने उत्तर दिया: “जिस तरह एक राजा दूसरे राजा द्वारा व्यवहार किया जाता है”। सिकंदर उनके जवाब से प्रभावित हुए और उन्हें आज़ाद कर दिया। पृथ्वीराज  और सोहराब मोदी के लम्बे-लम्बे संवाद फ़िल्म की जान थे। बाद में एक फ़िल्म “सिकंदरे आज़म भी बनी थी जिसमें दारासिंह सिकंदर और पृथ्वीराज राजा पोरस बने थे।

पृथ्वीराज को थियेटर का बचपन से शौक़ था। बम्बई में सोहराब मोदी पारसी थियेटर से जुड़े थे। उनकी संवाद अदायगी और भूमिका निर्वाह में थियेटर की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पृथ्वीराज को भी थियेटर की ललक जागी तो उन्होंने बम्बई की एंडरसन थियेटर कम्पनी में शौक़िया जाना शुरू किया। उन्हें नियमित रूप से नाटकों में भूमिका मिलने लगी। एंडरसन थियेटर कम्पनी इंग्लिश-यूरोपियन थियेटर के शेक्सपियर के नाटकों  प्रभावित था। पृथ्वीराज नाटकों और फ़िल्मों के मंजे हुए कलाकार के रूप में उभरने लगे। पृथ्वीराज पर थियेटर का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने 1944 में बम्बई में पृथ्वी थियेटर स्थापित कर दिया हालाँकि वे 1942 से कालिदास का अभिज्ञान शकुन्तलम नाटक प्रस्तुति कर रहे थे।

पृथ्वीराज 1946 तक अपने भरे पूरे परिवार के एकमात्र कमाने वाले मुखिया थे। जब राजकपूर फ़िल्मों में काम करने लगे और आग फ़िल्म से निर्माता-निर्देशक के रूप में उभरने लग गए तो पृथ्वीराज पूरी तरह थियेटर को समर्पित हो गए।

उन्होंने आज़ादी की थीम पर पूरे देश में घूमकर नाटक मंचन करना शुरू कर दिया। उन्होंने दो सालों में 2662 नाटक मंचित किए। उनका एक बहुत प्रसिद्ध नाटक पठान था जो हिंदू मुस्लिम एकता ओर केंद्रित था, जिसे बम्बई में 600 बार मंचित किया। उनके थिएटर ग्रुप में 80 कलाकार थे। 1950 तक फ़िल्मे अधिक बनने लगीं और छोटे शहरों में भी टाक़ीज खुलने से घुमंतू थिएटर का ज़माना लदने लगा। उनके ग्रुप के अधिकांश कलाकार भी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए तब उन्होंने भी 1951 से राजकपूर की फ़िल्म आवारा से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। पृथ्वी थिएटर बम्बई में काम करता रहा। वे फ़िल्मों से जितना भी कमाते थियेटर में लगा देते थे।

उन्होंने 1960 में मुग़ल-ए-आज़म, 1963 में हरीशचंद्र तारामती, 1965 में सिकंदर-ए-आज़म और 1971 में कल आज और कल में काम किया था।

उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों नानक नाम जहाज़ है (1969) नानक दुखिया सब संसार (1970) और मेले मित्तरां दे (1972) में भी काम किया था।

उन्हें 1954 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1969 में पद्म भूषण पुरस्कार और 1971 में दादा साहिब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया  गया था। वे 9 सालों तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे।

वे उनकी पत्नी दोनों कैंसर से पीड़ित होकर आठ दिनों के अंतर से स्वर्ग सिधार गए, पृथ्वीराज की मृत्यु 29 मई 1972 को बम्बई में हुई थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 – अशोक कुमार ….2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 ☆ 

अपने समय में (1940 के बाद के वर्षों में) अशोक कुमार का क्रेज़ ऐसा था कि वे कभी-कभार ही घर से निकलते थे और जब भी निकलते तो भारी भीड़ जमा हो जाती और ट्रैफिक रुक जाता था. भीड़ दूर करने के लिए कभी-कभी पुलिस को लाठियां चलानी पड़ती थीं. रॉयल फैमिलीज़ और बड़े घरानों की महिलाएं उन पर फिदा थीं और लाइन मारती थीं.

अशोक कुमार को 1943 मे बांबे टाकीज की एक अन्य फ़िल्म किस्मत में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक छवि से बाहर निकल कर अपनी एक अलग छवि बनाई। इस फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका की और अपनी इस भूमिका के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे। किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार चलने का रिकार्ड बनाया।

बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय की मौत के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियों चले गए। वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले मशाल, जिद्दी और मजबूर जैसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया। उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था।

पचास के दशक मे बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की और जूपिटर थिएटर को भी खरीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहली फ़िल्म समाज का निर्माण किया, लेकिन यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह असफल रही। इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फ़िल्म परिणीता भी बनाई। लगभग तीन वर्ष के बाद फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। 1953 मे प्रदर्शित फ़िल्म परिणीता के निर्माण के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन हो गई थी। जिसके कारण उन्होंने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया, लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमल रॉय के साथ 1963 मे प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी मे काम किया । यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में आज भी क्लासिक फ़िल्मों में शुमार की जाती है। 1967 मे प्रदर्शित फ़िल्म ज्वैलथीफ में अशोक कुमार के अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला। इस फ़िल्म में वह अपने सिने कैरियर मे पहली बार खलनायक की भूमिका मे दिखाई दिए। इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। अभिनय मे आई एकरुपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इनमें 1968 मे प्रदर्शित फ़िल्म आर्शीवाद खास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म में बेमिसाल अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म मे उनका गाया गाना रेल गाड़ी-रेल गाड़ी बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ।

1984 मे दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप ओपेरा हमलोग में वह सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिए और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। दूरदर्शन के लिए ही दादामुनि ने भीमभवानी, बहादुर शाह जफर और उजाले की ओर जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया।

अशोक कुमार को दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया। पहली बार राखी 1962 और दूसरी बार आर्शीवाद 1968, इसके अलावा 1966 मे प्रदर्शित फ़िल्म अफसाना के लिए वह सहायक अभिनेता के फ़िल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजे गए। दादामुनि को हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ठ सहयोग के लिए 1988 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 1999 में पद्म भूषण और 2001 में  उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अवध सम्मान प्रदान किया गया। अशोक कुमार भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख अभिनेता रहे हैं। प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार भी आपके ही सगे भाई थे। लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार का निधन 10 दिसम्बर 2001 को हुआ।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 4 – अशोक कुमार ….1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 4 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 ☆ 

अशोक कुमार (1911-2001) हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता थे। हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में दादा मुनि के नाम से मशहूर अशोक कुमार उर्फ़ कुमुद लाल गांगुली का जन्म एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 13 अक्टूबर 1911 को हुआ था। इनके पिता कुंजलाल गांगुली पेशे से वकील थे। उनके तीन पुत्र कुमुद ( अशोक कुमार), आभास (किशोर कुमार) और कल्याण (अनूप कुमार) एवं एक पुत्री सती देवी थी। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की, बाद मे स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की लेकिन क़ानून की परीक्षा में फ़ेल हो गए तो बहन के पास बम्बई पहुँच गए। उनका विवाह बंगाली लड़की शोभा से कलकत्ता में हुआ था। इस दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई। भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों मे काम करके शोहरत की बुंलदियो पर पहुंचने की चाहत थी, लेकिन वह अभिनेता नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहते थे। अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी, जो उस समय  बांबे टॉकीज में काम कर रहे थे। सन 1934 मे न्यू थिएटर कलकत्ता मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने पास बुला लिया।

जीवन नैया’ की शूटिंग के दौरान हिमांशु राय की बीवी यानी फिल्म की हीरोइन देविका रानी हीरो नजमुल हसन के साथ भाग गईं. बाद में दोनों में झगड़ा हो गया तो लौट आईं. राय ने अशोक कुमार से हीरो बनने के लिए कहा. लेकिन वे नहीं माने. बहुत समझाया और राय ने कहा कि वे ही उन्हें इस मुसीबत से निकाल सकते हैं. उन्हें यकीन दिलाया कि उनके यहां अच्छे परिवारों वाले, शिक्षित लोग ही एक्टर होते हैं तब अशोक माने और ये उनकी डेब्यू फिल्म साबित हुई.

जब अशोक हीरो बने तो उनके घर खंडवा में कोलाहल मच गया. उनकी तय शादी टूट गई. मां रोने लगीं. उनके पिता नागपुर गए. वहां अपने कॉलेज के दोस्त रवि शंकर शुक्ला से मिले जो तब मुख्य मंत्री थे. उन्होंने स्थिति बताई और अपने बेटे को कोई नौकरी देने की बात कही. शुक्ला ने दो नौकरियों के ऑफर लेटर दिए. एक था आय कर विभाग के अध्यक्ष का पद जिसकी महीने की तनख्वाह 250 रुपये थी.

पिता अशोक से मिले और एक्टिंग छोड़ने को कहा. अशोक हिमांशु राय के पास गए और उन्हें नौकरी के कागज़ दिखाए और कहा कि उनके पिता बाहर खड़े हैं और उनसे बात करना चाहते हैं. राय ने अकेले में उनके पिता से बात की. थोड़ी देर बाद उनके पिता उनके पास आए और नौकरी के कागज़ फाड़ दिए. उन्होंने अशोक से कहा, “वो (हिमांशु राय) कहते हैं कि अगर तुम यही काम करोगे तो बहुत ऊंचे मुकाम तक पहुंचोगे. तो मुझे लगता है तुम्हें यहीं रुकना चाहिए.”

1936 मे बांबे टॉकीज की फ़िल्म (जीवन नैया) के निर्माण के दौरान फ़िल्म के अभिनेता नजम उल हसन ने इसी कारणवश फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया। इस विकट परिस्थिति में बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय का ध्यान अशोक कुमार पर गया और उन्होंने उनसे फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश की। इसके साथ ही ‘जीवन नैया’ से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फ़िल्मी सफर शुरू हो गया।

उन्होंने न तो थियेटर किया था, न एक्टिंग का कोई अनुभव था. ऐसे में अशोक कुमार के अभिनय में पारसी थियेटर का लाउड प्रभाव नहीं था. यही उनकी खासियत बनी. वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे और उनकी एक्टिंग एकदम नेचुरल थी. जो आज तक एक्टर्स हासिल करने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा हिमांशु राय और देविका रानी ने भी उन्हें सबकुछ सिखाया. वे उन्हें अंग्रेजी फिल्में देखने के लिए भेजते थे. हम्प्री बोगार्ट जैसे विदेशी एक्टर्स को देखकर और उनकी स्टाइल व अपने विश्लेषण से अशोक ने अभिनय सीखा.

सुबह का नाश्ता वे ठाठ से करते थे. उनका कहना था कि एक्टर लोग पूरे दिन कड़ी मेहनत करते हैं और ब्रेकफास्ट दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है. इसी से पूरे दिन दृश्यों को करते हुए उनमें ऊर्जा बनी रहती थी.

1937 मे अशोक कुमार को बांबे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद ‘देविका रानी’ फिर से उनकी नायिका बनी। फ़िल्म मे अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार मे थे, जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई और इसके साथ ही अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे अपनी पहचान बनाने में क़ामयाब हो गए। इसके बाद देविका रानी के साथ अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में काम किया। इन फ़िल्मों में 1937 मे प्रदर्शित फ़िल्म इज्जत के अलावा फ़िल्म सावित्री (1938) और निर्मला (1938) जैसी फ़िल्में शामिल हैं। इन फ़िल्मों को दर्शको ने पसंद तो किया, लेकिन कामयाबी का श्रेय बजाए अशोक कुमार के फ़िल्म की अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।

इसके बाद अशोक कुमार ने 1939 मे प्रदर्शित फ़िल्म कंगन, बंधन 1940 और झूला 1941 में अभिनेत्री लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फ़िल्मों मे उनके अभिनय को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया, जिसके बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3 – नज़ीर हुसैन ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन ☆ 

नज़ीर हुसैन भारतीय फ़िल्म उद्योग के एक नामी चरित्र अभिनेता, निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक थे, जिन्होंने 500 से अधिक हिंदी फ़िल्मों में काम किया था। उनका जन्म 15 मई 1922 को ब्रिटिश इंडिया के संयुक्त प्रांत में स्थित ग़ाज़ीपुर ज़िले के उसिया गाँव में एक रेल्वे ड्राइवर शाहबजद ख़ान के घर हुआ था। वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह माने जाते हैं।

उनका लालन पालन लखनऊ में हुआ था, उन्होंने कुछ समय रेल्वे में फ़ायरमेन की नौकरी भी की थी फिर ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होकर दूसरे विश्वयुद्ध में हिस्सा लेने सिंगापुर और मलेशिया में पदस्थ रहे जहाँ उन्हें जापानी फ़ौज ने बतौर युद्धबंदी गिरफ़्तारी में रखा था। वे सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव से आज़ाद होकर इंडीयन नेशनल आर्मी में भर्ती  होकर रंगून होते हुए कलकत्ता पहुँच गए। कलकत्ता में स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय कार्यकर्ता होने से उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा हासिल हुआ था।

आज़ादी के उपरांत उन्हें बी एन सरकार के न्यू थिएटर में नौकरी मिल गई। उन्होंने विमल रॉय के सहायक के तौर पर काम करते हुए इंडीयन नेशनल आर्मी के अनुभवों से प्रेरित “पहला आदमी” फ़िल्म की न सिर्फ़ पटकथा लिखी अपितु उसमें काम भी किया। फ़िल्म के 1950 में प्रदर्शन के साथ ही नज़ीर हुसैन पर कामयाब कलाकार का ठप्पा लग गया और वे विमल रॉय की सभी फ़िल्मों के हिस्से बने।

दो बीघा ज़मीन, देवदास और नयादौर के बाद वे मुनीम जी फ़िल्म से देवानंद और एस डी बर्मन की टीम के हिस्से बन कर पेइंग गेस्ट से लेकर देवानंद की सभी फ़िल्मों में भूमिकाएँ अदा कीं। उन्होंने दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद और राजेंद्र कुमार से लेकर राजेश खन्ना तक सभी नायकों के साथ काम किया।

राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नज़ीर हुसैन को बुलाकर भोजपुरी भाषा में फ़िल्म बनाने की सम्भावना तलाशने को कहा। उन्होंने “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईवो” “हमार संसार” और “बलम परदेशिया” नामक फ़िल्मों का निर्माण करके भोजपुरी फ़िल्मों की शुरुआत की, वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह कहे जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 – के एन सिंह ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह पर आलेख ।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह ☆ 

बरसात की रात (1960), वो कौन थी (1964), मेरा साया (1966), मेरे हुज़ूर (1968), दुश्मन, हाथी मेरे साथी(1971), लोफ़र, कच्चे धागे (1973) बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) जैसी भारतीय सिनेमा की यादगार फ़िल्मों की एक लंबी सूची है, जिनमें एक बात सामान्य है और वह है इन फ़िल्मों में के एन सिंह का अभिनय।

धीरे-धीरे के एन का मन इस नई फिल्मी दुनिया से खिन्न होने लगा। अमिताभ बच्चन स्टारर कालिया (1983) तक पहुंचते पहुंचते केएन का मन अभिनय से उचाट हो गया। तभी उनके साथ एक हादसा यह हुआ कि वे जिन आँखों  से अभिनय में रहस्य घोलते थे, उन आंखों की रोशनी जाती रही। और जीवन के संध्याकाल में केएन कैमरा, लाइट, एक्शन और कट की दुनिया से पूरी तरह कट गए। 1987 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।

के.एन की कोई संतान नहीं हुई इसलिए उन्होंने अपने भतीजे पुष्कर को बेटे की तरह पाला। पत्नी के निधन के बाद केएन की आवाज़ में तो पहले जैसी ही खनक बरकरार रही, लेकिन अंदर से टूट से गए। 1999 में वे फिसल कर गिर गए जिससे उनके पैर की हड्डी टूट गयी तब से वे 31 जनवरी 2000 में मृत्यु होने तक पलंग पर ही पड़े रहे। उनकी रिलीज़ होने वाली अंतिम फ़िल्म अजूबा (1991) थी।

कुदरत ने उन्हें गरजदार आवाज दी थी, भाव भंगिमाओं को खास आकार देने की शैली उन्होंने खुद विकसित की और इन दो चीजों के मेल ने भारतीय फ़िल्म जगत को बेमिसाल खलनायक दिया। सुअर के बच्चों, कमीने या इसी तरह की गालियां दिए बिना और चीखे चिल्लाए बग़ैर केएन सिंह भय और घृणा की भावना दर्शकों के मन में पैदा कर देने का हुनर रखते थे। न कभी अभिनय का शौक़ रहा न फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना लेकिन बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की कहावत ने के एन सिंह के जीवन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया।

के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ अलविदा ऋषि कपूर – एक और अंक का पटाक्षेप ☆ श्री वसंत काशीकर और श्री सुरेश पटवा

स्व ऋषि कपूर 

जन्म – 4 सितम्बर 1952

मृत्यु – 30 अप्रैल 2020

श्री वसंत काशीकर,  वरिष्ठ  रंगकर्मी, जबलपुर  

? अलविदा ऋषि कपूर ?

ऋषि कपूर (जन्म: 4 सितंबर 1952, मृत्यु – 30 अप्रैल 2020) एक फ़िल्म अभिनेता, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। वह एक बाल कलाकार के रूप मे काम कर चुके है। उन्हें बॉबी के लिए 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और साथ ही 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका है। उन्होंने उनकी पहली फ़िल्म में शानदार भूमिका के लिए 1971 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किया। दिनांक 30/04/2020 को निधन हो गया।
कपूर का जन्म पंजाब के हिंदू परिवार में ऋषि राज कपूर के रूप में मुंबई के चेम्बूर में हुआ था। वह अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर के दूसरे पुत्र और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पोते थे। उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर; मामा प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ; और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता हैं। उनकी दो बहनें हैं, बीमा एजेंट रितु नंदा और रिमा जैन।
परम्‍परा के अनूसार उन्‍होने भी अपने दादा और पिता के नक्‍शे कदम पर चलते हूए फिल्‍मों में अभिनय किया और वे एक सफल अभिनेता के रूप में उभर आए। मेरा नाम जोकर उनकी पहली फिल्‍म है जिसमें उन्‍होने अपने पिता के बचपन का रोल किया। जो किशोर अवस्‍था में अपनी  शिक्षिका से ही प्‍यार करने लगता है। परन्‍तु बॉबी फिल्‍म में वे बतौर अभिनेता के रूप में दिखायी दिए। ऋषि कपूर और नीतू सींह की शादी 22 जनवरी 1980 में हुई थी।
इनके दो बच्चे हैं रणबीर कपूर जो की एक अभिनेता है और रिदीमा कपूर जो एक ड्रैस डिजाइन है। करिश्मा कपूर और करीना कपूर इनकी भतीजियां हैं।
भावभीनी श्रद्धांजली

सौजन्य – श्री वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर 

 

श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल

 

? स्व ऋषि कपूर – पटाक्षेप ?

 

पृथ्वी, राज, ऋषि

नाटक के किरदार

निर्देशक

खींचता डोरी

गिरता पर्दा

पटाक्षेप

****

प्यार इकरार

जोकर बाबी

प्रेम का रोग

खिंची डोर

पटाक्षेप

****

चल दिया मुसाफ़िर

सीधी डगर

अनजान नगर

लौट कर

न आने को

एक और अंक का

पटाक्षेप

कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली

– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक, भोपाल 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ इरफ़ान खान – तुम कहीं नहीं जा सकते ….अभिनेता…. ☆ श्री वसंत काशीकर, श्री सुरेश पटवा और श्री अनिमेष श्रीवास्तव

पद्मश्री इरफ़ान खान

जन्म – 7 जनवरी 1967, जयपुर

मृत्यु – 29 अप्रैल 2020, कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, मुंबई

श्री वसंत काशीकर,  वरिष्ठ  रंगकर्मी, जबलपुर  

? कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले एक बेहतरीन अभिनेता को इस जहां ने खो दिया  ?

“ज़िंदगी में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, जो आपको आगे लेकर जाता है। मेरी ज़िंदगी के पिछले कुछ दिन ऐसे ही रहे हैं। मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर नामक बीमारी हुई है. लेकिन, मेरे आसपास मौजूद लोगों के प्यार और ताक़त ने मुझमें उम्मीद जगाई है।”– यह ट्वीट किया था इरफान खान ने दो साल पहले मार्च 2018 में जब उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला था।

कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले, उम्दा अभिनय कर दर्शकों का दिल जीतने वाले एक बेहतरीन अभिनेता, इस जहां से खो गया। पर उसका अभिनय और यादें हमेशा मौजूद रहेंगी।

इरफान खान ने लीक से हटकर काम किया। गुलज़ार के तहरीर सीरियल से लेकर इंग्लिश मीडियम तक हर किरदार में इरफान ने अपना लोहा मनवाया है। उनके चाहने वालों के लिए बेहद दु:खद धक्का पहुंचाने वाली खबर है।

अभी तो सफ़र शुरू हुआ था और अचानक विराम लग गया। उम्र भी ज्यादा नहीं थी। 53 साल कोई मरने की उम्र है।

इस दौर में जब रोज मरने वालों की खबरें नहीं आंकड़े आ रहे हैं, फिर भी प्रिय अभिनेता का इस तरह अचानक गुज़र जाना स्तब्ध करता है। अभी कुछ दिनों पहले जयपुर में मां का निधन हो गया और लाॅकडाउन के चलते मां की अंतिम यात्रा में इरफान नहीं शरीक हो पाये और परसों खबर मिली कि तबियत बिगड़ने की वजह से इरफान को मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती किया गया है।

आज कला की दुनिया ने एक बेहतर कलाकार खो दिया है।

 सादर श्रद्धांजलि 

– वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर 

श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल

☆  इरफ़ान खान दिवंगत ☆ 

इरफान अली खान का जन्म राजस्थान के एक मुस्लिम परिवार में बेगम खान और जगदीर खान के घर पर हुआ था। उनके माता पता टोंक जिले के पास खजुरिया गाँव से थे और टायर का कारोबार चलाते थे। इरफान और उनके अच्छे दोस्त सतीश शर्मा क्रिकेट खेलते थे तथा बाद में, उन्हें साथ में सीके नायडू टूर्नामेंट के लिए 23 साल से कम उम्र के खिलाड़ियों हेतु प्रथम श्रेणी क्रिकेट में कदम रखने के लिए चुना गया था। धन की कमी के कारण वे टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए नहीं पहुँच सके।

उन्होंने 1984 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति अर्जित की और वहीँ से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया।

इरफ़ान हिन्दी अंग्रेजी फ़िल्मों व टेलीविजन के एक कुशलअभिनेता रहे हैं। उन्होने द वारियर, मकबूल, हासिल, द नेमसेक, रोग जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का लोहा मनवाया। हासिल फिल्म के लिये उन्हे वर्ष 2004 का फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। वे बालीवुड की 30 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं। इरफान हॉलीवुड मे भी एक जाना पहचाना नाम हैं। वह ए माइटी हार्ट, स्लमडॉग मिलियनेयर और द अमेजिंग स्पाइडर मैन फिल्मों मे भी काम कर चुके हैं। 2011 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया  60वे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म पान सिंह तोमर में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया।

इरफ़ान खान का निधन 29 अप्रेल को मुम्बई की कोकीलाबेन अस्पताल में हुआ था, जहाँ वे ट्यूमर के संक्रमण से भर्ती थे। वर्ष 2018 में उन्हें न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर (अंत:स्रावी ट्यूमर) का पता चला था, जिसके बाद वे एक साल के लिए ब्रिटेन में इलाज हेतु रहे। एक वर्ष की राहत के बाद वे पुनः कोलोन संक्रमण की शिकायत के कारण मुम्बई में भर्ती हुए। इस बीच उन्होंने अपनी फ़िल्म अंग्रेज़ी मीडियम की शूटिंग की, जो उनकी अंतिम फिल्म थी। उन्हें अंत:स्रावी कैंसर था, जोकि हॉर्मोन-उत्पादक कोशिकाओं का एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है।

2008 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार – लाइफ़ इन अ… मेट्रो

2004 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार – हासिल 

 कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली

– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक एवं फिल्मों के स्वर्णिम युग के शोध कर्ता, भोपाल 

 

श्री अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल

? तुम कहीं नहीं जा सकते ….अभिनेता…. ?

मेरे लिए तुम्हारा जाना ऐसा है जैसे कोई नाराज़ हो कर, बिना बताए मेरे बहुत पास से उठ चला गया हो।

तुम कहीं नहीं जा सकते हो अभिनेता.. जानता हूँ कि मुझे खिजाने के लिए कोई स्वांग कर रहे हो.. पर बता दूं इस बार अपने अभिनय में जान नहीं डाल पाये तुम।

मरने का अभिनय करने के लिए मरा नहीं जाता है दोस्त..

चलो अब खेल बहुत हुआ वापस आ जाओ। तुम्हारी इस हरक़त से कोई नाराज़ नहीं होगा और ना ही तुम्हे कुछ बोलेगा।

जल्दी आ जाओ हम इंतज़ार कर रहे हैं मित्र..

आओ और अपनी किसी फिल्म के माध्यम से हमें रिझाओ, मनाओ, रुलाओ, घमकाओ, गरियाओ, गिड़गिड़ाओ, हंसाओ, बहकाओ, समझाओ, बतियाओ..

आओ चले आओ कि हम तुम्हे खूब याद कर रहे हैं..

विनम्र श्रद्धांजलि

– अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल 

 

लंबे समय तक कैंसर से लड़ते लड़ते आखिर मशहूर अभिनेता  पदमश्री प्राप्त  इरफ़ान  खान असमय में  सिर्फ 53 वर्ष की उम्र में हम सब को अलविदा कह गए। ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से विनम्र श्रद्धांजलि – विनम्र श्रद्धांजलि

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