हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान – 2 ☆

हिन्दी सिनेमा की फ़िल्मों में पर्दे पर पहली बार होली फ़िल्म ‘औरत’ में खेली गई थी। यह ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म साल 1940 में रिलीज़ हुई थी। यह फ़िल्म फ़िल्मकार महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी थी, लेकिन पर्दे पर होली के रंग देखे नहीं जा सके। महबूब ख़ान की 1952 में आई फ़िल्म ‘आन’ में होली के असली रंग पर्दे पर देखने को मिले। इससे पहले फ़िल्मों में होली तो दिखती थी, लेकिन रंग नज़र नहीं आते थे। जाहिर है, जब रंगीन फ़िल्म आई, तो रंग भी पर्दे पर नज़र आए। यह नादिरा की डेब्यू फ़िल्म थी। नादिरा वाले किरदार के लिए महबूब ख़ान की पहली पसंद नर्गिस थीं लेकिन उनके पास अधिक फ़िल्म होने के कारण समय नहीं था। मधुबाला से सम्पर्क किया गया, उनके पास भी एक साल तक तारीख़ नहीं थीं। फ़िल्म देखने के बाद लगता है कि नर्गिस फ़िल्म की ख़ूँख़ार राजकुमारी और बाद में समर्पित प्रेमिका की भूमिका हेतु उपयुक्त होतीं।

आन भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म थी, जिसे 16 एम-एम ब्लेक-व्हाइट में बनाकर 32 एम-एम में लन्दन से रंगीन करवाया गया था। जिसमें दिलीप कुमार, निम्मी और प्रेमनाथ के अलावा इराक़ी लड़की नादिरा ने काम किया था और उसे पूरी दुनिया में लन्दन में रिलीज़ किया गया था।

‘अंदाज’ फिल्म प्रेम त्रिकोण के लोकप्रिय बंबइया फार्मूले पर बनी होने के बावजूद एक ताजगी की बहार लेकर आती है। उस दौर में उन्होंने दिलीप कुमार से जो निगेटिव शेड वाले चरित्र का अभिनय करवाया है वह आज भी अभिनेताओं को प्रेरणा प्रदान करता है। अंदाज़ 1949 की भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है, जिसे नौशाद द्वारा संगीत के साथ महबूब खान द्वारा निर्देशित किया गया है। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस और राज कपूर एक प्रेम त्रिकोण में, सहायक भूमिकाओं में कुक्कू और मुराद के साथ थे। फ़िल्म का संगीत नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा गीत लिखे गए। दिलीप कुमार और राज कपूर की एक साथ ऑनस्क्रीन फीचर एकमात्र फिल्म है।

महबूब ने ‘औरत’ के बाद ‘रोटी’ फिल्म बनाई, जो वर्गभेद के साथ ही पूँजीवाद और धन की लालसा के नकारात्मक प्रभाव पर केंद्रित थी। काल्पनिक पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म में सामाजिक असमानता, पैसों पर आधारित सामाजिक मूल्यों को खूबसूरती से चित्रित किया गया था। फिल्म के अंत में प्यास के कारण नायक की मौत हो जाती है। हालाँकि मौत के समय उसके पास काफी मात्रा में सोना एवं धन होता है। इस फिल्म के माध्यम से महबूब खान का सामाजिक झुकाव स्पष्ट दिखता है। ‘रोटी’ के बाद महबूब खान ने महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना की। वह किसी साम्यवादी दल के सदस्य नहीं थे, लेकिन उनकी कृतियों में साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव स्पष्ट दिखता है। उनकी फिल्मों में अत्यधिक नाटकीयता भी नहीं दिखती।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆

फिल्म निर्देशक महबूब खान का जन्म 9 सितंबर, 1907 को गुजरात में स्थित तत्कालीन बड़ौदा रियासत के गंदेवी तालुक़ा के नज़दीक बिलिमोड़ा बस्ती में हुआ था. महबूब पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, लेकिन जीवन की पाठशाला में उन्होंने ऐसे नायाब सबक सीखे कि उनकी फिल्में तात्कालिक समाज का दर्पण और सदाबहार स्वस्थ मनोरंजन का पर्याय बन गईं। हमेशा कुछ नया करने की जिद ने उन्हें फिल्म निर्माण से जुड़े हर पक्ष पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि उनकी मदर इंडिया, अंदाज, अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, आन, अमर जैसी फिल्मों में एक कसावट नजर आती है।

अपनी अद्भुत कला के माध्यम से उन्होंने भारतीय सिनेमा का परिचय विदेश से करवाया. मदर इंडिया फिल्म को भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म ने ऑस्कर तक का सफर तय किया। फिल्म अवॉर्ड लेने में तो सफल नहीं रही मगर फिल्म ने भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती पूर्ण मापदंड तय करके  निर्माताओं को नई दिशा जरूर दिखाई। निर्देशक महबूब खान ने 30 साल के करियर में कुल 24 फिल्मों का निर्देशन किया था, मदर इंडिया इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा में रही।

बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि महबूब खान को निर्देशक नहीं बल्कि एक एक्टर बनने का शौक था. 16 साल की उम्र में वे घर से भागकर एक्टिंग करने के लिए मुंबई आ गए थे। सिनेमा के रुपहले परदे से सम्मोहित मेह्बूब ने कम उम्र में ही बंबई की राह ले ली। अपने समय के अधिकतर फिल्मकारों की तरह महबूब ने भी विभिन्न स्टूडियो में संघर्ष कर फिल्म निर्माण की कला को समझा। मगर जब उनके पिता को इस बारे में पता चला वे महबूब को वापस घर ले आए। मेह्बूब जब 23 साल के हुए तब फ़िल्म उद्योग को घोड़े प्रदान करने का कारोबार करने वाले नूर अली मुहम्मद शिपरा, उनको घोड़े की नाल लगाने और घुड़साल की देखभाल के लिए बम्बई ले आए।

दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के निर्देशक चंद्रशेखर एक दिन घोड़ों को लेकर फ़ाइटिंग दृश्य फ़िल्मा रहे थे तब मेह्बूब उनकी सहायता करते हुए घोड़ों को सम्भाल रहे थे। उन्होंने फ़ुरसत के क्षणों में महबूब से फ़िल्मों में काम करने के बारे में पूछा तो महबूब ने रूचि दिखाई। उन्होंने नूर अली मुहम्मद शिपरा की अनुमति से महबूब को ले गए। एक दिन चंद्रशेखर फ़िल्म का निर्देशन कर रहे थे, महबूब ने साथ काम करने की इच्छा जताई जिस पर उन्हें डायरेक्टर की रजामंदी भी मिल गई। मगर भूमिका बहुत छोटी थी। इसके बाद धीरे-धीर उन्हें सपोर्टिंग रोल्स ही मिले।

ये बात मूक फ़िल्मों के दौर की है। जब भारत में पहली बोलती फिल्म आलम आरा बन रही थी तो फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने मुख्य भूमिका के लिए महबूब खान को ही लिया था मगर बात कुछ खास बनी नहीं। तमाम लोगों ने अर्देशिर को कहा कि पहली सवाक् फिल्म है, इसमें ज्यादा नए कलाकार को  लेना ठीक नहीं है. इसके बाद फिल्म में विट्ठल ने वह भूमिका निभाई। उन्होंने पहले महबूब प्रडक्शन बनाया बाद में बांद्रा में महबूब स्टूडीओ स्थापित करके अनमोल घड़ी, औरत, अन्दाज़, आन और अमर फ़िल्मे बनाईं।

आन 1952 में बनी हिन्दी भाषा की फ़िल्म है। इस फ़िल्म में अन्य साथी कलाकारों के साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता दिलीप कुमार ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। उन दिनों भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म ‘आन’ की आउटडोर शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश और इसके आसपास के इलाकों में फ़िल्माया गया था। फ़िल्म सन 1949 में बननी शुरू हुई थी और सन 1952 में रिलीज़ हुई थी। इसमें नरसिंहगढ़ का क़िला, जलमंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाटी के हिस्सों में फ़िल्म के बड़े हिस्से को शूट किया गया था। फ़िल्म को देश के पहले शोमैन महबूब ख़ान ने बनाया था। जिनकी सन 1957 में रिलीज क्लासिक फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ विश्व सिनेमा के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। फ़िल्म में दिलीप कुमार, नादिरा, निम्मी, मुकरी, शीलाबाज, प्रेमनाथ, कुक्कू, मुराद ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 13 – सोहराब मोदी ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : सोहराब मोदी पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ सोहराब मोदी  ☆

सोहराब मोदी अपने जमाने के जाने-पहचाने इंडो-फ़ारसी नाट्यकर्मी, फ़िल्मी कलाकार, निर्देशक और निर्माता थे। उनका जन्म फ़ारसी परिवार में 02 नवम्बर 1897 को बनारस के नज़दीक रामपुर में हुआ था, उनके पिता मेरवान जी मोदी इंडीयन सिविल सर्विस में थे। उनकी परवरिश यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) के ग्रामीण इलाक़ों में होने से उनका हिंदी और उर्दू ज़बान पर बराबर का नियंत्रण था और घर के प्रशासनिक माहौल  व घर पर अंग्रेज़ी तालीम से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य पर भी अच्छा ख़ासा अधिकार था। सोहराब मोदी बुलंद आवाज़ के ऊँचे-पूरे क़द और मज़बूत काठी के मुकम्मिल इंसान थे।

उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट पर आधारित “खून ही खून”, सिकंदर, पुकार, पृथ्वी वल्लभ, झाँसी की रानी, मिर्ज़ा-ग़ालिब, जेलर और नौशेरवान-ए-आदिल नामक बेहतरीन फ़िल्में बनाईं थीं। उनकी फ़िल्मों में हमेशा एक उद्देश्यपरक संदेश होता था। फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।

वे स्कूली पढ़ाई पूरी करके अपने भाई केकी मोदी के साथ मिलकर 26 साल की उम्र में एक नाटक कम्पनी “आर्य सुबोध थिएटर कम्पनी” स्थापित करके पूरे देश में नाटक करते रहे। जिसकी कमाई से एक प्रोजेक्टर ख़रीदा और ग्वालियर के टाउन हाल में एक फ़िल्म दिखाई।

भारत में से बाबा साहब फाल्के 1913 से मूक फ़िल्म बनाना शुरू कर चुके थे, उनकी पहली फ़िल्म “हरिशचंद्र तारामती” थी लेकिन 1931 तक सवाक् फ़िल्मों का दौर शुरू होने से नाटक कम्पनी के नाटकों का क्रेज़ जाता रहा इसलिए सोहराब मोदी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट और किंग जॉन पर आधारित खून का खून और सैद-ए-हवस फ़िल्मे बनाईं लेकिन दोनों बॉक्स आफ़िस पर पिट गईं।

उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवी टोन नामक संस्था स्थापित की और 1938 में मीठा ज़हर और तलाक़ बनाईं जो ख़र्चा निकालने में सफल रहीं। 1939 में पुकार, 1941 में सिकंदर, 1943 में पृथ्वी-वल्लभ बनाईं। पुकार फ़िल्म बादशाह जहांगीर की न्याय व्यवस्था पर केंद्रित थी जिसमें चंद्र मोहन, नसीम बानो और कमाल अमरोही के डायलाग ने धूम मचा दी। सिकंदर भी एक बड़ी सफलता सिद्ध हुई जिसमें पृथ्वी राज कपूर बने थे सिकंदर और सोहराब मोदी ख़ुद राजा पोरस और के.एन. सिंग राजा आम्भी बने थे, फ़िल्म के डायलाग आज भी बेमिशाल माने जाते हैं। तीनों की आवाज़ बुलंद और हिंदुस्तानी का उच्चारण साफ़ था। फ़िल्म के संवाद पर दर्शक पर्दे पर सिक्कों की बारिश करते थे। बाद में एक और सिकंदर-ए-आज़म बनी थी जिसमें सिकंदर दारा सिंह और पृथ्वी राज कपूर राजा पोरस बने थे।

पृथ्वी वल्लभ फ़िल्म कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के उपन्यास पर आधारित थी जिसमें सोहराब मोदी और दुर्गा खोटे के लम्बे डायलाग चलते हैं। नायिका रानी मृणालवती फ़िल्म के नायक का अनादर करते हुए उससे बहस करते-करते उससे प्रेम करने लगती है। सोहराब मोदी के फ़िल्मी सेट में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। जेलर और भरोसा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

सोहराब मोदी के उनकी फ़िल्मों की नायिका नसीम से रोमांटिक सम्बंध रहे लेकिन 1950 में शीशमहल फ़िल्म बनते समय तक उनके सम्बंधों में ठंडापन आ गया था। उसके बाद उनसे 20 साल छोटी महताब नाम की एक कलाकार उनसे नौशेरवान-ए-आदिल फ़िल्म से जुड़ी, जिससे उन्होंने 48 साल की उम्र में शादी कर ली, उनका उससे एक पुत्र महल्ली सोहराब हुआ।

सोहराब मोदी की फ़िल्म शीशमहल बम्बई की मिनर्वा थिएटर में लगी तो वे ख़ुद दर्शकों की प्रतिक्रिया पता करने वहाँ मौजूद थे, उन्होंने देखा कि सामने की कुर्सी पर बैठा एक दर्शक आँख बंद करके बैठा है। उन्होंने थिएटर के मैनेजर को बुलाकर उस दर्शक की टिकट के पैसे लौटाने को कहा। मैनेजर ने थोड़ी देर बाद आकर उन्हें बताया कि वह दर्शक अंधा है, इसलिए वह सिर्फ़ सोहराब मोदी के डायलाग सुनने आया है। सोहराब मोदी ने फ़िल्म समाप्त होने पर उस दर्शक को मैनेजर के रूम में बुलाकर उसे उस फ़िल्म के डायलाग सुनाए। फ़िल्मकार का दर्शक से ऐसा रिश्ता हुआ करता था।

मैंने भारत भवन में सोहराब मोदी की “झाँसी की रानी” फ़िल्म देखी जिसे उन्होंने अपनी बीबी महताब को लेकर बनाई थी, जिसमें वे ख़ुद झाँसी की रानी के राजगुरु की भूमिका में थे। झाँसी और लड़ाइयों की शूटिंग के साथ कसा कथानक और धाराप्रवाह डायलाग बांधे रखे रहे। सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी'(1953) भारतीय सिनेमा की पहली रंगीन फिल्म थी।

उन्होंने 1954 में मिर्ज़ा-ग़ालिब बनाई जिसमें सुरैया को मिर्ज़ा-ग़ालिब की महबूबा की भूमिका में उतारकर  मिर्ज़ा-ग़ालिब की ग़ज़लें उनसे गवाईं थीं। ज़फ़र, ज़ौक़, मोमिन, तिशना और सेफता को बिठाकर इस दौर की महफ़िल का समां बांधा था, वह देखते ही बनता है। फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला था, तब फ़िल्म की स्क्रीनिंग के बाद नेहरु जी ने कहा था कि आपने ग़ालिब को ज़िंदा कर दिया। उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला था। उनकी पत्नी ने कहा था कि फ़िल्म उनकी पहली और आख़िरी प्रेमिका थी। 28 जनवरी 1984 को 86 साल की पकी उम्र में उनका देहांत हो गया था। भारत सरकार ने 2013 में उनकी याद को अक्षुण बनाए रखने हेतु डाक टिकट जारी किया था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 12 – केदार शर्मा – 2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : केदार शर्मा – 2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 12 ☆ 

☆ केदार शर्मा -2 ☆

उनकी आत्मकथा, द वन एंड लोनली केदार शर्मा को मरणोपरांत 2002 में प्रकाशित किया गया था, जिसे उनके बेटे विक्रम शर्मा ने संपादित किया था।

जिसमें उन्होंने पृथीराज कपूर के साथ सम्बंधों का खुलासा किया है।

मुंबई के रंजीत स्टूडियोज के लिए 1942 में केदार शर्मा ‘विषकन्या’ बना रहे थे। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, साधना बोस और सुरेंद्र नाथ प्रमुख भूमिका में थे। केदार शर्मा और पृथ्वीराज कपूर में कलकत्ता (अब कोलकाता) के दिनों से बहुत गहरी दोस्ती थी और दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के साथी थे। बाद में दोनों कोलकाता से मुंबई आ गए थे। ‘विषकन्या’ की शूटिंग के दौरान केदार शर्मा ने इस बात को नोटिस किया कि पृथ्वीराज कपूर जब भी शूटिंग के लिए सेट पर पहुंचते तो वो बहुत उदास रहते हैं। शूटिंग के पहले और बाद में भी गुमसुम रहते हैं और सेट पर किसी से बातचीत नहीं करते। केदार शर्मा लगातार इस बात को नोट कर रहे थे लेकिन पृथ्वीराज कपूर से पूछ नहीं पा रहे थे।

एक दिन अवसर मिल ही गया। पृथ्वीराज कपूर शॉट देने के बाद सेट के एक कोने में जाकर बैठ गए। केदार शर्मा उनके पास पहुंचे, उनका हाथ पकड़कर बोले कि अगर इसमें बहुत व्यक्तिगत कुछ न हो तो मैं आपकी उदासी का कारण जानना चाहता हूं। मुझे लगता है कि आप किसी खास वजह से बेहद परेशान हैं। आप मुझ पर भरोसा रखकर उदासी की वजह बताइए, मैं उसको दूर करने की कोशिश करूंगा। इतना सुनकर पृथ्वीराज कपूर अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और जोर से केदार का हाथ पकड़कर बोले, ‘केदार! मैं अपने बेटे राजू को लेकर बहुत चिंतित हूं। किशोरावस्था की उलझनों में वो मुझे भटकता हुआ लग रहा है, मैंने उसको पढ़ने के लिए कॉलेज भेजा लेकिन वहां पढ़ाई से ज्यादा वो लड़कियों में खो गया है।’ इतना बोलकर पृथ्वीराज कपूर चुप हो गए।

केदार शर्मा ने पृथ्वीराज कपूर के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘अपने बेटे को मुझे सौंप दो लेकिन एक वादा करो कि मेरे और उसके बीच दखलअंदाजी नहीं करोगे। मैं उसको रास्ते पर ले आऊंगा, ठीक उसी तरह जिस तरह से कोई गुरू अपने चेले को लेकर आता है। मैं उसको अपना असिस्टेंट डायरेक्टर बनाने के लिए तैयार हूं।’ यह सुनकर पृथ्वीराज कपूर का दुख कुछ कम हुआ।

अगले दिन वो अपने बेटे राजू को लेकर केदार शर्मा के पास पहुंचे। कपूर खानदान की परंपरा के मुताबिक राजू ने केदार शर्मा के पांव छूकर आशीर्वाद लिया। केदार शर्मा ने राजू को उनके बचपन के दिनों की याद दिलाई, जब वो कोलकाता में रहते थे और पिता के साथ स्टूडियो आते थे। एक दिन जब केदार शर्मा रील देख रहे थे तो राजू ने उनसे जानना चाहा था कि रील में कैद चित्र पर्दे पर चलने कैसे लगते हैं। तब केदार शर्मा ने राजू को कहा था कि एक दिन मैं तुम्हें इसका रहस्य बताऊंगा। अब केदार शर्मा ने राजू से कहा, ‘रील का रहस्य जानने का समय आ गया है। तुम अब मेरे साथ काम करो। आज से तुम मेरे असिस्टेंट डायरेक्टर हो।’

केदार शर्मा 1945 में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा जो इंग्लैंड और हॉलीवुड की यात्रा की और चार्ली चैपलिन, वॉल्ट डिज्नी और सेसिल बी डीमिल से मिले।

  • बेस्ट चिल्ड्रन्स फिल्म, अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह वेनिस में 1957 में जलदीप के लिए मिला था।
  • 1956: सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: जलदीप
  • भारतीय फिल्म निर्देशकों का एसोसिएशन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
  • भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए 1982 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण पुरस्कार
  • महाराष्ट्र सरकार का राज कपूर पुरस्कार (उनकी मृत्यु के बाद 1999 में सम्मानित)

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 – केदार शर्मा ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : केदार शर्मा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 ☆ 

☆ केदार शर्मा ☆

 

केदार शर्मा उर्फ़ केदार नाथ शर्मा (12 अप्रैल 1910 – 29 अप्रैल 1999), एक भारतीय फिल्म निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक और हिंदी फिल्मों के गीतकार थे। उन्हें नील कमल (1947), बावरे नैन (1950) और जोगन (1950) जैसी फिल्मों के निर्देशक के रूप में बड़ी सफलता मिली, उन्हें अक्सर बॉलीवुड के महान कलाकारों गीता बाली, मधुबाला, राज कपूर, माला सिन्हा, भारत भूषण और तनुजा के अभिनय करियर की शुरुआत के लिए याद किया जाता है।

केदार शर्मा का जन्म नारोवाल पंजाब में हुआ था।  दो भाइयों, रघुनाथ और विश्वनाथ की अल्पायु मृत्यु और उनकी बहन तारो का कम उम्र में तपेदिक से निधन हो गया, एक छोटी बहन गुरू एक छोटे भाई हिम्मत राय शर्मा बचे, जो बाद में सफल उर्दू कवि के रूप में स्थापित हुए। केदार ने अमृतसर के बैज नाथ हाई स्कूल में पढ़ाई की जहाँ वे दर्शन, कविता, पेंटिंग और फोटोग्राफी में रुचि लेने लगे। हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद सिनेमा में अपना करियर बनाने के लिए घर से भाग कर मुंबई पहुँचे  लेकिन रोजगार हासिल करने में असफल रहे तो अमृतसर लौट आए और हिंदू सभा कॉलेज में पढ़ाई हेतु प्रवेश लिया, जहाँ उन्होंने एक कॉलेज ड्रामेटिक सोसाइटी की स्थापना की।

एक स्थानीय सुधारवादी आंदोलन के प्रमुख ने केदार के नाटकों में से एक में हिस्सा लिया और शराब की बुराइयों को दर्शाती एक मूक फिल्म का निर्माण करने के लिए उसे काम मिला। इस परियोजना से अर्जित धन का उपयोग करते हुए, उन्होंने खालसा कॉलेज, अमृतसर में एक स्थानीय थिएटर समूह में शामिल होने से पहले अंग्रेजी में अपनी मास्टर डिग्री प्राप्त की। 1932 में उनकी शादी हुई तब उन्होंने कमाई के बारे में गम्भीरता से सोचना शुरू किया। फिल्म निर्देशक देवकी बोस की शुरुआती बोलती फिल्म पूरन भगत (1933) को देखकर वह न्यू थियेटर्स स्टूडियो में भाग्य आज़माने की उम्मीद में कलकत्ता के लिए रवाना हुए। कई महीनों की बेरोजगारी के बाद वह न्यू थियेटर्स के एक तत्कालीन अभिनेता, पृथ्वीराज कपूर (जहाँ वह पहली बार, पृथ्वीराज के आठ वर्षीय बेटे, राज कपूर से मिले) से मिलने में कामयाब रहे। पृथ्वीराज कपूर ने केदार को अपने पड़ोसी, तत्कालीन कुंदन लाल सहगल से मिलवाया, जिन्होंने एक परिचित के माध्यम से केदार को देवकी बोस से मिलने की व्यवस्था कर दी। देबकी बोस ने केदार को फिल्म सीता (1934) के लिए मूवी स्टिल्स फोटोग्राफर के काम पर रखा था, लेकिन बैकग्राउंड स्क्रीन पेंटर और फिल्म इंकलाब (1935) के लिए पोस्टर चित्रकार के रूप में केदार को फिल्म के निर्माण में काम मिला।  उन्होंने छप्पन (1935) और पुजारिन (1936) जैसी फिल्मों पर न्यू थियेटर्स के साथ काम करना जारी रखा, और  1936 में देवदास में उनके दोस्त कुंदन लाल सहगल द्वारा अभिनीत संवाद और गीत लिखने के लिए कहा गया तो एक बड़ा ब्रेक मिला। देवदास न केवल एक हिट थी, बल्कि “बलम आयी बसो मोरे मन में” और “सुख के अब दिन बीतत नाही” जैसे गाने देश भर में लोकप्रिय हो गए। केदार ने बाद में कहा, “बिमल रॉय और मुझे, देवदास में हमारा पहला बड़ा ब्रेक मिला था,  उन्हें कैमरामैन के रूप में और मुझे लेखक के रूप में।”

केदार को 1940 में जीत, औलाद और दिल ही तो है के लिए अपनी पटकथा लिखने का मौका दिया गया, कुछ सफलता मिली। इसके बाद उन्हें चित्रलेखा (1941) का निर्देशन करने के लिए कहा गया, जो एक हिट फिल्म बन गई और केदार एक निर्देशक के रूप स्थापित हो गए। उन्होंने अपनी पहली फिल्म नील कमल में राज कपूर और मधुबाला को लेकर अपनी फिल्मों का निर्माण शुरू किया। उन्होंने गीता बाली को अपनी पहली फिल्म, सोहाग रात (1948) में कास्ट किया और बाद में उन्हें राजकपूर के साथ फिल्म बावरे नैन (1950) के लिए टीम में शामिल किया। उसी वर्ष उन्होंने नर्गिस और दिलीप कुमार अभिनीत जोगन का निर्देशन किया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में जवाहरलाल नेहरू ने शर्मा के गीतों को सुना था, उन्हें बुलाया और उन्हें चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी का प्रमुख निदेशक बनने के लिए कहा। केदार शर्मा ने बाल फिल्म सोसाइटी के लिए कई फिल्मों पर काम किया, जिसमें फिल्म जलदीप भी शामिल है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा प्राप्त हुई।  उन्होंने 1958 में शॉ ब्रदर्स स्टूडियो के लिए सिंगापुर में एक वर्ष फिल्मों का निर्देशन किया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 10 – अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 10 ☆ 

☆ अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा ☆

खान बहादुर अर्देशिर ईरानी (5 दिसंबर 1886 – 14 अक्टूबर 1969) शुरुआती भारतीय सिनेमा के मूक और ध्वनि युग में एक लेखक, निर्देशक, निर्माता, अभिनेता, फिल्म वितरक, फिल्म शोमैन और छायाकार थे। वे हिंदी, तेलुगु, अंग्रेजी, जर्मन, इंडोनेशियाई, फारसी, उर्दू और तमिल में फिल्में बनाने के लिए प्रसिद्ध थे। सफल उद्यमी होने के नाते उनके पास फिल्म थियेटर, एक ग्रामोफोन एजेंसी और एक कार सेल्स एजेंसी थी।

अर्देशिर ईरानी का जन्म बॉम्बे प्रेसीडेंसी के पूना नगर में 5 दिसंबर 1886 को एक पारसी परिवार में हुआ था। वे 1905 में ईरानी यूनिवर्सल स्टूडियोज के भारतीय प्रतिनिधि बन गए और उन्होंने बंबई में “अलेक्जेंडर सिनेमा” को अब्दुल एस्सोल्ली के साथ चालीस साल तक चलाया। अर्देशिर ईरानी ने अलेक्जेंडर सिनेमा में फिल्म निर्माण की कला के नियमों को सीखा और फ़िल्म माध्यम पर मोहित होकर पूरे जीवन फ़िल्म व्यवसाय को समर्पित रहे।  ईरानी ने 1917 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करके 1920 में अपनी पहली मूक फीचर फिल्म, नल-दमयंती का निर्माण किया।

उन्होंने 1922 में दादासाहेब फाल्के के “हिंदुस्तान फिल्म्स” के पूर्व प्रबंधक भोगीलाल दवे से जुड़कर “स्टार फिल्म्स” की स्थापना की। उनकी दूसरी मूक फीचर फिल्म “वीर अभिमन्यु” 1922 में रिलीज़ हुई न्यूयॉर्क स्कूल ऑफ फोटोग्राफी के स्नातक दवे ने फिल्मों की शूटिंग की, जबकि ईरानी ने उन्हें निर्देशित और निर्मित किया। ईरानी और दवे की साझेदारी में स्टार फिल्म्स ने सत्रह फिल्मों का निर्माण किया।

ईरानी ने 1924 में दो प्रतिभाशाली युवा बी.पी. मिश्रा और नवल गांधी को साथ लेकर “राजसी फ़िल्मस” की स्थापना की।  “राजसी फ़िल्मस” ने पंद्रह फिल्मों का निर्माण किया। इतनी सफलता के बावजूद राजसी फ़िल्मस बंद हो गईं।  उन्होंने “रॉयल आर्ट स्टूडियो” स्थापित किया हालांकि, वह एक निश्चित प्रकार की रोमांटिक फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हो गया। ईरानी ने नई प्रतिभाओं का उपयोग करके फ़िल्म निर्माण तकनीक में सुधार किया।

ईरानी ने 1925 में “इम्पीरियल फिल्म्स” की स्थापना करके बासठ फिल्में बनाईं। ईरानी चालीस साल की उम्र तक भारतीय सिनेमा के एक स्थापित फिल्म निर्माता थे। अर्देशिर ईरानी 14 मार्च 1931 को अपनी सवाक् याने साउंड फीचर फिल्म “आलम आरा” की रिलीज के साथ टॉकी फिल्मों के जनक बन गए। उनके द्वारा निर्मित कई फिल्में बाद में उन्ही कलाकारों और दल के साथ टॉकी फिल्मों में बनाई गईं। उन्हें पहली भारतीय अंग्रेजी फीचर फिल्म नूरजहाँ (1931) बनाने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म किसान कन्या (1937) बनाई। उनका योगदान सिर्फ़ मूक सिनेमा को आवाज़ देने और श्वेत-श्याम फ़िल्मों को रंग देने से नहीं ख़त्म होता। उन्होंने भारत में फिल्म निर्माण के लिए एक नया साहसी दृष्टिकोण अपनाया और फिल्मों में कहानियों के लिए इस तरह की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान की जिन पर आज तक फिल्में बनाई जा रही हैं।

ईरानी ने 1933 में पहली फारसी टॉकी, “दोख्तर-ए-लोर” का निर्माण और निर्देशन किया। पटकथा अब्दोलहोसिन सेपांता ने लिखी थी, जिन्होंने स्थानीय पारसी समुदाय के सदस्यों के साथ फिल्म में अभिनय भी किया था।

ईरानी की इंपीरियल फिल्म्स ने भारतीय सिनेमा में कई नए कलाकारों को पेश किया, जिनमें पृथ्वीराज कपूर और महबूब खान उल्लेखनीय थे। उन्होंने तेलुगु में गाने के साथ आलम आरा के सेट पर तमिल में कालिदास का निर्माण किया। इसके अलावा ईरानी ने साउंड रिकॉर्डिंग का अध्ययन करने के लिए पंद्रह दिनों के लिए लंदन, इंग्लैंड का दौरा किया और इस ज्ञान के आधार पर आलम आरा की आवाज़ को रिकॉर्ड किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने अनजाने में एक नया चलन बनाया। उन दिनों रिफ्लेक्टर की मदद से सूरज की रोशनी में आउटडोर शूटिंग की जाती थी। जिसमें बाहरी अवांछनीय आवाज़ें उन्हें बहुत परेशान कर रही थीं। उन्होंने स्टूडियो में भारी रोशनी करके पूरे सीक्वेंस को शूट किया। इस प्रकार उन्होंने कृत्रिम प्रकाश के तहत शूटिंग की प्रवृत्ति शुरू की।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच ईरानी ने पच्चीस वर्षों के लंबे और शानदार कैरियर में एक सौ अट्ठाईस फिल्में बनाईं। उन्होंने 1945 में अपनी आखिरी फिल्म पुजारी बनाई। ईरानी को दादासाहेब फाल्के की तरह जीविका ने मजबूर नहीं किया था इसलिए उन्होंने महसूस किया कि युद्धकाल पश्चात फिल्म व्यवसाय के लिए उपयुक्त नहीं था और इसलिए उन्होंने उस दौरान अपने फिल्म व्यवसाय को निलंबित कर दिया। 14 अक्टूबर 1969 को मुंबई, में तिरासी साल की उम्र में उनका निधन हो गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 9 – दादा साहब फाल्के….3 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के…. पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 9 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….3 ☆ 

जब विवाद बहुत बढ़ गया तो कम्पनी ने फ़िल्म निर्माण का ज़िम्मा उनके साथ पहली फ़िल्म से जुड़े साथियों मामा शिंदे, अन्ना सालुंखे, गजानन साने, त्र्यम्बक बी तेलंग, दत्तात्रेय तेलंग और नाथ तेलंग को सौपने का निर्णय किया। उन सब के द्वारा ज़िम्मेदारी लेने पर फाल्के को क्षतिपूर्ति भुगतान नहीं करना होगा। फाल्के ने बहुत दुखी मन से कम्पनी और बम्बई छोड़कर काशी प्रवास का निर्णय किया और सबकुछ त्याग कर सपरिवार काशी चले गए। उन्होंने पूरी कहानी नवयुग नामक अख़बार में प्रकाशित करवाई।

वे काशी में पुराने मित्र नारायण हरी आपटे से मिलकर घुमंतू नाटक संस्था “किर्लोसकर नाटक मंडली” से जुड़ गए जिसमें शंकर बापू जी मजूमदार, मनहर बर्वे और गणपत राव बर्वे कार्यरत थे। उन्होंने तात्कालिक नाट्य स्थिति पर व्यंग करते हुए मराठी में रंगभूमि नाटक लिखा। तभी बाल गंगाधर तिलक और पुराने साथी जी. एस. खपार्डे कांग्रेसी अधिवेशन में भाग लेने आए, उन्हें नाटक सुनाया तो उन्होंने आर्यन सिनेमा पूना में नाटक का मंचन शुरू करवाया  जो एक साल चला। नाटक का मंचन बम्बई के बलिवला थिएटर में 1922 में हुआ, उसके बाद नासिक में मंचित हुआ। उसके बाद फाल्के काशी में जम गए।

उन्होंने जमशेद जी के मदन थिएटर के लिए फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव सहित अनेकों प्रस्ताव ठुकरा दिए तब संदेश अख़बार के सम्पादक अच्युत कोलहाटकर ने उनसे निर्णय बदल कर फ़िल्मी दुनिया में फिरसे आकर फ़िल्म बनाने का सुझाव दिया जिसके उत्तर में फाल्के ने पत्र में लिखा कि “फ़िल्मों के लिए फाल्के मर चुका है।” अच्युत कोलहाटकर ने वह पत्र संदेश अख़बार में छाप दिया, जिसके जवाब में सैंकड़ों की संख्या में पाठकों के पत्र आए, वे भी उन्होंने अख़बार में छापे और सारे अख़बार फाल्के को भेज दिए।

फाल्के तुरंत नासिक आ गए तब पूना की पुरानी हिंदुस्तान सिनेमा कम्पनी के साथियों वामन आपटे और बापू साहेब पाठक ने उनको बतौर फ़िल्म निर्माण मुखिया का पद 1,000 रुपया मासिक पर निमंत्रित किया जिसे उन्होंने मंज़ूर कर लिया। उन्होंने 1922 से 1929 तक कुछ फ़िल्मे बनाईं लेकिन नहीं चलीं उनका वेतन 1,000 से 500 और फिर 250 मासिक कर दिया गया। उन्होंने फाल्के डायमंड कम्पनी के बैनर तले बम्बई में माया शंकर भट्ट से 50,000 रुपयों की सहायता से सेतुबंधन फ़िल्म बनाना शुरू किया जिसकी शूटिंग हम्पी, चेन्नई और रत्नागिरी में हुई। धन की कमी से फ़िल्म रुक गई। वामन आपटे ने फाल्के डायमंड कम्पनी को हिंदुस्तान सिनेमा कम्पनी में विलय की शर्त पर फ़िल्म दो साल में पूरी करवाई। वह फाल्के की अंतिम फ़िल्म के पहले की फ़िल्म थी। वह पहली बोलती फ़िल्म 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित हुई तब आलमआरा के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने उसे 40,000 खर्चे पर हिंदी में डब करवाकर प्रदर्शित करवाया।

कोल्हापुर रियासत के महाराजा रामराम-III ने दिसंबर 1934 में फाल्के को कोल्हापुर सिनटोन के लिए फ़िल्म बनाने हेतु आमंत्रित किया, फाल्के ने पहले मना कर दिया दोबारा आमंत्रण 1,500 स्क्रिप्ट लिखने और 500 मासिक खर्चे पर मंज़ूर कर लिया।

उपन्यासकार नारायण आपटे ने कहानी और स्क्रिप्ट लिखने में सहयोग किया और विश्वनाथ जाधव ने संगीत देकर “गंगा अवतरण” फ़िल्म 2,50,000 रुपयों की लागत से दो साल के समय में 1937 में बनकर तैयार हुई। वह फाल्के द्वारा बनाई गई एकमात्र सवाक् याने बोलने वाली फ़िल्म थी।

समय के साथ फ़िल्म तकनीक, निर्देशन, संगीत, गायन और कथानक के उतार चढ़ाव में बड़े परिवर्तन हो  चुके थे। फाल्के जिनसे तादात्म्य नहीं बिठा पाए क्योंकि वे काशी जाकर फ़िल्म की मुख्य धारा से कट चुके थे। 16 फ़रवरी 1944 को जन्मस्थान नासिक में उनका निधन हो गया।

उनकी अन्य फ़िल्मों की सूची इस प्रकार है।

लंका दहन (१९१७),श्री कृष्ण जन्म (१९१८), कलिया मर्दन (१९१९), बुद्धदेव (१९२३), भक्त प्रहलाद (१९२६)

भक्त सुदामा (१९२७), रूक्मिणी हरण (१९२७)

रुक्मांगदा मोहिनी (१९२७), द्रौपदी वस्त्रहरण (१९२७)

हनुमान जन्म (१९२७), नल दमयंती (१९२७)

परशुराम (१९२८), श्रीकृष्ण शिष्टई (१९२८)

काचा देवयानी (१९२९), चन्द्रहास (१९२९)

मालती माधव (१९२९), मालविकाग्निमित्र (१९२९)

वसंत सेना (१९२९), संत मीराबाई (१९२९)

कबीर कमल (१९३०), सेतु बंधन (१९३२)

गंगावतरण (१९३७)- दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित पहली बोलती फिल्म है।

कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म “गंगावतरण” बनाई। दादासाहब ने कुल 125 फिल्मों का निर्माण किया। 16 फ़रवरी 1944 को 74 वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को ‘दादा साहब फालके पुरस्कार’ प्रदान करती है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 5 (अंतिम कड़ी) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 5 ( अंतिम  कड़ी ) ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 4 से आगे …

समवेत- जल है तो कल है…जल है तो कल है।

10- याद रहे, समस्या है तो हल है।

समवेत- समस्या है तो हल है…समस्या है तो हल है।

1- जल्दी बताओ हल।

2-  हाँ बताओ हल।

समवेत- बताओ हल।

3- किसी अंकुर से पौधा जन्मते देखा है?

4- किसी पौधे से पेड़ पनपते देखा है?

5- पौधे को विशाल पेड़ बनने में 15 से 20 साल लग जाते हैं।

6- बड़ा होने में 20 साल लेने वाला पेड़ मशीन से कुछ मिनटों में ही धराशायी किया जा सकता है।

7- कहना क्या चाहते हो?

10- विनाश सरल है, निर्माण कठिन।

8- हम क्या करें? हमें रास्ता दिखाओ।

समवेत-  हम क्या करें…हमें रास्ता दिखाओ।

9- आरंभ करना होगा।

1- आरंभ करना होगा आज से अभी से।

2- पौधे उगाएँ।

3- पेड़ बढ़ाएँ।

4- जंगल न काटे जाएँ।

5- पहाड़ न पाटे जाएँ।

6- पानी की बूँद भी बर्बाद न करें।

7- नदियाँ फिर से आबाद करें।

8- नदी में कूड़ा-करकट न बहाएँ।

9- नदी में औद्योगिक अपशिष्ट न आने पाए।

10- खेत का पानी खेत में।

1- गाँव का पानी गाँव में।

2- छोटे-छोटे जलाशय बनाएँ।

3- पारंपरिक जलस्रोत फिर से जिलाएँ।

4- बावड़ियों की गाद निकाले।

5-  खेत में जैविक खाद ही डालें।

6-  समुदाय मिलकर चले।

7-  श्रमदान से काम आगे बढ़े।

8-  हम शपथ लेते हैं-

(समूह शपथ लेने की मुद्रा में खड़ा होगा।)

समवेत- 

– पौधे लगाएँगे।

– पेड़ बढ़ाएँगे।

– जंगल न कटने देंगे।

– पहाड़ न मिटने देंगे।

– जैविक खेती करेंगे।

– नदी स्वच्छ रखेंगे।

– जल संरक्षण करेंगे।

– जल संचयन करेंगे।

– भूजल का स्तर बढ़ाएँगे।

– पानी की हर बूँद बचाएँगे।

( पहले जिसने चक्र घुमाया था, वही पात्र अब उलटी दिशा में चक्र को घुमाता है। )

9- हम अपनी शपथ को पूरा कर सके तो लौट आएगा वह समय…

1- समय जब हर तरफ हरियाली थी। पृथ्वी बादलों से ढकी थी। पहाड़ों पर बादलों से धाराएँ उतरती थीं। झरने धाराप्रवाह बहते थे। नदियाँ उफान मारती थीं। छोटे-बड़े प्राकृतिक जलाशय पानी भरकर रखने के लिए धरती के बारहमासी बर्तन थे।

2- ऐसे समय में हम गाएँगे, बजाएँगे, नाचेंगे- घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा।

(समूह बारिश में भीगने का अभिनय करता है।)

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।) 

©  संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 4 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 4 से आगे …

समवेत- बहता पानी रुकने लगा…सड़ने लगा… मछलियाँ और जलचर मरने लगे…आदमी का जीवन थमने लगा…दूषित जल से आदमी बीमार पड़ने लगा।

(कुछ पात्रों द्वारा समवेत वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा दर्शाया जाएगा।)

3- तन की बीमारी जल्दी ठीक हो सकती है, मन के इलाज में समय लगता है।

4- लालच और लापरवाही के रोगी आदमी ने अमूल्य पानी का मूल्य समझा ही नहीं।

5- पानी प्राकृतिक संसाधन है, इसे तैयार नहीं किया जा सकता।

6- इसे रिसाइकिल करना होता है।

7- जल के स्रोतों को रिचार्ज करना होता है।

8- धरती का तीन-चौथाई हिस्सा पानी से घिरा है।

9- पर उपलब्ध पानी का केवल एक प्रतिशत उपयोग के योग्य है।

10- इस एक प्रतिशत पर मनुष्य के अलावा वनस्पति, पशु, सिंचाई, उद्योग भी निर्भर हैं।

1- बारिश के माध्यम से प्रकृति का उपहार देती है।

2-पानी का समुचित संरक्षण हम नहीं कर पाते।

3- पानी का समुचित संचयन हम नहीं कर पाते।

4- बारिश का अधिकांश पानी नदी, नालों से होकर खारे समुद्र में जा मिलता है।

5- अच्छी बरसात के लिए चाहिए पहाड़ और जंगल।

6- आदमी ने काट दिए जंगल।

7- बादल रुकना बंद हो गए।

8- आदमी ने पाट दिए पहाड़।

9- बादल बरसना बंद हो गए।

10- आदमी ने सुखा डाले ताल तलैया।

1- बादल भी सूख गया भैया।

2- आदमी की लापरवाही बढ़ती गई।

3- बरसात लगातार घटती गई।

 

समवेत- आदमी ने काट दिए जंगल…बादल रुकना बंद हो गए…आदमी ने पाट दिए पहाड़… बादल बरसना बंद हो गए…आदमी ने सुखा डाले ताल तलैया…बादल भी सूख गया भैया …आदमी की लापरवाही बढ़ती गई… बरसात लगातार घटती गई…।

(समवेत वाक्यों पर कुछ पात्रों द्वारा मूक अभिनय किया जाएगा।)

4- घरों में पाइपलाइन से आने लगा पानी।

5- पानी के प्राकृतिक स्रोत उपेक्षा के शिकार हो चले।

6- जनसंख्या का विस्फोट बढ़ता गया।

7- भूजल का स्तर घटता गया।

8- कभी चक्र बनाया है..?

9- एक भी बिंदु ना हो तो चक खंडित हो जाता है।

10- आदमी ने जगह-जगह खंडित कर दिया जलचक्र।

समवेत- एक भी बिंदु ना हो तो चक्र खंडित हो जाता है…आदमी ने जगह-जगह खंडित कर दिया जलचक्र।

(उपरोक्त वाक्यों को कुछ पात्र मूक अभिनय से दर्शाएँगे।)

समवेत-

घटता जल, संकट में आज-संकट में कल। घटता जल, संकट में आज-संकट में कल।

10- याद रहे, जल है तो कल है।

समवेत- जल है तो कल है…जल है तो कल है।

क्रमशः  —— 5

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।) 

©  संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 7 – दादा साहब फाल्के….1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….1 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 7 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….1 ☆ 

धुंडिराज गोविन्द फाल्के उपाख्य दादासाहब फाल्के (30 अप्रेल 1870-16 फ़रवरी 1944) वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का ‘पितामह’ कहा जाता है। वे प्रथम पीढ़ी के फिल्म निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक थे।

दादासाहब फाल्के का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फाल्के है, उनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 25 किमी की दूरी पर स्थित ज्योतिर्लिंग की नगरी त्र्यंबकेश्वर में हुआ था। इनके पिता गोविंद सदाशिव फड़के मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में संस्कृत के प्रकांड पंडित और प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई लेकिन हिंदू शास्त्रों की शिक्षा उन्हें त्र्यंबकेश्वर मंदिर में मिली थी  जिसका प्रभाव पौराणिक फ़िल्मों के निर्माण में परिलक्षित हुआ। उन्होंने ईस्टर के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म “The Life of Christ” देखी जिसे फ़्रांस के ऐलिस गाई-ब्लचे ने बनाई थी। फिल्म देखने के दौरान ही फाल्के ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनाना है। उन्हें लगा कि रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों और पुराणों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी।

चलचित्र देखते समय दादासाहब के मस्तिष्क में प्रभु कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ छा रही थीं। उन्होंने सोचा कि चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को क्यों न चित्रित किया जाए। उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के अनुरूप वे प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले पहले व्यक्ति बने।

दादा साहब फाल्के, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से 1885 में प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता और शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। वे 1886 में बड़े भाई शिवराम पंत के साथ महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ कला भवन से पेंटिंग कोर्स करने बड़ौदा चले गए। वहीं से प्रिंटिंग, फ़ोटग्राफ़िक तकनीक और स्टूडीओ आर्किटेक्चर का कोर्स करके 1893 में बम्बई वापस पहुँच गए।

वे 1893 में मुंबई तो आ गए लेकिन जीविका का साधन नहीं जमा तो 1895 में गोधरा में फ़ोटो स्टूडीओ खोला वहाँ कारोबार नहीं जमा और 1900 में प्लेग महामारी में उन्होंने पत्नी और बच्चे को खो दिया। उन्होंने किर्लोसकर नाटक मंडली की माल्किन गिरिजा देवी से दूसरा विवाह किया और विवाह उपरांत उनका नाम सरस्वती रखा गया। 1901 में उन्होंने एक जर्मन से जादूगरी ट्रिक सीखकर रोज़ी कमाने लगे साथ में प्रिंटिंग और पर्दों का कारोबार किया। 1903 में सर्वे आफ इंडिया में नौकर हो  गए। 1906 में त्यागपत्र देकर लोनावाला में  फाल्के एंग्रेविंग एंड प्रिंटिंग वर्क्स नाम से आर.जी. भण्डारकर की साझेदारी से प्रिंटिंग प्रेस डाला। साझेदारी में झगड़े के कारण प्रिंटिंग प्रेस बंद हो  गई तो पुनः बम्बई का रुख़ किया।

उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था।

उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये, 40 साल बाद यही काम सत्यजित राय की पत्नी ने उनकी पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ बनाने के लिए किया था। अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त किया। उनके मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में कई फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। फ़िल्म को “अंकुर ची बाढ़” नाम से आसपास के लोगों को दिखायी। नारायण राव देवहारे नामक व्यक्ति फ़िल्म के लिए धन लगाने को तैयार हो गया।

उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बढ़ गई कि उन्होंने चलचित्र-निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र खींचना भी शुरु कर दिया। जब दादासाहब ने चलचित्र-निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे। वे वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरण खरीदे और  वापस मुम्बई आ गए। उन्होने दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। वे फ़िल्म निर्माण की पूरी प्रक्रिया समझने हेतु फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में उनकी मदद की तब जाकर 1913 में उनके अनथक प्रयासों से भारत की पहली फ़िल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ बनी।  चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य  व संवाद लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण वेश्या चरित्र को छोड़कर उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे। इस चलचित्र (फिल्म) के निर्माता, लेखक, इत्यादि सबकुछ दादासाहब ही थे। इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया। उन्होंने खुद स्क्रिप्ट लिखी और कलाकारों के लिए इंदूप्रकाश अख़बार में कलाकारों हेतु विज्ञापन दिया। दत्तात्रेय दामोदर दाबके ने राजा हरीशचंद्र, अन्ना सालुंखे ने तारामती और फाल्के के भतीजे ने रोहिताश्व की भूमिका निभाई। कैमरामैन त्र्यम्बक बी तेलंग थे।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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